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किसी वृक्ष के भूमि के ऊपर के भाग में मुख्यत: तना और शाखाएँ होती हैं, जिनके अंतिम सिरे पत्तियाँ धारण करनेवाली टहनियों का रूप लेते हैं। तने और शाखाओं से ही इमारती लकड़ी (Timber) प्राप्त होती है। भारत में शीशम, साखू, सागौन, महुआ, देवदार, कैल, चीड़, सिरसा, आबनूस, तून, पडौक, आम, नीम, आदि महत्वपूर्ण इमारती लकड़ियाँ होती हैं। सागौन, बर्मा, थाइलैंड और जावा में भी होता है। उपर्युक्त वृक्षों के अतिरिक्त और भी अनेक वृक्ष हैं, जिनकी लकड़ियाँ किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए अत्यंत उपयुक्त होती हैं, जैसे बबूल की लकड़ी पहियों के लिए और गूलर की लकड़ी कुओं के चक्के के लिए।
तना और शाखाएँ केवल अगले सिरे की ओर ही बढ़ते हैं। अत: उनका सबसे पुराना भाग नीचे की ओर आधार पर होता है और सबसे नया भाग अगले सिर पर, किंतु अगले सिरों पर वृद्धि पूर्ण हो जाने पर भी इनकी मोटाई में प्रति वर्ष वृद्धि होती रह सकती है और नई लकड़ी तैयार होती रह सकती है। इस वृद्धि का मूलाधार छाल और लकड़ी के बीच मौजूद एधा (Cambium) नाम की अत्यंत पतली परत है। एधा पहले से मौजूद लकड़ी के बाहर नई परत जमा करती रहती है। शीत एवं शीतोष्ण प्रदेशों में यह क्रिया केवल बसंत और ग्रीष्म के कुछ काल में होती है और जाड़े, या पतझड़ में एधा निष्क्रिय रहती है। इसलिए वर्ष के आरंभ में उत्पन्न लकड़ी से बाद में उत्पन्न लकड़ी भिन्न होती है। फलत: प्रत्येक वर्ष की लकड़ी एक छल्ले के रूप में अलग रहती है। ये छल्ले वार्षिक वलय (annual rings) कहलाते हैं और लकड़ी को आड़ी काटने पर स्पष्ट देखे जा सकते हैं। इन्हें गिनकर कटे हुए पेड़ की आयु का अनुमान लगाया जा सकता है।
एक विशेष आयु प्राप्त होने पर लकड़ी का रंग गहरा होने लगता है। जितना भाग गहरे रंग का हो जाता है, वह अंत: काष्ठ (heartwood) कहलाता है और शेष बाहरी भाग रसकाष्ठ (sapwood)। रसकाष्ठ का अंत:काष्ठ में शनै:-शनै: परिवर्तन बहुत महत्वपूर्ण है। यह केवल जीवित वृक्षों में ही होता है। इस प्रकार यह परिवर्तन लकड़ी के उस उपचार, या पकाई से भिन्न होता है, जो लकड़ी काटने के बाद की जाती है। रसकाष्ठ की कोशिकाओं में जीवद्रव्य (Protoplasm) रहता है, जिसके मर जाने पर रसकाष्ठ पोषक पदार्थ के अभाव में अंत:काष्ठ बन जाता है। अंत:काष्ठ की कोशिकाओं में जीवद्रव्य की जगह वायु, टैनिक गोंद एवं रेज़िन सरीखे कुछ अपाच्य पदार्थ आ जाते हैं। अंत:काष्ठ में पानी की मात्रा कम हो जाती है और उसके जल संचारण तंतुओं में अति सूक्ष्म थैलियों और गोंद कणों की डाट सी लग जाती है। इसलिए किसी एक ही वृक्ष के अंत:काष्ठ की अपेक्षा उसके रसकाष्ठ में काष्ठप्रतिरक्षी पदार्थ अधिक सरलता से प्रविष्ट हो सकते हैं। रसकाष्ठ से अंत:काष्ठ में परिवर्तन की आयु भिन्न-भिन्न वृक्षों में भिन्न-भिन्न होती है। अतएव किसी किसी वृक्ष में इमारती लकड़ी अपेक्षाकृत जल्दी तैयार हो जाती है और रसकाष्ठ उसमें अनुपातत: कम होता है।
लकड़ी के भीतर रस न रह जाने पर, उसपर मौसमी प्रभाव बहुत कम होता है। लकड़ी को अपने आप, प्राकृतिक ढंग से, सूखने में अधिक समय लगता है। इसलिए इसके लिए कृत्रिम उपचार किया जाता है, जिसे पकाना कहते हैं। भलीभाँति पकाई हुई लकड़ी अनेक दोषों से मुक्त हो जाती है।
गाँठ रहित लकड़ी के रेशे एवं अन्य संरचनात्मक तत्त्व प्राय:, तने, या शाखा की लंबाई के समांतर हुआ करते हैं। ऐसी रेशोंवाली लकड़ी सीधे रेशेवाली लकड़ी कहलाती है, किंतु यदि तख्ते, कड़ियाँ, या खंभे इस पकार चीरकर बनाए जाएँ कि चिराई लकड़ी के अक्ष के समांतर न हो, तो रेशा किसी पहल के समांतर न होगा और चिरी लकड़ी तिरछे रेशेवाली कहलाएगी।
इमारती लकड़ी में निम्नलिखित सीमा तक रेशों का तिरछापन स्वीकार किया जा सकता है :
उत्कृष्ट कोटि 1:20; मानक कोटि 1:15; सामान्य कोटि 1:12
किंतु रेशे के तिरछेपन के लिए भिन्न भिन्न स्थिति में निम्न सीमा तक घटाकर सामर्थ्य की गणना करनी चाहिए।
रेशों का तिरछापन | अधिकतम प्रतिशत सामर्थ्य: धरनों, कड़िओं और तानों में | अधिकतम प्रतिशत सामर्थ्य: खंभों में |
---|---|---|
1:10 | 61 | 74 |
1:12 | 69 | 82 |
1:14 | 74 | 87 |
1:15 | 76 | 100 |
1:16 | 85 | 100 |
1:18 | 85 | 100 |
1:20 | 100 | 109 |
कभी-कभी रेशा कुंडली की भाँति घूमता सा होता है, जिससे ऐसा लगता है मानो तना, या शाखा में मरोड़ दे दी गई हो। ऐसी लकड़ी कुंडल, या मरोड़ रेशेवाली कहलाती है।
कुछ छोटी-मोटी शाखाएँ तने के मोटे होने के साथ साथ उसके भीतर ही विलुप्त हो जाती हैं। अनेक आधार गाँठों का रूप ले लेते हैं। ऐसे स्थानों पर रेशे की दिशा में अनिवार्यत: परिवर्तन होता है।
वास्तव में काष्ठ एक अत्यंत कठोर जेली, या सरेस, जैसा पदार्थ होता है, अत: सरेस, या गोंद से इसके गुणों की तुलना की जा सकती है। यह जलग्राही होता है और नमी ग्रहण करके फूलता है तथा सूखने पर सिकुड़ता है। काष्ठ जल की एक निश्चित मात्रा ही ग्रहण कर सकता है, जो उसके सूखे वज़न के 30 प्रतिशत के लगभग होती है। आबनूस जैसी लकड़ी नितांत सूखी और भली भाँति उपचारित होने पर भी पानी में डूब जाती है, जबकि बोल्स लकड़ियाँ कार्क से भी हलकी होती है।
गोंद, या सरेस की भाँति ही, गीले होने पर, लकड़ी की भी कठोरता, सामर्थ्य और दृढ़ता कम हो जाती है और नमी से संतृप्त होने तक इसकी नम्यता एवं विस्तारणीयता बढ़ती ही जाती है। इसलिए गीली भाप के उपचार के द्वारा यह सरलता पूर्वक मोडी जा सकती है; और इस प्रकार फर्नीचर आदि बनाने के काम आती है।
नमी की मात्रा समान होने पर भी लकड़ियों के आयतन में परिवर्तन की मात्रा भिन्न भिन्न होती है। भारी, या अरेज़िनी लकड़ियाँ प्राय: हलकी होती हैं, या रेज़िनी लकड़ियों की अपेक्षा अधिक फूलती, या सिकुड़ती हैं। इसलिए नरम काष्ठ में कठोर काष्ठ की अपेक्षा कुछ कम परिवर्तन हुआ करता है, किंतु घनत्व के अनुपात में नहीं।
रेशे की दिशा में लकड़ी बहुत कम घटती, या बढ़ती है। यहाँ तक कि भली भाँति उपचारित लकड़ी के बने हुए पैमाने और गज आदि विश्वसनीय होते हैं। किंतु रेशों की आड़ी दिशा में प्रसार या संकोच अपेक्षाकृत बहुत अधिक, अरवत् लगभग 30 से 50 गुने तक और स्पर्श रेखीय लगभग 60 से 100 गुने तक, होता है। इसी कारण लकड़ी का कोई टुकड़ा, कड़ी, या तख्ता आदि सूखने पर प्राय: शकल बदल देता है। चित्र 1. में तख्तों, चौकोर कड़ी, या गोल छड़ की आकृति सूखने के बाद दिखाई गई है। तख्ता 1., जो प्राय: अरवत् है, सूखने पर भी प्राय: सीधा ही रहता है और इसकी तुलना में तख्ता क्रमांक 3. या 5. की ऐंठन उल्लेखनीय है।
किसी-किसी टुकड़े के रेशे इधर-उधर विभिन्न दिशाओं में जाते हैं जैसे अत्यंत गँठीली, या दाँतेदार लकड़ी के। ये देखने में अत्यंत सुंदर लगते हैं, किंतु सूखने पर इनके चटकने, या फटने की संभावना रहती है। इसलिए सुंदर दर्शनीय फर्नीचर में लगाने के लिए ऐसी लकड़ी की बहुत पतली परतें काटकर सरेस द्वारा किसी सीधे रेशे वाली लकड़ी पर चिपका दी जाती हैं। परती लकड़ी, जिसका सर्व साधारण उदाहरण तिपरती लकड़ी है, तीन परतें परस्पर इस प्रकार चिपकाकर बनाई जाती है कि एक के रेशे दूसरी के रेशों के आड़े रहें। ये परतें ऐंठती कम हैं, सिकुड़ती बराबर है और विभिन्न दिशाओं में इनकी सामर्थ्य एक सी रहती है।
काष्ठ का रंग बहुधा सफेद ही होता है, जो अंत: काष्ठ बनते-बनते गहरा होकर काला, या अनेक वर्ण धारण कर लेता है। भूरी, बादामी, पीली, लाल, हरी और बैंगनी या मिश्रित रंगों की लकड़ियाँ मिलती हैं।
प्राकृतिक शक्तियों का सामना करने के लिए वृक्ष की लकड़ी में इतनी सामर्थ्य होनी आवश्यक है कि वह टूट न सके, अथवा दबाव, खिंचाव, नमन और ऐंठन आदि के कारण उसमें स्थायी विकृति न आए। इसमें इन सब प्रकार के प्रतिबल अकस्मात् आ जाने से उत्पन्न आघात सहन करने की भी शक्ति होनी चाहिए। तना खंभे की भाँति सीधा खड़ा रहे, इसलिए लकड़ी में पर्याप्त दृढ़ता भी होनी चाहिए और इतनी लचक भी होनी चाहिए कि विकृति उत्पन्न करनेवाले प्रतिबलों के हटने पर वे अपनी पूर्वावस्था प्राप्त कर लें। ये ही सब गुण इमारती लकड़ी में होते हैं।
लकड़ी की रचना रेशों के समांतर कुछ और होती है तथा आड़े कुछ और। इसी के अनुरूप इन दोनों दिशाओं में उसकी सामर्थ्य और दृढ़ता भी भिन्न-भिन्न होती है। दबाव और तनाव की सामर्थ्य रेशों के समांतर अधिकतम होती है और कर्तन सामर्थ्य (shear stength) उसकी आड़ी दिशा में। नमन (bending) में किसी धरन की सामर्थ्य सर्वाधिक तब होती है जब भार रेशों की दिशा के लंबवत् डाला जाता है। धरनें, कड़ियाँ, फ़र्शी तख्ते, खंभे, कुल्हाड़ी की बेंट, पहियों के अरे आदि सीधे रेशेवाली लकड़ी के ही मजबूत बनते हैं, तिरछे रेशेवाली लकड़ी कमजोर रहती है।
लकड़ी का सबसे महत्वपूर्ण गुण है, सामर्थ्य और हलकेपन का समन्वय। दबाव सामर्थ्य और घनत्व का अनुपात लकड़ी में सर्वाधिक होता है। तनाव सामर्थ्य में यह इस्पात की अपेक्षा कमजोर होती है। इसलिए इमारती संरचना में यथास्थान लकड़ी के साथ इस्पात आदि का उपयोग किया जाता है।
1.लकड़ी के दोष = लकड़ी के कुछ दोष ऐसे होते हैं जिनके कारण इसमें कमजोरी आती है। गाँठों की चर्चा ऊपर आ चुकी है। इनसे सामर्थ्य घट जाती है। इनका दुष्प्रभाव दबाव, कर्तन, या दृढ़ता की अपेक्षा तनाव में अधिक पड़ता है। कभी कभी गाँठें ढीली पड़ जाती हैं। तख्तों के बीच में से ऐसी गाँठ निकल जाने से उनमें छिद्र हो जाते हैं। लकड़ी में भाँति भाँति की दरारें भी होती हैं। इनसे लकड़ी की कर्तनसामर्थ्य बहुत कम हो जाती है।
लकड़ी प्राकृतिक उत्पाद है, इसलिए यह दोषरहित नहीं हो सकती। हाँ, इमारती लकड़ी में इन दोषों की सीमा निर्धारित कर दी जाती है, जैसे किसी विशेष नाप से बड़ी गाँठें न रहें, गाँठें अधिकतर तनाव के क्षेत्र में न पड़ें, दरारें अधिकतम कर्तन के क्षेत्र में, या सतह पर न पड़ें, आदि।
सड़ने, घुनने और दीमक लगने की संभावनाएँ इमारती काम की दृष्टि से लकड़ी की उपयोगिता घटा देती हैं। इनसे बचाने के लिए अनेक प्रकार के उपचार किए जाते हैं।
2 .लड़की को स्टोर करना
लकड़ी को हमेशा छावं में सुकना चाइये ताकि लकड़ी पर जान बनी रहे। लकड़ी को या तो पानी में रखना चाइये या फिर फर्श से ऊपर उठे हुए भाग पर ताकि हो वाष्पीकरण न कर सके।
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