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कतकी मेला, उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में बांदा जिले में स्थित एक कस्बे कलिंजर के कालिंजर दुर्ग में प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर पाँच दिवस के लिये लगता है। इसमें हजारों श्रद्धालुओं कि भीड़ उमड़ती है। साक्ष्यों के अनुसार यह मेला चंदेल शासक परिमर्दिदेव (११६५-१२०२) के समय आरम्भ हुआ था, जो आज तक लगता आ रहा है।[1] इस कालिंजर महोत्सव का उल्लेख सर्वप्रथम परिमर्दिदेव के मंत्री एवं नाटककार वत्सराज रचित नाटक रूपक षटकम में मिलता है। उनके शासनकाल में हर वर्ष मंत्री वत्सराज के दो नाटकों का मंचन इसी महोत्सव के अवसर पर किया जाता था। कालांतर में मदनवर्मन के समय एक पद्मावती नामक नर्तकी के नृत्य कार्यक्रमों का उल्लेख भी कालिंजर के इतिहास में मिलता है। उसका नृत्य उस समय महोत्सव का मुख्य आकर्षण हुआ करता था। एक सहस्र वर्ष से यह परंपरा आज भी कतकी मेले के रूप चलती चली आ रही है, जिसमें विभिन्न अंचलों के लाखों लोग यहाँ आकर विभिन्न सरोवरों में स्नान कर नीलकंठेश्वर महादेव के दर्शन कर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं। तीर्थ-पर्यटक दुर्ग के ऊपर एवं नीचे लगे मेले में खरीददारी आदि भी करते हैं। इसके अलावा यहाँ ढेरों तीर्थयात्री तीन दिन का कल्पवास भी करते हैं। इस भीड़ के उत्साह के आगे दुर्ग की अच्छी चढ़ाई भी कम होती प्रतीत होती है। यहां ऊपर पहाड़ के बीचों-बीच गुफानुमा तीन खंड का नलकुंठ है जो सरग्वाह के नाम से प्रसिद्ध है।[2] वहां भी श्रद्धालुओं की भीड़ जुटती है।
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कार्तिक पूर्णिमा के दिन बिठूर में गंगा नदी के किनारे लगने वाला कार्तिक यानी कतकी मेला प्राचीन काल से ही पूरे उत्तर भारत में प्रसिद्ध है। कानपुर शहर से 15 किलोमीटर दूर गंगा तट पर स्थित बिठूर वैसे तो हर साल धार्मिक लिहाज से श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र रहता है, लेकिन कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहां बड़ा मेला लगता है। यहां तीन दिन तक चलने वाले मेले में ही नौलखा हार की जंग शुरू हुई थी, जो आगे चलकर महोबा के चंदेल वंश के बीच छिड़ी ऐतिहासिक लड़ाई की मूक गवाह बनी।
जम्बूद्वीप के अर्न्तगत भारतखंड के आर्यावर्त प्रदेश में मां गंगा और यमुना जैसी पावन नदियों के दोआब में स्थित बिठूर का कार्तिक मेला एक ऐतिहासिक युद्ध का भी गवाह है। कहते हैं कि 12 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कार्तिक पूर्णिमा के दौरान चारों ओर के महाराजा बिठूर मेले की तैयारी करने लगे, तो मांडवगढ़ के राजा जंभी का पुत्र करिंगा भी बिठूर के मेले में जाने लगा। तब उसकी बहन ने मनुहारपूर्ण वाणी में उससे कहा कि भाई हमारे लिए मेले से कोई अनमोल वस्तु जरूर ले आना। बहन को वचन देकर करिंगा अपनी छोटी सेना के साथ बिठूर मेले के लिए कूच कर गया। बिठूर के कतकी मेले में महोबा के चंदेल राजा परमार्दि देव (परमाल) की रानी मलना देवी भी अपनी बहन के साथ आई थी। बिठूर की सीमा तब पांच कोस की थी। राजा परमाल के अन्य दो पुत्र दक्षराज व वृत्सराज महोबा से तीन किलोमीटर दूर दशरापुर में महल बनाकर रहते थे। इन्हीं दक्षराज के पुत्र आल्हा व ऊदल थे। दक्षराज की पत्नी देवलादेवी को उसकी छोटी बहन मलनादेवी ने नौलखा हार उपहार में दिया था। वही हार पहनकर देवला देवी बिठूर के कार्तिक पूर्णिमा के मेले में आई थी। मलनादेवी के गले में हार देखकर करिंगा का मन डोल गया उसने रानी की सेना पर हमला बोल दिया। वह रानी का हार छीनता, तभी वहां गोरखपुर के बनरसगांव के तालन सैय्यद ने शोर सुनकर अपने सैनिकों को ललकारा, सैनिकों ने करिंगा को मार भगाया। रानी ने सैय्यद को अपना धर्म भाई बना लिया।
अपमानित करिंगा ने पुन: रात्रि में दशपुर में धावा बोल दिया और रानी का हार छीन लिया। दक्षराज के लड़के आल्हा व ऊदल और मलखान व सुलखान अबोध बालक थे। इन्हें अपने पिता की हत्या के बारे में कुछ पता न था। इनके बड़े होने के उपरांत माहिल को अपने भविष्य की चिंता हुई। उसने इन्हें दक्षराज व वत्सराज की मृत्यु का हाल सुना दिया। इसके बाद चारों वीर सैय्यद के साथ मांडवगढ़ की तरफ निकले। मांडवगढ़ की प्रसिद्ध लड़ाई में करिंगा मारा गया। देवला देवी का नौलखा हार मिल वापस मिल गया। इस तरह बिठूर की कार्तिक पूर्णिमा का मेला मांडवा की प्रसिद्ध लड़ाई का जनक बन गया।
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