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जयचमराजा वोडेयार बहादुर (18 जुलाई 1919 - 23 सितंबर 1974) मैसूर की शाही रियासत के 25वें और अंतिम महाराजा थे,[1] जो 1940 से 1950 तक पदासीन रहे। वे एक प्रख्यात दार्शनिक, संगीत प्रेमी, राजनीतिक विचारक और परोपकारी थे। विश्व हिंदू परिषद के प्रथम अध्यक्ष रहे है
Jayachamaraja Wodeyar Bahadur | |
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Maharaja of Mysore | |
शासनावधि | 1940 - 1950 |
पूर्ववर्ती | Krishnaraja Wodeyar IV |
उत्तरवर्ती | Srikantha Datta Narasimharaja Wodeyar |
जन्म | 18 जुलाई 1919 Mysore, भारत |
निधन | 23 सितंबर 1974, Bangalore |
समाधि | Mysore |
संतान | Princess Gayatri Devi Avaru, Princess Meenakshi Devi Avaru, Yuvaraja Srikantha Datta Narasimharaja Wodeyar, Princess Kamakshi Devi Avaru, Princess Indrakshi Devi Avaru, Princess Vishalakshi Devi Avaru |
घराना | Wodeyar |
पिता | Yuvaraja Kanteerava Narasimharaja Wadiyar |
माता | Yuvarani Kempu Cheluvaja Amanni |
वे युवराज कान्तीरावा नरसिंहराजा वडियार और युवरानी केम्पु चेलुवाजा अम्मानी के एकमात्र पुत्र थे। उन्होंने महाराजा कॉलेज, मैसूर से 1938 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की, उन्हें पांच पुरस्कार और स्वर्ण पदक प्राप्त हुए. उसी वर्ष रविवार, 15 मई 1938 को उनका विवाह हुआ। 1939 में उन्होंने यूरोप का दौरा किया, लंदन में कई संगठनों का दौरा किया और कई कलाकारों और विद्वानों के साथ उनका परिचय हुआ। वे अपने चाचा महाराजा नाल्वदी कृष्णराज वोडेयार के निधन के बाद 8 सितंबर 1940 को मैसूर राज के सिंहासन पर आसीन हुए.
उन्होंने अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारत राष्ट्र में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किया। मैसूर की शाही रियासत 26 जनवरी 1950 को भारतीय गणराज्य में मिला ली गयी। वे 1950-1956 तक मैसूर राज के राजप्रमुख के पद पर आसीन रहे. पड़ोसी मद्रास और हैदराबाद राज्यों के कन्नड़ बहुल भागों के पुनर्गठन या एकीकरण के बाद बने मैसूर राज्य के वे पहले राज्यपाल बने, 1956-64 तक वे इस पद पर रहे, उसके बाद उन्हें 1964-66 तक के लिए मद्रास राज्य (तमिलनाडु) स्थानांतरित कर दिया गया।
वे एक अच्छे घुड़सवार और टेनिस खिलाड़ी थे, जिहोने रामानाथन कृष्णन को विम्बलडन में भाग लेने के सिलसिले में मदद की. अपनी निशानेबाजी के लिए वे विख्यात थे और उनके आसपास के इलाकों में कोई पागल हाथी या आदमखोर बाघ उत्पात मचाया करता तो उन्हें बुलावा भेजा जाता था। राजमहल के संग्रहालय में उन्हें प्राप्त वन्य जीवन से संबंधित अनेक ट्राफियां संग्रहित हैं। उन्होंने प्रसिद्ध क्रिकेटर/ऑफ़-स्पिन गेंदबाज श्री ईएएस प्रसन्ना को वेस्ट इंडीज दौरे पर भेजने में मदद की थी, जबकि उनके पिता उन्हें भेजने के लिए अनिच्छुक थे।
वे पश्चिमी और कर्नाटकी (दक्षिण भारतीय शास्त्रीय) संगीत के जानकार थे और भारतीय दर्शन शास्त्र के मान्य विद्वान थे। उन्होंने एक अल्प-ख्यात रुसी संगीतकार निकोलाई कार्लोविच मेद्तनर (1880-1951) के संगीत को पश्चिमी दुनिया में ख्याति दिलाने में मदद की, उन्होंने उनके अनेक संगीतों की रिकॉर्डिंग के लिए धन दिया और 1949 में मेद्तनर सोसाइटी की स्थापना की. मेद्तनर का तीसरा पियानो कंसर्ट मैसूर के महाराजा को समर्पित है। 1945 में वे लंदन के गिल्ड हॉल ऑफ म्युज़िक के लाइसेंसधारी (Licentiate) तथा लंदन के ट्रिनिटी कॉलेज ऑफ म्युज़िक के मानद सदस्य बने. 1939 में उनके पिता युवराज कान्तीरावा नरसिंहराज वोडेयार और 1940 में उनके चाचा महाराजा कृष्णराज वोडेयार चतुर्थ के असामयिक निधन से एक कंसर्ट पियानोवादक बनने की उनकी आकांक्षा अधूरी रह गयी और उन्हें मैसूर के सिंहासन पर बैठना पड़ा.
1948 में लंदन के फिलहारमोनिया कंसर्ट सोसाइटी के वे पहले अध्यक्ष थे.13 अप्रैल 27 अप्रैल और 11 मई 1949 को रॉयल अल्बर्ट हॉल में आयोजित प्रारंभिक संगीत कार्यक्रमों में से कुछ के कार्यक्रम पत्रकों की प्रतिलिपि नीचे देखें.
चित्र:Philhormonia3.jpgचित्र:Philhormonia2.jpg
इस संबंध में महाराज द्वारा मैसूर में आमंत्रित वाल्टर लेग्गे ने कहा है:
"मैसूर की यात्रा का अनुभव अद्भुत रहा. महाराजा एक जवान व्यक्ति हैं, जो अभी तीस के भी नहीं हैं। उनके महलों में से एक में एक रिकार्ड लाइब्रेरी है जहां गंभीर संगीत की प्रत्येक कल्पनीय रिकॉर्डिंग, लाउड स्पीकरों की एक बड़ी श्रृंखला और कंसर्ट के अनेक भव्य पियानो समाविष्ट हैं।..."
जिन सप्ताहों में मैं वहां रहा, महाराजा उनके गीतों के एल्बम, मेद्तनर पियानो कंसर्ट तथा उनके कुछ चैंबर संगीत की रिकॉर्डिंग के लिए भुगतान करने पर सहमत हुए; फिलहारमोनिया आर्केस्ट्रा और फिलहारमोनिया कंसर्ट सोसाइटी को मजबूत आधार प्रदान करने के लिए मुझे तीन साल तक 10,000 पाउंड की आर्थिक सहायता देने के लिए भी वे राजी हुए...." साँचा:Mysore Rulers Infobox
यह उदारता 1949 में लेग्गे का भाग्य बदलने में पर्याप्त साबित हुई. संचालक के रूप में हर्बर्ट वोन कारजन को शामिल करने में वे सक्षम हुए. बलाकिरेव सिम्फनी, रसेल की चौथी सिम्फनी, बुसोनी की इंडियन फैंटेसी आदि जैसे प्रदर्शनों को युवा महाराज ने प्रायोजित किया। इस संबंध से युद्धोत्तर काल की सबसे अधिक यादगार रिकॉर्डिंग सामने आयी।
1950 में लंदन के फिलहारमोनिया आर्केस्ट्रा द्वारा रॉयल अल्बर्ट हॉल में एक शाम के आयोजन को प्रायोजित करके महाराजा ने रिचर्ड स्ट्रॉस की अंतिम इच्छा को पूरा किया, इस कार्यक्रम में प्रमुख थे जर्मन संचालक विहेम फुर्तवांग्लर और सोपरानो फ्लैगस्टैड ने अपने अतिम चार गीत गाये (गोइंग टु स्लीप, सेप्टेम्बर, स्प्रिंग, ऐट सनसेट).
महाराजा संगीत के उतने ही अच्छे आलोचक भी थे। जब लेग्गे ने ईएमआई सूची के ताजा संस्करणों पर टिप्पणी करने को कहा, तब उनके विचार उतने ही तीखे थे जितने कि अपूर्वानुमेय रूप से स्फूर्तिदायक भी थे। वे कारजन की बीथोवेन की पांचवीं सिम्फनी (जैसा कि बीथोवेन की इच्छा थी) की विएना फिलहोर्मोनिक रिकॉर्डिंग से बड़े प्रसन्न हुए, चौथी सिम्फनी की फुर्तवैंग्लर की रिकॉर्डिंग को बड़े सम्मान के साथ स्वीकारा और सातवीं सिम्फनी के गैलिएरा के काम से निराश हुए, जिसकी रिकॉर्डिंग के लिए उन्होंने कारजन को पसंद किया। सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने तोस्कानिनी की रिकॉर्डिंग पर गहरी शंका व्यक्त की. उन्होंने लेग्गे को लिखा,'गति और ऊर्जा शैतानों की हैं, किसी फ़रिश्ते या सुपरमैन से बड़े उत्साह के साथ कोई ऐसी आशा नहीं करेगा'. फुर्तवैंग्लर के बीथोवेन के प्रति इतने सम्मान की एक वजह यह भी थी कि तोस्कानिनी के खराब प्रदर्शन से बहुत ही नाराज होने के बाद इसने एक टॉनिक का काम किया था।
तब तक मैसूर राज दरबार में सांस्कृतिक जीवंतता बनी रहने के कारण महाराजा बनने के बाद उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत (कर्नाटकी संगीत) सीखने की शुरुआत की. उन्होंने विद्वान वेंकटगिरीअप्पा से वीणा बजाना सीखा और दिग्गज संगीतकार तथा आस्थान विद्वान श्री वासुदेवाचार्य से कर्नाटिक संगीत की बारीकियों को सीखने में महारत हासिल की. उन्होंने अपने गुरु शिल्पी सिद्दालिंगास्वामी से एक उपासक (चित्रभानन्द के नाम से) के रूप में श्री विद्या के रहस्यों को भी सीखने की शुरुआत की. इससे उन्हें श्री विद्या के उक्त कल्पित नाम से 94 कर्नाटकी संगीत कृतियों की रचना करने की प्रेरणा मिली. सभी रचनाएं अलग रागों में हैं और उनमें से कुछ पहली बार रची गयी हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने मैसूर शहर में तीन मंदिर भी बनाये: मैसूर महल किले में भुवनेश्वरी मंदिर और गायत्री मंदिर और मैसूर के रामानुज रोड पर श्री कामकामेश्वरी मंदिर. सभी तीन मंदिरों को महाराजा के गुरु और प्रसिद्ध मूर्तिकार शिल्पी सिद्दालिंगस्वामी ने गढ़ा.
कई विख्यात भारतीय संगीतकारों को उनके दरबार में संरक्षण प्राप्त हुआ, जिनमें मैसूर वासुदेवाचार्य, वीना वेंकट गिरियप्पा, बी. देवेन्द्रप्पा, वी. दोराईस्वामी आयंगर, टी. चौडिआह, टाइगर वारदाचार, चेन्नाकेशव्या, तित्ते कृष्ण आयंगर, एस. एन. मरियप्पा, चिन्तालापल्ली रामचंद्र राव, आर. एन. दोरेस्वामी, एच. एम. वैद्यलिंग भागवतार शामिल हैं।
मैसूर विश्वविद्यालय के संगीत और नृत्य के विश्वविद्यालय कॉलेज के सेवानिवृत्त पहले प्रधानाचार्य श्री वी. रामरथनम द्वारा 1980 के दशक में वोडेयारों द्वारा कर्नाटकी को दिए गये संरक्षण और योगदान पर शोध किया गया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, भारत सरकार के प्रायोजन के अंतर्गत शोध किया गया। प्रोफेसर मैसूर श्री वी. रामरथनम ने "कंट्रीब्यूशन एंड पैट्रोनेज ऑफ़ वोडेयार्स टु म्यूजिक" नामक पुस्तक लिखी, जिसे कन्नड़ बुक ऑथोरिटी, बंगलौर ने प्रकाशित किया।
उन्होंने जयचमराजा ग्रंथ रत्न माला के हिस्से के रूप में संस्कृत से कन्नड़ में अनेक शास्त्रीय पुस्तकों के अनुवाद को भी प्रायोजित किया, साथ ही ऋग्वेद के 35 भागों का भी अनुवाद करवाया. ये सभी मूलतः संस्कृत में लिखित प्राचीन पवित्र ग्रंथ हैं, जो तब तक कन्नड़ भाषा में पूरी तरह उपलब्ध नहीं थे। सभी पुस्तकों के मूल पाठ को कन्नड़ लिपि में दिया गया है, उसके साथ आम लोगों की सुविधा के लिए उसका अनुवाद कन्नड़ में सरल भाषा में किया गया है। कन्नड़ साहित्य के इतिहास में इस तरह के एक स्थायी महत्त्व के काम का प्रयास कभी नहीं किया गया था! आस्थान (राज दरबार) ज्योतिषी और मैसूर महल के धर्माधिकारी स्व. एच. गंगाधर शास्त्री के अनुसार महाराजा इन सभी ग्रंथों का अध्ययन किया करते थे और लेखकों के साथ इन पर चर्चा भी किया करते थे। स्व. शास्त्री ने भी इन ग्रंथों के लेखन में बहुत योगदान किया था। एक त्यौहार की देर रात में (शिवरात्रि) उन्हें बुलावा आया और उनमें से एक पुस्तक के कठिन कन्नड़ शब्दों के प्रयोग को आसान बनाने की सलाह दी गयी।
इस श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित पुस्तकों की एक सूची निम्नलिखित है:
पुराणागालू
|| एस. सितारामशास्त्री (24-6-49)
मंत्रशास्त्र - सहस्रनाम - उपनिषद्
(उपरोक्त लिखित ग्रंथों का अंग्रेजी लिप्यंतरण करते समय नियमानुसार लोकप्रिय मुफ्त सॉफ्टवेयर https://web.archive.org/web/20180913074130/http://www.baraha.com/ का प्रयोग किया गया)
बहनें:
पत्नियां:
15 दिन की अवधि के भीतर दोनों महारानियों की 1983 में मृत्यु हो गई।
बच्चे:
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