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अलंकार काव्य के अभूषण होते है अर्थात ये काव्य की शोभा बढ़ाते है| विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
काव्य का सौन्दर्य बढ़ाने वाले तत्त्व अलंकार (figure of speech) कहलाते हैं।[1] जिस प्रकार आभूषण से नारी का लावण्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार अलंकार से कविता की शोभा बढ़ जाती है। शब्द तथा अर्थ की जिस विशेषता से काव्य का शृंगार होता है उसे ही अलंकार कहते हैं। कहा गया है - 'अलङ्करोति इति अलंकारः' (जो अलंकृत करता है, वही अलंकार है।) भारतीय साहित्य में अनुप्रास, उपमा, रूपक, अनन्वय, यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा, संदेह, अतिशयोक्ति, वक्रोक्ति आदि प्रमुख अलंकार हैं। इसके अलावा अन्य अलंकार भी हैं।
उपमा आदि के लिए अलंकार शब्द का संकुचित अर्थ में प्रयोग किया गया है। व्यापक रूप में सौंदर्य मात्र को अलंकार कहते हैं और उसी से काव्य ग्रहण किया जाता है। (काव्यं ग्राह्ममलंकारात्। सौन्दर्यमलंकार: - वामन)। चारुत्व को भी अलंकार कहते हैं। (टीका, व्यक्तिविवेक)। भामह के विचार से वक्रार्थविजा एक शब्दोक्ति अथवा शब्दार्थवैचित्र्य का नाम अलंकार है। (वक्राभिधेतशब्दोक्तिरिष्टा वाचामलं-कृति:।) रुद्रट अभिधानप्रकारविशेष को ही अलंकार कहते हैं। (अभिधानप्रकाशविशेषा एव चालंकारा:)। दंडी के लिए अलंकार काव्य के शोभाकर धर्म हैं (काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते)। सौंदर्य, चारुत्व, काव्यशोभाकर धर्म इन तीन रूपों में अलंकार शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है और शेष में शब्द तथा अर्थ के अनुप्रासोपमादि अलंकारों के संकुचित अर्थ में। एक में अलंकार काव्य के प्राणभूत तत्त्व के रूप में ग्रहीत हैं और दूसरे में सुसज्जितकर्ता के रूप में।
सामान्यतः कथनीय वस्तु को अच्छे से अच्छे रूप में अभिव्यक्ति देने के विचार से अलंकार प्रयुक्त होते हैं। इनके द्वारा या तो भावों को उत्कर्ष प्रदान किया जाता है या रूप, गुण, तथा क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराया जाता है। अत: मन का ओज ही अलंकारों का वास्तविक कारण है। आडम्बर और चमत्कारप्रिय व्यक्ति शब्दालंकारों का और भावुक व्यक्ति अर्थालंकारों का प्रयोग करता है (रुचिभेद)। शब्दालंकारों के प्रयोग में पुररुक्ति, प्रयत्नलाघव तथा उच्चारण या ध्वनिसाम्य मुख्य आधारभूत सिद्धांत माने जाते हैं और पुनरुक्ति को ही आवृत्ति कहकर इसके वर्ण, शब्द तथा पद के क्रम से तीन भेद माने जाते हैं, जिनमें क्रमश: अनुप्रास और छेक एवं यमक, पररुक्तावदाभास तथा लाटानुप्रास को ग्रहण किया जाता है। वृत्यनुप्रास प्रयत्नलाघव का उदाहरण है। वृत्तियों और रीतियों का आविष्कर इसी प्रयत्नलाघव के कारण होता है। श्रुत्यनुप्रास में ध्वनिसाम्य स्पष्ट है ही। इन प्रवृत्तियों के अतिरिक्त चित्रालंकारों की रचना में कौतूहलप्रियता, वक्रोक्ति, अन्योक्ति तथा विभावनादि अर्थालंकारों की रचना मं वैचित्र्य में आनंद मानने की वृत्ति कार्यरत रहती हैं। भावाभिव्यंजन, न्यूनाधिकारिणी तथा तर्कना नामक मनोवृत्तियों के आधार पर अर्थालंकारों का गठन होता है। ज्ञान के सभी क्षेत्रों में अलंकारें की सामग्री ली जाती है, जैसे व्याकरण के आधार पर क्रियामूलक भाविक और विशेष्य-विशेषण-मूलक अलंकारों का प्रयोग होता है। मनोविज्ञान से स्मरण, भ्रम, संदेह तथा उत्प्रेक्षा की सामग्री ली जाती है, दर्शन से कार्य-कारण-संबंधी असंगति, हेतु तथा प्रमाण आदि अलंकार लिए जाते हैं और न्यायशास्त्र के क्रमश: वाक्यन्याय, तर्कन्याय तथा लोकन्याय भेद करके अनेक अलंकार गठित होते हैं। उपमा जैसे कुछ अलंकार भौतिक विज्ञान से संबंधित हैं और रसालंकार, भावालंकार तथा क्रियाचातुरीवाले अलंकार नाट्यशास्त्र से ग्रहण किए जाते हैं।
आचार्यों ने काव्यशरीर, उसके नित्यधर्म तथा बहिरंग उपकारक का विचार करते हुए काव्य में अलंकार के स्थान और महत्त्व का व्याख्यान किया है। इस संबंध में इनका विचार, गुण, रस, ध्वनि तथा स्वयं के प्रसंग में किया जाता है। शोभास्रष्टा के रूप में अलंकार स्वयं अलंकार्य ही मान लिए जाते हैं और शोभा के वृद्धिकारक के रूप में वे आभूषण के समान उपकारक मात्र माने जाते हैं। पहले रूप में वे काव्य के नित्यधर्म और दूसरे रूप में वे अनित्यधर्म कहलाते हैं। इस प्रकार के विचारों से अलंकारशास्त्र में दो पक्षों की नींव पड़ गई। एक पक्ष ने, जो रस को ही काव्य की आत्मा मानता है, अलंकारों को गौण मानकर उन्हें अस्थिरधर्म माना और दूसरे पक्ष ने उन्हें गुणों के स्थान पर नित्यधर्म स्वीकार कर लिया। काव्य के शरीर की कल्पना करके उनका निरूपण किया जाने लगा। आचार्य वामन ने व्यापक अर्थ को ग्रहण करते हुए संकीर्ण अर्थ की चर्चा के समय अलंकारों को काव्य का शोभाकार धर्म न मानकर उन्हें केवल गुणों में अतिशयता लानेवाला हेतु माना (काव्यशोभाया: कर्त्तारो धर्मा गुणा:। तदतिशयहेतवस्त्वलंकारा:। -का. सू.)। आचार्य आनंदवर्धन ने इन्हें काव्यशरीर पर कटककुंडल आदि के सदृश मात्र माना है। (तमर्थमवलंबते येऽङिगनं ते गुणा: स्मृताः। अंगाश्रितास्त्वलंकारा मन्तव्याः कटकादिवत्। - ध्वन्यालोक)। आचार्य मम्मट ने गुणों को शौर्यादिक अंगी धर्मों के समान तथा अलंकारों को उन गुणों का अंगद्वारा से उपकार करनेवाला बताकर उन्हीं का अनुसरण किया है (ये रसस्यांगिनी धर्मा: शौयादय इवात्मन:। उत्कर्षहेतवस्तेस्युरचलस्थितयो गुणा:।। उपकुर्वंति ते संतं येऽङगद्वारेण जातुचित्। हारादिवदलंकारास्तेऽनुप्रासोपमादय:।) उन्होंने गुणों को नित्य तथा अलंकारों को अनित्य मानकर काव्य में उनके न रहने पर भी कोई हानि नहीं मानी (तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुन: क्वापि- का.प्र.)। आचार्य हेमचंद्र तथा आचार्य विश्वनाथ दोनों ने उन्हें अंगाश्रित ही माना है। हेमचंद्र ने तो "अंगाश्रितास्त्वलंकारा:" कहा ही है और विश्वनाथ ने उन्हें अस्थिर धर्म बतकर काव्य में गुणों के समान आवश्यक नहीं माना है (शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्मा: शोभातिशयिन:। रसादीनुपकुर्वंतोऽलंकारास्तेऽङगदादिवत्।—सा.द्र.)। इसी प्रकार यद्यपि अग्निपुराणकार ने "वाग्वैधग्ध्यप्रधानेऽपि रसएवात्रजीवितम्" कहकर काव्य में रस की प्रधानता स्वीकार की है, तथापि अलंकारों को नितांत अनावश्यक न मानकर उन्हें शोभातिशायी कारण मान लिया है (अर्थालंकाररहिता विधवेव सरस्वती)।
इन मतों के विरोध में 13वीं शती में जयदेव ने अलंकारों को काव्यधर्म के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए उन्हें अनिवार्य स्थान दिया है। जो व्यक्ति अग्नि में उष्णता न मानता हो, उसी की बुद्धिवाला व्यक्ति वह होगा जो काव्य में अलंकार न मानता हो। अलंकार काव्य के नित्यधर्म हैं (अंगीकरोति य: काव्यं शब्दार्थावनलंकृती। असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती।- चंद्रालोक)।
इस विवाद के रहते हुए भी आनंदवर्धन जैसे समन्वयवादियों ने अलंकारों का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए उन्हें आंतर मानने में हिचक नहीं दिखाई है। रसों को अभिव्यंजना वाच्यविशेष से ही होती है और वाच्यविशेष के प्रतिपादक शब्दों से रसादि के प्रकाशक अलंकार, रूपक आदि भी वाच्यविशेष ही हैं, अतएव उन्हें अंतरंग रसादि ही मानना चाहिए। बहिरंगता केवल प्रयत्नसाध्य यमक आदि के संबंध में मानी जाएगी (यतो रसा वाच्यविशेषैरेवाक्षेप्तव्या:। तस्मान्न तेषां बहिरंगत्वं रसाभिव्यक्तौ। यमकदुष्करमार्गेषु - तु तत् स्थितमेव। - ध्वन्यालोक)। अभिनवगुप्त के विचार से भी यद्यपि रसहीन काव्य में अलंकारों की योजना करना शव को सजाने के समान है (तथाहि अचेतनं शवशरीरं कुंडलाद्युपेतमपि न भाति, अलंकार्यस्याभावात्-लोचन), तथापि यदि उनका प्रयोग अलंकार्य सहायक के रूप में किया जाएगा तो वे कटकवत् न रहकर कुंकुम के समान शरीर को सुख और सौंदर्य प्रदान करते हुए अद्भुत सौंदर्य से मंडित करेंगे; यहाँ तक कि वे काव्यात्मा ही बन जाएँगे। जैसे खेलता हुआ बालक राजा का रूप बनाकर अपने को सचमुच राजा ही समझता है और उसके साथी भी उसे वैसा ही समझते हैं, वैसे ही रस के पोषक अलंकार भी प्रधान हो सकते हैं (सुकवि: विदग्धपुरंध्रीवत् भूषणं यद्यपि श्लिष्टं योजयति, तथापि शरीरतापत्तिरेवास्य कष्टसंपाद्या, कुंकुमपीतिकाया इव। बालक्रीडायामपि राजत्वमिवेत्थममुमर्थं मनसि कृत्वाह।-लोचन)।
वामन से पहले के आचार्यों ने अलंकार तथा गुणों में भेद नहीं माना है। भामह "भाविक" अलंकार के लिए 'गुण' शब्द का प्रयोग करते हैं। दंडी दोनों के लिए "मार्ग" शब्द का प्रयोग करते हैं और यदि अग्निपुराणकार काव्य में अनुपम शोभा के आजाएक को गुण मानते हैं (य: काव्ये महतीं छायामनुगृह्णात्यसौ गुण:) तो दंडी भी काव्य के शोभाकर धर्म को अलंकार की संज्ञा देते हैं। वामन ने ही गुणों की उपमा युवती के सहज सौंदर्य से और शालीनता आदि उसके सहज गुणों से देकर गुणरहित किंतु अलंकारमयी रचना काव्य नहीं माना है। इसी के पश्चात् इस प्रकार के विवेचन की परंपरा प्रचलित हुई।
ध्वन्यालोक में "अनन्ता हि वाग्विकल्पा:" कहकर अलंकारों की अगणेयता की ओर संकेत किया गया है। दंडी ने "ते चाद्यापि विकल्प्यंते" कहकर इनकी नित्य संख्यवृद्धि का ही निर्देश किया है। तथापि विचारकों ने अलंकारों को शब्दालंकार, अर्थालंकार, रसालंकार, भावालंकार, मिश्रालंकार, उभयालंकार तथा संसृष्टि और संकर नामक भेदों में बाँटा है। इनमें प्रमुख शब्द तथा अर्थ के आश्रित अलंकार हैं। यह विभाग अन्वयव्यतिरेक के आधार पर किया जाता है। जब किसी शब्द के पर्यायवाची का प्रयोग करने से पंक्ति में ध्वनि का वही चारुत्व न रहे तब मूल शब्द के प्रयोग में शब्दालंकार होता है और जब शब्द के पर्यायवाची के प्रयोग से भी अर्थ की चारुता में अंतर न आता हो तब अर्थालंकार होता है। सादृश्य आदि को अलंकारों के मूल में पाकर पहले पहले उद्भट ने विषयानुसार, कुल 44 अलंकारों को छह वर्गों में विभाजित किया था, किंतु इनसे अलंकारों के विकास की भिन्न अवस्थाओं पर प्रकाश पड़ने की अपेक्षा भिन्न प्रवृत्तियों का ही पता चलता है। वैज्ञानिक वर्गीकरण की दृष्टि से तो रुद्रट ने ही पहली बार सफलता प्राप्त की है। उन्होंने वास्तव, औपम्य, अतिशय और श्लेष को आधार मानकर उनके चार वर्ग किए हैं। वस्तु के स्वरूप का वर्णन वास्तव है। इसके अंतर्गत 23 अलंकार आते हैं। किसी वस्तु के स्वरूप की किसी अप्रस्तुत से तुलना करके स्पष्टतापूर्वक उसे उपस्थित करने पर औपम्यमूलक 21 अलंकार माने जाते हैं। अर्थ तथा धर्म के नियमों के विपर्यय में अतिशयमूलक 12 अलंकार और अनेक अर्थोंवाले पदों से एक ही अर्थ का बोध करानेवाले श्लेषमूलक 10 अलंकार होते हैं।
अलंकार के मुख्यत: भेद माने जाते हैं-- शब्दालंकार, अर्थालंकार तथा उभयालंकार। शब्द के परिवृत्तिसह स्थलों में अर्थालंकार और शब्दों की परिवृत्ति न सहनेवाले स्थलों में शब्दालंकार की विशिष्टता रहने पर उभयालंकार होता है। अलंकारों की स्थिति दो रूपें में हो सकती है-- केवल रूप और मिश्रित रूप। मिश्रण की द्विविधता के कारण "संकर" तथा "संसृष्टि" अलंकारों का उदय होता है।
शब्दालंकारों में अनुप्रास, यमक, श्लेष तथा वक्रोक्ति की प्रमुखता है। अर्थालंकारों की संख्या लगभग एक सौ पचीस तक पहुँच गई है।
सब अर्थालंकारों की मूलभूत विशेषताओं को ध्यान में रखकर आचार्यों ने इन्हें मुख्यत: पांच वर्गों में विभाजित किया है :
काव्य में जब किसी व्यक्ति या वस्तु की तुलना दूसरे समान गुण वाले व्यक्ति या वस्तु से की जाती है तब उपमा अलंकार होता है। उदाहरण -
:१)सीता के पैर कमल समान हैं । :२)नील गगन सा शांत रस था रो रहा । :३)हरि पद कोमल कमल से । :४)पीपर पात सरिस मन डोला ।
इसमें उपमान अनुपस्थित होता है जबकि उपमेय प्रस्तुत या समक्ष रहता है।
अतिशयोक्ति = अतिशय + उक्ति = बढा-चढाकर कहना। जब किसी बात को बढ़ा चढ़ा कर बताया जाये, तब अतिशयोक्ति अलंकार होता है। उदाहरण -
जहां उपमेय में उपमान का आरोप किया जाए वहाँ रूपक अलंकार होता है अथवा जहां गुण की अत्यंत समानता के कारण उपमेय में ही उपमान का अभेद आरोप कर दिया जाता है, वहाँ रूपक अलंकार होता है।
रूपक अलंकार में गुण की अत्यंत समानता दिखाने के लिए उपमेय और उपमान को "अभिन्न" अर्थात् "एक" कर दिया जाता है। अर्थात् उपमान को उपमेय पर आरोपित कर दिया जाता है।
उदाहरण:—
जहाँ कारण के न होते हुए भी कार्य का होना पाया जाता है, वहाँ विभावना अलंकार होता है। अर्थात् जहाँ कार्य तो पूरा हो लेकिन कारण या साधन का अभाव हो वहाँ विभावना अलंकार होता है, यह अर्थालंकार का भेद है ;उदाहरण -
एक या अनेक वर्णो की पास-पास तथा क्रमानुसार आवृत्ति को अनुप्रास अलंकार कहते हैं ।जहाँ एक शब्द या वर्ण बार बार आता है वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।अनुप्रास का अर्थ है दोहराना। जहां कारण उत्पन्न होता है अर्थात् काव्य में जहां एक ही अक्षर की आवृत्ति बार-बार होती है, वहां अनुप्रास अलंकार होता है।(जब किसी काव्य पंक्ति में कोई वर्ण की आवृत्ति होती है वहां अनुप्रास अलंकार होता है।)
उदाहरण:—
(त अक्षर की आवृत्ति)
(च तथा ल की आवृत्ति)
(र अक्षर की आवृत्ति)
( भ वर्ण की आवृत्ति है )
एक ही शब्द, जब दो या दो से अधिक बार आये तथा उनका अर्थ अलग-अलग हो,तो वहाँ पर यमक अलंकार होता है ।
उदाहरण :-
यह अलंकार शब्द, अर्थ दोनों में प्रयुक्त होता हैं। श्लेष अलंकार में एक शब्द के दो अर्थ निकलते हैं। जैसे
यहाँ 'पानी' का प्रयोग तीन बार किया गया है, यहाँ प्रयुक्त 'पानी' शब्द के तीन अर्थ हैं - मोती के सन्दर्भ में पानी का अर्थ 'चमक' या कान्ति, मनुष्य के सन्दर्भ में पानी का अर्थ 'प्रतिष्ठा', चूने के सन्दर्भ में पानी का अर्थ 'जल' है।
प्रत्यक्ष अर्थ के अतिरिक्त भिन्न अर्थ समझ लेना वक्रोक्ति अलंकार कहलाता है। या किसी एक बात केे अनेक अर्थ होने केे कारण सुनने वाले द्वारा अलग अर्थ ले लिया जाए वहाँ वक्रोक्ति अलन्कार होता हैं
उदाहरण - श्री कृष्णा जब राधे जी से मिलने आते हैं तो राधा जी कहती हैं कोई तुम को कृष्णा कहते हैं मै घनश्याम तो राधा जी कहती हैं जाओ कहीं और बरशो ।
'प्रतीप' का अर्थ होता है- 'उल्टा' या 'विपरीत'। यह उपमा अलंकार के विपरीत होता है। क्योंकि इस अलंकार में उपमान को लज्जित, पराजित या हीन दिखाकर उपमेय की श्रेष्टता बताई जाती है।
उदाहरण- सिय मुख समता किमि करै चन्द वापुरो रंक।
जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना हो।जहां उपमेय और उपमान में समानता के कारण रूप में उपमान की संभावना की कल्पना की जाए, वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
उदाहरण:—
पहचान :—उत्प्रेक्षा अलंकार के कुछ वाचक शब्द इस प्रकार हैं— जाने, ज्यों, जनु, मनु, मानो, मनहु आदि।
जिस वर्णन में देखने में निंदा सी प्रतीत हो रही हो पर वास्तव में स्तुति की जा रही हो वहाँ ब्याजस्तुति अलंकार होता हैं।
जिस स्थान पर दो सामान्य या दोनों विशेष वाक्य में बिम्ब- प्रतिबिम्ब भाव होता है, उस स्थान पर दृष्टान्त अलंकार होता है। इस अलंकार में उपमेय रूप में कहीं गई बात से मिलती-जुलती बात उपमान रूप में दूसरे वाक्य में होती है। यह एक अर्थालंकार है।
यहाँ एक म्यान दो तलवारों का रहना वैसे ही असंभव है जैसा कि एक पति का दो नारियों पर अनुरक्त रहना। यहाँ बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव दृष्टिगत हो रहा है।
इसी तरह,
यहाँ सुख-दुःख तथा शशि-घन में बिंब प्रतिबिंब का भाव है इसलिए यहाँ दृष्टांत अलंकार है।
जहाँ दुविधा रहे वहां पर भ्रांतिमान अलंकार होता है , यह अर्थालंकार का भेद है
जहां पर जानि,मानी, समुझी, भ्रम, भ्रांति
जहां देखने में स्तुति सी प्रतीत हो परंतु वहाँ निंदा की जा रही हो वहाँ ब्याजनिन्दा अलंकार होता है ।
लक्षण | पहचान/चिह्न | उदाहरण/टिप्पणी |
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मानवीकरण | अमानव (प्रकृति, पशु-पक्षी व निर्जीव पदार्थ) में मानवीय गुणों का आरोपण | जगीं वनस्पतियाँ अलसाई, मुख धोती शीतल जल से। (जयशंकर प्रसाद) |
ध्वन्यर्थ व्यंजना | ऐसे शब्दों का प्रयोग जिनसे वर्णित वस्तु प्रसंग का ध्वनि-चित्र अंकित हो जाए। | चरमर-चरमर- चूँ- चरर- मरर। जा रही चली भैंसागाड़ी। (भगवतीचरण वर्मा) |
विशेषण - विपर्यय | विशेषण का विपर्यय कर देना (स्थान बदल देना) | इस करुणाकलित हृदय में अब विकल रागिनी बजती। (जयशंकर प्रसाद)
यहाँ 'विकल' विशेषण रागिनी के साथ लगाया गया है जबकि कवि का हृदय विकल हो सकता है रागिनी नहीं। |
जहां कारण के उपस्थित होने पर भी कार्य नहीं होता,वहाँ विशेषोक्ति अलंकार होता है । उदा:-
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