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भालचंद्र नेमाडे द्वारा उपन्यास विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
कोसला यह भारतीय लेखक भालचंद्र नेमाडे द्वारा १९६३ में प्रकाशित एक मराठी भाषा का उपन्यास है। इसे नेमाडे की सर्वोत्तम रचना के रूप में माना जाता है, और मराठी साहित्य के एक आधुनिक क्लासिक साहित्य के रूप में स्वीकार किया जाता है। उपन्यास की कथा एक युवक, पांडुरंग संगविकर और उसके दोस्तों के महाविद्यालय के वर्षों से आगे की यात्रा को बयान करता है। इस उपन्यास में लेखक ने आत्मकथा के रूप का उपयोग किया है।
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कोसला को मराठी साहित्य में पहला अस्तित्ववादी उपन्यास माना जाता है।[1] प्रकाशन के बाद से, इसके खुले अंत और विभिन्न विवेचनों के लिए इस उपन्यास को अनेक रूप में देखा गया है। यह उपन्यास १९६० के बाद के मराठी उपन्यासों का एक आधुनिक क्लासिक बन गया है, और इसका आठ दक्षिण एशियाई भाषाओं में और अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है।
इसके प्रकाशन के साथ नेमाडे तेजी से अपनी पीढ़ी के प्रतिनिधि लेखक माने जाने लगे। [2] कोसला पर आधारित नाटक मी, पांडुरंग संगविकर , का निर्देशन मंदार देशपांडे ने किया हैं। [3]
कोसला यह भालचंद्र नेमाडे का पहला उपन्यास है और इसकी कल्पना और लेखन उन्होंने अपने जीवन के मुम्बई के चरण के दौरान किया था।[2] २१ साल की उम्र में, नेमाडे अपनी पत्रकारिता आकांक्षाओं में विफल हो गयें, और अपने गांव लौट आए। उन्हे अपने पिता द्वारा वहाँ पर झिड़क दिया गया था, क्योंकि वें निराश थे कि उनके बेटे ने एक महंगी शिक्षा को खत्म करने का जोखिम उठाया और डरपोक की तरह पिछे मुड़ गए।
सन् १९६३ में, नेमाडे २५ वर्ष के थे और अपने गाँव में रह रहें थे। खुद को वे हिंदू राजा त्रिशंकु की तुलना में देखते थें, क्योंकि उन्हें भी न तो शहर और न ही उनके गांव के परिवार द्वारा स्वीकारा गया। उन्होंने घर के एक कमरे में खुद को बंद कर दिया और तीन सप्ताह की अवधि में अपना उपन्यास लिखा। कोसला को उसी साल सितम्बर में जे. जे. देशमुख द्वारा प्रकाशित किया गया, जो नेमाडे को मुम्बई से जानते थे और उन्हे लिखने के लिए प्रोत्साहित किया करते थे।[2]
कोसला पांडुरंग संगविकर के जीवन के पहले पच्चीस वर्षों को दिखाने के लिए प्रथम-व्यक्ति कथा तकनीक का उपयोग करता है।[2] यह एक ग्रामीण परवरिश का युवक है जो अपनी उच्च शिक्षा के लिए पुणे जाता है। वह अपनी नई सामाजिक स्थिती में अलग महसूस करता है, और निरंतरता की यह भावना उसे घर लौटने के लिए प्रेरित करती है। वहाँ, वह अपनी बहन की मृत्यु, उसके पिता के प्रभुत्व और अपनी स्वयं की वित्तीय निर्भरता के साथ आगे के मोहभंग का सामना करता है।[1] उपन्यास का उद्देश्य पांडुरंग, एक युवा लड़के के दृष्टिकोण से समाज को चित्रित करने का है।
उपन्यास के मुख्य पात्र है: [4]
कोसला का आठ भारतीय भाषाओं में और अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है। उपन्यास के उपलब्ध अनुवाद इस प्रकार हैं:
शीर्षक | भाषा | अनुवादक | साल | प्रकाशक | संदर्भ |
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ककून | अंग्रेज़ी | सुधाकर मराठे | १९९७ | मैकमिलन पब्लिशर्स इंडिया, चेन्नई | [5] |
कोसला | हिन्दी | भगवानदास वर्मा | १९९२ | नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली | [6] |
कोशेतो | गुजराती | उषा शेठ | १९९५ | नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली | [7] |
कोशला | कन्नड़ | वामन दत्तात्रेय बेंद्रे | १९९५ | नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली | [8] |
पलूर वाह | असमिया | किशोरीमोहन शर्मा | १९९६ | नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली | [9] |
कोशल | पंजाबी | अजित सिंह | १९९६ | नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली | [10] |
नीड | बंगाली | वंदना अलसे हजरा | २००१ | साहित्य अकादमी, नई दिल्ली | [11] |
कोसला | उर्दू | मुशर्रफ आलम जौकी | २००२ | नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली | [12] |
कोशापोक | Odia | चेरश्री इंद्रसिंह | २००५ | नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली | [13] |
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