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पक्षी की प्रजाति विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
घोंघिल, जिसका वैज्ञानिक नाम ऐनास्टोमस ओस्किटैन्स (Anastomus oscitans) है, और जिसे एशियाई चोंचखुला (Asian openbill) भी कहा जाता है, राजबक पक्षियों के ऐनास्टोमस वंश की एक जीववैज्ञानिक जाति है। यह वृहदाकार पक्षी होते हैं, जिनकी चोंच बीच में खुली होती है, जिस से इन्हें घोंघा व अन्य मोलस्का खाने में सहायता होती है। चोंच का यह खोल शिषुओं में नहीं होता और आयु के साथ ही बनता है। यह भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिणपूर्वी एशिया]] में ही मिलते हैं।[2][3][4]
घोंघिल Asian openbill एशियाई चोंचखुला | |
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माणगाँव, महाराष्ट्र में घोंघिल जोड़ा | |
वैज्ञानिक वर्गीकरण | |
जगत: | जंतु |
संघ: | रज्जुकी (Chordata) |
वर्ग: | पक्षी (Aves) |
गण: | सिकोनिफोर्मीस (Ciconiiformes) |
कुल: | सिकोनिडाए (Ciconiidae) |
वंश: | ऐनास्टोमस (Anastomus) |
जाति: | ए. ओस्किटैन्स (A. oscitans) |
द्विपद नाम | |
Anastomus oscitans (बोड्डर्ट, 1783) | |
भौगोलिक वितरण |
घोंघिल पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में पायी जाती है। इसके अतिरिक्त, यह पक्षी, थाइलैंड, चीन, वियतनाम, रूस आदि देशों में भी मौजूद हैं। लम्बी गर्दन व टाँगे तथा चोंच के मध्य खाली स्थान इसकी मुख्य पहचान हैं। इसके पंख काले-सफ़ेद रंग के होते हैं जो प्रजनन के समय अत्यधिक चमकीले हो जाते है और टाँगे गुलाबी रंग की हो जाती है। प्रजनन के उपरान्त इनका रंग हल्का पड़ जाता है और गन्दा सिलेटी रंग हो जाता है। किन्तु प्रजनन काल के उपरान्त कुछ समय बीतते ही, पंखों में चमक दोबारा वापस आ जाती है। इनके पंख सफेद व काले रंग के और पैर लाल रंग के होते हैं। इनका आकार बगुले से बड़ा और सारस से छोटा होता है। इनकी चोंच के मध्य खाली स्थान होने के कारण इन्हें ओपनबिल कहा गया। चोंच का यह आकार घोंघे को उसके कठोर आवरण से बाहर निकालने में मदद करता है। यह पक्षी पूर्णतया मांसाहारी है। पक्षियों की यह प्रजाति 'एशियाई चोंचखुला' कहलाती हैं। यह पक्षी सिकोनिडी परिवार का सदस्य है। इसकी दुनिया में कुल 20 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से 8 प्रजातियां भारत में मौजूद हैं। एशियाई चोंचखुला सामान्यतः भारतीय उपमहाद्वीप, थाईलैण्ड व वियतनाम, में निवास करते है तथा भारत में जम्मू कश्मीर व अन्य बर्फीले स्थानों को छोड़कर देश के लगभग सभी मैदानी क्षेत्रों में पाये जाते हैं।
यह पक्षी वैश्विक स्तर पर आई०यू०सी०एन० की रेड लिस्ट में यह पक्षी कम से कम Least Concern चिंता की श्रेणी में रखा गया है।
घोंघिल अपने घोसले मुख्यतः इमली, बरगद, पीपल, बबूल, बांस व यूकेलिप्टस के पेड़ों पर बनाते हैं। स्टार्क पक्षी १० से २०,००० की संख्या तक अपने घोसले बनाते हैं। एक पेड़ पर 40 से 50 घोसले तक पाये जाते हैं। प्रत्येक घोसले में 4 से 5 अण्डे होते हैं। सितम्बर के अन्त तक इनके चूजे बड़े होकर उड़ने में समर्थ हो जाते हैं और अक्टूबर में यह पक्षी यहां से चले जाते हैं। चूंकि यह पक्षी मानसून के साथ-साथ यहां आते हैं, इसलिए ग्रामीण इसे बरसात का सूचक मानते हैं। गांव वाले इसको पहाड़ी चिड़िया के नाम से पुकारते हैं, जबकि यह चिड़िया पहाड़ों पर कभी नहीं जाती। यह पक्षी जीवनकाल में सिर्फ़ एक बार जोड़ा बनाते हैं और जीवन पर्यन्त साथ रहते है, घोसलों का स्थान भी निश्चित होता है, जहाँ प्रत्येक वर्ष यह जोड़ा उन्ही टहनियों पर घोसला रखता है जहां पूर्व के वर्ष में था। एक साथी की मृत्यु के पश्चात ये दूसरा साथी चुन लेते हैं, कभी-कभी इनमें पॉलीगैमी भी देखी गयी हैं। प्रजनन काल में दोनों पक्षी बराबर की भूमिका निभाते हैं, घोसले बनाना, चूजों की भोजन व्यवस्था व सुरक्षा में नर-मादा दोनों की बराबर की भागीदारी होती हैं।
जून से अक्टूबर
बरगद, पीपल, इमली, अर्जुन, नेवला, बाँस, इनके पसंदीदा वृक्ष हैं जहाँ ये अपने घोंसलों का निर्माण करते हैं, वर्तमान में ओपनबिल यूकेलिप्टस पर भी घोसले बना लेते हैं, घोंसलों में प्रयुक्त की जाने वाली सामग्री में स्थानीय वृक्षों एंव झाड़ियों की टहनियां व पत्ते उपयोग में लाते हैं, अपने चूजों के लिए आरामदायक स्थान देने के लिए ये घोंसलों की तली में धान, व मुलायम जलीय पौधों का प्रयोग भ करते हैं।
सामन्यत: ४ से ५, पर ३-४ अण्डों की बहुलता।
चूजे भूरे-काले रंग के आँखे बन्द, जो एक सप्ताह के उपरान्त खुलती हैं, पूर्णतय: अपने माता-पिता पर निर्भर। वृद्धि के पश्चात ये काले-भूरे रंक के पंखों से युक्त और आस-पास के वृक्षों तक उड़ने की क्षमता विकसित कर लेते हैं। लगभग तीन महीने बाद ये पूर्ण वयस्क हो जाते हैं।
घोंघिलका मुख्य भोजन घोंघा, मछली, केंचुऐ व अन्य छोटे जलीय जन्तु हैं। जो जलाशयों, नमभूमियों, एंव नदी की तलहटियों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहता है।
इन पक्षियों के प्रवास से वहाँ के स्थानीय जनमानस में प्लेटीहेल्मिन्थस संघ के परजीवियों से होने वाली बीमारियों नियन्त्रण रखता है क्योंकि सिस्टोसोमियासिस, आपिस्थोराचियासिस, फैसियोलोप्सियासिस व फैसियोलियासिस (लीवरफ्लूक) जैसी होने वाली बीमारियां जो मनुष्य व उनके पालतू जानवरों में बुखार, यकृत की बीमारी पित्ताशय की पथरी, स्नोफीलियां, डायरिया, डिसेन्ट्री आदि पेट से सम्बन्धित बीमारी हो जाती हैं। चूंकि इन परजीवियों का वाहक घोंघा (मोलस्क) होता है जिसके द्वारा खेतों में काम करने वाले मनुष्यों और जलाशयों व चरागाहों में चरने व पानी पीने वाले वाले पशुओं को यह परजीवी संक्रमित कर देता है। इन पक्षियों की बहुतायत से यहां घोंघे लगभग पूर्णतया इनके द्वारा नष्ट कर दिये जाते हैं, जिससे यह परजीवी अपना जीवनचक्र पूरा नहीं कर पाते और इनसे फैलने वाला संक्रमण रूक जाता है। इन रोगों की यह एक प्रकृति प्रदत्त रोकथाम है।
इन पक्षियों के मल में फास्फोरस, नाइट्रोजन, यूरिक एसिड आदि कार्बनिक तत्व होने के कारण जिन पेड़ों पर यह आवास बनाते हैं उसके नीचे इनका मलमूत्र इकट्ठा होकर बरसात के दिनों में पानी के साथ बहकर आस पड़ोस के खेतों की उर्वरकता को कई गुना बढ़ा देता है।
पेडों की कटाई और अवैध रूप से खेती के लिए तालाबों की कटाई जारी है जिससे इन पक्षियों के आवास और भोजन प्राप्ति के स्थानों पर खतरा मडरा रहा है जो भविष्य में इनकी संख्या को कम कर देगा। शिकार एक प्रमुख समस्या है, इनका शिकार होटल व्यवसाय में इनके मांस के प्रयोक के कारण अत्यधिक किया जा रहा हैं।
उत्तर प्रदेश में घोंघिल का ग्रामीणों द्वारा सरंक्षण-
जिला लखीमपुर का एक गांव सरेली, जहां पक्षियों की एक प्रजाति सैंकड़ों वर्षों से अपना निवास बनाये हुये है और यहां के ग्रामीण इस पक्षी को पीढ़ियों से संरक्षण प्रदान करते आ रहे हैं। यह गांव मोहम्मदी तहसील के मितौली ब्लाक के अन्तर्गत आता है। इतनी संख्या में ओपनबिल स्टार्क पूरे उत्तर प्रदेश में कहीं अन्यन्त्र देखने को नहीं मिलती। चिड़ियों की यह प्रजाति लगभग 200 वर्षों से लगातार हजारों की संख्याओं में प्रत्येक वर्ष यहां अपने प्रजनन काल में जून के प्रथम सप्ताह में आती है। गांव वालों के अनुसार आज से 100 वर्ष पूर्व यहां के जमींदार श्री बल्देव प्रसाद ने इन पक्षियों को पूर्णतया संरक्षण प्रदान किया था और यह पक्षी उनकी पालतू चिड़िया के रूप में जाने जाते थे। तभी से उनके परिवार द्वारा इन्हें आज भी संरक्षण दिया जा रहा है। यह पक्षी इतना सीधा व सरल स्वभाव का है कि आकार में इतना बड़ा होने कें बावजूद यह अपने अण्डों व बच्चों का बचाव सिकरा व कौओं से भी नहीं कर पाता। यही कारण है कि यह पक्षी यहां अपने घोसले गांव में ही पाये जाने वाले पेड़ों पर बनाते हैं। जहां ग्रामीण इनके घोसले की सुरक्षा सिकरा व अन्य शिकारी चिड़ियों से करते हैं। यहां गॉव दो स्थानीय नदियों पिरई और सराय के मध्य स्थिति है गॉव के पश्चिम नहर और पूरब सिंचाई नाला होने के कारण गॉव के तालाबों में हमेशा जल भराव रहता है।
ऐंठापुर के निजी जंगल में अर्जुन के वृक्षों पर यह पक्षी प्रत्येक वर्ष १००० से अधिक घोसले बनाते हैं। इन्हे यहाँ सामुदायिक सरंक्षण प्राप्त हैं।
दुधवा नेशनल पार्क के बाकें ताल के निकट के वृक्षों पर इन पक्षियों की प्रजनन कालोनी विख्यात थी किन्तु सन 2001 से पक्षियों का सह बसेरा उजड़ गया। यानी संरक्षित क्षेत्रो के बजाय ग्रामीण क्षेत्रो में इन चिड़ियों का जीवन चक्र अघिक सफल है।
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