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भारत का सर्वोच्च न्यायालय विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
भारत का उच्चतम न्यायालय भारत का सर्वोच्च न्यायिक निकाय है और संविधान के तहत भारत गणराज्य का सर्वोच्च न्यायालय है। यह सबसे वरिष्ठ संवैधानिक न्यायालय है, और इसके पास न्यायिक पुनरावलोकन(अमेरिका से लिया गया) की शक्ति है। भारत का मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय का प्रमुख और मुख्य न्यायाधीश होता है, जिसमें अधिकतम 34 न्यायाधीश होते हैं और इसके पास मूल, अपीलीय और सलाहकार क्षेत्राधिकार के रूप में व्यापक शक्तियाँ होती हैं।
भारत का उच्चतम न्यायालय | |
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स्थापना |
1 अक्टूबर 1937 (भारत का संघीय न्यायालय के रूप में) 28 जनवरी 1950 (भारत के उच्चतम न्यायालय के रूप में)[1] |
अधिकार क्षेत्र | भारत |
स्थान | तिलक मार्ग, नई दिल्ली, दिल्ली |
निर्देशांक | 28.622237°N 77.239584°E |
प्राधिकृत | भारत का संविधान |
न्यायाधीशको कार्यकाल | 65 वर्ष की आयु में अनिवार्य सेवानिवृत्ति |
पदों की संख्या | 34 (33+1; वर्तमान संख्या)[2] |
जालस्थल |
www |
भारत के मुख्य न्यायाधीश | |
वर्तमान | धनञ्जय यशवंत चंद्रचूड़ |
कार्य प्रारम्भ | 9 अक्टूबर 2022 |
भारत में सर्वोच्च संवैधानिक न्यायालय के रूप में, यह मुख्य रूप से संघ के विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालयों और अन्य अदालतों और न्यायाधिकरणों के फैसले के विरुद्ध अपील करता है। यह नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करने और विभिन्न सरकारी प्राधिकरणों के साथ-साथ केंद्र सरकार बनाम राज्य सरकारों या राज्य सरकारों बनाम देश में किसी अन्य राज्य सरकार के बीच विवादों को निपटाने के लिए आवश्यक है। एक सलाहकार अदालत के रूप में, यह उन मामलों की सुनवाई करता है जिन्हें विशेष रूप से भारत के राष्ट्रपति द्वारा संविधान के तहत संदर्भित किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित कानून भारत के भीतर और केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा भी सभी अदालतों पर बाध्यकारी हो जाता है। संविधान के अनुच्छेद 142 के अनुसार, भारत के राष्ट्रपति का यह कर्तव्य है कि वे सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को लागू करें और न्याय के हित में आवश्यक समझे जाने वाले किसी भी आदेश को पारित करने के लिए न्यायालय को अंतर्निहित क्षेत्राधिकार प्रदान किया गया है। 28 जनवरी 1950 से सर्वोच्च न्यायालय ने प्रिवी काउंसिल की न्यायिक समिति को अपील की सर्वोच्च अदालत के रूप में बदल दिया है।
न्यान्याधीशों के वेतन और भत्ते- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 125 मे कहा गया कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के वेतन व भत्ते दिये जाये जो संसद (भारत की संचित) निधि निर्मित करे। न्यायाधीश के लिए वेतन भत्ते अधिनियम 1 जनवरी 2009 के अनुसार उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 2,80,000 मासिक आय और न्यायाधीश को 2,50,000 मासिक आय प्राप्त हुए है। निःशुल्क आवास, मनोरंजन कर्मी, कार और यातायात भत्ता मिलता है। इनके लिए वेतन संसद तय करती है जो कि संचित निधि से पारित होती है। कार्यकाल के दौरान वेतन मे कोई कटौती नही होती है। न्यायाधीश के कार्यकाल- 65 वर्ष की आयु। वर्तमान में उच्चतम न्यायलाय के मुख्य न्यायधीश धनञ्जय यशवंत चंद्रचूड़ हैं। स्टालिन कुमार सोना परमिटर भारत
28 जनवरी 1950, भारत के एक संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य बनने के दो दिन बाद, भारत का उच्चतम न्यायालय अस्तित्व में आया। उद्घाटन समारोह का आयोजन संसद भवन के नरेंद्रमण्डल(चेंबर ऑफ़ प्रिंसेज़) भवन में किया गया था। इससे पहले सन् 1937 से 1950 तक चैंबर ऑफ़ प्रिंसेस ही भारत की संघीय अदालत का भवन था। स्वतंत्रता के पश्चात भी सन् 1958 तक चैंबर ऑफ प्रिंसेस ही भारत के उच्चतम न्यायालय का भवन था, जब तक कि 1958 में उच्चतम न्यायालय ने अपने वर्तमान तिलक मार्ग, नई दिल्ली स्थित परिसर का अधिग्रहण किया।
भारत के सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय अदालत प्रणाली के शीर्ष पर पहुँचते हुए भारत की संघीय अदालत और प्रिवी काउंसिल की न्यायिक समिति को प्रतिस्थापित किया था।
28 जनवरी 1950 को इसके उद्घाटन के बाद, उच्चतम न्यायालय ने संसद भवन के चैंबर ऑफ़ प्रिंसेस में अपनी बैठकों की शुरुआत की। उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन (एस. सी. बी. ए.) सर्वोच्च न्यायालय की बार है। एस. सी . बी. ए. के वर्तमान अध्यक्ष प्रवीण पारेख हैं, जबकि के. सी. कौशिक मौजूदा मानद सचिव हैं।<[3]
सुप्रीम कोर्ट भवन के मुख्य ब्लॉक को भारत की राजधानी नई दिल्ली में तिलक रोड स्थित 22 एकड़ जमीन के एक वर्गाकार भूखंड पर बनाया गया है। निर्माण का डिजाइन केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग के प्रथम भारतीय अध्यक्ष मुख्य वास्तुकार गणेश भीकाजी देवलालीकर द्वारा इंडो-ब्रिटिश स्थापत्य शैली में बनाया गया था। न्यायालय 1958 में वर्तमान इमारत में स्थानान्तरित किया गया। भवन को न्याय के तराजू की छवि देने की वास्तुकारों की कोशिश के अंतर्गत भवन के केन्द्रीय ब्लाक को इस तरह बनाया गया है की वह तराजू के केन्द्रीय बीम की तरह लगे। 1979 में दो नए हिस्से पूर्व विंग और पश्चिम विंग को 1958 में बने परिसर में जोड़ा गया। कुल मिलकर इस परिसर में 15[4] अदालती कमरे हैं। मुख्य न्यायाधीश की अदालत, जो कि केन्द्रीय विंग के केंद्र में स्थित है सबसे बड़ा अदालती कार्यवाही का कमरा है। इसमें एक ऊंची छत के साथ एक बड़ा गुंबद भी है।
भारत के संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय के लिए मूल रूप से दी गयी व्यवस्था में एक मुख्य न्यायाधीश तथा सात अन्य न्यायाधीशों को अधिनियमित किया गया था और इस संख्या को बढ़ाने का दायित्व संसद पर छोड़ा गया था। प्रारंभिक वर्षों में, न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत मामलों को सुनने के लिए उच्चतम न्यायालय की पूरी पीठ एक साथ बैठा करती थी। जैसे जैसे न्यायालय के कार्य में वृद्धि हुई और लंबित मामले बढ़ने लगे, भारतीय संसद द्वारा न्यायाधीशों की मूल संख्या को आठ से बढ़ाकर 1956 में ग्यारह (11), 1960 में चौदह (14), 1978 में अठारह (18), 1986 में छब्बीस (26), 2008 में इकत्तीस (31) और 2019 में चौंतीस (34) तक कर दिया गया। न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि हुई है, वर्तमान में वे दो या तीन की छोटी न्यायपीठों (जिन्हें 'खंडपीठ' कहा जाता है) के रूप में सुनवाई करते हैं। संवैधानिक मामले और ऐसे मामले जिनमें विधि के मौलिक प्रश्नों की व्याख्या देनी हो, की सुनवाई पांच या इससे अधिक न्यायाधीशों की पीठ (जिसे 'संवैधानिक पीठ' कहा जाता है) द्वारा की जाती है। कोई भी पीठ किसी भी विचाराधीन मामले को आवश्यकता पड़ने पर संख्या में बड़ी पीठ के पास सुनवाई के लिए भेज सकती है।[5]
संविधान में तैतीस (33) न्यायधीश तथा एक मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति का प्रावधान है। सुप्रीम कोर्ट के सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय के परामर्शानुसार की जाती है। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश इस प्रसंग में राष्ट्रपति को परामर्श देने से पूर्व अनिवार्य रूप से चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के समूह से परामर्श प्राप्त करते हैं तथा इस समूह से प्राप्त परामर्श के आधार पर राष्ट्रपति को परामर्श देते हैं।
अनु 124[2] के अनुसार मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति अपनी इच्छानुसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सलाह लेगा। वहीं अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय उसे अनिवार्य रूप से मुख्य न्यायाधीश की सलाह माननी पड़ेगी
सर्वोच्च न्यायालय एडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ वाद 1993 मे दिये गये निर्णय के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के स्थानांतरण इस प्रकार की प्रक्रिया है जो सर्वाधिक योग्य उपलब्ध व्यक्तियों की नियुक्ति की जा सके। भारत के मुख्य न्यायाधीश का मत प्राथमिकता पायेगा। उच्च न्यायपालिका मे कोई नियुक्ति बिना उनकी सहमति के नहीं होती है। संवैधानिक सत्ताओं के संघर्ष के समय भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका का प्रतिनिधित्व करेगा। राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश को अपने मत पर फिर से विचार करने को तभी कहेगा जब इस हेतु कोई तार्किक कारण मौजूद होगा। पुनः विचार के बाद उसका मत राष्ट्रपति पर बाध्यकारी होगा यद्यपि अपना मत प्रकट करते समय वह उच्चतम न्यायालय के दो वरिष्ठम न्यायधीशों का मत अवश्य लेगा। पुनःविचार की स्थिति में फिर से उसे दो वरिष्ठम न्यायधीशों की राय लेनी होगी वह चाहे तो उच्च न्यायालय/उच्चतम न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की राय भी ले सकता है लेकिन सभी राय सदैव लिखित में होगी
बाद में अपना मत बदलते हुए न्यायालय ने कम से कम 4 जजों के साथ सलाह करना अनिवार्य कर दिया था। वह कोई भी सलाह राष्ट्रपति को अग्रेषित नहीं करेगा यदि दो या अधिक न्यायाधीशों की सलाह इसके विरूद्ध हो किंतु 4 न्यायाधीशों की सलाह उसे अन्य न्यायाधीशों जिनसे वो चाहे, सलाह लेने से नहीं रोकेगी।
और वह 65 वर्ष की आयु पूरी न किया हो, वर्तमान समय में CJAC निर्णय लेगी। किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश या फिर उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के एक तदर्थ न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु 65 वर्ष होती है। न्यायाधीशों को केवल (महाभियोग) दुर्व्यवहार या असमर्थता के सिद्ध होने पर संसद के दोनों सदनों द्वारा दो-तिहाई बहुमत से पारित प्रस्ताव के आधार पर ही राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों की राष्ट्रपति तब पदच्युत करेगा जब संसद के दोनों सदनों के कम से कम 2/3 उपस्थित तथा मत देने वाले तथा सदन के कुल बहुमत द्वारा पारित प्रस्ताव जो कि सिद्ध कदाचार या अक्षमता के आधार पर लाया गया हो के द्वारा उसे अधिकार दिया गया हो। ये आदेश उसी संसद सत्र मे लाया जायेगा जिस सत्र मे ये प्रस्ताव संसद ने पारित किया हो। अनु 124[5] मे वह प्रक्रिया वर्णित है जिससे जज पदच्युत होते है। इस प्रक्रिया के आधार पर संसद ने न्यायधीश अक्षमता अधिनियम 1968 पारित किया था। इसके अन्तर्गत
अभी तक सिर्फ एक बार किसी जज के विरूद्ध जांच की गयी है। न्यायाधीश रामास्वामी दोषी सिद्ध हो गये थे किंतु संसद मे आवश्यक बहुमत के अभाव के चलते प्रस्ताव पारित नहीं किया जा सका था।
सुप्रीम कोर्ट ने हमेशा एक विस्तृत क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व को बनाए रखा है। इसमें धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यक वर्गों से संबंधित न्यायाधीशों का एक अच्छा हिस्सा है। उच्चतम न्यायालय में नियुक्त होने वाली प्रथम महिला न्यायाधीश 1987 में नियुक्त हुईं न्यायमूर्ति फातिमा बीवी थीं। उनके बाद इसी क्रम में न्यायमूर्ति सुजाता मनोहर, न्यायमूर्ति रूमा पाल और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा का नाम आता है। न्यायमूर्ति रंजना देसाई, जो सबसे हाल ही में उच्चतम न्यायालय की महिला जज नियुक्त हुईं हैं, को मिलाकर वर्तमान में उच्चतम न्यायालय में दो महिला न्यायाधीश हैं, उच्चतम न्यायालय के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब दो महिलायें एक साथ न्यायाधीश हों।
2000 में न्यायमूर्ति के. जी. बालकृष्णन दलित समुदाय से पहले न्यायाधीश बने। बाद में, सन् 2007 में वे ही उच्चतम न्यायालय के पहले दलित मुख्य न्यायाधीश भी बने। 2010 में, भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद सँभालने वाले न्यायमूर्ति एस. एच. कपाड़िया पारसी अल्पसंख्यक समुदाय से सम्बन्ध रखते हैं।
अनुच्छेद 130 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली मे होगा परन्तु यह भारत मे और कही भी मुख्य न्यायाधीश के निर्णय के अनुसार राष्ट्रपति की स्वीकृति से सुनवाई कर सकेगा
क्षेत्रीय खंडपीठों का प्रश्न- विधि आयोग अपनी रिपोर्ट के माध्यम से क्षेत्रीय खंडपीठों के गठन की अनुसंशा कर चुका है न्यायालय के वकीलों ने भी प्रार्थना की है कि वह अपनी क्षेत्रीय खंडपीठों का गठन करे ताकि देश के विभिन्न भागों मे निवास करने वाले वासियों के धन तथा समय दोनो की बचत हो सके, किंतु न्यायालय ने इस प्रश्न पर विचार करने के बाद निर्णय दिया है कि पीठों के गठन से
1. ये पीठें क्षेत्र के राजनैतिक दबाव मे आ जायेंगी
2. इनके द्वारा उच्चतम न्यायालय के एकात्मक चरित्र तथा संगठन को हानि पहुँच सकती है
किंतु इसके विरोध मे भी तर्क दिये गये हैं।
क्र. सं. | मामला | उच्चतम न्यायालय का निर्णय |
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1. | शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार, 1951 | संसद को अनुच्छेद 368 के तहत संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन करने की शक्ति है। |
2. | सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार, 1965 | संसद को अनुच्छेद 368 के तहत संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन करने की शक्ति है। |
3. | गोलक नाथ बनाम पंजाब सरकार, 1967 | संसद को संविधान के भाग III (मौलिक अधिकारों) में संशोधन करने का अधिकार नहीं है। |
4. | केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार, 1973 | संसद के किसी भी प्रावधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन 'बुनियादी संरचना' को कमजोर नहीं कर सकती है। |
5. | इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण, 1975 | सर्वोच्च न्यायालय ने बुनियादी संरचना की अपनी अवधारणा की भी पुष्टि की। |
6. | मिनर्वा मिल्स बनाम भारत सरकार, 1980 | बुनियादी विशेषताओं में 'न्यायिक समीक्षा' और 'मौलिक अधिकारों तथा निर्देशक सिद्धांतों के बीच संतुलन' को जोड़कर बुनियादी ढांचे की अवधारणा को आगे विकसित किया गया। |
7. | मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम , १९८५ | भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा १२५ के अन्तर्गत स्त्री को भरण-पोषण पाने का अधिकार है क्योंकि यह एक अपराधिक मामला है न कि दीवानी (सिविल)। |
8. | कीहोतो होल्लोहन बनाम जाचील्लहु, 1992 | 'स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव' को बुनियादी विशेषताओं में जोड़ा गया। |
9. | इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार, 1992 | 'कानून का शासन', बुनियादी विशेषताओं में जोड़ा गया। |
10. | एस.आर बोम्मई बनाम भारत सरकार, 1994 | संघीय ढांचे, भारत की एकता और अखंडता, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, सामाजिक न्याय और न्यायिक समीक्षा को बुनियादी विशेषताओं के रूप में दोहराया गया। |
वर्ष 2008 में सर्वोच्य न्यायालय विभिन्न विवादों में उलझा जिसमें न्यायप्रणाली के उच्चतम स्तर पर भ्रष्टाचार का मामला,[6] करदाताओं के पैसे से महंगी निजी छुट्टियाँ,[7] न्यायाधीशों की परिसम्पतियों को सार्वजनिक करने से मना करने का मामला,[8] न्यायाधीशों की नियुक्ति में गोपनीयता, सूचना के अधिकार के तहत सूचना को सार्वजनिक करने से मना करना[9] जैसे सभी मामले शामिल रहे। मुख्य न्यायाधीश के॰ जी॰ बालकृष्णन ने अपने पद को जनसेवक का न होकर एक संवैधानिक प्राधिकारी का होने को लेकर काफी आलोचनाओं का सामना किया।[10] बाद में उन्होंने अपना बयान वापस ले लिया।[11] न्यायव्यवस्था को अपनी धीमी प्रक्रिया के लिए पूर्व राष्ट्रपतियों प्रतिभा पाटिल और ए॰पी॰जे॰ अब्दुल कलाम से भी कठिन आलोचना झेलनी पड़ी।[12] पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि न्यायव्यवस्था का भ्रष्टाचार के दौर से गुजरना बहुत बड़ी समस्या है और सुझाव दिया कि इसको बहुत शीघ्र इससे उबारने की आवश्यकता है।[13]
भारत के मंत्रिमंडल सचिव ने भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में राष्ट्रीय न्याय परिषद् का पैनल गठित करने के लिए संसद में न्यायाधीश जाँच (संशोधन) विधेयक 2008 प्रस्तुत किया। यह परिषद् उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों पर लगे भ्रष्टाचार और दुराचार के आरोपों की जाँच करेगी।[14]
भारत के संविधान के अनुच्छेद 145 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय को अपने क्रियाकलापों एवं प्रक्रिया को विनियमित करने के लिए स्वयं के नियमों को लागू करने का अधिकार देता है (राष्ट्रपति के अनुमोदन के साथ)। तदनुसार, "उच्चतम न्यायालय की नियमावली, 1950" तैयार किए गए थे। इसके बाद 1966 में इसमें संशोधन करके नयी नियमावली बनायी गयी। 2014 में, उच्चतम न्यायालय ने 1966 के नियमों को बदलकर 'उच्चतम न्यायालय नियमावली 2013' अधिसूचित किया जो 19 अगस्त 2015 से प्रभावी हुई।[15]
जुलाई 2019 से उच्चतम न्यायालय की वेबसाइट पर हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में भी निर्णय की प्रति उपलब्ध करायी जा रही है।[16]
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