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सड़क ऐसे भूमि पर बने हुए ऐसे मार्ग को कहते हैं जिसे समतल बनाकर या अन्य रूप से विकसित करके उसपर किसी वाहन के ज़रिए परिवहन में आसानी कर दी गई हो। आधुनिक गाड़ियों के चलाने के लिए सड़कों पर अक्सर टूटे पत्थरों की परत के ऊपर तारकोल फैलाया हुआ होता है। विकसित सड़कों पर विपरीत दिशाओं में जाने वाले वाहनों को सड़क विभाजित करके अलग लेनों में भी डाला जाता है। पैदल चल रहे व्यक्तियों की सुविधा के लिए अक्सर सड़कों के साथ-साथ फ़ुटपाथ भी बनाए जाते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में सड़कें लगभग ३००० ईसापूर्व काल से बन रही हैं।[1]
यात्रियों और माल असबाब को एक स्थान से दूसरे स्थान तक न्यूनतम चालनशक्ति लगाकर पहुँचाने के लिए सड़कों का निर्माण इस प्रकार किया जाता है कि बनाने में व्यय भी कम हो और पीछे देखभाल भी बहुत महँगी न हो। सभी देशों में सड़क विकास की प्रारंभिक अवस्था में, जब गाड़ियाँ धीमी गति से चला करती थी, सड़क के मध्य के पक्के भाग के (जिसे पक्का गोला भी कहा जाता है) संरचनात्मक पहलू पर, उसके ज्यामितिक रूप की अपेक्षा अधिक ध्यान दिया जाता था। मोटर गाड़ियों की संख्या और उनकी गति में वृद्धि होने पर, सड़क के डिज़ाइन में उसके ज्यामितिक रूप का महत्व बहुत बड़ गया है। यह उचित भी है, क्योंकि पक्के गोले की रचना में तो यातायात की आवश्यकता के अनुसार बाद में सुधार हो सकता है, पर मोटरों का वेग बढ़ने पर यात्री की सुरक्षा और सुख के अनुसार सड़क के ज्यामितिक रूप को, स्थानीय अवस्थाओं के कारण, बदलना बहुत कठिन हो जाता है, यद्यपि वह व्यय के लिहाज से निषिद्ध न हो
सड़क निर्माण में कार्य के कई चरण हैं :
क्षेत्र सर्वेक्षण के भी तीन अंग हैं : पहला 'टोह' सर्वेक्षण, जिसमें इलाके के प्राकृतिक लक्षण और अन्य स्थानीय अवस्थाओं को इस दृष्टि से देखा जाता है कि कौन कौन से वैकल्पिक मार्ग संभव है और उनके क्या हानि लाभ होंगे; दूसरा प्रारंभिक सर्वेक्षण, जिसमें संभावित मार्गो पर प्रभाव डालनेवाले प्राकृतिक लक्षणों को विस्तारपूर्वक देखा जाता है तथा तीसरा 'अंतिम रेखांकन सर्वेक्षण', जिसमें चुनी हुई रेखा का भूमि पर अंकन किया जाता है और आवश्यकतानुसार 'तल' सर्वेक्षण किया जाता है।
मिट्टी सर्वेक्षण में उस मार्ग पर मिलनेवाली, निर्माण में काम में आने योग्य मिट्टी और अन्य पदार्थों का परीक्षण किया जाता है।
यातायात सर्वेक्षण उस मार्ग पर चलनेवाली गाड़ियों के प्रकार, संख्या, उनके भार आदि का अंदाजा लगाने के लिए किया जाता है।
निर्माण के ज्यामितिक पक्ष हैं : मार्ग की रेखा, सड़क की चौड़ाई, मोड़, क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर बाहरी उठान, दूसरे भागों के साथ संगम तथा दृष्टि दूरी आदि। यातायात की प्रत्याशित संख्या, भार, वेग और अन्य स्थानीय अवस्थाओं को ध्यान में रखकर उनका डिज़ाइन तैयार किया जाता है।
संरचनीय डिज़ाइन पक्के गोले का किया जाता है। पक्के गोले की सतह का मुख्य उद्देश्य यातायात के लिए दृढ़, पक्का और चिकना रास्ता देना और उसपर पड़नेवाले भार ओर पक्के या संघट्ट को नीचे की अपेक्षा निर्बल भूमि पर बाँटना है। निर्माण में लगाए जानेवाले पदार्थों के अनुसार पक्का गोला दृढ़ या लचीला होता है। सीमेंट कंक्रीट से बना गोला दृढ़ गोले का उदाहरण है। लचीले गोले वे होते हैं जो मिट्टी, बजरी, टूटे पत्थर की रोड़ी, कोलतार, बिटुमेन या अन्य ऐसे ही पदार्थों से बनाए जाते हैं।
भारत में सड़कें हाथों के श्रम से, या यंत्रों से, बनाई जाती है। देश में मजदूर बहुतायत से मिलते हैं जिसके कारण शारीरिक श्रम का ही अधिकतर प्रयोग किया जाता है, विशेषकर जब योजनाएँ तुरंत बनाई जानेवाली न हों।
सड़क की कुटाई तो मशीनी रोलरों (बेलनी) से ही की जाती है। पिछले दिनों में बड़ी सड़क योजनाओं को शीघ्रता से निपटाने के लिए मशीनों का बहुत प्रयोग हुआ है। अधिकतर काम में आनेवाली मशीनें हैं : मिट्टी के काम में आनेवाली स्क्रेपर (scraper), समतलक (graders), बुलडोजर, बेलन (rollers), उलटाऊ ठेले (trippers), खनित्र (excavators) आदि। बिटुमेनी सड़क बनाने के लिए स्वचल स्वमापी और मिश्रक तथा बिछाई की मशीनें (spreaders) आजकल बहुत काम में लाई जाती हैं।
सड़क योजनाओं के लिए परीक्षण और नियंत्रण प्रयोगशालाएँ बहुत आवश्यक हैं। ये प्रयोगशालाएँ अल्प व्यय की डिज़ाइन में ही सहायता नहीं देती हैं, वरन् कार्य को ठीक विशिष्टियों और वांछित गुणों के अनुसार बनाने में भी सहायता देती है। अब भारत में सड़क की बड़ी प्रयोगशालाओं में ऐसी प्रयोगशालाओं का खूब प्रयोग हो रहा है।
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