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पुर्तगाली लूटेरा- डाकू विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
वास्को द गामा खोजकर्ताओं में से एक और यूरोप से भारत सीधी यात्रा करने वाले जहाज़ों का कमांडर था, जो केप ऑफ गुड होप, अफ्रीका के दक्षिणी कोने से होते हुए भारत पहुँचा। इन्हों ने केवल यूरोप से भारत तक आने वाले जलीय मार्ग की खोज की,न कि भारत की,क्योंकि भारत तो यूरोप से भी पुरानी सभ्यता है जहाँ पर मोहनजोदडो और हडप्पा जेसी बड़ी-बड़ी सभ्यता विकसित हो चुकी थीं! अत: भारत पहले से ही मौजूद था वास्को द गामा जहाज़ द्वारा तीन बार भारत आया। उसकी जन्म की सही तिथि तो अज्ञात है लेकिन यह माना जाता है कि वह १४९० के दशक में साइन, पुर्तगाल में एक योद्धा था
वास्को को भारत का (समुद्री रास्तों द्वारा) अन्वेषक के अलावा अरब सागर का महत्वपूर्ण नौसेनानी और ईसाई धर्म के रक्षक के रूप में भी जाना जाता है। उसकी प्रथम और बाद की यात्राओं के दौरान लिखे गए घटना क्रम को सोलहवीं सदी के अफ्रीका और केरल के जनजीवन का महत्वपूर्ण दस्तावेज माना जाता है।
वास्को द गामा का जन्म अनुमानतः १४६० में[1] या १४६९[2] में साइन्स, पुर्तगाल के दक्षिण-पश्चिमी तट के निकट हुआ था। इनका घर नोस्सा सेन्होरा दास सलास के गिरिजाघर के निकट स्थित था। तत्कालीन साइन्स जो अब अलेन्तेजो तट के कुछ बंदरगाहों में से एक है, तब कुछ सफ़ेद पुती, लाल छत वाली मछुआरों की झोंपड़ियों का समूह भर था। वास्को द गामा के पिता एस्तेवाओ द गामा, १४६० में ड्यूक ऑफ विसेयु, डॉम फर्नैन्डो के यहां एक नाइट थे।[3] डॉम फर्नैन्डो ने साइन्स का नागर-राज्यपाल नियुक्त किया हुआ था। वे तब साइन्स के कुछ साबुन कारखानों से कर वसूलते थे। एस्तेवाओ द गामा का विवाह डोना इसाबेल सॉद्रे से हुआ था।[4] वास्को द गामा के परिवार की आरंभिक जानकारी अधिक ज्ञात नहीं है।
पुर्तगाली इतिहासकार टेक्सियेरा द अरागाओ बताते हैं, कि एवोरा शहर में वास्को द गामा की शिक्षा हुई, जहां उन्होंने शायद गणित एवं नौवहन का ज्ञान अर्जित किया होगा। यह भी ज्ञात है कि गामा को खगोलशास्त्र का भी ज्ञान था, जो उन्होंने संभवतः खगोलज्ञ अब्राहम ज़क्यूतो से लिया होगा।[5]१४९२ में पुर्तगाल के राजा जॉन द्वितीय ने गामा को सेतुबल बंदरगाह, लिस्बन के दक्षिण में भेजा। उन्हें वहां से फ्रांसीसी जहाजों को पकड़ कर लाना था। यह कार्य वास्को ने कौशल एवं तत्परता के साथ पूर्ण किया।
पंद्रहवीं सदी की शुरुआत में पश्चिम स्पेनी राज्य पुर्तगाल के राजा जॉन के बेटे बड़े हो रहे थे और उस समय तक जेरुशलम समेत समूचे मध्य-पूर्व पर मुस्लिम शासकों का कब्ज़ा हो गया था। पूर्व (चीन, भारत और पूर्वी अफ़्रीक़ा) से आने वाले रेशम, मसालों और आभूषणों पर अरब और अन्य मुस्लिम व्यापारियों का कब्जा था - जो मनचाहे दामों पर इसे यूरोप में बेचते थे। सन् 1412 की गर्मियों में जॉन के तीन बेटों - एडवर्ड (उम्र 20 वर्ष), पीटर तथा हेनरी (18 वर्ष) ने विचार किया कि उन्हें राजकुमार और नाइट (यानि सामंत) के उबाते काम से अधिक कुछ रोमांचक तथा चुनौती भरा काम सौंपा जाना चाहिए। उन्होंने अपने पिता से ये कहा। जॉन का एक सेवक अभी स्युटा (उत्तरी अफ्रीकी तट) से मुस्लिम क़ैदियों के बदले धन लेकर लौटा था। पिछले सात सौ सालों में इस्लाम के शासन में आने के बाद अगर स्युटा को पुर्तगाली आक्रमण से परास्त किया जाय तो यह निश्चित रूप से एक चुनैती भरा काम होता। स्युटा ना सिर्फ एक व्यस्त पत्तन बाज़ार था, बल्कि उस समय मोरक्को, पिछले 30 सालों से अराजकता में फंसा था। काफी ना-नुकुर करने और रानी फिलिपा के आग्रह के बाद जॉन ने आक्रमण की एक योजना तैयार की[6]। हॉलेंड पर आक्रमण की तैयारी के मुखौटे लगाकर स्युटा पर आक्रमण कर दिया। जुलाई 1415 में स्युटा को फतह कर लिया गया। हेनरी, एडवर्ड और पीटर तीनों ने इस युद्ध में सेनानी का काम किया। लेकिन आर्थिक रूप से कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ - मुसलमानों ने स्युटा के बदले टांजयर से व्यापार करना चालू किया और स्युटा के पत्तन खाली रहे।
उस समय यूरोप में कई भ्रांतियाँ प्रचलित थी। उनमें से एक ये थी कि अफ्रीक़ा में, कहीं अंदर दक्षिण में, एक सोने की नदी बहती है। पर वहाँ पहुँचने का मतलब था - सहारा मरुस्थल में मौजूद मुस्लिम अरब और बर्बर सेना को हराना। हेनरी के विचार में ये करना संभव और जरूरी था - आख़िरकर सात सौ साल पहले उत्तरी अफ्रीका पर ईसाईयों (स्पेन, रोमन या ग्रीक) का कब्जा था। उसने अपने पिता से टैंजियर पर आक्रमण की योजना का अनुरोध किया लेकिन जॉन को ऐसा संभव नहीं लगा। टैंजियर दूर था और अधिक सुरक्षित था । जान की मृत्यु के बाद हेनरी का भाई एडवर्ड (सबसे बड़े) का राज्याभिषेक 1433 में हुआ।
काफी अनुरोध के बाद हेनरी को टैंजयर पर आक्रमण की अनुमति मिल गई। लेकिन नौसेनिकों के समय पर ना पहुँचने के बावजूद हेनरी, बची-खुची 7000 की सेना लेकर टैंजियर 1437 में पहुँच गया। जैसा कि प्रत्याशित था - उसे हार का मुँह देखना पड़ा। उसके सेनापतियों ने वापस निकलने की कीमत स्युटा को मोरक्कन हाथों में सौंपने की बात की। हेनरी को ये मंजूर नहीं था - वो अपने भाई फर्डिनांड को बंधक के रूप में रख आया। फर्डिनांड जेल में मर गया।
इसी बीच इस्तांबुल पर उस्मानी तुर्कों का अधिकार मई 1453 में हो गया। तुर्क सुन्नी मुस्लिम थे और इस तरह यूरोपियों के पूर्व के व्यापार का रास्ता संपूर्ण रूप से मुस्लिम हाथों में चला गया। वेनिस और इस्तांबुल के बाज़ारों में चीज़ों के भाव बढ़ने लगे। इसके बाद स्पेनी और पुर्तागली (और इतालवी) शासकों को पूर्व के रास्तों की सामुद्रिक जानकारी की इच्छा और जाग उठी।
तेरहवीं सदी में मार्को पोलो मंगोलों के साम्राज्य होते हुए चीन तक पहुँच गया था। उसने लौटने के बाद अपने जेल के साथी को बताया कि हिन्दुस्तान पूर्व में है। सन् 1419 में वेनिस के निकोलो द कोंटी ने अरबी और फारसी सीखी और अपने को मुस्लिम व्यापारी भेष में छिपा कर भारत की खोज में निकल पड़ा। उसने 25 सालों तक पूर्व की यात्रा की, भारत पहुँचा और कई महत्वपूर्ण जानाकारियाँ दी - जिनमें भारत के पत्तनों पर चीन से बड़े जहाजों के आने की घटना एकदम अप्रत्याशित थी। सन् 1471 में अंततः टैंजियर पर पुर्तगाली अधिकार हो गया लेकिन हेनरी सन् 1474 में मर गया। पुर्तगाल के अब राजा जॉन ने डिएगो केओ को अफ्रीकी तटों पर यात्रा करने के लिए भेजा। केओ ने 1482 में कांगो की सफल यात्रा की और वहाँ एक शिला स्थापित की। सन् 1484 में जब वो लौटा तो उसका बहुत स्वागत हुआ और उसे नोबल (सामंत) की पदवी दी गई। एक बार पुनः अपने लक्ष्य की खोज में निकले डिएगो ने सन् 1486 में नामीबिया तक की यात्रा की - यह अफ्रीका के दक्षिणी बिन्दु से सिर्फ 800 किलोमीटर उत्तर में था। लेकिन, लौटते समय वो कांगो में प्रेस्टर जॉन को ढूंढने निकला और फिर उसका कोई पता नहीं चला।
यूरोप में प्रचलित भ्रांतियों में से एक ये भी थी कि पूर्व में कहीं एक प्रेस्टर जॉन नाम का राजा रहता है जो ईसाई है और अपार सपत्ति का मालिक है। पुर्तागालियों को भरोसा था कि ये राजा भारत (या पूर्वी अफ्रीका) का राजा है। इसका पता लगाने के लिए पुर्तगालियों के राजा जॉन ने दो गुप्तचरों को पूर्व की जमीनी यात्रा पर भेजा। लेकिन जेरुशलम पहुँचने के बाद उन्हें मालूम हुआ कि अरबी सीखे बिना यहां से आगे बढ़ना संभव नहीं है - वे लौट गए। इसके बाद मई 1487 में पेरो दा कोविल्हा और अफ़ोन्सो द पेवा को गुप्त यात्रा पर भेजा। वे मिस्र में सिकंदरिया और काहिरा पहुँच गए। उनमें से पेरो अदन, लाल सागर होते हुए कालीकट (भारत) पहुँच गया। व्यापार और मार्गों को उसने निरीक्षण किया और काहिरा लौट गया। वहाँ उसकी दो पुर्तगाली यहूदियों से मुलाकात हुई जिनको राजा जॉन ने भेजा था। जानकारियों का आदान प्रदान हुआ और कोविल्हा दक्षिण की ओर इथियोपिया चला गया। वहाँ से वो लौटना चाहता था लेकिन उसके विश्व-ज्ञान को देखकर राजा सिकंदर ने उसे अपना सलाहकार नियुक्त किया और बाद में पुर्तगाल भेजने का वादा किया। लेकिन वो जल्दी मर गया और उसके बेटे ने उसकी ये कामना पूरी नहीं की। कोविल्हा वहीं पर बस गया। सन् 1526 के किसी पुर्तगाली मिशन ने बाद में पाया कि कोविल्हा इथियोपिया में तंदुरुस्त, सफल और स्वस्थ अवस्था में था - उसने वहीं शादी कर ली और 74 वर्ष की आयु में मरा।
सन् 1487 के अगस्त महीने में ही पुर्तगाली राजा ने बर्तोलोमेयो डियास (या डियाज़) नाम के नाविक को अफ्रीका का चक्कर लगाने के लिए भेजा। वो पहला यूरोपियन नाविक था जो दक्षिणतम अफ्रीका के तट - उत्तमाशा अंतरीप - के पार पहुंचा। लेकिन भयंकर समुद्री तूफान से परास्त होकर वापस लौट गया। लेकिन उसके पश्चिम से पूरब की तरफ जा सकने से यह साबित हो गया कि अफ्रीका का दक्षिणी कोना है और दुनिया यहीं ख़त्म नहीं हो जाती - जैसाकि पहले डर था।
इसी बीच राजा मैनुएल ने भारत के लिए एक चार नौकाओं वाले दल का विचार रखा। इस दल का कप्तान गामा को चुना गया। कई लोग इससे चकित थे - क्योंकि आसपास की लड़ाईयों के अलावे गामा को किसी बड़े सामुद्रिक चुनौती का अनुभव नहीं था। लेकिन अनुशासित और राजा के विश्वस्त होने के कारण उसे नियुक्त कर लिया गया।
८ जुलाई, १४९७ के दिन[3] चार जहाज़ लिस्बन से चल पड़े और उसकी पहली भारत यात्रा आरंभ हुई।
लगभग 170 लोगों के इस बेड़े के अन्य महत्वपूर्ण नामों में मार्तिम अफ़ोन्सो और फ़र्नाओ मार्टिन्स का नाम था। अफ़ोन्सो कांगो में रहा था और अफ्रीकी बोलियों को जानता था जबकि फ़र्नाओ मोरक्को के कारावास में रहने के कारण अरबी समझता था। दस से बारह अभियुक्त भी इस जहाजी बेड़े में राजा द्वारा रखे गए थे (पुर्तगाली में Degredados, यानि निष्कासित) जिनको ख़तरनाक स्थलों पर जानकारी और खोजी कामों को पूरा करने का काम दिया गया था। प्रत्याशित रूप से जहाज पर कोई महिला सवार नहीं थी।
चलने के एक सप्ताह बाद, 15 जुलाई को वो केनेरी द्वीपों तक पहुँचे और उसके बाद छाए धुंध की वजह से जहाज अलग हो गए। केप वर्डे में उनकी मुलाकात होनी तय थी लेकिन पाओलो द गामा को कोई और जहाज वहाँ नजर नहीं आया। हांलांकि बेरिओ और भंडारण जहाज कुछ घंटो के भीतर आ गए। गामा का जहाज अगले चार दिनों तक नहीं मिला। मिलने के बाद वो वहाँ एक सप्ताह तक रुके और फिर 3 अगस्त को रवाना हुए। अभी तक के सभी पुर्तगाली यात्राओं में नाविकों के जहाज अफ्रीका के तट के निकट से गुजरते थे - बार्तेलोमेयो डियास के भी। लेकिन एक तूफानी हवा, जो तट से दूर खुले अटलांटिक में बहती है नाविकों को उत्तमाशा अंतरीप तक तेजी से धकेल देती है -ऐसा वास्को द गामा ने सुन रखा था। उसने अपने नाविकों को पूर्व की ओर मुड़ कर अफ्रीका के तीरे चलने की बजाय खुले समुद्र में दक्षिण की ओर चलने को कहा। कई दिनों तक खुले समुद्र में चलने और कोई जमीन या आशा न देखने के बाद 1 नवम्बर वो जमीन के निकट आए। ये उत्तमाशा से कोई 150 किलोमीटर पहले रहा होगा। लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई। जहाज की मरम्मती और अपने नक्शे देखने के बाद लोगों ने विश्राम किया। जहाज पर मौजूद वृत्तांतकार ने लिखा कि लोगों की चमड़ी का रंग भूरा है, वे सील, व्हेल या हिरण का मांस और वनस्पति की जड़ी खाते है। वे चमड़े के वस्त्र पहनते हैं और उनके साथ कुत्ते हमेशा चलते हैं। वहाँ से वो 16 नवम्बर को चले।
बर्तेलेमेओ डियास के दिए नक्शे से तट रेखा बुल्कुल मेल नहीं खा रही थी, लेकिन वे चलते रहे और 22 नवम्बर को उत्तमाशा अंतरीप पहुँचे। वहाँ पर डियास द्वारा स्थानीय लोगों के साथ हुए झड़पों की ख़बर उन्हें मिल चुकी थी, लेकिन उनके साथ भी वहाँ पर झड़प हो गई। जहाजों का मरम्मत के बाद 7 दिसम्बर को वो वहाँ से चले। 16 दिसम्बर को वो उस नदी के मुहाने पर पहुँचे जहाँ से बर्तेलोमेउ डियास के नाविकों ने उसे वापस जाने पर मजबूर किया था। उनको वहाँ डियास द्वारा स्थापित क्रॉस दिखा। इसके बाद के रास्तों पर आज तक कोई नहीं पहुँचा था - इसलिए पहले से बने मानचित्र बेकार हो गए और उन्हें नया मानचित्र बनाना पड़ा। तट के सहारे वे उत्तर चले। चूंकि वह क्रिसमस के आसपास का समय था, द गामा के कर्मीदल ने एक तट का नाम, जिससे होकर वे गुजर रहे थे, "नैटाल" रखा। इसका पुर्तगाली में अर्थ है "क्रिसमस" और उस स्थान का यह नाम आज तक इस्तेमाल में है (क्वाज़ुलु-नटाल)।
जनवरी तक वे लोग आज के मोज़ाम्बीक तक पहुँच गए थे, जो पूर्वी अफ़्रीका का एक तटीय क्षेत्र है[8] जिसपर अरब लोगों ने हिन्द महासागर के व्यापार नेटवर्क के एक भाग के रूप में नियंत्रण कर रखा था। उनका पीछा एक क्रोधित भीड़ ने किया जिन्हें ये पता चल गया कि वास्को और उसके लोग मुसलमान नहीं हैं और वे वहाँ से कीनिया की ओर चल पड़े।[9] कीनिया के मोम्बासा में भी उसका विरोध हुआ। पहुँचने के बाद उसे बताया गया कि मोम्बासा शहर में कई ईसाई रहते हैं। जहाज को तट से दूर रखने के बाद कुछ नाविक शहर के दौरे पर गए जहाँ उन्हें गोरे (पीले) ईसाईयों से मुलाकात हुई। बाद में पता चला कि मोज़ाम्बिक से खबर मिलने के बाद वहाँ के सुल्तान ने उन्हें फंसाने के लिए एक योजना तैयार कर रखी थी। गामा वहाँ से भाग निकला - पर उसे भारत पहुँचने के लिए दिशाओं के जानकार नाविकों या निदेशकों की जरुरत थी। उसने एक छोटी नाव पर आ रहे चार लोगों को पकड़ लिया। एक बूढ़े मुसलमान व्यापारी ने बताया कि पास के तट मालिंदी में भारतीय नाविक रहते हैं। कोई चारा न देख वास्को मालिंदी पहुँचा। भारतीयों को देशकर उसे लगा कि ये ईसाई है - कृष्णा के उच्चारण को वो क्राइस्ट समझ रहे थे। मालिंडि (3°13′25″S 40°7′47.8″E) में, द गामा ने एक भारतीय मार्गदर्शक को काम पर रखा, जिसने आगे के मार्ग पर पुर्तगालियों की अगुवाई की और उन्हें २० मई, १४९८ के दिन कालीकट (इसका मलयाली नाम कोळीकोड है), केरल ले आया, जो भारत के दक्षिण पश्चिमी तट पर स्थित है।
वहाँ के राजा (समुदिरी, पुर्तगाली इसे ज़ामोरिन कहने लगे) ने उन्हें कालीकट के पत्तन पर आने का न्यौता दिया लेकिन गामा के राह में इतनी बाधाएँ आईं थीं कि उसे लगा कि ये भी दुश्मन ही होंगे। लेकिन वो मिलने के लिए वली (अरबी में शासक) से मिला और फिर संगीत के साथ कालीकट में ज़ामोरिन (सामुदिरी) ने गामा का स्वागत किया। वहाँ पर राज-दरबार में आने से पहले उसे एक मंदिर मिला जहाँ अंदर में उसे एक देवी की मूर्ति दिखी । पुर्तागलियों को लगा कि ये मरियम की मूर्ति है और उसे भरोसा हो गया कि ज़मोरिन एक ईसाई शासक है। वो मूर्ति शायद मरियम्मा देवी की थी जिसे वो ईसामसीह की माँ मरियम समझ रहे थे। वृत्तकार जो गामा के साथ उस दल में शामुल था जिनको जामोरिन ने स्वागत किया था, लिखा - "इस देश के लोग भूरे हैं, छोटे कद के और पहले देखने से ईर्ष्यालु और मतलबी लगते हैं। मर्द कमर के उपर कुछ नहीं पहनते (शायद धोती, या वेष्टी)। कुछ बाल बड़े रखते हैं जबकि कई सर मुंडवा लेते हैं। महिलाएँ सामान्यतया सुन्दर नहीं दिखती हैं। " फर्नाओ मार्टिन्स ने ज़ामोरिन से मुलाकात में गामा का अरबी अनुवाद किया।
दरबार में मुस्लिम सलाहकारों ने उसे व्यापार की बात करने में कई अड़चने पैदा की। उन्होंने गामा के लाए उपहार की खिल्ली उड़ाई और उसे राजा से मिलाने में देरी की। इसके अलावे उसके पास राजा (सामुदिरी) के लिए उचित कोई उपहार भी नहीं था। ऐसे कारणों से उसे ज़मोरिन से लड़ाई हो गई। सामुदिरी यानि ज़ामोरिन के मुस्लिम मंत्रियों ने उससे (अलग में) व्यापार का कर मांगा। ज़ामोरिन ने उसके द्वारा आग्रह किए गए स्तंभ (संभवतः क्रॉस या मरियम की मूर्ति) को भी खड़ा करवाने से मना कर दिया। सुलह और फिर लड़ाई चलती रही। राजा के मुस्लिम मंत्रियों ने उसके दल से कई लोगों को अगवा कर लिया। लेकिन समुद्र में उनके जहाज पर आए ग्राहकों को गामा ने बंदी बना लिया। अंत में उसे जाने की अनुमति मिली और अगस्त के अंत में वो रवाना हुआ - राजा ने उसको मलयालम में लिखा प्रशस्ति पत्र भी दिया जिसमें पुर्तगाल के राजा जॉन के नाम संदेश था कि वॉस्को यहाँ आया था।
लेकिन अगले ही दिन कोई 70 अरबी जहाज वहाँ आक्रमण के लिए आते दिखे। इसके जवाब में उसने गोली-बारी की। कुछ भारतीय बंधकों के साथ सितंबर 1498 में वापस पुर्तगाल के लिए लौट गया। जनवरी में वो स्वाहिली तट पर दुबारा पहुँचा। जहाज पर कोई 500 दिन गुज़र गए थे - लोग थक और बीमार हो चले थे। पश्चिम अफ्रीकी तट पर घर से कोई 2 सप्ताह की दूरी पर रहने के समय उसका भाई -और दल के तीन जहाजों में से एक का कप्तान, पॉलो द गामा - बीमार पड़ गया और मारा गया। उसने बाक़ी जहाजों को लिस्बन लौट जाने का आदेश दिया और भाई को दफ़नाने के बाद अपने दल से पीछे लिस्बन पहुँचा। वहाँ उसका भयंकर स्वागत हुआ।
गामा ने वापस आकर अपना वृत्तांत राजा मैनुएल को सुनाया। अपने पूर्वाग्रहों के विपरीत उसे भारत के ईसाई अलग लगे और वे पुर्तगाल को पहचान न सके - जिससे उसे अचरज हुआ। भारत में (मालाबार तट पर) मुस्लिमों की उपस्थिति से भी उसे दुविधा हुई। अफ्रीका में हर जगह मुस्लिम शासन और अरब सागर में मुस्लिम (मूर और अरब) व्यापारियों की तादाद को देखकर उसको अपने "ईसाई कर्तव्य" की याद आई और उसने दो सालों के अन्दर दो और मिशन भेजे।
जनवरी 1500 इस्वी का समय बहुत ही शुभंकर लगा, पर मिशन भेजने में 2 महीनों की देरी हो गई। मार्च 1500 में पेद्रो आल्वारेज़ काब्राल की अगुआई में 13 जहाज लिस्बन से चले। उनका लक्ष्य अफ्रीका और भारत में व्यापार के आधार (फैक्टरी और उपनिवेश) लगाने के अलावे जामोरिन को मुस्लिम व्यापारियों को भगा देने का आग्रह भी था। लेकिन कई जहाज उत्तमाशा अंतरीप पर पहुँचने के गामा के बताए दक्षिण-पश्चिम और फिर पूर्व जाने के छोटो रास्ते पर जाने के क्रम में खो गए। काब्राल कालीकट पहुँचा - नए जामोरिन ने यूरोपीय जहाजों का व्यापार स्वीकार किया और सुरक्षा का आश्वासन दिया। लेकिन उस साल के लिए अरब व्यापारी पत्तन में पहुँच चुके थे। केब्राल ने अरब जहाज को पकड़ लिया - ये कहकर कि ये जामोरिन के साथ हुई व्यापार संधि का उल्लंघन है। इसके जवाब में उन्होंने पुर्तगाली फैक्ट्री के सभी 70 लोगों को मार दिया। लेकिन काब्राल की यात्रा पूर्ण असफलता नहीं थी - उसने आते वक़्त सोफाला और किल्वा के राजाओं से संपर्क स्थापित किया। वो भारत में कुन्नूर भी गया और कुछ जहाज जो 'खो गए थे" - दक्षिण अमेरिका पहुँच गए थे।
इससे पहले के कब्राल लौट पाता, मैनुएल प्रथम ने होआओ द नोवा के नेतृत्व में 4 जहाजों के साथ निकला। काब्रल के छोड़े एक संदेश को अफ्रीका के तट पर एक पुराने जूते में टंगा पाया और कालीकट पहुँचा। वहाँ पहुँचकर उसने कई मुस्लिम जहाजों पर आक्रमण किया। कुन्नूर में एक फैक्टरी लगार वापस पुर्तगाल लौट गया।
इस प्रकार पुर्तगाल के जहाजों ने अगले 20 सालों के लिए उसने कालीकट के शासकों से दुश्मनी मोल ले ली। सन् 1502 में वास्को को दुबारा भेजा गया। उसकी अगली यात्रा १५०2 में हुई, जब उसे ये ज्ञात हुआ की कालीकट के लोगों ने पीछे छूट गए सभी पुर्तगालियों को मार डाला है।[10] अपनी यात्रा के मार्ग में पड़ने वाले सभी भारतीय और अरब जहाज़ो को उसने ध्वस्त कर दिया और कालीकट पर नियंत्रण करने के लिए आगे बढ़ चला और उसने बहुत सी दौलत पर अधिकार कर लिया। इससे पुर्तगाल का राजा उससे बहुत प्रसन्न हुआ। वो कोचीन, कुन्नुर और गोवा भी गया। कोचीन के दक्षिण में उसे सदियों से रह रहे ईसाईयों (संत थॉमस, सन् 54 से) का पता चला। गामा ने कुछ पुर्तगालियों को वहीं छोड़ दिया और उस नगर के शासक ने उसे भी अपना सब कुछ वहीं छोड़ कर चले जाने के लिए कहा, पर वह वहाँ से बच निकला।
उसकी दूसरी यात्रा पुर्तगाली राजा के मिशन के हिसाब से बहुत सफल रहा क्योंकि उसने अरब व्यापारियों के कड़ी लड़ाई की - जामोरिन को व्यापार के लिए मजबूर किया और भारत में रह रहे ईसाईयों का पता लगाया।
सन् 1524 में वह अपनी अंतिम भारत यात्रा पर निकला। उस समय पुर्तगाल की भारत में उपनिवेश बस्ती के वाइसरॉय (राज्यपाल) के रूप में आया, पर वहाँ पहुँचने के कुछ समय बाद उसकी मृत्यु हो गई। दिसंबर 1524 में इनकी मृत्यु मलेरिया के कारण हो गई। मरने के बाद इसे कोच्चि (भारत) में दफना दिया गया। लेकिन1539 में इसको सोने चांदी से बने ताबूत में ले जाकर पुर्तगाल के लिसवन के बेलेम (राजशाही कब्रिस्तान) मे दफना दिया गया।
पुर्तगाली राजकुमार और अन्वेषक हेनरी के बाद वास्तो द गामा सबसे महत्वपूर्ण सामुद्रिक खोजकर्ताओं में था। तीन महादेशों और दो महासागरों को पार करने के बाद भी अरब सागर में अरब व्यापारियों और अफ्रीकी साम्राज्यों से लड़ने और फिर भारत आकर अपने साथ लाए पुर्तगाली राज-संदेश तथा उसकी हिफाजत के लिए राजा (ज़ामोरिन) से युद्ध और सफलता उसके दृढ़-निश्चय को दिखाती है। वास्को को वापस पहुँचने के बाद पुर्तगाल में एक सफल सैनिक की तरह नवाजा गया। अपने समकालीन कोलम्बस के मुकाबले उसकी लम्बी यात्रा में भी बग़ावत नहीं हुई और थकने के बाद भी अपने लक्ष्य पर जमे रहा।
वास्को द गामा के भारत पहुँचने पर अरब और मूर व्यापारियों के मसाले के व्यापार को बहुत धक्का लगा। इस व्यापार को हथियाने के लिए वास्को द गामा ने न सिर्फ खतरनाक और परिश्रमी यात्रा की, बल्कि कई युद्ध भी लड़ा। अपने बेहतर बंदूकों (या छोटे तोपों) की मदद से वो अधिकांश लड़ाईयों में सफल रहा। इससे अदन (अरब)-होरमुज (ईरान)-कालीकट जल-व्यापार मार्ग टूट या कमज़ोर पड़ गया। उसकी सफलता को देखते हुए पुर्तगाल के राजा मैनुएल ने भारत और पूर्व के कई मिशन चलाए। अल्बुकर्क, जो उसकी तासरी यात्रा से पहले पुर्तगाल से भेजा गया था, ने अरब सागर में अरबों के व्यापार और सामुद्रिक सेना और संपत्ति को तहस-नहस कर दिया और खोजी मलेशिया (मलाका) और फिर चीन (गुआंगजाउ, पुर्तगालियों का रखा नाम - कैंटन) तक पहुँच गए। सोलहवीं सदी के अत तक अरबी भाषा की जगह टूटी-फूटी पुर्तगाली व्यापार की भाषा बन गई।
इस समय पुर्तगाल एक सामुद्रिक शक्ति बन गया। भारत में जहाँ वो एक बार पहुँचा था उसका नाम उसके सम्मान में वास्को-डि-गामा (गोवा में) रखा गया है। चाँद के एक गढ्ढे का और पुर्तगाल में कई सडकों का नाम वास्को के नाम पर रखा गया है। 2011 में बनी मूलतः मलयालम फिल्म उरुमि में उसको एक खलनायक की तरह दिखाया गया है, निर्देशक - संतोष शिवन।
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