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सदाबहार वृक्ष की एक प्रजाति विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
सागौन या टीकवुड द्विबीजपत्री पौधा है। यह चिरहरित यानि वर्ष भर हरा-भरा रहने वाला पौधा है। सागौन का वृक्ष प्रायः 80 से 100 फुट लम्बा होता है। इसका वृक्ष काष्ठीय होता है। इसकी लकड़ी हल्की, मजबूत और काफी समय तक चलनेवाली होती है। इसके पत्ते काफी बड़े होते हैं। फूल उभयलिंगी और सम्पूर्ण होते हैं। सागौन का वानस्पतिक नाम टेक्टोना ग्रैंडिस (Tectona grandis) यह बहुमूल्य इमारती लकड़ी है।
सागौन Tectona grandis | |
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Teak foliage and seeds | |
वैज्ञानिक वर्गीकरण | |
जगत: | Plantae |
अश्रेणीत: | Angiosperms |
अश्रेणीत: | Eudicots |
अश्रेणीत: | Asterids |
गण: | Lamiales |
कुल: | Lamiaceae |
वंश: | Tectona |
जाति: | T. grandis |
द्विपद नाम | |
Tectona grandis L.f. | |
संस्कृत में इसे 'शाक' कहते हैं। लगभग दो सहस्र वर्षों से भारत में यह ज्ञात है और अधिकता से व्यवहृत होती आ रही है। वर्बीनैसी (Verbenaceae) कुल का यह वृहत्, पर्णपाती वृक्ष है। यह शाखा और शिखर पर ताज ऐसा चारों तरफ फैला हुआ होता है। भारत, बरमा और थाइलैंड का यह देशज है, पर फिलिपाइन द्वीप, जावा और मलाया प्रायद्वीप में भी पाया जाता है। भारत में अरावली पहाड़ में पश्चिम में २४° ५०¢ से २५° ३०¢ पूर्वी देशांतर अर्थात् झाँसी तक में पाया जाता है। असम और पंजाब में यह सफलता से उगाया गया है। साल में ५० इंच से अधिक वर्षा वाले और २५° से २७° सें. ताप वाले स्थानों में यह अच्छा उपजता है। इसके लिए ३००० फुट की ऊँचाई के जंगल अधिक उपयुक्त हैं। सब प्रकार की मिट्टी में यह उपज सकता है पर पानी का निकास रहना अथवा अधोभूमि का सूखा रहना आवश्यक है। गरमी में इसकी पत्तियाँ झड़ जाती हैं। गरम स्थानों में जनवरी में ही पत्तियाँ गिरने लगती हैं पर अधिकांश स्थानों में मार्च तक पत्तियाँ हरी रहती हैं। पत्तियाँ एक से दो फुट लंबी और ६ से १२ इंच चौड़ी होती है। इसका लच्छेदार फूल सफेद या कुछ नीलापन लिए सफेद होता है। बीज गोलाकार होते हैं और पक जाने पर गिर पड़ते हैं। बीज में तेल रहता है। बीज बहुत धीरे-धीरे अँकुरते हैं। पेड़ साधारणतया १०० से १५० फुट ऊँचे और धड़ ३ से ८ फुट व्यास के होते हैं।
धड़ की छाल आधा इंच मोटी, धूसर या भूरे रंग की होती है। इनका रसकाष्ठ सफेद और अंत:काष्ठ हरे रंग का होता है। अंत:काष्ठ की गंध सुहावनी और प्रबल सौरभ वाली होती है। गंध बहुत दिनों तक कायम रहती है।
सागौन की लकड़ी बहुत अल्प सिकुड़ती और बहुत मजबूत होती है। इस पर पॉलिश जल्द चढ़ जाती है जिससे यह बहुत आकर्षक हो जाती है। कई सौ वर्ष पुरानी इमारतों में यह ज्यों की त्यों पाई गई है। दो सहस्र वर्षों के पश्चात् भी सागौन की लकड़ी अच्छी अवस्था में पाई गई है। सागौन के अंत:काष्ठ को दीमक आक्रांत नहीं करती यद्यपि रसकाष्ठ को खा जाती है।
सागौन उत्कृष्ट कोटि के जहाजों, नावों, बोंगियों इत्यादि भवनों की खिड़कियों और चौखटों, रेल के डिब्बों और उत्कृष्ट कोटि के फर्नीचर के निर्माण में प्रधानतया प्रयुक्त होता है।
अच्छी भूमि पर दो वर्ष पुराने पौद (sudling), जो ५ से १० फुट ऊँचे होते हैं, लगाए जाते हैं और लगभग ६० वर्षों में यह औसत ६० फुट का हो जाता है और इसके धड़ का व्यास डेढ़ से दो फुट का हो सकता है। बरमा में ८० वर्ष की उम्र के पेड़ का घेरा २ फुट व्यास का हो जाता है, यद्यपि भारत में इतना मोटा होने में २०० वर्ष लग सकते हैं। भारत के ट्रावनकोर, कोचीन, मद्रास, कुर्ग, मैसूर, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के जंगलों के सागौन की उत्कृष्ट लकड़ियाँ अधिकांश बाहर चली जाती हैं। बरमा का सागौन पहले पर्याप्त मात्रा में भारत आता था पर अब वहाँ से ही बाहर चला जाता है। थाईलैंड की लकड़ी भी पाश्चात्य देशों को चली जाती है।
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