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थारू, नेपाल और भारत के सीमावर्ती तराई क्षेत्र में पायी जाने वाली एक जनजाति है। नेपाल की सकल जनसंख्या का लगभग 6.6% लोग थारू हैं। भारत में बिहार के चम्पारन जिले में और उत्तराखण्ड के नैनीताल और ऊधम सिंह नगर में थारू पाये जाते हैं। थारुओं का मुख्य निवास स्थान जलोढ़ मिट्टी वाला हिमालय का संपूर्ण उपपर्वतीय भाग तथा उत्तर प्रदेश के उत्तरी जिले वाला तराई प्रदेश है। ये हिन्दू धर्म मानते हैं तथा हिन्दुओं के सभी त्योहार मनाते हैं।
थारू शब्द की उत्पत्ति प्राय: "ठहरे", "तरहुवा", "ठिठुरवा" तथा "अठवारू" आदि शब्दों में खोजी गई है। ये स्वयं अपने को मूलत: सिसोदिया वंशीय राजपूत कहते हैं। थारुओं के कुछ वंशगत उपाधियाँ (सरनेम) हैं: राणा, कथरिया, चौधरी। कुछ समय पूर्व तक थारू अपना वंशानुक्रम महिलाओं की ओर से खोजते थे। थारुओं के शारीरिक लक्षण प्रजातीय मिश्रण के द्योतक हैं। इनमें मंगोलीय तत्वों की प्रधानता होते हुए भी अन्य भारतीयों से साम्य के लक्षण पाए जाते हैं। आखेट, मछली मारना, पशुपालन एवं कृषि इनके जीवनयापन के प्रमुख साधन हैं। टोकरी तथा रस्सी बुनना सहायक धंधों में हैं।
थारू नेपाल के मध्य-पश्चिमी भाग में सुरखेत घाटी, भित्री तराई, डांग घाटी, देखुरी घाटी, चितवन घाटी, माडी घाटी, मरिंखोला घाटी और कमला घाटी के साथ-साथ नेपाल और उत्तर के पूरे तराई में एक स्वदेशी जाति है। भारत इन्हें नेपाल सरकार द्वारा लोकजाति के रूप में मान्यता प्राप्त है। यह नेपाल के तराई क्षेत्र में सबसे अधिक आबादी वाली जाति भी है। नेपाल की इस ऐतिहासिक जाति ने नेपाल के निर्माता पृथ्वीनारायण शाह द्वारा काठमांडू घाटी पर विजय प्राप्त करने के बाद घाटी की सुरक्षा के लिए थारू सेना को लाया नेपाल ने एकीकरण अभियान के अंत तक भाग लेते हुए और नेपाल द्वारा लड़े गए हर युद्ध में, थारू युवाओं ने अन्य क्षेत्री, मगर, गुरुङ, बाहुन, तामाङ, सुनुवार, राई, लिम्बू, कामी, दमाईँ, गन्धर्व, योगी और अन्य जातियों की तरह बहादुरी से लड़ाई लड़ी और मातृभूमि नेपाल को बचाया। विदेशी शक्तियां।[1]
वे तराई के घने जंगल के बीच में रह रहे हैं। डांग में रहने वाले थारू थारू को 'डंगौरा थारू' कहा जाता है और इस बात के प्रमाण मिले हैं कि उनका राज्य है। यद्यपि यह एक मंगोल जैसा दिखता है, दक्षिण में आर्यों के साथ संपर्क के कारण थारू लोगों के जीवन का एक बहुत अलग तरीका है। स्थान के अनुसार थारू के उपनाम और भाषा में भी अंतर है। भौगोलिक विभाजन के अनुसार, इनमें से कुछ उपनाम हैं। वर्तमान में 2019 में, कुछ राणा थारू को थारू से अलग कर विभिन्न जातियों के रूप में सूचीबद्ध किया गया है, लेकिन राणा थारू अभी भी लिखते पाए जाते हैं।
अपनी थारू भाषाओं के अलावा, थारू जाति नेपाली बोलती है, जबकि कुछ क्षेत्रीय भोजपुरी, मैथिली और अवधी भाषा भी बोलते हैं। थारू लोग अपनी संस्कृति का आनन्द लेते हैं। दशैन और तिहार के अलावा, थारू माघी, जितिया और अन्य त्योहारों को धूमधाम और परिस्थितियों के साथ मनाते हैं। बिहार के पश्चिमी चंपारण के थारु बरना नामक त्योहार मनाते हैं। बरना की शुरूआत में थारू समाज के लोग भव्य तरीके से पूजा-पाठ करते हैं और उसकी समाप्ति पर जमकर परम्परागत गीत, संगीत, नृत्य होते हैं। इसके बाद ये ६० घण्टे तक अपने घरों से बाहर नहीं निकलते। ये लोग मानते हैं कि अगर बरना त्योहार के दौरान वह बाहर निकले या फिर कोई बाहर से आया तो उनके आने-जाने से और उनकी रोजमर्रा की गतिविधियों से नए पेड़-पौधों को नुकसान हो सकता है, जिससे प्रकृति की हानि हो सकती है।[2] [3]
टर्नर (1931) के मत से विगत थारू समाज दो अर्द्धांशों में बँटा था जिनमें से प्रत्येक के छह गोत्र होते थे। दोनों अर्द्धांशों में पहले तो ऊँचे अर्धांशों में नीचे अर्धांश की कन्या का विवाह संभव था पर धीरे-धीरे दोनों अर्द्धांश अंतर्विवाही हो गए। "काज" और "डोला" अर्थात् वधूमूल्य और कन्यापहरण पद्धति से विवाह के स्थान पर अब थारुओं में भी सांस्कारिक विवाह होने लगे हैं। विधवा द्वारा देवर से या अन्य अविवाहित पुरुष से विवाह इनके समाज में मान्य है। अपने गोत्र में भी यह विवाह कर लेते हैं। थारू सगाई को "दिखनौरी" तथा गौने की रस्म को "चाला" कहते हैं। इनमें नातेदारी का व्यवहार सीमाओं में बद्ध होता है। पुरुष का साले-सालियों से मधुर संबंध हमें इनके लोकसाहित्य में देखने को मिलता है। देवर-भाभी का स्वछंद व्यवहार भी इनके यहाँ स्वीकृत है।
थारू समाज में स्त्री के विशिष्ट पद की ओर प्रायH सभी नृतत्ववेत्ताओं का ध्यान गया है। इनमें स्त्री को सम्पत्ति पर विशेष अधिकार होता है। धार्मिक अनुष्ठानों के अतिरिक्त अन्य सभी घरेलू कामकाजों को थारू स्त्री ही संभालती है।
ग्राम्य शासन में उनके यहाँ मुखिया, प्रधान, ठेकेदार, मुस्तजर, चपरासी, कोतवार तथा पुजारी वर्ग "भर्रा (भारारे)" विशेष महत्व रखते हैं। भारारे, चिकित्सक का काम भी करता है। थारू लोग अब उन्नति कर रहे हैं।
थारू समुदाय के लोग भगवान शिव को महादेव के रूप में पूजते हैं और वे अपने उपनाम के रूप में ‘नारायण’ शब्द का प्रयोग करते हैं, उनकी मान्यता है कि नारायण धूप, बारिश और फसल के प्रदाता हैं।
थारू समुदाय के मानक पकवानों में दो प्रमुख ‘बगिया' या 'ढिकरी' तथा 'घोंघी' हैं। बगिया (ढिकरी) चावल के आटे का उबला हुआ एक पकवान है, जिसे चटनी या सालन के साथ खाया जाता है।
थारू व्यंजन | ||||||||||||
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