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एंथ्राक्स
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एंथ्रेक्स एक खतरनाक एवं जानलेवा रोग है। यह मानव एवं पशु दोंनो को संक्रमित करता है। इसका कारण बेसिलस एंथ्रासीस नामक जीवाणु है। यह बीमारी भेड़ों में अधिक पाई जाती है। एंथ्रैक्स का प्रसार गरम और आर्द्र दिनों में जीवाणुओं के माध्यम से होता है। एंथ्रैक्स एक जूनोटिक बीमारी है, जिसका मतलब है कि यह जानवरों से मनुष्यों तक प्रसारित हो सकती है। एंथ्रैक्स रोग को मुख्य रूप से स्प्लीनिक फीवर, ऊन छानने वाले की बीमारी (Wool Sorter's Disease ) , चमड़े की पोर्टर की बीमारी (Hide Porter's Disease ) , गिल्टी बीमारी के रूप में जाना जाता है, और इसे जहरी बुखार भी कहा जाता है। एंथ्रैक्स के पराक्रमी रूप की पहचान मृत्यु के बाद होती है, जिसमें प्राकृतिक छिद्रॉ से (मुँह, योनि, गुदा, और नाक) से काला झागदार खून निकलता है। एंथ्रैक्स संक्रमित जानवरों में मौत मुख्य रूप से गुर्दे के विफलता और सेप्टिकेमिक शॉक के कारण होती है। एंथ्रैक्स संक्रमित जानवरों की पोस्ट-मार्टम परीक्षा वायुमंडलीय जैविक स्पोर्स के कारण नहीं की जाती है। [1]इस रोग के खिलाफ कार्य करने वाला वैक्सीन हैं एवं प्रतिजैविक भी उपलब्ध हैं। बींसवा सदी को आने तक इस रोग ने एशिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका में लाखों पशुओं एवं मनुष्यों को प्रतिवर्ष मारा। सर्वप्रथम फ्रांसीसी वैज्ञानिक लुई पाश्चर ने इसके पहले प्रभावी वैक्सीन का निर्माण किया।
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यह बैक्टिरिया संक्रामक नहीं है और मुख्य रूप से जानवरों में फैलता है, फिर भी खाने–पीने से ले कर सांस के साथ इसके स्पॊर हमारे शरीर में पहुँच कर अंकुरित हो सकते हैं। यहाँ तक कि हमारी त्वचा में भी यदि कोई घाव है तो वहाँ भी ये अंकुरित हो सकते हैं और कुछ ही समय में इस बीमारी के जानलेवा लक्षण उत्पन्न हो सकते हैं। खाने–पीने के साथ एंथ्रैक्स के स्पॊर्स हमारे आहार नाल मे पहुँच कर मितली, खूनी उल्टी, खूनी दस्त, पेट दर्द आदि के लक्षण उत्पन्न करते हैं। २५ से ६० प्रतिशत लोगों की मृत्यु भी हो जाती है। त्वचा पर इसका प्रभाव छोटे–छोटे उभारों के रूप में दीखता है जो शीघ्र ही फोड़े का रूप ले लेता है जिससे पानी के समान पतला पीव बहता रहता है। प्रारंभिक लक्षणों के समय इसका निदान सिप्रोफ्लॉक्सेसिन नामक एंटीबॉयोटिक द्वारा किया जा सकता है परंतु बाद में केवल इस बैक्टिरिया को नष्ट किया जा सकता है, इस बीमारी के लक्षणों को नहीं।[2]