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प्रजनन की वह क्रिया जिसमें दो युग्मकों (गैमीट / Gamete) के मिलने से बनी रचना युग्मज (जाइगोट) द्वारा नये जीव की उत्पत्ति होती है, लैंगिक जनन (sexual reproduction) कहलाती है।[1] यदि युग्मक समान आकृति वाले होते हैं तो उसे समयुग्मक कहते हैं। समयुग्मकों के संयोग को संयुग्मन कहते हैं। युग्मनज या तो सीधे पौधे को जन्म देता है या विरामी युग्मनज बन जाता है, जिसे जाइगोस्पोर कहते हैं। इस प्रकार के लैंगिक जनन को 'समयुग्मी' कहते हैं।
लैंगिक जनन की प्रक्रिया के दो मुख्य चरण हैं - अर्धसूत्री विभाजन तथा निषेचन (fertilization)।
लैंगिक जनन की उत्पत्ति कैसे हुई, यह एक पहेली है। इस विषय में कई व्याख्याएँ प्रस्तुत की गईं हैं कि अलैंगिक जनन से लैंगिक जनन क्यों विकसित हुआ।
कई protists यौन पुनरुत्पादन, बहुकोशिकीय पौधों, जानवरों, और कवक के रूप में करते हैं। यूकेरियोटिक जीवाश्म रिकॉर्ड में, यौन प्रजनन पहली बार 1.2 अरब साल पहले प्रोटेरोज़ोइक ईऑन में दिखाई दिया था। सभी यौन पुनरुत्पादन यूकेरियोटिक जीव संभवतः एक एकल सेल वाले आम पूर्वज से निकलते हैं। यह सम्भव है कि सेक्स का विकास पहले यूकेरियोटिक सेल के विकास का एक अभिन्न हिस्सा था। ऐसी कुछ प्रजातियां हैं जो दूसरी बार इस फीचर को खो चुकी हैं, जैसे कि बडेलोइडिया और कुछ पार्टनोकैर्पिक पौधों।
अधिक विकसित पौधों में फल और बीज द्वारा लैंगिक जनन होता है। उनके फूलों में नर गैमीट और मादा युग्मक (गैमीट / Gamete) होते हैं, जिनके सायुज्य से युग्मज (Zygote) बनते हैं। ये बीज के अंदर भ्रूण में विकसित हो, अंकुर बनकर नए पौधों को जन्म देते हैं।
गैमीट बहुत सूक्ष्म और एककोशिकीय होते हैं। लैंगिक जनन में दो विभिन्न जनकों की आवश्यकता होती है। कभी-कभी एक ही प्रकार के दो गैमीट मिलकर जनन करते हैं। ऐसे मिलन का समागम (Conjugation) कहते हैं। दो विभिन्न गैमीटों के मिलने को निषेचन (Fertilization) कहते हैं। शैवाल और कवक सदृश निम्न श्रेणी के पौधों में समागम से जनन होता है और उच्च श्रेणी की वनस्पतियों में निषेचन से। जिन पौधों के गैमीट में नर और मादा का विभेद नहीं होता उन्हें समयुग्मक (Isogametes) कहते हैं और ऐसे पौधों को समयुग्मी (isogamous)। निषेचन में नर और मादा के मिलने से जो बनाता है उसे शुक्रितांड (Oospore), गैमीट को असम युग्मक (heterogamete) और पौधे को असमयुग्मीया या विविधपुष्पी (heterogamous) कहते हैं।
जनन की उपर्युक्त विधियों के अतिरिक्त कुछ अन्य विधियों, जैसे अजीवाणुजनन (Apospory), अपयुग्मजनन (Apogamy) और असेचन जनन (Parthenogenesis) से भी जनन होता है।
प्राणियों में लैंगिक जनन की कई विधियाँ हैं, जिनमें प्रमुख विधियाँ हैं-
सामान्य लैंगिक जनन में दो जन्यु कोशिकाएँ (haploid gamete) मिलकर एक युग्मज (zygote) बनाती हैं। दो जन्तुओं की उत्पत्ति दो विभिन्न लिंगों के जनकों में होती है। नर जन्यु को शुक्राणु (Sperm) और स्त्री जन्यु को डिंब या अंडाणु (Ovum) कहते हैं। ये जन्यु विशेष अवयवों अर्थात् जनदों (Gonads) में उत्पन्न होते हैं। नर जनद को वृषण (Testes) और स्त्री जनद को अंडाशय (Ovary) कहते हैं। पूर्वोक्त दोनों जन्युओं के मिलन को संसेचन (Fertilization) कहते हैं। संसेचन के फलस्वरूप युग्मज का निर्माण होता है। युग्मजों के खंडीकरण से भ्रूण बनता है और विकसित होकर शिशु रूप में जन्म लेता है।
वृषण शुक्रजनन नलिकाओं से बना होता है। प्रत्येक नलिका की अंत:भित्ति भ्रूणीय एपिथीलियम (Germinal epithelium) की बनी होती है, जिसके गुणन और विभेदीकरण (differentiation) से शुक्राणु बनते हैं। यह प्रक्रिया तीन क्रमों में होती है। पहला क्रम गुणन अवस्था (phase of multiplication), दूसरा क्रम वृद्धि अवस्था (phase of growth) और तीसरा क्रम परिपक्व अवस्था (phase of maturation) का है। भ्रूणीय एपिथीलियम की सभी कोशिकाएँ निर्माण में सक्षम होती हैं, पर कुछ ही उसमें भाग लेती हैं। ये कोशिकाएँ सूत्रविभाजन द्वारा ज्यामितीय अनुपात में विभाजित होती हैं। विभाजन से बनी कोशिकाओं को शुक्राणु-कोशिक-जन (Spermatogonia) कहते हैं। शुक्राणु-कोशिका-जन बड़े सूक्ष्म होते हैं। इनके अंदर पोषक पदार्थ एकत्रित हेने से ये बढ़ने लगते हैं। ऐसी वर्घित कोशिकाओं को प्राथमिक शुक्राणु कोशिका (Primary spermatocytes) कहते हैं। ये फिर परिपक्व अवस्था में प्रवेश करती हैं। यहाँ प्राथमिक शुक्राणु कोशिकाओं का दो बार विभाजन होता है। प्रथम विभाजन अर्धसूत्रण (Meiosis) या ह्रास विभाजन (Reduction division) का है। इस विभाजन के पूर्व प्राथमिक शुक्राणु कोशिक के केंद्रक में उपस्थित क्रोमोसोम (Chromosome) की संख्या द्विगुणित (diploid) होती है, पर अर्धसूत्रण के समय पैतृक क्रोमोसोम अंतर्ग्रंथन (Synapsis) द्वारा जोड़ों में व्यवस्थित हे जो हैं। अंतर्ग्रंथन में कोई दो क्रोमोसोमी जोड़े नहीं बनाते वरन् ऐसे ही क्रोमोसोम जोड़े बनाते हैं जो समधर्मी या समन शक्ति और रचना के होते हैं। इस प्रकार अर्धसूत्रण में पैतृक क्रोमोसोमों की संख्या अगुणित (haploid) हो जाती है। कोशिकाएँ अब द्वितीय शुक्राणुकोशिका हो जाती हैं। द्वितीय शुक्राणुकोशिका का एक बार फिर विभाजन होता है जिसे समसूत्रण (Mitosis) कहते हैं। इससे पूर्वशुक्राणु (Spermatids) बनते हैं, जो धीरे धीरे रूपांतरित होकर शुक्राणु बन जाते हैं।
लाक्षणिक शुक्राणु के तीन भाग - (1) सिर, (2) मध्य खंड या ग्रीवा और (3) पूँछ - होते हैं। विभिन्न शुक्राणुओं के सिर विभिन्न आकार के होते हैं। अधिकांश के अंडाकार, पर किस के छड़नुमा, किसी के कागपेंच से टेढ़े या अन्य प्रकार के भी होते हैं। इनके अग्रिम सिरे पर नुकीला अग्रस्थ भाग या एक्रोसोम (Acrosome) होता है। मध्य खंड प्राय: छोटा और बेलनाकार होता है। पूँछ का अक्षसूत्र (Axial filament) इसी में लिपटा रहता है। पूँछ तंतु के रूप में लंबी और क्रमश: पतली होती जाती है और कशाभ (Flagellum) की भाँति गतिशील होती है। यह शीघ्रतापूर्वक हिलती-डुलती रहती है, जिससे वीर्यद्रव, या जल में तैरकर अंडाणु में प्रवेश करने के लिये शुक्राणु आगे बढ़ता है।
अंडाशय की कोशिकाओं से अंडे (Ova) उत्पन्न होते हैं। अंडे की भी (1) गुणन अवस्था, (2) वृद्धि अवस्था और (3) परिपक्व अवस्था होती है। अंडाशय की कुछ उत्पादक कोशिकाओं के गुणन विभाजन से डिंब कोशिकाजन (Oogonia) बनते हैं। कोशिकाजनों में अंडपीत एकत्र होकर बढ़ते हैं और बढ़कर प्राथमिक डिंबकोशिका (Ocoytes) बनते हैं। इनका फिर से ्ह्रास विभाजन होता है और ये दो अलग अलग कोशिकाओं में बँट जाते हैं। इनमें एक बहुत छोटी और दूसरी बड़ी होती है। छोटी को प्रथम ध्रुवीय पिंड (First polar body) ओर बड़ी को द्वितीय डिंबकोशिका कहते हैं। द्वितीय डिंबकोशिका का सूत्रण विभाजन होती है। यहाँ भी एक छोटी और दूसरी बड़ी होती है। बड़ी को परिपक्व या प्रौढ़ अंडा और छोटी को द्वितीय ध्रुवीय पिंड कहते हैं। प्राथमिक ध्रुवीय पिंडों का भी सूत्रण होकर ध्रुवकोशिका (Polocytes) प्राप्त होती हैं। ध्रुवीय रचनाएँ जनन के काम के लिए बेकार होती हैं।
अर्धभ्रूण या ह्रास विभाजन इस कारण आवश्यक है कि इस प्रकार उत्पन्न जन्युओं के संयोग से जो युग्मज बने उनमें पैतृक सूत्रों की संख्या उतनी ही रहे जितनी उस जाति के लिए आवश्यक है, अन्यथा संतान में पैतृक गुणों के बदल जाने की संभावना हो सकती है। पैतृक सूत्रों की संख्या निश्चित रखने के लिए युग्मज जगक के समय उनका ह्रास विभाजन आवश्यक है।
डिंब (Ovum) के शुक्राणु (sperm) से मिलने पर ही नए जीव (जाइगोट) की उत्पत्ति होती है। जिन प्राणियों में लैंगिक जनन होता है, उनमें डिंब और शुक्राणु (स्पर्म) दो विभिन्न लिंगवाले प्राणियों में उत्पन्न होते हैं। इनका सायुज्य नर और मादा के मिलकर संभोग करने से होता है। सम्भोग के समय डिंब और शुक्राणु निकट तो आ जाते हैं, पर शुक्र का डिंब के साथ मिलकर एक हो जाना, अर्थात् डिंब का निषेचन कई बातों पर निर्भर करता है।[2] परिस्थितियों के अनुकूल न होने पर अंडे का संसेचन नहीं होता। संसेचन के लिए निम्नलिखित परिस्थितियाँ आवश्यक हैं :
अंत: संसेचन करनेवाले प्राणियों में अंडों की संख्या बहुत कम होती है और एक बार में एक या कुछ ही संतान उत्पन्न होती है, पर जिन प्राणियों में बाह्य संसेचन होता है, डिंब की संख्या अत्यधिक होती है और अंडों की अपेक्षा शुक्राणुओं की संख्या तो और भी अधिक। जब अंडों और शुक्राणुओं का संयोग जल में होता है, युग्मजों के लिए अनेक बाधाएँ रहती हैं, जैसे जल का ताप, उसकी अम्लता या क्षारीयता, (जल का पीएच मान आदि); जल की धारा की गति (मंद या तीव्र), आसपास के अन्य जलीय प्राणियों की उपस्थिति इत्यादि। अत: स्पीशीज की श्रृंखला बनाए रखने के लिए प्रकृति डिंब और शुक्राणुओं का उत्पादन अधिक संख्या में करती है, क्योंकि इन बहुसंख्यक अंडों ओर शुक्राणुओं में से अनेक अंडे और शुक्राणु उपर्युक्त कारणों में से कोई भी प्रतिकूल कारण हेने पर असंसेचित अवस्था में मर जाते हैं। संसेचन के लिए एक डिंब को एक ही शुक्राणु की आवश्यकता होती है। मनुष्य के एक बार के मैथुन में स्खलित वीर्य में सामान्यत: शुक्राणुओं की संख्या 22,60,00,000 अनुमानित की गई है। इनमें केवल एक ही शुक्राणु डिंब को संसेचित करने का काम करता है। प्रत्येक डिंबोत्सर्ग (Ovilation) में केवल एक ही डिंब डिंबग्रंथि से निकलता है।
ज्यों ही कोई क्रियाशील शुक्राणु अपने ही स्पीशीज के प्राणी के डिंब के संपर्क में आता है त्यों ही वह उसमें प्रवेश कर जाता है। शुक्राणु का सिर तो डिंब के अंदर घुस जाता है, किंतु उसकी पूँछ टूटकर बाहर ही रह जाती है। डिंब में शुक्र प्रवेश कर उसके अंदर अनेक घटनाओं को उत्तेजित करता है। सबसे पहले वह डिंब में किसी अन्य शुक्राणु के प्रवेश को रोकता है। यह काम इस प्रकार होता है :
संसेचित अंडे के बाह्य स्तर से एक प्रकार का रासायनिक स्राव निकलता है, जो अन्य शुक्राणु को डिंब की ओर आकर्षित न कर विकर्षित करता है अथवा डिंब के बाहर चारों ओर एक प्रकार की जेली जैसी झिल्ली (Fertilization Membrane) बन जाती है, जिससे शुक्राणु का प्रवेश नहीं हो पाता अथवा अभेद्य भित्ति से घिरा डिंब का बिल्कुल छोटा छेद, माइक्रोपाइल (Micropyle) एक शुक्राणु के प्रवेश करते ही बंद हो जाता है।
डिंब में प्रविष्ट करने पर शुक्राणु निर्धारित पथ से केंद्रक की ओर अग्रसर होते हुए डिंब के पूर्वकेंद्रक (Pronucleus) से मिलता है और शुक्राणु तथा डिंब दोनों ही के पूर्वकेंद्रक घुलमिलकर क्रोमोसोम बनाते हैं, जो कोशिका द्रव्य में स्वतंत्र पड़े रहते हैं। डिंब अब युग्मज बन जाता है। डिंब का सेंट्रोसोनोम लुप्त हो जाता है, पर शुक्राणु का सेंट्रोसोम दो भागों में बँट जाता है और एक गतिशील तर्कु (spindle) का निर्माण करता है। इस तर्कु के अयनवृत्त के चारों ओर क्रोमोसामेम अपनी अपनी जगह ले लेते हैं और संसेचित डिंबकोश का विभाजन और विकास शुरू होकर भ्रूण का निर्माण होने लगता है।
जन्युओं का सायुज्य कैसे होता है, इसपर विचार करने से पता लगता है कि अधिकांश दशाओं में तो संयोग से ही नर जन्यु तैरते-तैरते मादा जन्यु के संपर्क में आ जाता है, पर कुछ दशाओं में शुक्राणु सीधे निर्दिष्ट लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। इसका कारण शुक्राणु का किसी विशेष रासायनिक द्रव्य की ओर आकर्षित होना है। इस रासायनिक द्रव्य को डिंब उत्पन्न करता है। इसे रासायनिक कर्षण (Chemo taxis) कहते हैं। पर हर दशा में रासायनिक कर्षण नहीं होता। ऐसा समझा जाता है कि नर जन्यु और मादा जन्यु में ध्रुवीय अंतर होता है, जिससे वे परस्पर आकर्षित होते हैं। आकर्षण का वास्तविक कारण क्या है, यह निश्चित रूप से अभी नहीं कहा जा सकता।
संभोग के समय मादा प्राय: निष्क्रिय रहती है और नर में मादा के आलिंगन के लिए विविध भाँति के आलिंगन अवयव विकसित होते हैं। कुछ प्राणियों में गौण लैक्षणिक लक्षण, जैसे मानव नर में दाढ़ी, मूछें और नारी में इनका अभाव किंतु विकसित स्तन का होना और चिड़ियों में विविध भाँति के रंगों से युक्त पर इत्यादि, पाए जाते हैं। यह गौण लक्षण ज्ञानेंद्रियों को प्रभावित कर नर तथा मादा का संयोग कराने में सहायक होते हैं। कुछ प्राणियों में कुछ ऐसे भी सहायक अवयव पाए जाते हैं, जो संतान की रक्षा के लिए होते हैं। अनेक प्राणियों में संसेचन के पश्चात् माँ-बाप की जिम्मेदारियाँ समाप्त हो जाती हैं और युग्मज बिना किसी देखरेख के विकसित होते हैं, कुछ प्राणियों में बच्चे अपना लालन पालन स्वयं करते हैं, पर कुछ प्राणियों में माँ बाप अपनी संतान की रक्षा का बड़ा ध्यान रखते हैं। वे अंडे या भ्रूण की रक्षा के लिए कोई उपयुक्त स्थान चुनते हैं। कुछ उनको बाँध रखने का उपाय भी करते हैं। इसके लिए वे कोए (Cocoon) का निर्माण करते हैं। अन्य जंतुओं में अंडनिक्षेपक (Ovipositor) होते हैं, जिनमें वे अंडे सुरक्षित रखते हैं अथवा किसी जीवित या मृत प्राणी के ऊतक से वे यही काम लेते हैं। वहीं अंडे का विकास होता और डिंभ (Larva) बनते हैं।
कुछ प्राणियों के अंडे या डिंभ माँ या बाप से चिपके रहते हैं। कुछ माँ बाप उन्हें गलफड़ों (gills) में लिए फिरते हैं, कुछ शिशुथैलियों (Brood pouches) में, जैसे क्रस्टेशिया (crustacea) में, कुछ स्वरथैलियों में (जैसे मेढक में), कुछ फैली हुई डिंबवाहिनियों में और कुछ मारसुपियल थैलियों (Marsupial pouches) में लिए फिरते हैं।
कुछ प्राणियों में डिंब और शुक्राणु का संयोग माता के शरीर के अंदर ही होता है और युग्मज का खंडीकरण एवं भ्रूण का विकास भी वहीं होता है। भ्रूण के पूर्ण विकसित हो जाने पर शिशु माता के गर्भ से प्रसव द्वारा बाहर चला आता है। जितने दिनों तक भ्रूण माता के गर्भ में रहता है, उतने समय को गर्भकाल (Gestation period) कहते हैं। इस प्रकार के विकास को अंत: विकास (Internal development) कहते हैं। कुछ मछलियों, छिपकलियों और पक्षियों में डिंब का संसेचन मैथुन द्वारा मादा के शरीर के अंदर ही होता है और युग्मज अथव संसेचित डिंब चूर्णमय (Calcareous) आवरण से मंडित होकर शरीर के बाहर निकलता है। भ्रूण का विकास बाहर ही होता है। पूर्ण विकसित हो जाने पर बच्चा अंडे की खोली (Egg case) को तोड़कर अंडे से बाहर चला आता है। इस प्रकार के विकास को बाह्य विकास (External development) कहते हैं। मछलियों, मेढ़कों तथा निम्न कोटि के अन्य प्राणियों में डिंब और शुक्राणु दोनों ही शरीर के बाहर स्खलित किए जाते हैं और वहीं उनका संयोग होता है तथा अंडे बाहर ही भ्रूण में विकसित होते हैं। इस प्रकार संसेचन भी और विकास भी बाह्य होता है (देखें भ्रूण विज्ञान)।
गाय, भैंस, बकरी, मनुष्य इत्यादि, जिनमें भ्रूण माता के शरीर के भीतर परिवर्धित होता है और शिशु जीवित अवस्था में बाहर निकलता है, जरायुज (viviparous) कहलाते हैं। इनके विपरीत मछली मेढक, साँप, छिपकली और चिड़िया जैसे जंतु, जिनमें शिशु अंडे से बाहर निकलते हैं, अंडज (oviparous) कहलाते हैं।
अधिकांश दशाओं में भ्रूण का पोषण माँ के रक्त से, अपरा (placenta) सदृश किसी संयोजक द्वारा होता है। कुछ शार्क मछलियाँ, ऐनाब्लेब्स (Anablebs= एक प्रकार की मछली), कुछ छिपकलियों और स्तनियों में इसी प्रकार की व्यवस्था पाई जाती है। कुछ प्राणियों में जन्म के पश्चात् अथवा अंडे से बाहर आने पर नवजात शिशु को माँ-बाप भोजन खिलाते हैं। स्तनियों में स्तन होता हे, जिससे दूध का स्राव होता है, यह दूध नवजात शिशु का आहार होता है। बहुतेरी चिड़ियों के मुख से लार का स्राव (salivary secretion) होता है, जो चूजों का भोजन होता है। अन्यथा चिड़ियाँ दाना चुगकर शिशु के मुख में डाल देती हैं।
सधारणतया वयस्क होनेपर जनन प्रारंभ होता है, पर कुछ प्राणियों में जैसे मिजेज (Midges) और ऐक्ज़ोलाटल (Axolotle) में शैशव अवस्था में ही जनन प्रारंभ हो जाता है। इसे असेचन जनन (Parthenogenesis) कहते हैं। अधिकांश प्राणियों या पौधों की जननऋतु, प्राय: निश्चित होती है, डिंब का विकास ऋतु और वातावरण पर निर्भर करता है। अनेक चिड़ियों, कीटों और अन्य प्राणियों में वसंत या ग्रीष्म ऋतु में जनन की क्रियाशीलता अधिक होती है। वातावरण की स्थिति, ताप, आर्द्रता, शुष्कता इत्यादि शरीरक्रिया को प्रभावित करती हैं और इनका प्रभाव जनन पर भी पड़ता है। भोजन के साथ ही जनन का गहरा संबंध है। जहाँ वातावरण एक सा रहता है, वहाँ के प्राणियों में ऋतुकाल (reproduction period) निश्चित नहीं होता, जैसे फिलीपाइन द्वीपों में जलवायु की परिस्थितियों से ही कुछ प्राणियों का प्रवसन (migration) होता है और सहायक जननेंद्रियों में सामयिक, बाह्य या अंत:परिवर्तन होते हैं। कुछ प्राणियों में जनन जीवनपर्यंत चलता है, पर कुछ में उम्र की वृद्धि के साथ-साथ जननक्रियाशीलता मंद पड़ जाती अथवा बिलकुल रुक जाती है। अधिकांश प्राणियों में जननक्रियाशीलता के बद विश्राम काल आता है और उसके बाद फिर ऋतुकाल आरंभ होता है। ऐसा क्रम श्रृंखला (rhythmical series) में या एकांतरणत: (alternation) होता है। उच्च कोटि के प्राणियों में, जिनमें मनुष्य भी आता है, गरम होना (Heat), रज:स्राव (menstruation) अथवा अंडाणु उत्पादन (ovilation) भी क्रमबद्ध होते हैं।
प्राणियों के शरीर में कुछ ऐसी ग्रंथियाँ हैं, जिनकी कोई वाहनी (duct) नहीं है। इन ग्रंथियों से हारमोन बनते हैं, जो सीधे रक्त में चले जाते हैं। रक्तप्रवाह के साथ साथ ये समस्त शरीर में घूमते हैं और शरीर पर भिन्न-भिन्न प्रभाव उत्पन्न करते हैं। ये कुछ अंगों को उद्दीप्त करते और कुछ का दमन करते हैं। इनमें पीयूष ग्रंथि (pituitary gland) और जननग्रंथि (gonads) का प्रजनन से बड़ा घना संबंध है (देखें हारमोन)।
कुछ प्राणियों में नर जननेंद्रिय और नारी जननेंद्रित दोनों होती हैं तथा शुक्राणु और अंडे एक ही प्राणी में उत्पन्न होते हैं। ये उभयलिंगी प्राणी हैं। इनमें या तो एक ही प्रकार के क्रोमोसोम अंदर ही परस्पर मिलकर जनन करते हैं, जिसे स्वयंसेसेचन कहते हैं, अथवा दो उभयलिंगी जोड़े खाकर परस्पर एक दूसरे के अंडे का संसेचन करते हैं, जिसे स्वयंसंसेचन कहते हैं, अथवा दो उभयलिंगी जोड़े खाकर परस्पर एक दूसरे के अंडे का संसेचन करते हैं, जिसे 'क्रौस' (cross) कहते हैं। केचुएँ, जोंकें, घोंघे और हाइड्रा पिछले प्रकार के उदाहरण हैं। स्वयंसंसेचन बिरला ही पाया जाता है।
इसमें अंडे और शुक्र के सायुज्य का होना आवश्यक नहीं होता। इसे अक्षतयौनिक जनन (virgin reproduction) भी कहते हैं। इसका उदाहरण मधुमक्खियाँ और ऐफिड्स हैं। मधुमक्खियाँ कुछ संसेचित और कुछ असंसेचित या अगर्भित अंडे देती हैं। संसेचित अंडे से श्रमिक और रानी मधुमक्खियाँ उत्पन्न होती हैं और असंसेचित अंडे से ड्रोन या नर मधुमक्खियाँ उत्पन्न होती हैं। कुछ सामुद्रिक प्राणियों, जैसे सी अर्चिन (sea urchin) में भी असंसेचित अंडे से नए प्राणी का उत्पादन वैज्ञानिकों ने संभव किया है। मेढक के अंडे को सूई से गोद कर तथा उसका विकास कर बैंगची (tadpoles) उत्पन्न किया गया है। इस प्रकार भौतिक और रासायनिक विधियों से भी अंडे को विकसित होने के लिय सफलतापूर्वक प्रेरित किया गया है।
यकृत कृमि (Liver fluke) और टाइगर सैलामंडर (Tiger salamander) में जनन की एक अपूर्व रीति पाई जाती है, जिसे डिंभजनन कहते हैं। इसमें जब प्राणी डिंभावस्था (larval stage) में ही रहते हैं और पूर्ण वयस्क नहीं हुए रहते तभी जनन करने लगते हैं और संतानवृद्धि करते हैं।
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