गंगोत्री
गंगोत्री मंदिर के आसपास केंद्रित एक छोटा शहर एवं उत्तराखंड के चार धामों में से एक पवित्र स्थान विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
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गंगोत्री (Gangotri) भारत के उत्तराखण्ड राज्य के उत्तरकाशी ज़िले में स्थित एक नगर व प्रमुख हिन्दू तीर्थस्थल है। गंगोत्री नगर से 19 किमी दूर गोमुख है, जो गंगोत्री हिमानी का अन्तिम छोर है और गंगा नदी का उद्गम स्थान है।[1][2]
गंगोत्री Gangotri | |
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गंगोत्री में भागीरथी नदी और हिमालय का दृश्य | |
निर्देशांक: 30.994°N 78.941°E | |
देश | भारत |
प्रान्त | उत्तराखण्ड |
ज़िला | उत्तरकाशी ज़िला |
ऊँचाई | 3415 मी (11,204 फीट) |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | 110 |
भाषा | |
• प्रचलित | हिन्दी, गढ़वाली |
समय मण्डल | भामस (यूटीसी+5:30) |
पिनकोड | 249135 |
गंगोत्री का गंगाजी मंदिर, समुद्र तल से 3042 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। भागीरथी के दाहिने ओर का परिवेश अत्यंत आकर्षक एवं मनोहारी है। यह स्थान उत्तरकाशी से 100 किमी की दूरी पर स्थित है। गंगा मैया के मंदिर का निर्माण गोरखा कमांडर अमर सिंह थापा द्वारा 18 वी शताब्दी के शुरूआत में किया गया था वर्तमान मंदिर का पुननिर्माण जयपुर के राजघराने द्वारा किया गया था। प्रत्येक वर्ष मई से अक्टूबर के महीनो के बीच पतित पावनी गंगा मैंया के दर्शन करने के लिए लाखो श्रद्धालु तीर्थयात्री यहां आते है। यमुनोत्री की ही तरह गंगोत्री का पतित पावन मंदिर भी अक्षय तृतीया के पावन पर्व पर खुलता है और दीपावली के दिन मंदिर के कपाट बंद होते है।
पौराणिक कथाओ के अनुसार भगवान श्री रामचंद्र के पूर्वज रघुकुल के चक्रवर्ती राजा भगीरथ ने यहां एक पवित्र शिलाखंड पर बैठकर भगवान शंकर की प्रचंड तपस्या की थी। इस पवित्र शिलाखंड के निकट ही 18 वी शताब्दी में इस मंदिर का निर्माण किया गया। ऐसी मान्यता है कि देवी भागीरथी ने इसी स्थान पर धरती का स्पर्श किया। ऐसी भी मान्यता है कि पांडवो ने भी महाभारत के युद्ध में मारे गये अपने परिजनो की आत्मिक शांति के निमित इसी स्थान पर आकर एक महान देव यज्ञ का अनुष्ठान किया था। यह पवित्र एवं उत्कृष्ठ मंदिर सफेद ग्रेनाइट के चमकदार 20 फीट ऊंचे पत्थरों से निर्मित है। दर्शक मंदिर की भव्यता एवं शुचिता देखकर सम्मोहित हुए बिना नहीं रहते।
शिवलिंग के रूप में एक नैसर्गिक चट्टान भागीरथी नदी में जलमग्न है। यह दृश्य अत्यधिक मनोहार एवं आकर्षक है। इसके देखने से दैवी शक्ति की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। पौराणिक आख्यानो के अनुसार, भगवान शिव इस स्थान पर अपनी जटाओ को फैला कर बैठ गए और उन्होने गंगा माता को अपनी घुंघराली जटाओ में लपेट दिया। शीतकाल के आरंभ में जब गंगा का स्तर काफी अधिक नीचे चला जाता है तब उस अवसर पर ही उक्त पवित्र शिवलिंग के दर्शन होते है।
गंगोत्री शहर धीरे-धीरे उस मंदिर के इर्द-गिर्द विकसित हुआ जिसका इतिहास 1200 वर्ष पुराना हैं, इसके पहले भी अनजाने कई सदियों से यह मंदिर हिदुओं के लिये आध्यात्मिक प्रेरणा का श्रोत रहा है। चूंकि पुराने काल में चारधामों की तीर्थयात्रा पैदल हुआ करती थी तथा उन दिनों इसकी चढ़ाई दुर्गम थी इसलिये वर्ष 1980 के दशक में गंगोत्री की सड़क बनी और तब से इस शहर का विकास द्रुत गति से हुआ।
गंगोत्री शहर तथा मंदिर का इतिहास अभिन्न रूप से जुड़ा है। प्राचीन काल में यहां मंदिर नहीं था।गंगोत्री में सेमवाल पुजारियों के द्वारा गंगा माँ के साकार रूप यानी गंगा धारा की पूजा की जाती थी भागीरथी शिला के निकट एक मंच था जहां यात्रा मौसम के तीन-चार महीनों के लिये देवी-देताओं की मूर्तियां रखी जाती थी इन मूर्तियों को मुखबा आदि गावों से लाया जाता था जिन्हें यात्रा मौसम के बाद फिर उन्हीं गांवों में लौटा दिया जाता था।
गढ़वाल के गुरखा सेनापति अमर सिंह थापा[3] ने 18वीं सदी में गंगोत्री मंदिर का निर्माण सेमवाल पुजारियों केेे निवेदन पर उसी जगह जहां भागीरथ ने तप किया था। माना जाता है कि जयपुर के राजा माधो सिंह द्वितीय ने 20वीं सदी में मंदिर की मरम्मत करवायी।
ई.टी. एटकिंस ने दी हिमालयन गजेटियर (वोल्युम III भाग I, वर्ष 1882) में लिखा है कि अंग्रेजों के टकनौर शासनकाल में गंगोत्री प्रशासनिक इकाई पट्टी तथा परगने का एक भाग था। वह उसी मंदिर के ढांचे का वर्णन करता है जो आज है। एटकिंस आगे बताते हैं कि मंदिर परिवेश के अंदर कार्यकारी ब्राह्मण (पुजारी) के लिये एक छोटा घर था तथा बाहर तीर्थयात्रियों के लिये लकड़ी का छायादार ढांचा था।
गंगोत्री अवस्था को एक नाम दिया जा सकता है- प्रेरणात्मक। नाटकीय परिदृश्यों में शामिल हैं ऊंचे बर्फीले शिखर जिसकी पृष्ठभूमि में हैं गहरी गढ़ी घाटियां जहां सिरों एवं देवदार के पेड़ों के बीच झिलमिलाती नदियों का आगमन होता है। यह भौतिक दृश्य एक जादू बिखेरता है। सदियों से यह लाखों तीर्थयात्रियों को आध्यात्मिक उत्साह तथा हजारों साहसिकों को एक चिरन्तर चुनौती देता रहा है।
समुद्र तल से 3,140 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गंगोत्री मंदिर भोज वृक्षों से घिरा तथा किनारे पर खड़े पर्वत की शिवलिंग, सतोपंथ जैसी चोटियों के साथ देवदार जंगल के बीच एक सुंदर घाटी है। भागीरथी घाटी के बाहर निकलकर केदारगंगा तथा भागीरथी के कोलाहल को छोड़कर जल गंगा से मिल जाती है, इस सुंदर घाटी के अंत में मंदिर है।
इस क्षेत्र में वनस्पतियों की विशाल प्रजातियां है। हिमालय का बलूत सर्वाधिक प्रमुख है। अन्य में शामिल हैं बुरांस, सफेद सरो (एवीज पींड्रो), स्वच्छ पेड़ (पाईसिया स्मिल बियाना), सदाबहार पेड़ (साईप्रेसस तरूलोस) तथा नीले देवदार आदि हैं। जब बलूत के पेड़ विलीन हो रहे होते है तो पैंगर (एसक्युलस ईडिका), कबासी (कोरिलस जैकुमोंटी), कंजुला (एसर कैसियम) तथा रींगाल (जानसेरेसिंस) इसकी जगह आ जाते हैं। परर्णांग, विसर्पी पौधे तथा शैवाक की यहां बहुतायत है।
इस क्षेत्र में पाये जाने वाले सामान्य जीव-जंतुओं में हैं लंगूर, लाल बंदर, भूरे भालू, सामान्य लोमड़ी, चीते, बर्फीले चीते, भोंकते हिरण सांभर, कस्तूरी मृग, सेरो, बरड़ मृग, साही, तहर आदि। विभिन्न रंगों की तितलियां तथा कीटें भी यहां पायी जाती हैं। गढ़वाल क्षेत्र रंगीन एवं संगीतमय जीव-जंतुओं से भरा पड़ा हैं। हिमालयी सीटी बजाती सारिकाएं, स्वणिर्म किरीटधारी, पाश्चात्य रंग-विरंगे हैंसोड़, साखिएं मोनाल एवं कोकल तीतर, चक
गंगोत्री से 19 किलोमीटर दूर3,892 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गौमुख गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना तथा भागीरथी नदी का उद्गम स्थल है। कहते हैं कि यहां के बर्फिले पानी में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं। गंगोत्री से यहां तक की दूरी पैदल या फिर ट्ट्टुओं पर सवार होकर पूरी की जाती है। चढ़ाई उतनी कठिन नहीं है तथा कई लोग उसी दिन वापस भी आ जाते है। गंगोत्री में कुली एवं ट्ट्टु उपलब्ध होते हैं। 25 किलोमीटर लंबा, 4 किलोमीटर चौड़ा तथा लगभग 40 मीटर ऊंचा गौमुख अपने आप में एक परिपूर्ण माप है। इस गौमुख ग्लेशियर में भगीरथी एक छोटी गुफानुमा ढांचे से आती है। इस बड़ी वर्फानी नदी में पानी 5,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक बेसिन में आता है जिसका मूल पश्चिमी ढलान पर से संतोपंथ समूह की चोटियों से है।
भागीरथी के अलावा इस गांव के निवासी ही गंगोत्री मंदिर के पुजारी हैं जहां मुखीमठ मंदिर भी है। प्रत्येक वर्ष दीवाली में जब गंगोत्री मंदिर बंद होने पर जाड़ों में देवी गंगा को एक बाजे एवं जुलुस के साथ इस गांव में लाया जाता है। इसी जगह जाड़ों के 6 महीनों, बसंत आने तक गंगा की पूजा होती है जब प्रतिमा को गंगोत्री वापस लाया जाता है। केदार खंड में मुख्यमठ की तीर्थयात्रा को महत्वपूर्ण माना गया है। इससे सटा है मार्कण्डेयपुरी जहां मार्कण्डेय मुनि के तप किया तथा उन्हें भगवान विष्णु द्वारा सृष्टि के विनाश का दर्शन कराया गया। किंबदन्ती अनुसार इसी प्रकार से मातंग ऋषि ने वर्षों तक बिना कुछ खाये-पीये यहां तप किया।
धाराली से 16 किलोमीटर तथा गंगोत्री से 9 किलोमीटर। भैरों घाटी, जध जाह्नवी गंगा तथा भागीरथी के संगम पर स्थित है। यहां तेज बहाव से भागीरथी गहरी घाटियों में बहती है, जिसकी आवाज कानों में गर्जती है। वर्ष 1985 से पहले जब संसार के सर्वोच्च जाधगंगा पर झूला पुल सहित गंगोत्री तक मोटर गाड़ियों के लिये सड़क का निर्माण नहीं हुआ था, तीर्थयात्री लंका से भैरों घाटी तक घने देवदारों के बीच पैदल आते थे और फिर गंगोत्री जाते थे। भैरों घाटी हिमालय का एक मनोरम दर्शन कराता है, जहां से आप भृगु पर्वत श्रृंखला, सुदर्शन, मातृ तथा चीड़वासा चोटियों के दर्शन कर सकते हैं।
भटवारी से 43 किलोमीटर तथा गंगोत्री से 20 किलोमीटर दूर स्थितहर्षिल का वर्णन सिर्फ एक वाक्य में हो सकता हैः आर्श्ययजनक। यह हिमाचल प्रदेश के बस्पा घाटी के ऊपर स्थित एक बड़े पर्वत की छाया में, भागीरथी नदी के किनारे, जलनधारी गढ़ के संगम पर एक घाटी में अवस्थित है। बस्पा घाटी से हर्षिल लमखागा दर्रे जैसे कई रास्तों से जुड़ा है। मातृ एवं कैलाश पर्वत के अलावा उसकी दाहिनी तरफ श्रीकंठ चोटी है, जिसके पीछे केदारनाथ तथा सबसे पीछे बदंरपूंछ आता है। यह वन्य बस्ती अपने प्राकृतिक सौंदर्य एवं मीठे सेब के लिये मशहूर है। हर्षिल के आकर्षण में हवादार एवं छाया युक्त सड़क, लंबे कगार, ऊंचे पर्वत, कोलाहली भागीरथी, सेबों के बागान, झरनें, सुनहले तथा हरे चारागाह आदि शामिल हैं।
गंगोत्री से 25 किलोमीटर दूर गंगोत्री ग्लेशियर के ऊपर एक कठिन ट्रेक में नंदनवन ले जाती है जो भागीरथी चोटी के आधार (बस) शिविर गंगोत्री से 25 किलोमीटर दूर है। यहां से शिवलिंग चोटी का मनोरम दृश्य दिखता है। गंगोत्री नदी के मुहाने के पार तपोवन है जो यहां अपने सुंदर चारागाह के लिये मशहूर है तथा शिवलिंग चोटी के आधार के चारों तरफ फैला है।
(दूरीः 9 किलोमीटर, समयः 3-4 घंटे) गौमुख के रास्ते पर 3,600 फीट ऊंचे स्थान पर स्थित चिरबासा एक अत्युत्तम शिविर स्थल (केम्प स्पॉट) है जो विशाल गौमुख ग्लेशियर का आश्चर्यजनक दर्शन कराता है। चिरबासा का अर्थ है चिर का पेड़। यहां से आप 6,511 मीटर ऊंचा मांडा चोटी, 5,366 मीटर पर हनुमान तिब्बा, 6,000 मीटर ऊंचा भृगु पर्वत तथा भागीरथी i, ii, एवं iii देख सकते हैं। चिरबासा की पहाड़ियों के ऊपर घूमते भेड़ों को देखा जा सकता है।
(दूरीः 14 किलोमीटर, समयः6-7 घंटे) भोजपत्र पेड़ों की अधिकता के कारण भोजबासा गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर है। यह जाट गंगा तथा भागीरथी नदी के संगम पर है। गौमुख जाते हुए इसका उपयोग पड़ाव की तरह होता है। मूल रूप से लाल बाबा द्वारा निर्मित एक आश्रम में मुफ्त भोजन का लंगर चलाता है तथा गढ़वाल मंडल विकास निगम का गृह, आवास प्रदान करता है। रास्ते में आप किंवदन्त धार्मिक फूल ब्रह्मकमल देख सकते है जो ब्रह्मा का आसन है।
गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर इस मनोरम झील तक की चढ़ाई में अनुभवी आरोहियों (ट्रेकर्स) की भी परीक्षा होती है। बहुत ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों पर चढ़ने के लिये एक मार्गदर्शक की नितांत आवश्यकता होती है। रास्ते में किसी प्रकार की सुविधा नहीं है इसलिये सब कुछ पहले प्रबन्ध करना होता है। झील पूर्ण साफ है, जहां विशाल थलयसागर चोटी है। यह स्थान समुद्र तल से 15,000 फीट ऊंचा है तथा थलयसागर जोगिन, भृगुपंथ तथा अन्य चोटियों पर चढ़ने के लिये यह आधार शिविर है। जून-अक्टुबर के बीच आना सर्वोत्तम समय है। केदार ग्लेशियर के पिघलते बर्फ से बनी यह झील भागीरथी की सहायक केदार गंगा का उद्गम स्थल है, जिसे भगवान शिव द्वारा भागीदारी को दान मानते हैं। चढ़ाई थोड़ी कठिन जरूर है पर इस स्थान का सौदर्य आपकी थकावट दूर करने के लिये काफी है।
जब सर्दी प्रारंभ होती है, देवी गंगा अपने निवास स्थान मुखबा गांव चली जाती है। वह अक्षय द्वितीया के दिन वापस आती है। उसके दूसरे दिन अक्षय तृतीया, जो प्रायः अप्रैल महीने के दूसरे पखवाड़े में पड़ता है, हिन्दु कैलेण्डर का अति पवित्र दिन होता है। इस समय बर्फ एवं ग्लेशियर का पिघलना शुरू हो जाता है तथा गंगोत्री मंदिर पूजा के लिए खुल जाते हैं। देवी गंगा के गंगोत्री वापस लौटने की यात्रा को पारम्परिक रीति-रिवाजों, संगीत, नृत्य, जुलुस तथा पूजा-पाठ के उत्सव के साथ मनाया जाता है। इस यात्रा का रिकार्ड इतिहास कम से कम 700 वर्ष पुराना है और इस बात की कोई जानकारी नहीं कि इससे पहले कितनी सदियों से यह यात्रा मनायी जाती है। मुखबा, मतंग ऋषि के तपस्या स्थान के रूप में जाना जाता है। इस यात्रा के तीन या चार दिनों पहले मुखबा गांव के लोग तैयारियां शुरू कर देते हैं। गंगा की मूर्त्ति को ले जाने वाली पालकी को हरे और लाल रंग के रंगीन कपड़ो से सजाया जाता है। जेवरातों से सुसज्जित कर गंगा की मूर्त्ति को पालकी के सिंहासन पर विराजमान करते हैं। पूरा गांव गंगात्री तक की 25 किलोमीटर की यात्रा में शामिल होते हैं। भक्तगण गंगा से अगले वर्ष पुनः वापस आने की प्रार्थना कर ही जुलुस से विदा लेते हैं। जुलुस के शुरू होने से पहले बर्षा होना – जो प्रायः होती है – मंगलकारी होने का शुभ संकेत हैं।
जुलुस में पास के गांव से भी देवी गंगा के साथ अन्य देवी – देवताओं की डोली शामिल होती हैं। उनमें से कुछ अपने क्षेत्र की सीमा तक साथ रहते हैं। सोमेश्वर देवता भी पालकी में सुसज्जित होकर शामिल होते हैं। गंगा औऱ सोमेश्वर देवता का मिलन अधिकाधिक उत्सव का संकेत हैं। लोग दोने देवताओं की प्रतिमा को साथ में लेकर स्थानीय संगीत के धुन में नाचते एवं थिरकते चलते हैं। जब दोनों पालकी की यात्रा शुरू होती है तो इस जुलुस में सोमेश्वर देवता की अगुआनी। नेतृत्व में गढ़वाल स्काउट (आर्मी बेण्ड) पारम्परिक रीति-रिवाजों में भाग लेते हैं तथा पारम्परिक संगीत बजाते हैं। रास्ते में लोग देवी-देवताओ की पूजा करते हैं तथा भक्तगणों को जलपान मुहैया कर उन्हें मदद करते हैं। धराली गांव की सीमा पर, सोमेश्वर देवता की यात्रा समाप्त होती है तथा गंगा अपनी यात्रा जारी रखती हैं। यात्रा के दूसरे दिन यह जुलुस गंगात्री पहुंचता हैं तथा भक्तगण देवी गंगा के आगमन एवं स्वागत की प्रतिक्षा कर रहे होता हैं। विस्तृत रीति-रिवाजों तथा पूजा-पाठ के बाद मंदिर के दरबाजे खोले जाते हैं और गंगा की प्रतिमा को मंदिर में स्थापित किया जाता हैं। इसके साथ ही गंगात्री मंदिर के दरबाजे पुनः लोगों के पूजा-पाठ के लिए खोल दिये जाते हैं। इसी प्रकार जब बर्फ जमना शुरू होने और यात्रा सीजन समाप्त होने पर पारम्परिक रीति-रिवाजों तथा उत्सव के साथ देवी गंगा वापस मुखबा गांव वापस चली जाती हैं।
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