ईश्वर
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ईश्वर शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है। ये दो संस्कृत के शब्द “ईश” और “वरच्” (प्रत्यय) के जुड़ने से बना है। ईश का अर्थ प्रभु, स्वामी या नियंत्रण करने वाला है। वर का अर्थ सर्वोपरि है। इसे भगवान, परमात्मा, प्रभु, परम पुरुष, या स्वामी भी कहा जा सकता है। ईश्वर विषय ऐसा विषय है जिस पर मानव सभ्यता सृष्टि के आरम्भ से ही विचार और विश्लेषण करती आई है। हिन्दु धर्म के अनुसार ईश, ईश्वर, परमेश्वर एक ही शक्ति के नाम हैं, यही वह परम शक्ति है जिससे समस्त संसार की उत्पत्ति हुई है।
विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों में ईश्वर के प्रति अलग-अलग मान्यताएँ और धारणाएँ पाई जाती हैं, लेकिन सभी धर्मों में ईश्वर को एक सर्वोच्च शक्ति, सृष्टिकर्ता और नियंता के रूप में मान्यता दी जाती है। ईश्वर शब्द की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना के मूल स्वरूप को समझने के लिए की गई होगी। ईश्वर की परिभाषा करना सरल नहीं है क्योंकि यह विभिन्न दृष्टिकोणों पर निर्भर करता है। हिन्दू धर्म में, ईश्वर को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में त्रिमूर्ति में माना जाता है। इस्लाम में, अल्लाह को एकमात्र सृष्टिकर्ता माना जाता है। ईसाई धर्म में, ईश्वर को पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के रूप में देखा जाता है।
ईश्वर शब्द हिन्दु धर्म ग्रंथों जैसे कि वेदों और पुराणों में कई स्थानों पर उल्लेखित है। जैसे की :
ऋग्वेद में ईश्वर को विभिन्न नामों से संबोधित किया गया है, जैसे कि 'ब्रह्मणस्पति', 'विष्णु', 'इन्द्र', 'अग्नि' आदि। इन नामों से ईश्वर की विभिन्न शक्तियों और रूपों की चर्चा की गई है। यजुर्वेद में, ईश्वर को 'परमात्मा' और 'सर्वशक्तिमान' के रूप में वर्णित किया गया है। यजुर्वेद के मंत्रों में सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाले परमात्मा की महिमा गाई गई है।
स पर्यगात् शुक्रम् अकायम् अव्रणम् अस्नाविरम् शुद्धम् अपापविद्धम्। कविः मनीषी परिभूः स्वयंभूः याथातथ्यतः अर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥ (यजुर्वेद ४०, ८) [1]
सामवेद में, संगीत और भक्ति के माध्यम से ईश्वर की स्तुति की जाती है। यहाँ पर ईश्वर को 'उत्सव' और 'प्रभु' के रूप में पुकारा जाता है। अथर्ववेद में, ईश्वर को 'ब्रह्म' के रूप में वर्णित किया गया है। इसमें ईश्वर की अद्वितीयता और सर्वव्यापकता पर जोर दिया गया है।
भागवत पुराण में, ईश्वर को 'भगवान श्रीकृष्ण' के रूप में वर्णित किया गया है। इसमें श्रीकृष्ण के जीवन और उनकी लीलाओं का विस्तृत वर्णन है, जिसमें वे सर्वोच्च ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, वे कहते हैं कि सबका बीज अर्थात् कारण मैं ही हूँ : यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन। न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्।।१०.३९।। [2]
शिव पुराण में, भगवान शिव को ईश्वर के रूप में पूजा जाता है। इसमें शिव की महिमा, उनकी लीलाएँ, और उनके विभिन्न रूपों का वर्णन है। विष्णु पुराण में, भगवान विष्णु को ईश्वर के रूप में माना गया है। इसमें विष्णु के दशावतारों की कथा और उनकी लीला का वर्णन है। देवी भागवत पुराण में, देवी माँ को सर्वोच्च ईश्वर के रूप में वर्णित किया गया है। इसमें देवी की महिमा, उनकी उपासना और उनके विभिन्न रूपों का विवरण है।
ईशावास्य उपनिषद में कहा गया है,
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् [3]
अर्थ : "यह संपूर्ण जगत ईश्वर में व्याप्त है।"
कठोपनिषद में कहा गया है, “ईश्वर का संबंध आत्मा और परमात्मा से है, ईश्वर सर्वोच्च सत्ता और ज्ञान का स्रोत है। वे सबसे छुपा हुआ है। ईश्वर को अनुभव करने के लिए गहरी, सूक्ष्म और ध्यानमग्न बुद्धि की आवश्यकता होती है। ईश्वर का साक्षात्कार करना साधारण ज्ञान से परे है।”
एष सर्वेषु भूतेषु गूढो ऽऽत्मा न प्रकाशते। । दृश्यते तु अग्रयया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः॥ (कठोपनिषद) [4] मुण्डकोपनिषद में कहा गया है, सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म जिसका अर्थ है, "ईश्वर सत्य, ज्ञान और अनंतता का स्वरूप है। श्वेताश्वतर उपनिषद् कहता है, “ईश्वर तिल में छुपे हुए तेल की तरहं से ही हमारे शरीर में छुपा हुआ है। उसे सत्य और तपस्या से ही अनुभव किया जा सकता है। इसका साक्षात्कार बाहरी दुनिया में नहीं है, बल्कि साधना और सत्य के अनुसरण से ही सम्भव हैं।”
न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुसा पश्यति कश्चनैनम्। हृदा-हृदिस्थं मनसा च एनमेव विदुरमृतास्ते भवन्ति॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद्) [5]
हर ग्रंथ अपने तरीके से ईश्वर की महिमा का गुणगान करता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि ईश्वर की अवधारणा भारतीय धार्मिक और दार्शनिक विचारों में कितनी महत्वपूर्ण है। इस की महत्ता को सभी हिन्दू ग्रंथ, वेद, पुराण और उपनिषद ईश्वर के रूप में स्वीकारते हैं।