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पितृमेध या अन्त्यकर्म या अंत्येष्टि या दाह संस्कार 16 हिन्दू धर्म संस्कारों में षोडश आर्थात् अंतिम संस्कार है। मृत्यु के पश्चात वेदमंत्रों के उच्चारण द्वारा किए जाने वाले इस संस्कार को दाह-संस्कार, श्मशानकर्म तथा अन्त्येष्टि-क्रिया आदि भी कहते हैं। इसमें मृत्यु के बाद शव को विधी पूर्वक अग्नि को समर्पित किया जाता है। यह प्रत्येक हिंदू के लिए आवश्यक है। केवल संन्यासी-महात्माओं के लिए—निरग्रि होने के कारण शरीर छूट जाने पर भूमिसमाधि या जलसमाधि आदि देने का विधान है। कहीं-कहीं संन्यासी का भी दाह-संस्कार किया जाता है और उसमें कोई दोष नहीं माना जाता है।[1]
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सामान्यत: मृत्यु विलक्षण एवं भयावह समझी जाती है, यद्यपि कुछ दार्शनिक मनोवृत्ति वाले व्यक्ति इसे मंगलप्रद एवं शरीररूपी बंदीगृह में बन्दी आत्मा की मुक्ति के रूप में ग्रहण करते रहे हैं। मृत्यु का भय बहुतों को होता है; किन्तु वह भय ऐसा नहीं है कि उस समय की अर्थात् मरण-काल की समय की सम्भावित पीड़ा से वे आक्रान्त होते हैं, प्रत्युत उनका भय उस रहस्य से है, जो मृत्यु के उपरान्त की घटनाओं से सम्बन्धित है तथा उनका भय उन भावनाओं से है, जिनका गम्भीर निर्देश जीवनोपरान्त सम्भावित एवं अचिन्त्य परिणामों के उपभोग की ओर है। सी.ई. वुल्लियामी ने अपने ग्रन्थ 'इम्मार्टल मैन'[2] में कहा है-यद्यपि (मृत्युपरान्त या प्रेत) जीवन के सम्बन्ध में अत्यन्त कठोर एवं भयानक कल्पनाओं से लेकर उच्च एवं सुन्दरतम कल्पनाएँ प्रकाशित की गयी हैं, तथापि तात्त्विक बात यही रही है कि शरीर मरता है न कि आत्मा।
अंग्रेज़ी शब्द ‘स्पिरिट’ एवं भारतीय शब्द आत्मा में धार्मिक एवं दार्शनिक दृष्टि से अर्थ-साम्य नहीं है। प्रथम शब्द जीवनोच्छ्वास का द्योतक है और दूसरे को भारतीय दर्शन में परमात्मा की अभिव्यक्ति का रूप दिया गया है। आत्मा अमर है, शरीर नाशवान्। गीता में आया भी है-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।।[3]
मृत्यु के विषय में आदिम काल से लेकर सभ्य अवस्था तक के लोगों में भाँति-भाँति की धारणाएँ रही हैं। कठोपनिषद[4] में आया है-'जब मनुष्य मरता है तो एक सन्देह उत्पन्न होता है, कुछ लोगों के मत से मृत्यूपरान्त जीवात्मा की सत्ता रहती है, किन्तु कुछ लोग ऐसा नहीं मानते हैं।' नचिकेता ने इस सन्देह को दूर करने के लिए यम से प्रार्थना की है। मृत्यूपरान्त जीवात्मा का अस्तित्व मानने वालों में कई प्रकार की धारणाएँ पायी जाती हैं।[5] कुछ लोगों का विश्वास है कि मृतों का एक लोक है, जहाँ मृत्यूपरान्त जो कुछ बच रहता है, वह जाता है। कुछ लोगों की धारणा है कि सुकृत्यों एवं दुष्कृत्यों के फलस्वरूप शरीर के अतिरिक्त प्राणी का विद्यमानांश क्रम से स्वर्ग एवं नरक में जाता है। कुछ लोग आवागमन एवं पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं।[6]
ब्रह्मपुराण[7] ने ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख किया है, जिन्हें मृत्यु सुखद एवं सरल प्रतीत होती है; न कि पीड़ाजनक एवं चिन्तायुक्त। वह कुछ यों है-'जो झूठ नहीं बोलता, जो मित्र या स्नेही के प्रति कृतघ्न नहीं है, जो आस्तिक है, जो देवपूजा परायण है और ब्राह्मणों का सम्मान करता है तथा जो किसी से ईर्ष्या नहीं करता-वह सुखद मृत्यु पाता है।' इसी प्रकार अनुशासनपर्व[8] ने विस्तार के साथ अकालमृत्यु एवं दीर्घ जीवन के कारणों का वर्णन किया है, वह कुछ यों है-नास्तिक, यज्ञ न करने वाले, गुरुओं एवं शास्त्रों की आज्ञा के उल्लंघनकर्ता, धर्म न जानने वाले एवं दुष्कर्मी लोग अल्पायु होते हैं। जो चरित्रवान् नहीं हैं, जो सदाचार के नियम तोड़ा करते हैं और जो कई प्रकार से सम्भोग क्रिया करते रहते हैं, वे अल्पायु होते हैं और नरक में जाते हैं। जो क्रोध नहीं करते, जो सत्यवादी होते हैं, जो किसी की हिंसा नहीं करते, जो किसी की ईर्ष्या नहीं करते और जो कपटी नहीं होते, वे शतायु होते हैं।[9]
बहुत से ग्रन्थ मृत्यु के आगमन के संकेतों का वर्णन करते हैं, यथा-शान्तिपर्व[10]), देवल[11], वायु पुराण[12], मार्कण्डेय पुराण[13], लिंग पुराण[14] आदि पुराणों में मृत्यु के आगमन के संकेतों या चिह्नों की लम्बी-लम्बी सूचियाँ मिलती हैं। स्थानाभाव से अधिक नहीं लिखा जा सकता, किन्तु उदाहरणार्थ कुछ बातें दी जा रही हैं।
शान्तिपर्व[15] के अनुसार जो अरुन्धती, ध्रुव तारा एवं पूर्ण चन्द्र तथा दूसरे की आंखों में अपनी छाया नहीं देख सकते, उनका जीवन बस एक वर्ष का होता है; जो चन्द्रमण्डल में छिद्र देखते हैं, वे केवल छ: मास के शेष जीवन वाले होते हैं; जो सूर्यमण्डल में छिद्र देखते हैं या पास की सुगन्धित वस्तुओं में शव की गन्ध पाते हैं, उनके जीवन के केवल सात दिन बचे रहते हैं। आसन्न मृत्यु के लक्षण ये हैं-कानों एवं नाक का झुक जाना, आंखों एवं दाँतों का रंग परिवर्तन हो जाना, संज्ञाशून्यता, शरीरोष्णता का अभाव, कपाल से धूम निकलना एवं अचानक बायीं आंख से पानी गिरना।
देवल ने 12, 11 या 10 मास से लेकर एक मास, 15 दिन या 2 दिनों तक की मृत्यु के लक्षणों का वर्णन किया है और कहा है कि जब अँगुलियों से बन्द करने पर कानों में स्वर की धमक नहीं ज्ञात होती या आंख में प्रकाश नहीं दिखता तो समझना चाहिए कि मृत्यु आने ही वाली है।
अन्तिम दो लक्षणों को वायुपुराण[16] एवं लिंगपुराण[17] ने सबसे बुरा माना है।[18] मुंशी हीरक जयन्ती ग्रन्थ[19] में डॉ॰ आर. जी. हर्षे ने कई ग्रन्थों के आधार पर लिखा है कि जब व्यक्ति स्वप्न में गधा देखता है तो उसका मरण निश्चित-सा है, जब वह स्वप्न में बूढ़ी कुमारी स्त्री देखता है तो भय, रोग एवं मृत्यु का लक्षण समझना चाहिए[20] या जब त्रिशूल देखता है तो मृत्यु परिलक्षित होती है।
भारत के अधिकांश भागों में ऐसी प्रथा है कि जब व्यक्ति मरणासन्न रहता है या जब वह अब-तब रहता है, तो लोग उसे खाट से उतारकर पृथिवी पर लिटा देते हैं। यह प्रथा यूरोप में भी है।[21]
दुर्बलीभवन्तं शालातृणेषु दर्भानास्तीर्य स्योनास्मै भवेत्यवरोहयति।
मन्त्रोक्तावनुमन्त्रयते। यत्ते कृष्णेत्यवदीपयति।।[25][26]
दुर्बलं स्नापयित्वा तु शुद्धचैलाभिसंवृतम्।
दक्षिणाशिरसं भूमौ बहिष्मत्यां निवेशयेत्।।[28]
आसन्नमृत्युना देया गौ: सवत्सा तु पूर्ववत्।
तदभावे तु गौरेव नरकोत्तरणाय च।।
तदा यदि न शक्नोति दातुं वैतरणीं तु गाम।
शक्तोऽन्योऽरुक् तदा दत्त्वा दद्याच्छ्रेयो मृतस्य च।।[31]
गरुड़पुराण[32] में आया है:-
नदीं वैतरणीं तर्तु दद्याद्वैतरणीं च गाम्।
कृष्णस्तनी सकृष्णांगी सा वै वैतरणी स्मृता।।
अर्थात; यम के द्वार पर वैतरणी नाम की नदी है, जो रक्त एवं पैने अस्त्रों से परिपूर्ण है; जो लोग मरते समय गौदान करते हैं, वे उस नदी को गाय की पूँछ पकड़कर पार कर जाते हैं। स्कन्दपुराण[33] जहाँ वैतरणी की चर्चा है:-
मृत्युकाले प्रचच्छन्ति ये धेनुं ब्राह्मणाय वै।
तस्या: पुच्छं समाश्रित्य ते तरन्ति च तां नृप।।
संक्षेप में व्रतोद्यापन यों है-पुत्र या सम्बन्धी मरणासन्न व्यक्ति को स्नान द्वारा या पवित्र जल से मार्जन करके या गंगा जल पिलाकर पवित्र करता है, स्वयं स्नानसन्ध्या से पवित्र हो लेता है, दीप जलाता है, गणेश एवं विष्णु की पूजा-वन्दना करता है, पूजा की सामग्री रखकर संकल्प करता है:-
अत्र पृथिव्यां जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तेकदेशे विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो द्वितीयपरार्वे...
...अमुकतियौ अमुकगोत्र...
...अमुकशमहिं ममात्मन: (मम पित्रादे:) व्रतग्रहणदिवसादारभ्य अद्य यावत्फलाभिलाषादिगृहीतानां निष्कामतया गृहीतानां च अमुकामुकव्रतानामकृतोद्यापनदोषपरिहारार्थ श्रुतिस्मृति-पुराणोक्ततत्तदव्रतजन्यसांगफलप्राप्त्यर्थ विष्ण्वादीनां तत्तद्देवानां प्रीपये इदं सुवर्णमग्निदैवतम् (तदभावे इदं रजतं चन्द्रदैवतम्) अमुकगोत्रायामुकशर्मण् ब्राह्मणाय दास्ये ओं तत्सत् न मम इति संकल्प...आदि-आदि।[36]
निमन्त्रित ब्राह्मण को सम्मानित करता है और पहले से संकल्पित सोना उसे देता है और ब्राह्मण घोषित करता है-'सभी व्रत पूर्ण हों। उद्यापन (व्रत-पूर्ति) के फल की प्राप्ति हो।' सर्वप्रायश्चित में पुत्र चार या तीन विद्वान ब्राह्मणों या एक आत्मज्ञानी ब्राह्मण को 6, 3 या डेढ़ वर्ष वाले प्रायश्चित्तों के निष्क्रिय रूप में सोना आदि का दान देता है और इसकी घोषणा करता है और वह अशौच के उपरान्त प्रायश्चित करता है। मरणासन्न व्यक्ति को या पुत्र या सम्बन्धी को सर्वप्रायश्चित करना पड़ता है। वह क्षीरकर्म करके स्नान करता है, पंचगव्य पीता है, चन्दनलेप एवं अन्य पदार्थों से एक ब्राह्मण को सम्मानित करता है, गोपूजा करके या उसके स्थान पर धन का दान करता है।
देशकालौ संकीर्त्य मम (मत्पत्रादेर्वां) ज्ञाताज्ञातकामाकामसकृदसकृत्कायिकवाचिकमानसिकतांसर्गिक-स्पृष्टास्पृष्ट-भुक्ताभुक्त-पीतापीतसकलपातकानुपातकोपपातकलघुपातकसंकरीकरणमलिनीकरणपात्री- करणजातिभ्रंशकरप्रकीर्णकादिनानाविधपातकानां निरासेन देहावसानकाले देहशुद्धिद्वारा श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थमिमां सर्वप्रायश्चित्तप्रत्याम्नायभूतां यथाशक्त्यलंकृतां सवत्सां गां रुद्रदेवताममुकगोत्रायामुकशर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं संप्रददे ओं तत्सत् न मम।[37]
सर्वप्रायश्चित के उपरान्त दश-दान होते हैं। गरुड़पुराण[38] ने महादान संज्ञक अन्य दानों की व्यवस्था दी है, यथा-तिल, लोहा, सोना, रूई, नमक, सात प्रकार के अन्न, भूमि, गौ; कुछ अन्य दान भी हैं, यथा-छाता, चन्दन, अँगूठी, जलपात्र, आसन, भोजन, जिन्हें पददान कहा जाता है। गरुड़पुराण[39] के मत से यदि मरणासन्न व्यक्ति आतुर-संन्यास नियमों के अनुसार संन्यास ग्रहण कर लेता है, तो वह आवागमन (जन्म-मरण) से छुटकारा पा जाता है। आदिकाल से ही ऐसा विश्वास रहा है कि मरते समय व्यक्ति जो विचार रखता है, उसी के अनुसार दैहिक जीवन के उपरान्त उसका जीवात्मा आक्रान्त होता है (अन्ते या मति: सा गति:), अत: मृत्यु के समय व्यक्ति को सांसारिक मोह-माया छोड़कर हरि या शिव का स्मरण करना चाहिए और मन ही मन 'ऊँ नमो वासुदेवाय' का जप करना चाहिए।[40] बहुत से वचनों के अनुसार उसे वैदिक पाठ सुनाना चाहिए।[41]
हिरण्यकेशिपितृमेधसूत्र[42] के मत से आहिताग्नि के मरते समय पुत्र या सम्बन्धी को उसके कान में (जब वह ब्रह्मज्ञानी हो) तैत्तिरीयोपनिषद के दो अनुवाक (2|1 एवं 3|1) कहने चाहिए। अन्त्यकर्मदीपक[43] का कथन है कि जब मरणासन्न व्यक्ति जप न कर सके तो उसे विष्णु या शिव का रमणीय रूप मन में धारण कर विष्णु या शिव के सहस्र नाम सुनने चाहिए और भगवद्गीता, भागवत, रामायण, ईशावास्य आदि उपनिषदों एवं सामवेदीय मन्त्रों का पाठ सुनना चाहिए।
जपेऽसमर्थश्चेद हृदये चतुर्भुजं शंखचक्रगदापद्मधरं पीताम्बरकिरीटकेयूरकौस्तुभवनमालाधरं रमणीयरूपं विष्णुं त्रिशूलडमरुधरं त्रिनेत्रं गंगाधरं शिवं वा भावयन् सहस्रनामगीताभागवतभारतरामायणेशावास्याद्युपनिषद: पावमानादीनि सूक्तानि च यथासम्भवं शृणुयात्।[44][45]
उपनिषदों में भी मरणासन्न व्यक्ति की भावनाओं के विषय में संकेत मिलते हैं। छान्दोग्योपनिषद[46] में आया है-'सभी ब्रह्म है। व्यक्ति को आदि, अन्त एवं इसी स्थिति के रूप में इसका (ब्रह्म का) ध्यान करना चाहिए। इसी की इच्छा की सृष्टि मनुष्य है। इस विश्व में उसकी जो इच्छा (या भावना) होगी, उसी के अनुसार वह इहलोक से जाने के उपरान्त होगा।
सर्वखल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीताथ खलु क्रतुमय: पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेत: प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत।[47]
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:।।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावित:।।[48]
इसी प्रकार की भावना प्रश्नोपनिषद[49] में भी पायी जाती है। वहाँ ऐसा आया है कि विचार-शक्ति आत्मा को उच्चतर उठाती जाती है, जिससे मनुष्य-मन को ऐसा परिज्ञान होना चाहिए कि अखिल ब्रह्माण्ड में जितने भौतिक पदार्थ या अभिव्यक्तियाँ हैं, वे सब एक हैं और उनमें एक ही विभु रूप समाया हुआ है। भगवद्गीता ने यही भावना और अधिक स्पष्ट रूप से व्यक्त की है-'वह व्यक्ति, जो अन्तकाल में मुझे स्मरण करता हुआ इस जीवन से विदा होता है, वह मेरे पास आता है, इसमें संशय नहीं है'।[50] किन्तु एक बात स्मरणीय यह है कि अन्तकाल में ही केवल भगवान का स्मरण करने से कुछ न होगा, जब जीवन भर आत्मा ऐसी भावना से अभिभूत रहता है, तभी भगवत्प्राप्ति होती है। ऐसा कहा गया है-'व्यक्ति मृत्यु के समय जो भी रूप (या वस्तु) सोचता है, उसी को वह प्राप्त होता है और यह तभी सम्भव है, जबकि वह जीवन भर ऐसा करता आया हो।'[51]
पुराणों के आधार पर कुछ निबन्धों का ऐसा कथन है कि अन्तकाल उपस्थित होने पर व्यक्ति को, यदि सम्भव हो तो, किसी तीर्थ-स्थान (यथा गंगा) में ले जाना चाहिए। शुद्धितत्त्व[52] ने कूर्मपुराण को उद्धृत किया है-'गंगा के जल में, वाराणसी के स्थल या जल में, गंगासागर में या उसकी भूमि, जल या अन्तरिक्ष में मरने से व्यक्ति मोक्ष (संसार से अन्तिम छुटकारा) पाता है।' इसी अर्थ में स्कन्दपुराण में आया है-'गंगा के तटों से एक गव्यूति (दो कोस) तक क्षेत्र (पवित्र स्थान) होता है, इतनी दूर तक दान, जप एवं होम करने से गंगा का ही फल प्राप्त होता है; जो इस क्षेत्र में मरता है, वह स्वर्ग जाता है और पुन: जन्म नहीं पाता'।[53] पूजारत्नाकर में आया है-'जहाँ जहाँ शालग्रामशिला होती है, वहाँ हरि का निवास रहता है; जो शालग्रामशिला के पास मरता है, वह हरि का परमपद प्राप्त करता है।' ऐसा भी कहा गया है कि यदि कोई अनार्य देश (कीकट) में भी शालग्राम से एक कोस की दूरी पर मरता है, वह वैकुण्ठ (विष्णुलोक) पाता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति तुलसी के वन में मरता है या मरते समय जिसके मुख में तुलसीदल रहता है, वह करोड़ों पाप करने पर भी मोक्षपद प्राप्त करता है। इस प्रकार की भावनाएँ आज भी लोकप्रसिद्ध हैं।
कूर्मपुराणम्- गंगायां च जले मोक्षो वाराणस्यां जले स्थले।
जले स्थले चान्तरिक्षे गंगासागरसंगमे।।
स्कन्दे- तीराद् गव्यूतिमात्रं तु परित: क्षेत्रमुच्यते।
अत्र दानं जपो होमो गंगायां नात्र संशय:।।
अत्रस्थास्त्रिदिवं यान्ति ये मृता न पुनर्भवा:।[54]
पूजारत्नाकरे- शालग्रामशिला यत्र तत्र संनिहितो हरि:।
तत्सन्निघौ त्यजेत् प्राणान् याति विष्णो: परं पदम्।।
लिंगपुराणे-शालग्रामसमीपे तु क्रोशमात्रं समन्तत:।
कीकटेपि मृतो याति वैकुण्ठभवनं नर:।।
वैष्णवामृते व्यास-तुलसीकानने जन्तोर्यदि मृत्युर्भवेत् क्वचित्।
स निर्भर्त्स्य नरं पापी लीलयैव हरिं विशेत्।।
प्रयाणकाले यस्यास्ये दीयते तुलसीदलम्।
निर्वाणं याति पक्षीन्द्र पापकोटियृतोपि स:।।[55]
कीकट मगध देश का नाम है, जिसे ऋग्वेद[56] में आर्यधर्म से बाहर की भूमि कहा गया है। और देखिए निरुक्त[57] जहाँ कीकट देश को अनार्य निवास कहा गया है। शुद्धिप्रकाश ‘कीकटेपि’ के स्थान पर ‘कीटकोऽपि’ लिखता है जो अधिक समीचीन है, किन्तु यह संशोधन भी हो सकता है।
मृत्यु के उत्तम काल के विषय में भी कुछ धारणाएँ हैं। शान्तिपर्व[58] में आया है- 'जो व्यक्ति सूर्य के उत्तर दिशा में जाने पर (उत्तरायण होने पर) मरता है या किसी अन्य शुभ नक्षत्र एवं मुहूर्त में मरता है, वह सचमुच पुण्यवान है।' यह भावना उपनिषदों में व्यक्त उत्तरायण एवं दक्षिणायन में मरने की धारणा पर आधारित है। छान्दोग्योपनिषद[59] में आया है- 'अब (यदि यह आत्मज्ञानी व्यक्ति मरता है) चाहे लोग उसकी अन्त्येष्टि क्रिया (श्राद्ध आदि) करें या न करें, वह अर्चि: अर्थात् प्रकाश को प्राप्त होता है, प्रकाश से दिन, दिन से चन्द्र के अर्ध प्रकाश (शुक्ल पक्ष), उससे उत्तरायण के छ: मास, उससे वर्ष, वर्ष से सूर्य, सूर्य से चन्द्र, चन्द्र से विद्युत को प्राप्त होता है। अमानव उसे ब्रह्म की ओर ले जाता है। यह देवों का मार्ग है; वह मार्ग, जिससे ब्रह्म की प्राप्ति होती है। जो लोग इस मार्ग से जाते हैं, वे मानव जीवन में पुन: नहीं लौटते। हाँ, वे नहीं लौटते।' ऐसी ही बात छान्दोग्योपनिषद[60] में आयी है, जहाँ कहा गया है कि पंचाग्नि-विद्या जानने वाले गृहस्थ तथा विश्वास (श्रद्धा) एवं तप करने वाले वानप्रस्थ एवं परिव्राजक (जो अभी ब्रह्म को नहीं जानते) भी देवयान (देवमार्ग) से जाते हैं। और जो लोग ग्रामवासी हैं,[61] यज्ञपरायण हैं, दान-दक्षिणायुक्त हैं, धूम को जाते हैं, वे धूम से रात्रि, रात्रि से चन्द्र के अर्ध अंधकार (कृष्ण पक्ष) में, उससे दक्षिणायन के छ: मास, उससे पितृलोक, उससे आकाश एवं चन्द्र को जाते हैं, जहाँ वे कर्मफल पाते हैं और पुन: उसी मार्ग से लौट आते हैं। छान्दोग्योपनिषद[62] ने एक तीसरे स्थान की ओर संकेत किया है, जहाँ कीट-पतंग आदि लगातार आते-जाते रहते हैं।
बृहदारण्यकोपनिषद[63] ने भी देवलोग, पितृलोक एवं उस लोक का उल्लेख किया है, जहाँ कीट, पतंग आदि जाते हैं। भगवद्गीता[64] ने भी उपनिषदों के इन वचनों को सूक्ष्म रूप में कहा है-मैं उन कालों का वर्णन करूँगा, जब कि भक्तगण कभी न लौटने के लिए इस विश्व से विदा होते हैं। अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण सूर्य के छ:; जब ब्रह्मज्ञानी इन कालों में मरते हैं, तो ब्रह्मलोक जाते हैं। धूम, रात्रि, कृष्ण पक्ष, दक्षिणायन सूर्य के छ: मासों में मरने वाले भक्तगण चन्द्रलोक में जाते हैं और पुन: लौट आते हैं। इस विषय में ये दो मार्ग, जो प्रकाशमान एवं अंधकारमय हैं, सनातन हैं। एक से जाने वाला कभी नहीं लौटता, किन्तु दूसरे से आने वाला लौट आता है। वेदान्तसूत्र[65] ने 'प्रकाश', 'दिन' आदि शब्दों को यथाश्रुत शाब्दिक अर्थ में लेने को नहीं कहा है; अर्थात् उसके मत से ये मार्गों के लक्षण या स्तर नहीं हैं, प्रत्युत ये उन देवताओं के प्रतीक हैं, जो मृतात्माओं को सहायता देते हैं और देवलोक एवं पितृलोक के मार्गों में उन्हें ले जाते हैं, अर्थात् वे आतिवाहिक एवं अभिमानी देवता हैं। शंकर ने वेदान्तसूत्र[66] की व्याख्या में बताया है कि जब भीष्म ने उत्तरायण की बाट जोही तो इससे यही समझना चाहिए कि वहाँ अर्चिरादि की प्रशस्ति मात्र है-जो ब्रह्मज्ञानी है, वह यदि दक्षिणायन में मर जाता है तो भी वह अपने ज्ञान का फल पाता है, अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त करता है। जब भीष्म ने उत्तरायण की बाट जोही तो ऐसा करके उन्होंने केवल लोकप्रसिद्ध प्रयोग या आचरण को मान्यता दी और उन्होंने यह भी प्रकट किया कि उनमें यह शक्ति भी थी कि वे अपनी इच्छाशक्ति से ही मर सकते हैं, क्योंकि उनके पिता ने उन्हें ऐसा वर दे रखा था।[67] शंकर एवं वेदान्तसूत्र के वचनों के रहते हुए भी लोकप्रसिद्ध बात यही रही है कि उत्तरायण में मरना उत्तम है।[68]
अन्त्येष्टि एक संस्कार है। यह द्विजों द्वारा किये जाने वाले सोलह या इससे भी अधिक संस्कारों में एक है और मनु[69], याज्ञवल्क्यस्मृति[70] एवं जातुकर्ण्य[71] के मत से यह वैदिक मन्त्रों के साथ किया जाता है।[72] ये संस्कार पहले स्त्रियों के लिए भी[73] होते थे, किन्तु बिना वैदिक मन्त्रों के (किन्तु विवाह संस्कार में वैदिक मन्त्रोंच्चारण होता है) और शूद्रों के लिए[74] भी बिना वैदिक मन्त्रों के। बौधायन पितृमेधसूत्र[75] का कथन है कि प्रत्येक मानव के लिए दो संस्कार ऋण-स्वरूप हैं (अर्थात् उनका सम्पादन अनिवार्य है) और वे हैं, जन्म संस्कार एवं मृतक संस्कार। दाह संस्कार तथा श्राद्ध आदि आहिताग्नि[76] एवं स्मार्ताग्नि[77] के लिए भिन्न-भिन्न रीतियों से होते हैं, तथा उन लोगों के लिए भी जो श्रौत या स्मार्त कोई अग्नि नहीं रखते। जो स्त्री है, बच्चा है, परिव्राजक है, जो दूर देश में मरता है, जो अकाल मृत्यु पाता है या आत्महत्या करता है या दुर्घटनावश मर जाता है; उनके लिए अन्त्येष्टि-कृत्य भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। एक ही विषय की कृत्य-विधियों में श्रौतसूत्र एवं गृह्यसूत्र विभिन्न बातें कहते हैं और आगे चलकर मध्य एवं पश्चात्यकालीन युगों युगों में विधियाँ और भी विस्तृत होती चली गयी हैं। निर्णयसिन्धु[78] ने स्पष्ट कहा है कि, अन्त्येष्टि प्रत्येक शाखा में भिन्न रूप से उल्लिखित है, किन्तु कुछ बातें सभी शाखाओं में एक-सी हैं।[79] अन्त्य-कर्मों के विस्तार, अभाव एवं उपस्थिति के आधार पर सूत्रों, स्मृतियों, पुराणों एवं निबन्धों के काल-क्रम-सम्बन्धी निष्कर्ष निकाले गये हैं,[80] किन्तु ये निष्कर्ष बहुधा अनुमानों एवं वैयक्तिक भावनाओं पर ही आधारित हैं।
श्रौतसूत्रों, गृह्यसूत्रों एवं पश्चात्कालीन ग्रन्थों में उल्लिखित अन्त्य कर्मों को उपस्थित करने के पूर्व ऋग्वेद के पाँच सूक्तों[81] का अनुवाद इस प्रकार है। इन सूक्तों की ऋचाएँ (मन्त्र) बहुधा सभी सूत्रों द्वारा प्रयुक्त हुई हैं और उनका प्रयोग आज भी अन्त्येष्टि के समय होता है और उनमें अधिकांश वैदिक संहिताओं में भी पायी जाती हैं। भारतीय एवं पाश्चात्य टीकाकारों ने इन मन्त्रों की टीका एवं व्याख्या विभिन्न प्रकार से की है।[82]
ऋग्वेद[83] में प्रथम सूक्त का वर्णन इस प्रकार है-
ऋग्वेद[89] में द्वितीय सूक्त का वर्णन इस प्रकार है-
ऋग्वेद[90] में तृतीय सूक्त का वर्णन इस प्रकार है-
ऋग्वेद[93] में चतुर्थ सूक्त का वर्णन इस प्रकार है- इस सूक्त के तीन से लेकर छ: तक के मन्त्रों को छोड़कर अन्य मन्त्र अन्त्येष्टि पर प्रकाश नहीं डालते, अत: हम केवल चार मन्त्रों को ही अनूदित करेंगे।
1, 2. प्रथम दो मन्त्र त्वष्टा की कन्या एवं विवस्वान् के विवार एवं विवस्वान् से उत्पन्न यम एवं यमी के जन्म की ओर संकेत करते हैं। निरुक्त[94] में दोनों की व्याख्या विस्तार से दी हुई है। सरस्वती की स्तुति वाले मन्त्र (7-9) अथर्ववेद[95] में भी पाये जाते हैं। और कौशिकसूत्र[96] में उन्हें अथर्ववेद[97] के साथ अन्त्येष्टि कृत्य के लिए प्रयुक्त किया गया है।
3. "सर्वविज्ञ पूषा, जो पशुओं को नष्ट नहीं होने देता और विश्व की रक्षा करता है, तुम्हें इस लोक से (दूसरे लोक में) भेजे। वह तुम्हें इन पितरों के अधीन कर दे और अग्नि तुम्हें जानने वाले देवों के अधीन कर दे।
4. वह पूषा जो इस विश्व का जीवन है, जो स्वयं जीवन है, तुम्हारी रक्षा करे। वे लोग जो तुमसे आगे गये हैं (स्वर्ग के) मार्ग में तुम्हारी रक्षा करें। सविता देव तुम्हें वहाँ प्रतिष्ठापित करे, जहाँ सुन्दर कर्म करने वाले जाकर निवास करते हैं।
5. पूषा इन सभी दिशाओं को क्रम से जानता है। वह हमें उस मार्ग से ले चले, जो भय से रहित है। वह समृद्धिदाता है, प्रकाशमान है, उसके साथ सभी शूरवीर हैं; वह विज्ञ हमारे आगे बिना किसी त्रुटि के बढ़े।
6. पूषा (पितृलोक में जाने वाले) मार्गों के सम्मुख स्थित है, वह स्वर्ग को जाने वाले मार्गों और पृथिवी के मार्गों पर खड़ा है। हमको प्रिय लगने वाला वह दोनों लोकों के सम्मुख खड़ा है और वह विज्ञ दोनों लोकों में आता-जाता रहता है।"
ऋग्वेद[98] में पंचम सूक्त का वर्णन इस प्रकार है-
यह अवलोकनीय है कि 'पितृ-यज्ञ' शब्द ऋग्वेद[99] में आया है। इसका क्या तात्पर्य है? हमें यह स्मरण रखना है कि ऋग्वेद[100] की ऋचाएँ किसी एक व्यक्ति के मरने के उपरान्त के कृत्यों की ओर संकेत करती है। उनका सम्बन्ध पूर्वपुरुषों की श्राद्ध-क्रियाओं से नहीं है। पूर्वपुरुषों से, जिन्हें बर्हिषद: एवं अग्निष्वात्तात्[101] कहा गया है, तुरन्त के मृतात्मा के प्रति स्नेह प्रदर्शित करने के लिए उत्सुकता अवश्य प्रकट की गयी है। पूर्वपुरुषों को 'हवि:' दिया गया है और वे उसे ग्रहण करते हैं, ऐसा प्रदर्शित किया गया है।[102] तैत्तिरीय संहिता[103] में दिये गये मन्त्रों के उद्देश्य[104] से उपर्युक्त ऋग्वेदीय मन्त्रों का उद्देश्य पृथक है। यह बात ठीक है कि तैत्तिरीय संहिता[105] के तीन मन्त्र ऋग्वेद[106] के हैं और वे पिण्ड-पितृयज्ञ में प्रयुक्त होते हैं। किन्तु यह कहने के लिए कोई तर्क नहीं है कि ऋग्वेद[107] का 'पितृयज्ञ', पिण्ड-पितृयज्ञ से अधिक प्राचीन है। यह सम्भव है कि ये दोनों विभिन्न बातों की ओर संकेत करते हुए समकालिक प्रचलन के ही द्योतक हों।
सोमयज्ञ या सत्र के लिए दीक्षित व्यक्ति के (यज्ञ-समाप्ति के पूर्व ही) मर जाने पर जो कृत्य होते थे, उनका वर्णन आश्वलायन श्रौतसूत्र[108] में हुआ है। इसमें आया है-"जब दीक्षित मर जाता है, तो उसके शरीर को वे तीर्थ से ले जाते हैं, उसे उस स्थान पर रखते हैं, जहाँ अवभृथ[109] होने वाला था और उसे उन अलंकरणों से सजाते हैं, जो बहुधा शव पर रखे जाते हैं। वे शव के सिर, चेहरे एवं शरीर के बाल और नख काटते हैं। वे नलद (जटामांसी) का लेप लगाते हैं और शव पर नलदों का हार चढ़ाते हैं। कुछ लोग अँतड़ियों को काटकर उनसे मल निकाल देते हैं और उनमें पृषदाज्य (मिश्रित घृत एवं दही) भर देते हैं। वे शव के पाँव के बराबर नवीन वस्त्र का एक टुकड़ा काट लेते हैं और उससे शव को इस प्रकार ढँक देते हैं कि अंचल पश्चिम दिशा में पड़ जाता है (शव पूर्व में रखा रहता है) और शव के पाँव खुले रहते हैं। कपड़े के टुकड़े का भाव पुत्र आदि ले लेते हैं।
शव के वस्त्र को 'शव वस्त्रम्' या 'शव आच्छादनम्' कहते हैं जिसे बोलचाल की भाषा में 'कफ़न' (अरबी भाषा) कहते हैं।
मृत की श्रौत अग्नियाँ अरणियों पर रखी रहती हैं, शव को वेदि से बाहर लाया जाता है और दक्षिण की ओर ले जाते हैं, घर्षण से अग्नि उत्पन्न की जाती है और उसी में शव जला दिया जाता है। श्मशान से लौटने पर उन्हें दिन का कार्य समाप्त करना चाहिए। दूसरे दिन प्रात: शस्त्रों का पाठ, स्तोत्रों का गायन एवं सस्तवों (समवेत रूप में मन्त्रपाठ) का गायन बिना दुहराये एवं बिना 'हिम्' स्वर उच्चारित किये होता है। उसी दिन पुरोहित लोग ग्रहों (प्यालों) को लेने के पूर्व तीर्थों से आते हैं, दाहिने हाथ को ऊँचा करके श्मशान की परिक्रमा करते हैं और निम्न प्रकार से उसके चतुर्दिक बैठ जाते हैं; होता श्मशान के पश्चिम में, अध्वर्यु उत्तर में, अद्गाता अध्वर्यु के पश्चिम और ब्रह्मा दक्षिण में। इसके उपरान्त धीमे स्वर में 'आयं गौ: पृश्निरक्रमीत्' से आरम्भ होने वाला मन्त्र गाते हैं। गायन समाप्त होने के उपरान्त होता अपने बायें हाथ को श्मशान की ओर करके श्मशान की तीन परिक्रमा करता है और बिना 'ओम' का उच्चारण किये उद्गाता के गायन तुरंत पश्चात् धीमें स्वर में स्तोत्रिय का पाठ करता है और निम्न मन्त्रों को, जो यम एवं याम्यायनों (ऋषियों या प्रणेताओं) के मन्त्र हैं, कहता है; यथा-ऋग्वेद।[110]उन्हें ऋग्वेद[111] के साथ समाप्त करना चाहिए और इसके उपरान्त किसी घड़े में अस्थियाँ एकत्र करनी चाहिए, घड़े को तीर्थ की तरफ़ से ले जाना चाहिए और उस आसन पर रखना चाहिए, जहाँ मृत यजमान बैठता था।[112]
शांखायन श्रौतसूत्र[113] ने आहिताग्नि की अन्त्येष्टि-क्रिया के विषय में विस्तार के साथ लिखा है। कात्यायन श्रौतसूत्र[114] ने यही बातें संक्षेप में कही है। कात्यायन श्रौतसूत्र[115] ने केश एवं नख काटने एवं मल पदार्थ निकाल देने की चर्चा की है। कौशिकसूत्र[116] एवं शांखायन श्रौतसूत्र[117] ने भी इन सब बातों की ओर संकेत किया है और इतना जोड़ दिया है कि यदि वे दाहिनी ओर से अँतड़ियाँ काटकर निकालते हैं, तो उन्हें पुन: दर्भ से सी देते हैं या वे केवल शरीर को स्नान करा देते हैं (बिना मल स्वच्छ किये), उसे वस्त्र से ढँक देते हैं, सँवारते हैं, आसन्दी पर, जिस पर काला मृगचर्म[118] बिछा रहता है, रख देते हैं, उस पर नलद की माला रख देते हैं,[119] और उसे नवीन वस्त्र से ढँक देते हैं।[120] सत्याषाढ श्रौतसूत्र[121] एवं गौतमपितृमेधसूत्र[122] में भी ऐसी बातें दी हुई हैं और यह भी है कि शव के हाथ एवं पैर के अँगूठे श्वेत सूत्रों या वस्त्र के अंचल भाग से बाँध दिये जाते हैं और आसन्दी[123] उदुम्बर लकड़ी की बनी होती है। कौशिकसूत्र[124] ने अथर्ववेद के बहुत-से मन्त्रों का उल्लेख किया है, जो चिता जलाने पर एवं हवि देते समय कहे जाते हैं।[125]
शतपथ ब्राह्मण[126] का कथन है कि पत्थर एवं मिट्टी के बने यज्ञ-पात्र किसी ब्राह्मण को दान दे देने चाहिए, किन्तु लोग मिट्टी के पात्रों को शववाहन समझते हैं, अत: उन्हें जल में फेंक देना चाहिए। अनुस्तरणी (बकरी या गाय) की वपा (वसा या चर्बी) निकालकर उससे (अन्त्येष्टि क्रिया करने वाले द्वारा) मृत के मुख एवं सिर को ढँक देना चाहिए और ऐसा करते समय 'अग्नेर्वर्म'[127] का पाठ करना चाहिए। पशु के दोनों वृक्क निकालकर मृत के हाथों में रख देने चाहिए-दाहिना वृक्क दाहिने हाथ में और बायाँ बायें हाथ में-और 'अतिद्रव'[128] का केवल एक बार पाठ करना चाहिए। वह पशु के हृदय को शव के हृदय पर रखता है, कुछ लोगों के मत से भात या जौ के आटे के दो पिण्ड भी रखता है।
कात्यायन श्रौतसूत्र के अनुसार अनुस्तरणी पशु को कान के पास घायल करके मारा जाता है। जातूकर्ण्य के मत से शव के विभिन्न भागों पर पशु के उन्हीं भागों के अंग रखे जाते हैं। किन्तु कात्यायन इसे नहीं मानते, क्योंकि ऐसा करने पर जलाने के पश्चात् अस्थियों को एकत्र करते समय पशु की अस्थियाँ भी एकत्र हो जायेंगी, अत: उनके मत से केवल मांस भाग ही शव के अंगों में लगाना चाहिए। शतपथ ब्राह्मण[129] आश्वलायनगृह्यसूत्र[130] ने कहा है कि पशु का प्रयोग विकल्प से होता है,[131] अर्थात् या तो पशु काटा जा सकता है या छोड़ दिया जा सकता है या किसी ब्राह्मण को दे दिया जा सकता है[132]। शांखायनश्रौतसूत्र[133] का कथन है कि मारे गये या जीवित पशु के दोनों वृक्क पीछे से निकालकर दक्षिण अग्नि में थोड़ा गर्म करके मृत के दोनों हाथों में रख देने चाहिए और 'अतिद्रव'[134] का पाठ करना चाहिए। शव के अंगों पर पशु के वही अंग काट-काटकर रख देता है और पुन: उसकी खाल से शव को ढँककर प्रणीता के जल को आगे ले जाते समय वह (अन्त्येष्टि कर्म करने वाला) 'इमम् अग्ने'[135] का आह्वान के रूप में पाठ करता है। अपना बायाँ घुटना मोड़कर वह दक्षिण-अग्नि में घृत की चार आहुति यह कहकर डालता है-'अग्नि को स्वाहा! सोम को स्वाहा! लोक को स्वाहा! अनुमति को स्वाहा!' पाँचवीं आहुति शव की छाती पर यह कहकर दी जाती है, 'जहाँ से तू उत्पन्न हुआ है! वह तुझसे उत्पन्न हो, न न। स्वर्गलोक को स्वाहा'।[136]
इसके उपरान्त आश्वलायन गृह्यसूत्र[137] यह बताता है कि यदि आहवनीय अग्नि या गार्हपत्य या दक्षिण अग्नि शव के पास प्रथम पहुँचती है या सभी अग्नियाँ एक साथ ही शव के पास पहुँचती हैं, तो क्या समझना चाहिए; और जब शव जलता रहता है तो वह उस पर मन्त्रपाठ करता है।[138] जो व्यक्ति यह सब जानता है, उसके द्वारा जलाये जाने पर धूम के साथ मृत व्यक्ति स्वर्गलोक जाता है, ऐसा ही (श्रुति से) ज्ञात है। 'इमे जीवा:'[139] के पाठ के उपरान्त सभी (सम्बन्धी) लोग दाहिने से बायें घूमकर बिना पीछे देखे चल देते हैं। वे किसी स्थिर जल के स्थल पर जाते हैं और उसमें एक बार डुबकी लेकर और दोनों हाथों को ऊपर करके मृत का गौत्र, नाम उच्चारित करते हैं, बाहर आते हैं, दूसरा वस्त्र पहनते हैं, एक बार पहने हुए वस्त्र को निचोड़ते हैं और अपने कुरतों के साथ उन्हें उत्तर की ओर दूर रखकर वे तारों के उदय होने तक बैठे रहते हैं या सूर्यास्त का एक अंश दिखाई देता है तो वे घर लौट आते हैं, छोटे लोग पहले और बूढे लोग अन्त में प्रवेश करते हैं। घर लौटने पर वे पत्थर, अग्नि, गोबर, भुने जौ, तिल एवं जल स्पर्श करते हैं। और[140] जहाँ अन्य कृत्य भी दिये गये हैं, यथा स्नान करना, जल-तर्पण करना, बैल को छूना, आंख में अंजन लगाना तथा शरीर में अंगराग लगाना।
शतपथ ब्राह्मण[141] एवं पारस्कर गृह्यसूत्र[142] ने स्पष्ट लिखा है कि जिसका उपनयन संस्कार हो चुका है, उसकी अन्त्येष्टि क्रिया उसी प्रकार की जाती है, जिस प्रकार श्रौत अग्निहोत्र करने वाले व्यक्ति की, अन्तर केवल इतना होता है कि आहिताग्नि तीनों वैदिक अग्नियों के साथ जला दिया जाता है, जिसके पास केवल स्मार्त अग्नि या औपासन अग्नि होती है, वह उसके साथ जला दिया जाता है और साधारण लोगों का शव केवल साधारण अग्नि से जलाया जाता है। देवल का कथन है कि साधारण अग्नि के प्रयोग में चाण्डाल की अग्नि या अशुद्ध अग्नि या सूतकगृह-अग्नि या पतित के घर की अग्नि या चिता की अग्नि का व्यवहार नहीं करना चाहिए। पितदयिता के मत से जिसने अग्निहोत्र न किया हो, उसके लिए 'अस्मात् त्वम् आदि' मन्त्र का पाठ नहीं करना चाहिए। पारस्कर गृह्यसूत्र ने व्यवस्था दी है कि एक ही गाँव के रहने वाले सम्बन्धी एक ही प्रकार का कृत्य करते हैं, वे एक ही वस्त्र धारण करते हैं, यज्ञोपवीत को दाहिने कंधे से लटकाते हैं और बायें हाथ की चौथी अँगुली से वाजसनेयी संहिता[143] के साथ जल तर्पण करते हैं तथा दक्षिणाभिमुख होकर जल में डुबकी लेते हैं और अंजलि से एक बार जल तर्पण करते हैं।
आपस्तम्ब धर्मसूत्र[144] का कथन है कि जब किसी व्यक्ति की माता या पिता की सातवीं पीढ़ी के सम्बन्धी या जहाँ तक वंशावली ज्ञात हो, वहाँ तक के व्यक्ति मरते हैं, तो एक वर्ष से छोटे बच्चों को छोड़कर सभी लोगों को स्नान करना चाहिए। जब एक वर्ष से कम अवस्था वाला बच्चा मरता है तो माता-पिता एवं उनको जो बच्चे का शव ढोते हैं, स्नान करना चाहिए। उपर्युक्त सभी लोगों को बाल नहीं सँवारने चाहिए, बालों से धूल हटा देनी चाहिए, एक ही वस्त्र धारण करना चाहिए, दक्षिणाभिमुख होना चाहिए, पानी में डुबकी लगानी चाहिए, मृत को तीन बार जल तर्पण करना चाहिए और नदी या जलाशय के पास बैठ जाना चाहिए। इसके पश्चात् गाँव को लौट जाना चाहिए तथा स्त्रियाँ जो कुछ कहें उसे करना चाहिए।[145] याज्ञवल्क्यस्मृति[146] ने भी ऐसे नियम दिये हैं और 'अप न: शोशुचद् अघम्'[147] के पाठ की व्यवस्था दी है।
गौतमपितृमेधसूत्र[148] के मत से चिता का निर्माण यज्ञिय वृक्ष की लकड़ी से करना चाहिए और सपिण्ड लोग जिनमें स्त्रियाँ और विशेषत: कम अवस्था वाली सबसे आगे रहती हैं। चिता पर रखे गये शव पर अपने वस्त्र के अन्तभाग (आँचल) से हवा करते हैं, अन्त्येष्टि क्रिया करने वाला एक जलपूर्ण घड़ा लेता है और अपने सिर पर दर्भेण्डु रखता है और तीन बार शव की परिक्रमा करता है। पुरोहित घड़े पर एक पत्थर (अश्म) या कुल्हाड़ी से धीमी चोट करता है और 'इमा आप: आदि' का पाठ करता है। जब टूटे घड़े से जल की धार बाहर निकलने लगती है तो मन्त्र के शब्दों में कुछ परिवर्तन हो जाता है, यथा 'अस्मिन् लोके' के स्थान पर 'अन्तरिक्षे आदि'। अन्त्येष्टिकर्ता खड़े रूप में जलपूर्ण घड़े को पीछे फेंक देता है। इसके उपरान्त 'तस्मात् त्वमधिजातोसि......असौ स्वर्गाय लोकाय स्वाहा' के पाठ के साथ शव को जलाने के लिए चिता में अग्नि प्रज्वलित करता है।[149] शतपथ ब्राह्मण[150] का कथन है कि घर के लोग अपनी दाहिनी जाँघों को पीटते हैं, आँचल से शव पर हवा करते हैं और तीन बार शव की बायें ओर होकर परिक्रमा करते हैं तथा 'अप न: शोशुचदघम्'[151] पढ़ते हैं। इसने आगे कहा है[152] कि शव किसी गाड़ी में या चार पुरुषों के द्वारा ढोया जाता है और ढोते समय चार स्थानों पर रोका जाता है और उन चारों स्थानों पर पृथ्वी खोद दी जाती है और उसमें भात का पिण्ड 'पूषा त्वेत:'[153] एवं 'आयुर्विश्वायु:'[154] मन्त्रों के साथ आहुति के रूप में रख दिया जाता है। वराह पुराण के अनुसार पौराणिक मन्त्रों का उच्चारण करना चाहिए, अन्त्येष्टिकर्ता को चिता की परिक्रमा करनी चाहिए और उसके उस भाग में अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिए जहाँ पर सिर रखा रहता है।
शव को ले जाने के विषय में कई प्रकार के नियमों की व्यवस्था है। हमने ऊपर देख लिया है कि शव गाड़ी में ले जाया जाता था या सम्बन्धियों या नौकरों (दासों) द्वारा विशिष्ट प्रकार से बने पलंग या कुर्सी या अरथी द्वारा ले जाया जाता था। इस विषय में कुछ सूत्रों, स्मृतियों, टीकाओं एवं अन्य ग्रन्थों ने बहुत-से नियम प्रतिपादित किये हैं। रामायण[155] में आया है कि दशरथ की मृत्यु पर उनके पुरोहितों द्वारा शव के आगे वैदिक अग्नियाँ ले जायी जा रही थीं, शव एक पालकी (शिबिका) में रखा हुआ था, नौकर ढो रहे थे, सोने के सिक्के एवं वस्त्र अरथी के आगे दरिद्रों के लिए फेंके जा रहे थे। सामान्य नियम यह था कि तीन उच्च वर्णों में शव को मृत व्यक्ति के वर्ण वाले ही ढोते थे और शूद्र उच्च वर्ण का शव तब तक नहीं ढो सकते थे, जब तक उस वर्ण के लोग नहीं पाये जाते थे। उच्च वर्ण के लोग शूद्र के शव को नहीं ढोते थे और इस नियम का पालन करने पर तत्सम्बन्धी अशौच मृत व्यक्ति की जाति से निर्णीत होता था।[156] ब्रह्मचारी को किसी व्यक्ति या अपनी जाति के किसी व्यक्ति के शव को ढोने की आज्ञा नहीं थी, किन्तु वह अपने माता-पिता, गुरु, आचार्य एवं उपाध्याय के शव को ढो सकता था और ऐसा करने पर उसे कोई कल्मष नहीं लगता था।[157] गुरु, आचार्य और उपाध्याय की परिभाषा याज्ञवल्क्यस्मृति[158] ने दी है। यदि कोई ब्रह्मचारी उपर्युक्त पाँच व्यक्तियों के अतिरिक्त किसी अन्य का शव ढोता था, तो उसका ब्रह्मचर्यव्रत खण्डित माना जाता था और उसे व्रतलोप का प्रायश्चित करना पड़ता था। मनुस्मृति[159] का कथन है कि जो लोग स्वजातीय व्यक्ति का शव ढोते हैं, उन्हें वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए; नीम की पत्तियाँ दाँत से चबानी चाहिए; आचमन करना चाहिए; अग्नि, जल, गोबर, श्वेत सरसों का स्पर्श करना चाहिए; धीरे से किसी पत्थर पर पैर रखना चाहिए और तब घर में प्रवेश करना चाहिए। सपिण्डों का यह कर्तव्य है कि वे अपने सम्बन्धी का शव ढोएँ, ऐसा करने के उपरान्त उन्हें केवल स्नान करना होता है, अग्नि को छूना होता है और पवित्र होने के लिए घृत पीना पड़ता है।[160]
सपिण्डरहित ब्राह्मण के मृत शरीर को ढोने वाले की पराशरमाधवीय[161] ने बड़ी प्रशंसा की है और कहा है कि जो व्यक्ति मृत ब्राह्मण के शरीर को ढोता है, वह प्रत्येक पग पर एक-एक यज्ञ के सम्पादन का फल पाता है ऐसा कहना गलत है मानव जीवन एक समान और केवल पानी में डुबकी लेने और प्राणायाम करने से ही पवित्र हो जाता है। मनुस्मृति[162] का कथन है कि जो व्यक्ति किसी सपिण्डरहित व्यक्ति के शव को प्रेमवश ढोता है, वह तीन दिनों के उपरान्त ही अशौचरहित हो जाता है। आदिपुराण को उद्धृत करते हुए हारलता[163] ने लिखा है कि यदि कोई क्षत्रिय या वैश्य किसी दरिद्र ब्राह्मण या क्षत्रिय (जिसने सब कुछ खो दिया हो) के या दरिद्र वैश्य के शव को ढोता है, वह बड़ा यश एवं पुण्य पाता है और स्नान के उपरान्त ही पवित्र हो जाता है। सामान्यत: आज भी (विशेषत: ग्रामों में) एक ही जाति के लोग शव को ढोते हैं या साथ जाते हैं और वस्त्रसहित स्नान करने के पश्चात् पवित्र मान लिये जाते हैं। कुछ मध्यकाल की टीकाओं, यथा मिताक्षरा ने जाति-संकीर्णता की भावना से प्रेरित होकर व्यवस्था दी है कि "यदि कोई व्यक्ति प्रेमवश शव ढोता है, मृत के परिवार में भोजन करता है और वहीं रह जाता है तो वह दस दिनों तक अशौच में रहता है। यह नियम तभी लागू होता है, जब कि शव को ढोने वाला मृत की जाति का रहता है। यदि ब्राह्मण किसी मृत शूद्र के शव को ढोता है, तो वह एक मास तक अपवित्र रहता है, किन्तु यदि कोई शूद्र किसी मृत ब्राह्मण के शव को ढोता है तो वह दस दिनों तक अशौच में रहता है।" कूर्म पुराण ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई ब्राह्मण किसी मृत ब्राह्मण के शव को शुल्क लेकर ढोता है या किसी अन्य स्वार्थ के लिए ऐसा करता है तो वह दस दिनों तक अपवित्र (अशौच) में रहता है और इसी प्रकार कोई क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ऐसा करता है तो क्रम से 12, 15 एवं 30 दिनों तक अपवित्र रहता है।
विष्णु पुराण का कथन है कि यदि कोई व्यक्ति शुल्क लेकर शव ढोता है तो वह मृत व्यक्ति की जाति के लिए व्यवस्थित अवधि तक अपवित्र रहता है। हारीत[164] के मत से शव को मार्ग के गाँवों में होकर नहीं ले जाना चाहिए। मनुस्मृति[165] एवं वृद्ध-हारीत[166] का कथन है कि शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण का मृत शरीर क्रम से ग्राम या बस्ती के दक्षिणी, पश्चिमी, उत्तरी एवं पूर्वी मार्ग से ले जाना चाहिए। यम एवं गरुड़ पुराण[167] का कथन है कि चिता के लिए अग्नि, काष्ठ (लकड़ी), तृण, हवि आदि उच्च वर्णों की अन्त्येष्टि के लिए शूद्र द्वारा नहीं ले जाना चाहिए, नहीं तो मृत व्यक्ति सदा प्रेतावस्था में ही रह जायेगा। हारलता[168] का कथन है कि यदि शूद्रों द्वारा लकड़ी ले जायी जाये तो ब्राह्मण के शव के चिता-निर्माण के लिए ब्राह्मण ही प्रयुक्त होना चाहिए। स्मृतियों एवं पुराणों ने व्यवस्था दी है कि शव को नहलाकर जलाना चाहिए, शव को नग्न रूप में कभी नहीं जलाना चाहिए। उसे वस्त्र से ढँका रहना चाहिए, उस पर पुष्प रखने चाहिए और चन्दन लेप करना चाहिए; अग्नि को शव के मुख की ओर ले जाना चाहिए। किसी व्यक्ति को कच्ची मिट्टी के पात्र में पका हुआ भोजन ले जाना चाहिए, किसी अन्य व्यक्ति को उस भोजन का कुछ अंश मार्ग में रख देना चाहिए और चाण्डाल आदि (जो श्मशान में रहते हैं) के लिए वस्त्र आदि दान करना चाहिए। ब्रह्म पुराण[169] का कथन है कि शव को श्मशान ले जाते समय वाद्ययंत्रों द्वारा पर्याप्त निनाद किया जाता है।[170]
शव को जलाने के उपरान्त, अन्त्येष्टि क्रिया के अंग के रूप में कर्ता को वपन (मुंडन) करवाना पड़ता है और उसके उपरान्त स्नान करना होता है, किन्तु वपन के विषय में कई नियम हैं। स्मृति-वचन यों है-'दाढ़ी-मूँछ बनवाना सात बातों में घोषित है, यथा-गंगातट पर, भास्कर क्षेत्र में, माता, पिता या गुरु की मृत्यु पर, श्रौताग्नियों की स्थापना पर एवं सोमयज्ञ में।'[171] अन्त्यकर्मदीपक[172] का कथन है कि अन्त्येष्टि क्रिया करने वाले पुत्र या किसी अन्य कर्ता को सबसे पहले वपन कराकर स्नान करना चाहिए और तब शव को किसी पवित्र स्थल पर ले जाना चाहिए तथा वहाँ स्नान कराना चाहिए, या यदि ऐसा स्थान वहाँ न हो तो शव को स्नान कराने वाले जल में गंगा, गया या अन्य तीर्थों का आवाहन करना चाहिए। इसके उपरान्त शव पर घी या तिल के तेल का लेप करके पुन: उसे नहलाना चाहिए, नया वस्त्र पहनाना चाहिए, यज्ञोपवीत, गोपीचन्दन, तुलसी की माला से सजाना चाहिए और सम्पूर्ण शरीर में चन्दन, कपूर, कुंकुम, कस्तूरी आदि सुंगधित पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए। यदि अन्त्येष्टि क्रिया रात्रि में हो तो वपन रात्रि में नहीं होना चाहिए, बल्कि दूसरे दिन होना चाहिए।[173] अन्य स्मृतियों ने दूसरे, तीसरे, पाँचवें या सातवें दिन या ग्यारहवें दिन के श्राद्धकर्म के पूर्व किसी दिन भी वपन की व्यवस्था दी है।[174] आपस्तम्ब धर्मसूत्र[175] के मत से मृत व्यक्ति से छोटे सभी सपिण्ड लोगों को वपन कराना चाहिए। मदनपारिजात का कथन है कि अन्त्येष्टि कर्ता को वपन-कर्म प्रथम दिन तथा अशौच की समाप्ति पर कराना चाहिए, किन्तु शुद्धिप्रकाश[176] ने मिताक्षरा[177] के मत का समर्थन करते हुए कहा है कि वपन-कर्म का दिन स्थान-विशेष की परम्परा पर निर्भर है। वाराणसी सम्प्रदाय के मत से कर्ता अन्त्येष्टि कर्म के समय वपन कराता है, किन्तु मिथिला सम्प्रदाय के मत से अन्त्येष्टि के समय वपन नहीं होता। गरुड़ पुराण[178] के मत से घोर रुदन शवदाह के समय किया जाना चाहिए, किन्तु दाह-कर्म एवं जल-तर्पण के उपरान्त रुदन-कार्य नहीं होना चाहिए।
सपिण्डों एवं समानोदकों द्वारा मृत के लिए जो उदकक्रिया या जलवान होता है, उसके विषय में मतैक्य नहीं है। आश्वलायन गृह्यसूत्र ने केवल एक बार जल-तर्पण की बात कही है, किन्तु सत्यषाढ श्रौतसूत्र[179] आदि ने व्यवस्था दी है कि तिलमिश्रित जल अंजलि द्वारा मृत्यु के दिन मृत का नाम एवं गौत्र बोलकर तीन बार दिया जाता है और ऐसा ही प्रतिदिन ग्यारहवें दिन तक किया जाता है।[180] गौतम धर्मसूत्र[181] एवं वसिष्ठ धर्मसूत्र[182] ने व्यवस्था दी है कि जलदान सपिण्डों द्वारा प्रथम, तीसरे, सातवें एवं नवें दिन दक्षिणाभिमुख होकर किया जाता है, किन्तु हरदत्त का कथन है कि सब मिलाकर 75 अंजलियाँ देनी चाहिए (प्रथम दिन 3, तीसरे दिन 9, सातवें दिन 30 एवं नवें दिन 33), किन्तु उनके देश में परम्परा यह थी कि प्रथम दिन अंजलि द्वारा तीन बार और आगे के दिनों में एक-एक अंजलि अधिक जल दिया जाता था। विष्णु धर्मसूत्र[183], प्रचेता एवं पैठिनसि[184] ने व्यवस्था दी है कि मृत को जल एवं पिण्ड दस दिनों तक देते रहना चाहिए।[185]
शुद्धिप्रकाश[186] ने गृह्यपरिशिष्ट के कतिपय वचन उद्धृत कर लिखा है कि कुछ के मत से केवल 10 अंजलियाँ और कुछ के मत से 100 और कुछ के मत से 55 अंजलियाँ दी जाती हैं, अत: इस विषय में लोगों को अपनी वैदिक शाखा के अनुसार परम्परा का पालन करना चाहिए। यही बात आश्वलाय गृह्यसूत्र[187] ने भी कही है। गरुड़ पुराण[188] ने भी 10, 55 या 100 अंजलियों की चर्चा की है। कुछ स्मृतियों ने जाति के आधार पर अंजलियों की संख्या दी है। प्रचेता[189] के मत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र मृतक के लिए क्रम से 10, 12, 15 एवं 30 अंजलियाँ दी जानी चाहिए। यम (श्लोक 92-94) ने लिखा है कि नाभि तक पानी में खड़े होकर किस प्रकार जल देना चाहिए और कहा है (श्लोक 98) कि देवों एवं पितरों को जल में और जिनका उपनयन संस्कार न हुआ हो, उनके लिए भूमि में खड़े होकर जल तर्पण करना चाहिए। देवयाज्ञिक द्वारा उद्धृत एक स्मृति में आया है कि मृत्यु काल से आगे 6 पिण्ड निम्न रूप में दिये जाने चाहिए; मृत्यु स्थल पर, घर की देहली पर, चौराहे पर, श्मशान के मार्ग पर जहाँ शव यात्री रुकते हैं, चिता पर तथा अस्थियों को एकत्र करते समय। स्मृतियों में ऐसा भी आया है कि लगातार दस दिनों तक तेल का दीपक जलाना चाहिए, जलपूरण मिट्टी का घड़ा भी रखा रहना चाहिए और मृत का नाम-गौत्र कहकर दोपहर के समय एक मुट्ठी भात भूमि पर रखना चाहिए। इसे पाथेय श्राद्ध कहा जाता है, क्योंकि इससे मृत को यमलोक जाने में सहायता मिलती है।[190] कुछ निबन्धों के मत से मृत्यु के दिन सपिण्डों द्वारा वपन, स्नान, ग्राम एवं घर में प्रवेश कर लेने के उपरान्त नग्न-प्रच्छादन नामक श्राद्ध करना चाहिए। नग्न-प्रच्छादन श्राद्ध में एक घड़े में अनाज भरा जाता है, एक पात्र में घृत एवं सामर्थ्य के अनुसार सोने के टुकड़े या सिक्के भरे जाते हैं। अन्नपूर्ण घड़े की गर्दन वस्त्र से बँधी रहती है। विष्णु का नाम लेकर दोनों पात्र किसी कुलीन दरिद्र ब्राह्मण को दे दिये जाते हैं।[191]
स्मृतियों एवं पुराणों[192] के मत से अंजलि से जल देने के उपरान्त पके हुए चावल या जौ का पिण्ड तिलों के साथ दर्भ पर रख दिया जाता है। इस विषय में दो मत हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति[193] के मत से पिण्डपितृयज्ञ की व्यवस्था के अनुसार तीन दिनों तक एक-एक पिण्ड दिया जाता है;[194] विष्णु धर्मसूत्र[195] के मत से अशौच के दिनों में प्रतिदिन एक पिण्ड दिया जाता है। यदि मृत व्यक्ति का उपनयन हुआ है तो पिण्ड दर्भ पर दिया जाता है, किन्तु मन्त्र नहीं पढ़ा जाता, यो पिण्ड पत्थर पर भी दिया जाता है। जल तो प्रत्येक सपिण्ड या अन्य कोई भी दे सकता है, किन्तु पिण्ड पुत्र[196] देता है; पुत्रहीनता पर भाई या भतीजा देता है और उनके अभाव में माता के सपिण्ड, यथा-मामा या ममेरा भाई आदि देते हैं।[197] वैसी स्थिति में जब पिण्ड तीन दिनों तक दिये जाते हैं या जब अशौच केवल तीन दिनों का रहता है, शातातप ने पिण्डों की संख्या10 दी है और पारस्कर ने उन्हें निम्न रूप से बाँटा है; प्रथम दिन 3, दूसरे दिन 4 और तीसरे दिन 3। किन्तु दक्ष ने उन्हें निम्न रूप में बाँटा है; प्रथम दिन में एक, दूसरे दिन 4 और तीसरे दिन 5। पारस्कर ने जाति के अनुसार क्रम से 10, 12, 15 एवं 30 पिण्डों की संख्या दी है। वाराणसी सम्प्रदाय के मत से शवदाह के समय 4, 5 या 6 पिण्ड तथा मिथिला सम्प्रदाय के अनुसार केवल एक पिण्ड दिया जाता है। गृह्यपरिशिष्ट एवं गरुड़ पुराण के मत से उन सभी को, जिन्होंने मृत्यु के दिन कर्म करना आरम्भ किया है, चाहे वे सगोत्र हों या किसी अन्य गोत्र के हों, दिस दिनों तक सभी कर्म करने पड़ते हैं।[198] ऐसी व्यवस्था है कि यदि कोई व्यक्ति कर्म करता आ रहा है और इसी बीच में पुत्र आ उपस्थित हो तो प्रथम व्यक्ति ही 10 दिनों तक कर्म करता रहता है, किन्तु ग्यारहवें दिन का कर्म पुत्र या निकट सम्बन्धी (सपिण्ड) करता है। मत्स्य पुराण का कथन है कि मृत के लिए पिण्डदान 12 दिनों तक होना चाहिए, ये पिण्ड मृत के लिए दूसरे लोक में जाने के लिए पाथेय होते हैं और वे उसे संतुष्ट करते हैं। मृत 12 दिनों के उपरान्त मृतात्माओं के लोक में चला जाता है, अत: इन दिनों के भीतर वह अपने घर, पुत्रों एवं पत्नी को देखता रहता है।
जिस प्रकार एक ही गोत्र के सपिण्डों एवं समानोदकों को जल-तर्पण करना अनिवार्य है, उसी प्रकार किसी व्यक्ति को अपने नाना तथा अपने दो अन्य पूर्वपुरुषों एवं आचार्य को उनकी मृत्यु के उपरान्त जल देना अनिवार्य है। व्यक्ति यदि चाहे तो अपने मित्र, अपनी विवाहिता बहिन या पुत्री, अपने भानजे, श्वशुर, पुरोहित को उनकी मृत्यु पर जल दे सकता है।[199] पारस्करगृह्यसूत्र[200] ने एक विचित्र रीति की ओर संकेत किया है। जब सपिण्ड लोग स्नान करने के लिए जल में प्रवेश करने को उद्यत होते हैं और जब वे मृत को जल देना चाहते हैं तो अपने सम्बन्धियों या साले से जल के लिए इस प्रकार प्रार्थना करते हैं-'हम लोग उदकक्रिया करना चाहते हैं', इस पर दूसरा कहता है-'ऐसा करो किन्तु पुन: न आना।' ऐसा तभी किया जाता था, जब कि मृत 100 वर्ष से कम आयु का होता था, किन्तु जब वह 100 वर्ष का या इससे ऊपर का होता था, तो केवल 'ऐसा करो' कहा जाता था। गौतमपितृमेधसूत्र[201] में भी ऐसा ही प्रतीकात्मक वार्तालाप आया है। कोई राजकर्मचारी, सगोत्र या साला (या बहनोई) एक कँटीली टहनी लेकर उन्हें जल में प्रवेश करने से रोकता है और कहता है, 'जल में प्रवेश न करो'; इसके उपरान्त सपिण्ड उत्तर देता है-'हम लोग पुन: जल में प्रवेश नहीं करेंगे।' इसका सम्भवत: यह तात्पर्य है कि वे कुटुम्ब में किसी अन्य की मृत्यु से छुटकारा पायेंगे, अर्थात् शीघ्र ही उन्हें पुन: नहीं आना पड़ेगा या कुटुम्ब में कोई मृत्यु शीघ्र न होगी।
मृत को जल देने के लिए कुछ लोग अयोग्य माने गये हैं और कुछ मृत व्यक्ति भी जल पाने के लिए अयोग्य ठहराये गये हैं। नपुंसक लोगों, सोने के चोरों, व्रात्यों, विधर्मी लोगों, भ्रूणहत्या (गर्भपात) करने वाली तथा पति की हत्या करने वाली स्त्रियों, निषिद्ध मद्य पीने वालों (सुरापियों) को जल देना मना था। याज्ञवल्क्यस्मृति[202] ने व्यवस्था की है कि नास्तिकों, चार प्रकार के आश्रमों में न रहने वालों, चोरों, पति की हत्या करने वाली नारियों, व्यभिचारिणियों, सुरापियों, आत्महत्या करने वालों को न तो मरने पर जल देना चाहिए और न अशौच मनाना चाहिए। यही बात मनुस्मृति[203] ने भी कही है। गौतम धर्मसूत्र[204] ने व्यवस्था दी है कि उन लोगों की न तो अन्त्येष्टि क्रिया होती है, न अशौच होता है और न जल-तर्पण होता है और न पिण्डदान होता है, जो क्रोध में आकर महाप्रयाण करते हैं, जो उपवास से या अग्नि से या विष से या जल-प्रवेश से या फाँसी लगाकर लटक जाने से या पर्वत से कूदकर या पेड़ से गिरकर आत्महत्या कर लेते हैं।[205] हरदत्त[206] ने ब्रह्म पुराण से तीन पद्य उद्धृत कर कहा है कि जो ब्राह्मण-शाप या अभिचार से मरते हैं या जो पतित हैं, वे इसी प्रकार की गति पाते हैं। किन्तु अंगिरा[207] का कथन है कि जो लोग असावधानी से जल या अग्नि द्वारा मर जाते हैं, उनके लिए अशौच होता है और उदकक्रिया की जाती है।[208], जहाँ ऐसे लोगों की सूची है, जिनका दाह-कर्म नहीं होता।
महाभारत में अन्त्येष्टि कर्म का बहुधा वर्णन हुआ है, यथा आदिपर्व[209] में पाण्डु का दाह-कर्म[210]; स्त्रीपर्व[211] में द्रोण का दाह-कर्म[212]; अनुशासनपर्व[213] में भीष्म का दाह-कर्म[214]; मौसलपर्व[215] में वासुदेव का, स्त्रीपर्व[216] में अन्य योद्धाओं का तथा आश्रमवासिकपर्व[217] में कुन्ती, धृतराष्ट्र एवं गान्धारी का दाह-कर्म वर्णित है। रामायण[218] में आया है कि दशरथ की चिता चन्दन की लकड़ियों से बनी थी और उसमें अगुरु एवं अन्य सुगन्धित पदार्थ थे; सरल, पद्मक, देवदारु आदि की सुगन्धित लकड़ियाँ भी थीं; कौसल्या तथा अन्य स्त्रियाँ शिबिकाओं एवं अपनी स्थिति के अनुसार अन्य गाड़ियों में शवयात्रा में सम्मिलित हुई थीं। यदि आहिताग्नि (जो श्रौत अग्निहोत्र करता हो) विदेश में मर जाए तो उसकी अस्थियाँ मँगाकर काले मृगचर्म पर फैला दी जानी चाहिए[219] और उन्हें मानव-आकार में सज़ा देना चाहिए तथा रूई एवं घृत तथा श्रौत अग्नियों एवं यात्राओं के साथ जला डालना चाहिए।[220]
यदि अस्थियाँ न प्राप्त हो सकें तो सूत्रों ने ऐतरेय ब्राह्मण[221] एवं अन्य प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर यह व्यवस्था दी है कि पलाश की 360 पत्तियों से काले मृगचर्म पर मानव-पुत्तल बनाना चाहिए और उसे ऊन के सूत्रों से बाँध देना चाहिए। उस पर जल से मिश्रित जौ का आटा डाल देना चाहिए और घृत डालकर मृत की अग्नियों एवं यज्ञपात्रों के साथ जला डालना चाहिए। ब्रह्म पुराण[222] ने भी ऐसे ही नियम दिये हैं और तीन दिनों का अशौच घोषित किया है। अपरार्क[223] द्वारा उद्धृत एक स्मृति में पलाश की पत्तियों की संख्या 362 लिखी हुई है। बौधायन पितृमेधसूत्र एवं गौतम पितृमेधसूत्रों के मत से ये पत्तियाँ निम्न रूप से सजायी जानी चाहिए; सिर के लिए40, गर्दन के लिए 10, छाती के लिए 20, उदर (पेट) के लिए 10, पैरों के लिए 70, पैरों के अँगूठों के लिए 10, दोनों बाँहों के लिए 50, हाथों की अँगुलियों के लिए 10, लिंग के लिए 8 एवं अण्डकोशों के लिए 12। यही वर्णन सत्याषाढ श्रौतसूत्र[224] में भी है।[225] सूत्रों एवं स्मृतियों में पलाश-पत्रों की उन संख्याओं में मतैक्य नहीं है, जो विभिन्न अंगों के लिए व्यवस्थित हैं। अपरार्क[226] द्वारा उद्धृत एक स्मृति में संख्या यों है-सिर के लिए 32, गरदन के लिए 60, नितम्ब के लिए 20, दोनों हाथों के लिए 20-20, अँगुलियों के लिए 10, अंडकोशों के लिए 6, लिंग के लिए 4, जाँघों के लिए 60, घुटनों के लिए 20, पैरों के निम्न भागों के लिए 20, पैर के अँगूठों के लिए 10। जातूकर्ण्य[227] के मत से यदि पुत्र 15 वर्षों तक विदेश गये हुए अपने पिता के विषय में कुछ न जान सके तो उसे पुत्तल जलाना चाहिए। पुत्तल जलाने को आकृति दहन कहा जाता है। बृहस्पति ने इस विषय में 12 वर्षों तक जोहने की बात कही है। वैखानसस्मार्तसूत्र[228] ने आकृतिदहन को फलदायक कर्म माना है और इसे केवल शव या अस्थियों की अप्राप्ति तक ही सीमित नहीं माना है। शुद्धिप्रकाश[229] ने ब्रह्म पुराण को उद्धृत कर कहा है कि आकृतिदहन केवल आहिताग्नि तक ही सीमित नहीं मानना चाहिए, यह कर्म उनके लिए भी है, जिन्होंने श्रौत अग्निहोत्र नहीं किया है। इस विषय में आहिताग्नियों के लिए अशौच 10 दिनों तक तथा अन्य लोगों के लिए केवल 3 दिनों तक होता है।
सत्याषाढ श्रौतसूत्र[230], बौधायन पितृमेधसूत्र[231] एवं गरुड़ पुराण[232] में ऐसी व्यवस्था दी हुई है कि यदि विदेश गया हुआ व्यक्ति आकृतिदहन (पुत्तल-दाह) के उपरान्त लौट आये, अर्थात् मृत समझा गया व्यक्ति जीवित अवस्था में लौटे तो वह घृत से भरे कुण्ड में डुबोकर बाहर निकाला जाता है; पुन: उसको स्नान कराया जाता है और जातकर्म से लेकर सभी संस्कार किये जाते हैं। इसके उपरान्त उसको अपनी पत्नी के साथ पुन: विवाह करना होता है, किन्तु यदि उसकी पत्नी मर गयी है तो वह दूसरी कन्या से विवाह कर सकता है और तब वह पुन: अग्निहोत्र आरम्भ कर सकता है। कुछ सूत्रों ने ऐसी व्यवस्था दी है कि यदि आहिताग्नि की पत्नी उससे पूर्व ही मर जाए, तो वह चाहे तो उसे श्रौताग्नियों द्वारा जला सकता है या गोबर से ज्वलित अग्नि या तीन थालियों में रखे, शीघ्र ही जलने वाले घास-फस से उत्पन्न अग्नि द्वारा जला सकता है। मनुस्मृति[233] का कथन है कि यदि आहिताग्नि द्विज की सवर्ण एवं सदाचारिणी पत्नी मर जाये तो आहिताग्नि पति अपनी श्रौत एवं स्मार्त अग्नियों से उसे यज्ञपात्रों के साथ जला सकता है। इसके उपरान्त वह पुन: विवाह कर अग्निहोत्र आरम्भ कर सकता है।[234]
विश्वरूप[235] आहिताग्नि के विषय में काठक-श्रुति को उद्धृत कर कहा है कि यदि कोई व्यक्ति अपनी पत्नी की मृत्यु के उपरान्त भी वे ही पुरानी श्रौताग्नियाँ रखता है तो वे अग्नियाँ उस अग्नि के समान अपवित्र मानी जाती हैं, जो शव के लिए प्रयुक्त होती हैं और उसने इतना जोड़ दिया है कि यदि आहिताग्नि की क्षत्रिय पत्नी उसके पूर्व मर जाये तो उसका दाह भी श्रौताग्नियों से ही होता है। यह सिद्धान्त अन्य टीकाकारों के मत का विरोधी है, किन्तु उसने मनुस्मृति[236] में प्रयुक्त 'सवर्ण' को केवल उदाहरण स्वरूप लिया है, क्योंकि ऐसा न करने से वाक्यभेद दोष उत्पन्न हो जायेगा। अत: ब्राह्मण पत्नी के अतिरिक्त क्षत्रिय पत्नी को भी मान्यता दी गई है। कुछ स्मृतियों ने ऐसा लिखा है कि आहिताग्नि विधुर रूप में रहकर भी अपना अग्निहोत्र सम्पादित कर सकता है और पत्नी की सोने या कुश की प्रतिमा बनाकर यज्ञादि कर सकता है, जैसा कि राम ने किया था।[237] जब गृहस्थ अपनी मूल पत्नी को श्रौताग्नियों के साथ जलाने के उपरान्त पुन: विवाह नहीं करता है और न पुन: नवीन वैदिक (श्रौत) अग्नियाँ रखता है तो वह मरने के उपरान्त साधारण अग्नियों से ही जलाया जाता है। यदि गृहस्थ पुन: विवाह नहीं करता है तो वह अपनी मृत पत्नी के शव को अरणियों से उत्पन्न अग्नि में जला सकता है। यदि आहिताग्नि पहले मर जाये तो उसकी विधवा अरणियों से उत्पन्न अग्नि (निर्मन्थ्य) से जलायी जाती है।[238] जब पत्नी का दाह-कर्म होता है तो 'अस्मात्त्वमभिजातोसि' नामक मन्त्र का पाठ नहीं होता।[239] केवल सदाचारिणी एवं पतिव्रता स्त्री का दाह-कर्म श्रौत या स्मार्त अग्नि से होता है।[240] ऋतु[241] एवं बौधायन पितृमेधसूत्र[242] के अनुसार विधुर एवं विधवा का दाहकर्म कपाल नामक अग्नि (कपाल को तपाकर कण्डों से उत्पादित अग्नि) से, ब्रह्मचारी एवं यति (साधु) का उत्तपन (या कपालज) नामक अग्नि से, कुमारी कन्या तथा उपनयनरहित लड़के का भूसा से उत्पन्न अग्नि से होता है। यदि आहिताग्नि पतित हो जाए या किसी प्रकार से आत्महत्या कर ले या पशुओं या सर्पों से भिड़कर मर जाए तो उसकी श्रौताग्नियाँ जल में फेंक देनी चाहिए, स्मार्त अग्नियाँ चौराहे या जल में फेंक देनी चाहिए, यज्ञपात्रों को जला डालना चाहिए[243] और उसे साधारण (लौकिक) अग्नि से जलाना चाहिए।
मनुस्मृति[244], याज्ञवल्क्यस्मृति[245], पराशरमाधवीय[246], विष्णु धर्मसूत्र[247], ब्रह्मपुराण[248] के मत से गर्भ से पतित बच्चे, भ्रूण, मृतोत्पन्न शिशु तथा दन्तहीन शिशु को वस्त्र से ढँककर गाड़ देना चाहिए। छोटी अवस्था के बच्चों को नहीं जलाना चाहिए, किन्तु इस विषय में प्राचीन स्मृतियों में अवस्था सम्बन्धी विभेद पाया जाता है। पारस्करगृह्यसूत्र[249], याज्ञवल्क्यस्मृति[250], मनुस्मृति[251], यम आदि ने व्यवस्था दी है कि वर्ष के भीतर के बच्चों को ग्राम के बाहर श्मशान से दूर किसी स्वच्छ स्थान पर गाड़ देना चाहिए। ऐसे बच्चों के शवों पर घृत का लेप करना चाहिए, उन पर चन्दनलेप, पुष्प आदि रखने चाहिए, न तो उन्हें जलाना चाहिए और न जल-तर्पण करना चाहिए और न उनका अस्थि-चयन करना चाहिए। सम्बन्धी साथ में नहीं भी जा सकते हैं। यम ने यमसूक्त[252] के पाठ एवं यम के सम्मान में स्तुतिपाठ करने की व्यवस्था दी है। मनुस्मृति[253] ने कुछ वैकल्पिक व्यवस्थाएँ दी हैं, यथा-दाँत वाले बच्चों या नामकरण-संस्कृत बच्चों के लिए जल-तर्पण किया जा सकता है, अर्थात् ऐसे बच्चों का शवदाह भी हो सकता है। अत: दो वर्ष से कम अवस्था के बच्चों की अन्त्येष्टि के विषय में विकल्प है, अर्थात् नामकरण एवं दाँत निकलने के उपरान्त ऐसे बच्चे जलाये या गाड़े जा सकते हैं। किन्तु ऐसा करने में सभी सपिण्डों का शव के साथ जाना आवश्यक नहीं है। यदि बच्चा दो वर्ष का हो या यदि अधिक अवस्था का हो, किन्तु अभी उपनयन संस्कार नहीं हुआ हो तो उसका दाहकर्म लौकिक अग्नि से अवश्य होना चाहिए और मौन रूप से जला देना चाहिए। लौगाक्षि के मत से चूड़ाकरण-संस्कृत बच्चों की अनत्येष्टि भी इसी प्रकार होनी चाहिए। वैखानसस्मार्तसूत्र[254] ने कहा है कि 5 वर्ष के लड़के तथा 7 वर्ष की लड़की का दाहकर्म नहीं होता। उपनयन के उपरान्त आहिताग्नि की भाँति दाहकर्म होता है, किन्तु यज्ञपात्रों का दाह एवं मन्त्रोच्चारण नहीं होता। बौधायनपितृमेधसूत्र[255] ने व्यवस्था दी है कि चूड़ाकरण के पूर्व मृत बच्चों का शवदाह नहीं होता, कुमारी कन्याओं एवं उपनयन रहित लड़कों का पितृमेध नहीं होता। उसने यह भी व्यवस्था दी है कि बिना दाँत के बच्चों को 'ओम' के साथ तथा दाँत वाले बच्चों को व्याहृतियों के साथ गाड़ा जाता है। मिताक्षरा[256] ने नियमों को निम्न रूप से दिया है-'नामकरण के पूर्व केवल गाड़ा जाता है, जल-तर्पण नहीं होता; नामकरण के उपरान्त तीन वर्ष तक गाड़ना या जलाना (जल-तर्पण के साथ) विकल्प से होता है; तीन वर्ष से उपनयन के पूर्व तक शवदाह एवं तर्पण मौन रूप से (बिना मन्त्रों के) होता है; यदि तीन वर्ष के पूर्व चूड़ाकरण हो गया हो तो मरने पर यही नियम लागू होता है। उपनयन के उपरान्त मृत का दाहकर्म लौकिक अग्नि से होता है, किन्तु ढंग वही होता है जो आहिताग्नि के लिए निर्धारित है।'
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