प्रबन्ध विकास (Management development) वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्रबन्धक अपने प्रबन्धकीय कौशलों को सीखते है और उसे अधिक उन्नत बनाते हैं।[1]
किसी भी संगठन की सफलता में उसके प्रबन्धक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण होते हैं। सक्षम प्रबन्धकों की पर्याप्त संख्या के बिना, कोई भी संगठन दूसरे मूल्यवान संसाधनों जैसे- पूँजी, प्रौद्योगिकी एवं अन्य के होते हुए भी, विशिष्टता का स्थान ग्रहण करने की अपेक्षा नहीं कर सकता है। प्रत्येक संगठन में ये प्रबन्धक ही होते हैं जो कि संसाधनों एवं क्रियाकलापों का नियोजन संगठन, निर्देशन एवं नियन्त्रण करते है। समय-समय पर, प्रबन्ध प्रतिभाओं के विकास के महत्व को मान्यता प्रदान किये जाने से, इन दिनों अधिकतर संगठन प्रबन्ध विकास पर अत्यधिक ध्यान देने लगे हैं।
कुशल प्रबन्धक ही संगठनों को समयानुकूल निश्चित गति प्रदान कर सकते हैं। आने वाले समय में, जबकि व्यावसायिक वातावरण और भी अधिक गतिशील एवं जटिल हो जायेगा, तब प्रबन्धकों का महत्व भी उत्तरोत्तर बढ़ जायेगा। इसके अतिरिक्त, आधुनिक प्रबन्धक की महत्वपूर्ण धारणा यह है कि 'प्रबन्धक जन्मजात नहीं होते बल्कि विकसित किये जात हैं।'
प्रबन्ध विकास, एक व्यवस्थित प्रक्रिया है, जिसके द्वारा प्रबन्धक अपनी प्रबन्ध करने की योग्यताओं का विकास करते हैं। यह केवल शिक्षण क औपचारिक पाठ्यक्रम में सहभागिता का ही नहीं,बल्कि वास्तविक कार्य अनुभव का भी परिणाम होता है।प्रबन्ध विकास में संगठन की भूमिका, इसके वर्तमान तथा सम्भावित प्रबन्धकों के लिए कार्यक्रमों का आयोजन तथा विकास के अवसर प्रदान करने की होती है।
प्रबन्ध कार्यक्रम, जिन विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति का ध्यान में रखते हुए आयोजित किये जाते है वे निम्नलिखित प्रकार से हैः
- 1. संगठन की विद्यमान प्रबन्ध व्यवस्था का जीर्णोद्वार करना,
- 2. प्रबन्ध समूह के सदस्यों की परिवर्तनशीलता में वृद्धि करना,
- 3. संगठन की गतिविधियों के सम्पूर्ण परिदृश्य के विषय में प्रबन्धकों को अवगत कराना तथा उन्हें एक-दूसरे के साथ समन्वय स्थापित करने के लिए सक्रिय प्रयास करने हेतु सहायता प्रदान करना,
- 4. प्रबन्धकों को सामाजिक, आर्थिक तथा तकनीकी क्षेत्रों से सम्बन्धित अवधारणात्मक पहलुओं का ज्ञान प्रदान करना,
- 5. प्रबन्धकों को मानवीय सम्बन्धों की समस्याओं को समझने में सहायता प्रदान करना तथा उनकी मानवीय सम्बन्धों की निपुणताओं को सुधारना,
- 6. प्रबन्ध समूह के सदस्यों के मनोबल को उच्च करना,
- 7. अपेक्षित अन्तःशाक्तियों से युक्त लोगों की पहचान करना तथा उन्हें वरिष्ठ पदों के लिए तैयार करना,
- 8. प्रबन्ध उत्तराधिकार की ऐसी व्यवस्था स्थापित करना, जिससे कि संगठन में योग्य एवं अनुभवी प्रबन्धकों का कभी भी अभाव न उत्पन्न होने पाये।
प्रबन्ध विकास की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से अनुभव की जाती हैः
- (1) सामान्यतः प्रबन्धकों को संगठनात्मक संरचना, संगठन की संस्कृति, उसक आर्थिक एवं विपणन सम्बन्धी पक्षों, सामाजिक प्रणालियों, औद्योगिक परिवेश, उद्योग एव वाणिज्य पर प्रौद्योगिकी के उपयोग के प्रभावों मानवीय मूल्यों एवं सामाजिक जटिलताओं, श्रम आन्दोलनों, औद्योगिक प्रबन्ध विषयक मामलों में राज्य के हस्तक्षेप के क्षेत्रों तथा मानवीय एवं प्रजातात्रिक दृष्टिकोणों आदि के विषय में विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता होती है, जिसकी प्राप्ति प्रबन्ध विकास कार्यक्रम के द्वारा ही हो सकती है।
- (2) प्रबन्धकों को अपने उत्तरदायित्वों के कुशलतापूर्वक निर्वहन हेतु कुछ विशिष्ट निपुणताओं की भी अपेक्षा होती है। इसके अतिरिक्त आज के प्रबन्धकों में ऐसी योग्यताओं एवं निपुणताओं का होना भी अत्यन्त आवश्यक है, जो कि प्राचीन एवं नवीन मूल्यों, भौतिकवाद एवं मानवतावाद तथा प्राविधिक एवं सांस्कृतिक अनिवार्यताओं के मध्य सन्तुलन स्थापित कर सके। इन सभी निपुणतओं की प्राप्ति प्रबन्ध विकास कार्यक्रमों के द्वारा ही हो सकती है।
- (3) प्रबन्धक अपने संगठन के नेता होते हैं। उन्हीं के नेतृत्व में चलकर कर्मचारी संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होते हैं। यद्यपि, नेतृत्व के गुण की प्राप्ति प्रशिक्षण के द्वारा पूर्ण रूप से सम्भव नहीं है, फिर भी प्रबन्ध विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत अभ्यास एवं अनुभव प्रदान किये जाने के द्वारा इसकी काफी हद तक प्राप्ति होती है।
- (4) प्रबन्धन, एक विचारशीलता की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में नवीन लक्ष्यों एवं मूल्या का सदैव ध्यान रखना पड़ता है। वर्तमान प्रबन्धन के लिए रचनात्मक क्रियाओं का अत्यधिक महत्व होता है। इसलिए प्रबन्धकों में प्रत्येक स्तर पर रचनात्मक कार्य करन की प्रवृत्ति होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, नवीन सामाजिक, आर्थिक, प्रौद्योगिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में उन्हें अपने दृष्टिकोणों एवं मनोवृत्तियों में भी परिवर्तन लाना अनिवार्य हो गया है।
प्रबन्ध विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत सामान्यतः निम्नलिखित विषयों का सम्मिलित किया जाता है-
- 1. संगठनात्मक सूचनायें : इसके अन्तर्गत संगठन के उद्देश्य, नीतियाँ, संगठनात्मक संरचना, प्रक्रियायें, गतिविधियाँ, उत्पाद एवं सेवायें, संयन्त्र व्यवस्था, वित्तीय पहलू, जैसे- पूँजी एवं बजट, विनियोग, नियोजन एवं नियन्त्रण तथा कर्मचारी-प्रबन्ध सम्बन्ध आदि सम्मिलित होते हैं।
- 2. प्रबन्ध के सिद्धान्त एवं तकनीकें: इसमें संगठन के सिद्धान्त, प्रबन्ध तकनीकें, वित्तीय तकनीकें, उत्पादन योजना एवं नियन्त्रण, विधि-विश्लेषण, कार्य-आबंटन, कार्य अध्ययन, लागत विश्लेषण एवं नियन्त्रण, सांख्यिकी, प्रबन्धकीय सम्प्रेषण, कम्प्यूटर प्रणाली, क्रियात्मक अनुसंधान विपणन प्रबन्ध एवं अनुसंधान तथा निर्णयन आदि सम्मिलित होते हैं।
- 3. मानवीय सम्बन्ध : इसकें अन्तर्गत मानवीय व्यवहार की समझ, अभिप्रेरण, समूह गतिविधियाँ, अधिकार, विचार, धारणायें प्रशिक्षण एवं विकास, नेतृत्व उत्तरदायित्व, भर्ती प्रक्रियायें एवं चयन प्रणालियाँ, कार्य एवं निष्पादन मूल्यांकन, सम्प्रेषण, सलाह एवं सुझाव योजनायें, शिकायतें एवं परिवेदना निवारण पद्धति, अनुशासनात्मक प्रक्रिया, श्रम अर्थशास्त्र, सामूहिक सौदेबाजी तथा औद्योगिक सम्बन्ध आदि सम्मिलित होते हैं।
- 4. तकनीकी ज्ञान एवं निपुणतायें : इसमें कार्य संचालन तकनीक, क्रिया, शोध, कम्प्यूटर तकनीक, आधारभूत गणित, साधन-नियन्त्रण तथा कार्य संचालन सम्बन्धी नवीन तकनीक आदि सम्मिलित होते हैं।
- 5. सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक वातावरण : इसके अन्तर्गत व्यवसाय का ज्ञान, आर्थिक प्रणाली, सरकार-उद्योग सम्बन्ध, उद्योगों के सामुदायिक सम्बन्ध, उद्योगों क सामाजिक उत्तरदायित्व तथा राजनीतिक प्रणाली आदि सम्मिलित होते हैं।
- 6. मानवीय निपुणतायें : इसमें भाषण, प्रतिवेदन-लेखन, सम्मेलन-नेतृत्व तथा दैनिक-कार्य संचालन आदि सम्मिलित होते हैं।