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साठोत्तरी हिन्दी साहित्य हिन्दी साहित्य के इतिहास के अन्तर्गत सन् 1960 ई० के बाद मुख्यतः नवलेखन (नयी कविता, नयी कहानी आदि) युग से काफी हद तक भिन्नता की प्रतीति कराने वाली ऐसी पीढ़ी के द्वारा रचित साहित्य है जिनमें विद्रोह एवं अराजकता का स्वर प्रधान था। हालाँकि इसके साथ-साथ सहजता एवं जनवादी चेतना की समानान्तर धारा भी साहित्य-क्षेत्र में प्रवहमान रही जो बाद में प्रधान हो गयी। साठोत्तरी लेखन में विद्रोही चेतनायुक्त आन्दोलन प्राथमिक रूप से कविता के क्षेत्र में मुखर हुई। इसलिए इससे सम्बन्धित सारे आन्दोलन मुख्यतः कविता के आन्दोलन रहे। हालाँकि कहानी एवं अन्य विधाओं पर भी इसका असर पर्याप्त रूप से पड़ा और कहानी के क्षेत्र में भी 'अकहानी' जैसे आन्दोलन ने रूप धारण किया।
सन् साठ के आसपास नयी कविता की धारा अपने से कुछ अलग होती दिखने लगी। साठ के बाद जो नया मोड़ लक्षित होता है वह एकाएक दीखने वाली कोई नवीन वस्तु नहीं, वरन् नयी कविता से ही फूटा हुआ है। साठ के बाद की कविता में असंतोष, अस्वीकृति और विद्रोह का स्वर बहुत साफ तौर पर उभरा है। नयी कविता में भी असंतोष और अस्वीकृति का स्वर विद्यमान है, किन्तु साठ के बाद इस स्वर ने और तीखे व्यंग्य और विद्रोह का रूप धारण कर लिया है, जीवन की टूटती मूर्तियों के बहुत करीब जाकर उनकी टूटने की तल्खी, व्यथा और उसमें से फूटती अस्वीकृति की उग्रता को पहचाना है।[1]
नयी कविता की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि उसने समग्र जीवन की प्रामाणिक अनुभूतियों को उनके जीवन्त परिवेश में व्यक्त किया। विषय या अनुभूति के आभिजात्य और भिन्न-भिन्न दृष्टियों या वादों से बने हुए उनके घेरों को तोड़कर व्यक्ति द्वारा भोगे जाते हुए जीवन के हर छोटे-बड़े सत्य को प्रतीकों और बिम्बों के माध्यम से उभारने में ही उसने कविता की सार्थकता समझी।[1] लेकिन कुल मिलाकर नयी कविता के कवियों में पीड़ा के बावजूद भविष्य निर्माण के प्रति सकारात्मक आशा भी बनी रही। स्वातंत्र्योत्तर भारत की तत्कालीन परिस्थितियों के कारण उनमें हताशा और टूटन का भाव काफी था परंतु सपने पूरे होने की एक क्षीण आशा भी बची रही थी। मोहभंग या डिसइल्यूजनमेंट पूरे रूप में नहीं हुआ था, इसलिए नयी कविता में यातना-बोध है, अस्वीकृति का स्वर भी है, किन्तु विद्रोह का उभार नहीं है।[2] धीरे-धीरे 'इल्यूजन' एक दम टूट गये, मोहभंग हो गया। व्यक्ति का सामाजिक परिवेश और भी कुरूप लगने लगा, भविष्य के सपने टूटते गये। डॉ० बच्चन सिंह के शब्दों में कवियों के उगाए हुए सूरज में रोशनी नहीं आयी-- सूर्य का स्वागत व्यर्थ चला गया।[3] अनेक साहित्यकारों को दो ही रास्ते नजर आने लगे कि या तो वे नयी कविता के प्रधान स्वर में स्वर मिलाकर पीड़ा की मुक्त अनुभूति को और गहनता से व्यक्त करते अथवा ये सारी परिस्थितियाँ उनके संवेदनशील मन को झकझोरकर और यातना के बीच से उभर कर उन्हें विद्रोही बनाती हुई सब-कुछ अस्वीकार करने को प्रेरित करने लगीं।[2] साहित्य में ये दोनों धाराएँ रहीं, परन्तु सन् साठ के तुरत बाद विद्रोही धारा प्रधान रही जिनमें से अधिकांश निर्लक्ष्य या यौन-विकृतिलक्षी थीं। निर्लक्ष्य होने से ये कविताएँ सुविधात्मक रूप से विद्रोह करने वाली हुईं यानि जहाँ विद्रोह करने में खतरा अनुभव हो वहाँ नहीं, जहाँ सुविधा हो वहाँ विद्रोह होता रहा।[2]
साठोत्तरी हिन्दी साहित्य का पहला दशक (1960-70) आधुनिकतावाद से विशेष प्रभावित है। इस संदर्भ में ध्यातव्य है कि आधुनिक और आधुनिकता में अन्तर है। 'आधुनिक' 'मध्यकालीन' से अलग होने की सूचना देता है। 'आधुनिक' वैज्ञानिक आविष्कारों और औद्योगीकरण का परिणाम है जबकि 'आधुनिकता' औद्योगीकरण की अतिशयता, महानगरीय एकरसता, दो महायुद्धों की विभीषिका का फल है। डॉ० बच्चन सिंह के अनुसार "वस्तुतः नवीन ज्ञान-विज्ञान, टेक्नोलॉजी के फलस्वरूप उत्पन्न विषम मानवीय स्थितियों के नये, गैर-रोमैंटिक और अमिथकीय साक्षात्कार का नाम 'आधुनिकता' है।"[4]
आधुनिकतावादी साहित्य एक विशेष प्रकार का साहित्य है। यह स्थापित संस्कृति, मूल्य और संवेदना को अस्वीकार करती है। यह दुनिया की मान्यताओं को मंजूर नहीं करती, परम्परा को बेड़ी के रूप में लेती है। आधुनिकतावादी अन्तर्यात्रा करता है, मूल्यों का मखौल उड़ाता है, वह विद्रोही होता है। भीड़ का विरोध करता है, वह व्यक्ति की मुक्ति का विश्वासी है। वह अपने को अ-मानव की स्थिति में पाता है, और स्नेह, कृतज्ञता आदि को निष्कासित कर देता है। संयम की कमी, प्रयोग, साहित्य रूपों की तोड़-फोड़, शॉक देने की मनोवृत्ति, आक्रोश-क्षोभ-हिंसा की आकांक्षा आदि इसकी विशेषताएँ या 'मोटिफ' हैं।[5]
नयी कविता से विलगाव अनुभव करते हुए काव्य-क्षेत्र में जो अनेक प्रवृतियाँ सक्रिय रहीं, उनमें सबसे अधिक उल्लेखनीय है गिन्सबर्ग आदि अमेरिकी बीटनिकों तथा उनसे प्रभावित बंगाल के मलय रायचौधुरी और सुबिमल बसाक जैसे भूखी पीढ़ी के कवियों के समानांतर हिंदी में उभरने वाले राजकमल चौधरी तथा अकविता और अस्वीकृत कविता से सम्बद्ध कुछ अन्य कवि जिन्होंने 'हेटरो सेक्सुअलिटी' एवं 'ओपन सीक्रेसी' की बीट धारणाओं को अपनाकर समाज से अपने को 'डिसएफिलिएट' करने का प्रयत्न किया। उनकी कविता में यौन शब्दावली का नंगा प्रयोग, अपने विक्षोभ और आक्रोश को व्यक्त करने के लिए प्रायः एक संस्कारहीनता एवं विकृति के रूप में मिलता है।[6]
राजकमल चौधरी को इस दशक की अगुवाई करने वाला कवि माना गया है। राजकमल चौधरी में आधुनिकता अपनी समग्रता में दिखाई पड़ती है। इस समय की अधिकांश रचनाओं पर चौधरी की छाप देखी जा सकती है।[7]
बीटनिक आन्दोलन हिन्दी में एक फैशन की तरह आया और कुछ ही समय में निष्प्रेरक हो गया क्योंकि उसकी जड़ें देश के यथार्थ में नहीं थीं।[8] वस्तुतः ये गुस्से के कवि थे। अपनी आक्रोशपूर्ण वाणी में ये अपना गुस्सा उतारते रहे। पूर्ववर्ती समस्त मूल्यों और परम्पराओं को नकार कर वे अपनी चीखों, जख्मों और यौन-विद्रूपताओं को कविता में व्यक्त करते रहे।[7] परन्तु, युयुत्सावादी, नव प्रगतिशील या नव प्रगतिवादी कवियों ने सामाजिक मूल्यों पर बल देते हुए इन बीटनिकों से अपनी असहमति व्यक्त की।[8]
नयी कविता के उपरान्त हिन्दी काव्य के क्षेत्र में थोड़ी सी ही अवधि में इतने अधिक नारे सुनाई दिये, इतने अधिक आन्दोलन आये कि विश्व के किसी अन्य साहित्य में इतनी कम अवधि में इतने अधिक नारे और आंदोलन कभी नहीं उत्पन्न हुए।[9] इनमें से कुछ आंदोलन और नारे तो समय की गर्द में ही दब गये किंतु कुछ विकास के पथ पर बढ़े भी। वस्तुतः इन आंदोलनों की पोषक रचनाएँ एक-दूसरे से मिलती-जुलती भी रहीं तथा कभी-कभी तो एक ही कवि कई आंदोलनों का अनुगामी रहा। साहित्य-रचना का यह समय आंदोलनों की अराजक बाढ़ का समय रहा।
मुख्यतः कविता-प्रधान इन आंदोलनों के नाम इस प्रकार हैं[9][10]-
इस दशक में बाढ़ की तरह आये कविता-आंदोलनों में व्यवस्था-विरोधी आंदोलनों के साथ-साथ व्यवस्था-समर्थक कई आंदोलन भी थे; परंतु प्रायः इन सभी आंदोलनों में सुव्यवस्थित चिंतन का अभाव था, जिसके कारण प्रायः ये सभी लघुजीवी सिद्ध हुए। इन दोनों प्रकार के मुख्य आंदोलनों का सामान्य परिचय अग्रांकित शीर्षकों में द्रष्टव्य है।
मार्च 1962 के 'भारती' के अंक में श्रीवीरेंद्रकुमार जैन ने 'सनातन सूर्योदयी' नयी कविता की घोषणा की। अपना मंतव्य व्यक्त करते हुए उनका कहना था कि "(कविता) पतन-पराजय, कुंठा, आत्मपीड़ना और जीवित आत्मघात के असूझ अंधकार में आत्महारा दिशाहारा होकर भटक रही आज की अनाथ काव्य चेतना के सम्मुख हम-- अल्प से महत् में ले जाने वाली, अंधकार से प्रकाश में ले जाने वाली, मृत्यु से अमृत में ले जाने वाली और सीमा में असीम की लीला को उतार लाने वाली-- आगामी कल की अनिवार्य सनातन सूर्योदयी नूतन कविता धारा का द्वार मुक्त करते हैं।" इस प्रकार इस आंदोलन का मुख्य स्वर व्यवस्था का ही था, परंतु लगभग 3 साल बाद ही 'भारती' के ही फरवरी 1965 ई० के अंक में 'सनातन सूर्योदयी कविता' के स्थान पर 'नूतन कविता' का स्वर सुनाई देने लगा।[9] गंगाप्रसाद विमल जैसे 'सनातन सूर्योदयी कविता' के भूतपूर्व समर्थक स्वयं 'अकविता' वर्ग में सम्मिलित हो गये।[11]
युयुत्सावादी कविता का संबंध 'युयुत्सा' नामक पत्रिका से रहा है। युयुत्सावादी कविता के प्रवर्तक शलभ श्रीराम सिंह थे। उनकी मान्यता रही है कि आदिम युयुत्सा ही साहित्यसर्जन की मूल प्रेरणा है।[9] उनका कहना है कि "मैं साहित्यसर्जन की मूल प्रेरणा के रूप में उसी आदिम युयुत्सा को स्वीकारता हूँ जो कहीं न कहीं प्रत्येक क्रांति, परिवर्तन अथवा विघटन के मूल में प्रमुख रही है। वह युयुत्सा जिजीविषावादी, मुमूर्षावादी, विद्रोहात्मक अथवा प्लैटोनिक कुछ भी हो सकती है।" अप्रैल 1965 की 'रूपाम्बरा' में 'प्रारंभ' के अंतर्गत स्वदेश भारतीय द्वारा 'सबका एक मात्र कारण युयुत्सा' की घोषणा करते हुए शलभ श्रीराम सिंह का यह उद्धरण दिया गया था।[12] 'रूपाम्बरा' के ही अगस्त 1966 के 'अधुनातन कविता अंक' में 'युयुत्सावादी नवलेखन प्रधान सहकारी प्रयास' के रूप में सामने आया, तीन कवियों के वक्तव्य सहित। संपादक ने नयी संवेदनशीलता की बात भी उठायी। विमल पांडेय, रामेश्वरदत्त मानव, ओम् प्रभाकर, बजरंग बिश्नोई आदि ने भी अपने आप को इस आंदोलन से संबंधित किया। विमल पांडेय ने 'युयुत्सावाद' को 'एंग्री यंग मैन' से संबद्ध करने का प्रयत्न किया। श्री ओम् प्रभाकर ने 'युद्धेच्छा' को सनातन वृत्ति मानते हुए युयुत्सा को जिजीविषा का पर्याय माना है। बजरंग बिश्नोई ने प्रतिबद्धता के प्रश्न को युयुत्सा से जोड़ दिया है।[13]
'उत्कर्ष' पत्रिका के जुलाई '66 के अंक में श्रीराम शुक्ल ने 'अस्वीकृत कविता' का नारा बुलंद किया और 'एक लंबी अस्वीकृत कविता' 'मरी हुई औरत के साथ संभोग' शीर्षक से प्रस्तुत की। शुक्ल जी के लिए 'संभोग का अनुभव ही पर्याप्त है-- सात महाकाव्य लिख ले जाने के लिए।' अस्वीकृत कविता के प्रवक्ता कवि की मान्यता है-- "सत्य को सत्य न कह पाने की विषमता कभी न कभी अवरोध तोड़कर बह निकलती है और तभी जन्म होता है अस्वीकृत कविता का।" तथा "प्रस्तुत युग में व्याप्त, यथार्थ होते हुए भी अस्वीकृत विशिष्ट प्रवृतियों, संवेगों, स्थितियों, मूल्यों, असंगतियों और मूड की संप्रेषक कविता है।" अस्वीकृत कविता यौन विकृतियों की कविता है।[13] अश्लील शब्दों का प्रयोग इनके लिए सहज स्वीकृत है तथा इनके अनुसार ये 'नापसंद व्यवस्थाओं को बदलने के लिए' व्यग्र हैं। हल न प्रस्तुत कर सके तो भी 'उन पर प्रश्न चिह्न लगाकर बेसुध लोगों का ध्यान आकर्षित करना' ये अपना कर्तव्य समझते हैं।[14]
'अकविता' का सूत्रधार डॉ० श्याम परमार को माना गया है, परंतु जगदीश चतुर्वेदी भी उनके साथ बराबर के भागीदार थे और 'अकविता' के आरंभिक प्रस्तावकों में थे। वस्तुतः 'अकविता' पत्रिका के तीन संपादक थे-- जगदीश चतुर्वेदी, श्याम परमार और रवींद्रनाथ त्यागी।[15] 'अकविता' पत्रिका में अकविता के समर्थन में सैद्धांतिक लेख प्रायः नहीं छापे जाते थे। उन लोगों की मान्यता थी की 'बात बोलेगी हम नहीं'।[16] परंतु, डॉ० श्याम परमार ने अकविता के समर्थन में 'अकविता और कला-सन्दर्भ' शीर्षक से बाकायदा पुस्तक भी लिखी, जिसमें बहुविध अकविता को परिभाषित करने का प्रयत्न किया गया। जगदीश चतुर्वेदी इस वर्ग के कवियों के द्वारा बौद्धिक स्तर पर जीये गये जीवन की एकांगिता, विसंगति तथा कचोट को सप्राण अभिव्यक्ति प्रदान करने की सचेतनता के कारण तथा काव्य की पुरातन परंपरा से पृथकता के कारण इस काव्य को 'अभिनव काव्य' की संज्ञा देते हुए कहते हैं कि "उन्हें 'एंटी-काव्य' के सार्थ-वाहकों के रूप में परिगणित किया जा सकता है।"[17] परन्तु श्याम परमार अकविता को एंटी कविता या कविता विरोधी नहीं मानते। वे अकविता को 'अंतर्विरोधों की अन्वेषक कविता' मानते हैं। उनके अनुसार इस काव्यांदोलन की विशेषता इस तथ्य में है कि "कवियों की प्रवृत्तियाँ अलग-अलग मनःस्थितियों से जुड़ी हैं।"[18] "अकविता कालधर्मी कविता है। वह सीमित समय की कविता होगी, क्योंकि उसे भविष्य में झंडे नहीं गाड़ना होगा।" तथा "अकविता में अभिव्यक्ति के अनेक स्तर संभव हैं। भाषा और कथ्य में वह प्रतिबद्ध नहीं है, इसलिए 'फ्लेक्जीबल' है। उसमें जटिल और 'टिप्सी' प्रक्रियाएँ हैं-- सीधी और टूटी बातें हैं।"[19] अकविता के प्रवक्ता कवि ने यह भी उल्लेख किया है कि "अकविता के लिए नयी कविता या नवगीत विरोध योग्य नहीं हैं। आन्दोलन वृत्ति के लोग व्यर्थ ही इसे गुट या षड्यंत्र की संज्ञा देते हैं।"[20]
अकविता के आंदोलन को भी बीटनिक आन्दोलन के साथ जुड़े होने का आरोप लगाया गया। परंतु, इसके प्रस्तावकों जगदीश चतुर्वेदी[21] एवं श्याम परमार[22] ने बीटनिकों के व्यवहार को स्पष्टतः निन्दनीय बताया तथा उससे 'अकविता' के जुड़ाव से बिल्कुल इनकार किया।
सन् 1965 से 67 तक निकलने वाली 'अकविता' पत्रिका[15] के प्रस्तावकों में गिरिजाकुमार माथुर, प्रभाकर माचवे, भारत भूषण अग्रवाल, विमल और अतुल आदि के नाम भी सामने आये थे। इस संदर्भ में सौमित्र मोहन तथा मुद्राराक्षस की रचनाएँ भी उल्लेखनीय हैं।
अमेरिकी बीटनिक प्रभाव के कारण डॉ० प्रभाकर माचवे, बांग्ला प्रभाव के कारण राजकमल चौधरी (भूखी पीढ़ी का प्रभाव) तथा गिन्सवर्ग के प्रभाव के कारण त्रिलोचन और शमशेर बहादुर सिंह[23] ने भी बीट कविता से अपने आप को संबद्ध किया था। 'कृति' और 'अभिव्यक्ति' नामक पत्रिकाओं में माचवे जी ने अपनी धारणा को घोषित भी किया। इलाहाबाद से प्रकाशित 'विद्रोही पीढ़ी' के कवियों पर भी अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रभाव दिखा।[24]
'ताजी कविता' के प्रवर्तक लक्ष्मीकांत वर्मा थे। वर्मा जी पहले 'नयी कविता' के बड़े समर्थकों में से थे। उन्होंने नयी कविता के सैद्धांतिक विश्लेषण से संबंधित पहली महत्त्वपूर्ण पुस्तक लिखी थी 'नयी कविता के प्रतिमान'।[25] परंतु, बाद में मान्यता बदलने पर वे 'ताजी कविता' के प्रवर्तक बने। उन्होंने 'ताजी कविता' का आंदोलन इसलिए चलाया कि नयी कविता में अब कुछ 'नयापन' भी शेष न रह गया था और वह एक खास रूप में प्रतिष्ठित भी हो चुकी थी। वर्मा जी का यह भी कहना था कि "नयी कविता का अधिकांश परोक्ष रूप से नाभिनाल द्वारा छायावाद से जीवनशक्ति लेता रहा था।" हालाँकि 'ताज़ी कविता' का यह आंदोलन भी आगे चल नहीं सका।[24] जुलाई 1965 तक में ही वर्मा जी का साथ निभाने वाला कोई एक कवि या लेखक भी सामने नहीं आया और "बिना किसी शोर-गुल के, 'ताजी कविता' के ताज़िए अपने आप दफ़्न हो गये।"[26]
प्रतिबद्ध कविता के साथ डॉ० परमानन्द श्रीवास्तव का नाम जुड़ा हुआ है। डॉ० श्रीवास्तव की धारणा है : "मैं मानता हूँ कि कविता के सामने इसके सिवाय दूसरा विकल्प नहीं है कि वह आज की संपूर्ण मानवनियति का साक्षात्कार करे और पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा प्रेरित अमानवीकरण के विरुद्ध संघर्ष करे।" तथा "प्रतिबद्ध कविता के दायरे में 'भाषा' एक महत्त्वपूर्ण अस्त्र है-- उपर्युक्त संघर्ष का।" डॉ० श्रीवास्तव ने संघर्ष के स्वरूप को भी आगे परिभाषित किया है-- "प्रतिबद्ध कविता में संघर्ष सीधा और सार्थक शब्द है-- उसका कोई छद्मवेश नहीं है-- जो लोग किसी किस्म की प्रतिबद्धता को स्वीकार नहीं करते वे झूठा संघर्ष रचते हैं और उस में मजा लेते हैं।[24]
इस प्रकार यह आंदोलन आधुनिकतावाद अथवा अराजकता से दूर व्यवस्था का ही आंदोलन था और मार्क्सवाद का ही एक रूप था। इसके पीछे एक विचारधारा, एक राजनीतिक दृष्टि थी।[27]
सहज कविता का सूत्रधार डॉ० रवीन्द्र भ्रमर को माना गया है। इस आंदोलन का भी आधुनिकतावाद या आराजकता से दूर दूर तक कोई संबंध नहीं था। इसके समर्थकों में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, अज्ञेय, दिनकर, डॉ० नगेन्द्र, डॉ० देवराज, डॉ० इन्द्रनाथ मदान, डॉ० प्रभाकर माचवे और रामदरश मिश्र के नाम शामिल थे। डॉ० श्याम परमार तथा राजकमल चौधरी ने भी इसे समर्थन दिया था। मार्च 1967 में सहज कविता की विज्ञप्ति प्रकाशित हुई। विज्ञप्ति के कुछ अंश इस प्रकार हैं-- "सन् '60 के बाद एक वर्ग में मैनरिज़्म का क्राफ़्टमैनशिप को ही मूल लक्ष्य माना और हिन्दी कविता कुल मिलाकर टेढ़ी रेखाओं के व्यापार के रूप में सामने आयी। इसीलिए वह फैशन रही है और बहुत अर्थपूर्ण भी नहीं...।"[28] अतः यह कविता का लक्ष्य "नये सिरे से कविता की खोज करना" है। डॉ० परमानंद श्रीवास्तव, राजेंद्र प्रसाद सिंह, डॉ० कुमार विमल, श्रीकांत जोशी, डॉ० श्यामसुंदर घोष, डॉ० विश्वंभरनाथ उपाध्याय, डॉ० गणपतिचन्द्र गुप्त तथा शिवप्रताप सिंह ने 1968 ई० में प्रकाशित 'सहज कविता' नामक संग्रह के अपने लेखों में सहज कविता का समर्थन किया। डॉ० रवीन्द्र भ्रमर ने अपने लेख में सहज कविता को इस प्रकार परिभाषित किया-- "प्रस्तुत संदर्भ में 'सहज' शब्द का व्युत्पत्तिमूल्क अर्थ लेना होगा 'सह जायते इति सहजः।' अर्थात् जो रचना यथार्थ अनुभूति संवेग के साथ वाणी के मूर्त माध्यम में जन्म लेती है, वह सहज है। इस दृष्टि से अनुभूति की प्रामाणिकता प्राथमिक वस्तु है। अनुभूति प्रत्यक्ष तथा प्रामाणिक हुई तो अभिव्यक्ति अकृत्रिम और अजटिल होगी।" तथा "सहज की माँग व्यष्टिमूलक होते हुए भी समाजसापेक्ष है।"[29] डॉ० भ्रमर ने प्रतिबद्धता के प्रश्न को भी सहज कविता के साथ संबद्ध करके देखा है : "अपने युग के जीवन और सर्जनात्मक दायित्व से सहज कविता पूरी तरह प्रतिबद्ध है। उसके मूल में सहज संपूर्ण जीवन की प्रतीति और सहज सुगठित शिल्प के माध्यम की खोज का एक ईमानदार प्रयत्न निहित है।"
नवगीत का नाम फरवरी 1958 में मुजफ्फरपुर से प्रकाशित 'गीतांगिनी' नामक पत्रिका में दिखाई दिया। इस पत्रिका में कुछ नवगीत भी संकलित थे। कुछ लेखक नवगीत का विकास नयी कविता के ही समानांतर मानते हैं और उसे नयी कविता की एक विशेष शैली मानते हैं।[29] 'नवगीत' का प्रथम समवेत संकलन 'कविता' 1964 में ओम प्रभाकर के संपादन में प्रकाशित हुआ। इसके साथ ही डॉ० रवींद्र भ्रमर, रामदरश मिश्र तथा डॉ० रमेश कुंतल मेघ नवगीत के प्रवक्ताओं के रूप में सामने आये। इस संकलन में निराला से लेकर नयी पीढ़ी तक के अनेक गीतकारों के गीत संकलित थे। नवगीत का यह आंदोलन अन्य साठोत्तरी क्षणजीवी आंदोलनों से बिल्कुल भिन्न रहा। न तो इसे अराजकता आदि से कोई लेना-देना था और न ही वैसी शाॅक आदि देने की कोई प्रवृत्ति। यह विधा अपने आप को स्थापित कर चुकी है।
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