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व्यापक अर्थ में अनुसन्धान (Research) किसी भी क्षेत्र में 'ज्ञान की खोज करना' या 'विधिवत गवेषणा' करना होता है। वैज्ञानिक अनुसन्धान में वैज्ञानिक विधि का सहारा लेते हुए जिज्ञासा का समाधान करने की कोशिश की जाती है। नवीन वस्तुओं की खोज और पुरानी वस्तुओं एवं सिद्धान्तों का पुनः परीक्षण करना, जिससे कि नए तथ्य प्राप्त हो सकें, उसे शोध कहते हैं।
शोध उस प्रक्रिया अथवा कार्य का नाम है जिसमें बोधपूर्वक तथ्यों का संकलन कर व्यवस्थित व सावधानीपूर्वक सूक्ष्म बुद्धि से तथ्यों का अवलोकन कर नए तथ्यों या सिद्धांतों का उद्घाटन किया जाता है।
अध्ययन से दीक्षित होकर शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करते हुए शिक्षा में या अपने शैक्षिक विषय में कुछ जोड़ने की क्रिया अनुसन्धान कहलाती है। पी-एच.डी./ डी.फिल या डी.लिट्/डी.एस-सी. जैसी शोध उपाधियाँ इसी उपलब्धि के लिए दी जाती हैं। इनमें अध्येता से अपने शोध से ज्ञान के कुछ नए तथ्य या आयाम उद्घाटित करने की अपेक्षा की जाती है।
'शोध' अंग्रेजी शब्द 'रिसर्च' का पर्याय है किन्तु इसका अर्थ 'पुनः खोज' नहीं है अपितु 'गहन खोज' है। इसके द्वारा हम कुछ नया आविष्कृत कर उस ज्ञान परम्परा में कुछ नए अध्याय जोड़ते हैं।
स्पष्ट है कि विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने शोध शब्द को विभिन्न रूपों में परिभाषित करने का प्रयास किया है। सभी परिभाषायें अपने आप में संतोषजनक तथा एक-दूसरे की पूरक हैं।
शोध की प्रक्रिया के निम्नलिखित चरण माने जाते हैं-
शोध एक प्रक्रिया है जो कई चरणों से होकर गुजरती है। शोध प्रक्रिया के प्रमुख चरण ये हैं-
शोध करने के लिए सबसे पहले किसी समस्या या प्रश्न की आवश्यकता होती है। हमारे सामने कोई समस्या या प्रश्न होता है जिसके समाधान के लिए हम शोध की दिशा में आगे बढ़ते हैं। इसके लिए शोधार्थी में जिज्ञासा की प्रवृत्ति का होना आवश्यक है। किसी विशेष ज्ञान क्षेत्र में शोध समस्या का समाधान या जिज्ञासा की पूर्ति में किया गया कार्य उस विशेष ज्ञान क्षेत्र का विस्तार करता है। इसके साथ ही शोध से नये-नये शैक्षिक अनुशासनों का उद्भव होता है जो अपने विषय क्षेत्र की विशेषज्ञता का प्रतिनिधित्व करते हैं।
शोध कार्य सम्पन्न करने हेतु विभिन्न प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है अतः शोध के कई प्रकार होते हैं जैसे-
वैश्वीकरण और सूचना प्रौद्योगिकी के विस्तार के दौर में शोध के माध्यम से प्रत्येक शैक्षिक अनुशासन परस्पर संवाद की प्रक्रिया में है। फलतः अन्तरानुशासनात्मक शोध का महत्त्व बढ़ा है। इससे विभिन्न शैक्षिक विषयों का परस्पर आदान-प्रदान संभव हुआ है।
अनुसंधान के अंतर्गत जब प्रत्येक विषय को एक पूर्ण इकाई के रूप में भिन्न-भिन्न न लेकर विभिन्न विषयों को एक समूह में रखा जाए, जिनका लक्ष्य एक ही हो अन्तर-अनुशासनात्मक अनुसन्धान कहलाता है। इससे विद्यार्थियों तथा शोधार्थियों को अधिकतम लाभ मिलता है। यह अनुसंधान समन्वित ज्ञान के विकास में भी सहायक होता है।
पाश्चात्य शोध परम्परा विशेषज्ञता (Specialization) आधारित है। ज्ञान मार्ग में आगे बढ़ता हुआ शोधार्थी अपने विषय क्षेत्र में विशेषज्ञता और पुनः अति विशेषज्ञता प्राप्त करता है। शोध समस्या के समाधान की दृष्टि से यह अत्यन्त उपादेय है। भारतीय ज्ञान साहित्य की अविछिन्न परंपरा के प्रमाण से हम यह कह सकते हैं कि शोध की भारतीय परंपरा, जगत के अंतिम सत्य की ओर ले जाती है। अंतिम सत्य की ओर जाते ही तथ्य गौण होने लगते हैं और निष्कर्ष प्रमुख। तथ्य उसे समकालीन से जोड़तें है और निष्कर्ष, देश काल की सीमा को तोड़ते हुए समाज के अनुभव विवेक में जुड़ते जाते हैं।
भारतीय वाङ्मय का सत्य एक ओर जहाँ विशिष्ट सत्य का प्रतिपादन करता है वहीं दूसरी ओर सामान्य सत्य को भी अभिव्यक्ति करता है। सामान्य सत्य का प्रतिपादन सर्वदा भाष्य की अपेक्षा रखता है। यही कारण है कि भारतीय वाड्मय में विवेचित अधिकांश तथ्यों की वस्तुगत सत्ता पर सदैव प्रश्नचिन्ह लगते हैं। वे अनुभव की एक थाती हैं। तथ्यों की वस्तुगत सत्ता से दूरी उसे थोड़ी रहस्यात्मक बनाती है, भ्रम की संभावना बनी रहती है। उसके निहितार्थ तक पहुँचने की लिए प्रज्ञा की आवश्यकता है। सम्पूर्णता का बोध कराने वाली यह व्यापक दृष्टि एक प्रकार की वैश्विक दृष्टि (Holistic Approach) है। मानविकी एवं समाज विज्ञान के विषयों ही नहीं अपितु समाज विज्ञान एवं प्राकृतिक विज्ञानों के अन्तरावलम्बन से वर्तमान ज्ञान तन्त्र में एक प्रकार के वैश्विक दृष्टि का प्रादुर्भाव होने लगा है, जिसकी सम्प्रति आवश्यकता प्रतीत होती रही है।
प्राचीन भारतीय साहित्य में अनुसन्धान के लिये अनेक शब्द आये हैं- अनुसन्धान, अन्वेषण, शोध, आन्विक्षिकी, गवेषणा, जिज्ञासा, मीमांसा आदि।[1]
अनुसंधान ईमानदारी से की गई एक प्रक्रिया है।इसमें गहनता से अध्ययन किया जाता है और विवेक एवं समझदारी से काम लिया जाता है।चूँकि यह एक लंबी प्रक्रिया है अतः इसमें धैर्य की परम आवयश्कता होती है
हिंदी अनुसंधान पर विचार कर उसका काल निर्धारण करते हुए हिन्दी के स्वीकृत शोध-प्रबंध के निवेदन में डॉ. उदयभानु सिंह लिखते हैं कि-"१९१८ से १९३१ई. तक का समय उपाधिकारक हिन्दी-अनुसन्धान का प्रस्तावना-काल है।"[2] उदयभानु सिंह के अनुसार "सन् १९३४ से १९३७ई. तक का समय हिन्दी-अनुसंधान का प्रारम्भ-काल है।"[3] "सन् १९३८ से १९५० ई. तक का समय हिन्दी-अनुसंधान का विकास-काल है।"[4] तथा "सन् १९५१ से अब तक का समय हिन्दी-अनुसंधान का विस्तार-काल है।"[5]
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