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रेड्डी राजवंश के प्रोलया वेमा रेड्डी द्वारा दक्षिण भारत में रेड्डी साम्राज्य या कोंडाविडु रेड्डी साम्राज्य (1325-1448 सीई)[1][2] स्थापित किया था। काकतीय राजवंश के शिलालेख और वंशावली से पता चलता है कि वे गत काकतीय 'सैन्य' से पैदा हुए थे, और स्थानीय तेलुगु योद्धा संस्कृति के साथ जुडे हुए थे।
इनके द्वारा शासित क्षेत्र अब आधुनिक-तटीय और मध्य आंध्र प्रदेश का हिस्सा है। प्रोलया वेमा रेड्डी उस परिसंघ का हिस्सा थे जिसने 1323 में दिल्ली सल्तनत की हमलावर तुर्क सेनाओं के खिलाफ एक आंदोलन शुरू किया और वारंगल से उन्हें वापस लौटाने में सफल रही।
आंध्र क्षेत्र की आधुनिक जातियों की उत्पत्ति विजयनगर साम्राज्य के अंतिम चरणों तक नहीं हुई थी।
तुगलक वंश द्वारा किये जा रहे हमलों के कारण 1323 में काकतीय साम्राज्य का पतन हो गया, जिससे आंध्र में एक राजनीतिक शून्य पैदा हो गया। इस्लामिक विजेता इस क्षेत्र को प्रभावी नियंत्रण में रखने में विफल रहे और आपस में तथा स्थानीय तेलुगु योद्धाओं से लगातार लडते रहे। नतीज़तन 1347 तक पूरे क्षेत्र को गंवा चुके थे।[3]
यद्यपि, तेलंगाना क्षेत्रों में मुसुनुरियों और रिचेलराओं का उदय हो रहा था, साथ ही तटीय क्षेत्र में तीसरे योद्धा वंश -पन्ता कबीले का रेड्डीयों- का उदय हुआ।[4]
प्रोलया वेमा रेड्डी (जिसे कोमाटी वेमा के रूप में भी जाना जाता है) द्वारा लगभग 1325 में स्थापित, उनका क्षेत्र तट के साथ दक्षिण में नेल्लोर और पश्चिम में श्रीशैलम तक विस्तृत था। अनावोटा रेड्डी उनके उत्तराधिकारी बने, जिन्होंने राज्य को बड़े पैमाने पर समेकित किया और गुंटूर जिले के कोंडविदु में अपनी राजधानी स्थापित की।[4]
1395 तक, उसी वंश की एक शाखा द्वारा एक दूसरा रेड्डी साम्राज्य स्थापित किया गया था, जिसकी राजधानी पूर्वी गोदावरी जिले के राजमुंदरी में थी।[4]
रेड्डी वंशावली में से कोई भी काकतीय युग के स्रोतों में कोई उल्लेख नहीं करता है और उनकी उत्पत्ति के बारे में बिल्कुल पता नहीं लगाया जा सकता है। लेकिन, उनके शिलालेख और विनम्र वंशावली से पता चलता है कि वे गत काकतीय 'सैन्य' से पैदा हुए थे और स्थानीय तेलुगु योद्धा संस्कृति के साथ जुडे हुए थे।[4]
प्रशासन को "धर्मसूत्रों" के अनुसार चलाया गया था। कृषि अधिशेष का एक-छठा हिस्सा कर के रूप में लगाया जाता था। अनावोटा रेड्डी के शासनकाल के तहत व्यापार पर चुंगी और करों को हटा दिया गया था। परिणामस्वरूप, व्यापार फला-फूला। बंदरगाह व्यापार मोतुपल्ली के माध्यम से किया गया था। बड़ी संख्या में व्यापारी इसके पास बस गए। 'वसंतोत्सव' का जश्न एनवेमा रेड्डी के शासन के दौरान पुनर्जीवित किया गया था। रेड्डी राजाओं द्वारा ब्राह्मणों को उदार अनुदान दिया जाता था। जाति व्यवस्था उपस्थित थी। राचा वेमा रेड्डी के भारी करों ने उन्हें अत्यधिक अलोकप्रिय बना दिया था।[5]
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