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महादेवी वर्मा कवयित्री साथ-साथ विशिष्ट गद्यकार भी थीं। उनकी कृतियाँ इस प्रकार हैं।
इस लेख में शीर्ष अनुच्छेद मौजूद नहीं है। कृपया इस लेख में इसकी पहचान के लिए शीर्ष अनुच्छेद लिखे। (मई 2019) |
महादेवी वर्मा के आठ कविता संग्रह हैं-
इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे काव्य संकलन भी प्रकाशित हैं, जिनमें उपर्युक्त रचनाओं में से चुने हुए गीत संकलित किये गये हैं, जैसे 1. आत्मिका, 2. निरंतरा, 3. परिक्रमा, 4. सन्धिनी (1965), 5. यामा (1936) 6. गीतपर्व, 7. दीपगीत, 8. स्मारिका, 9. हिमालय (1963) और 10. आधुनिक कवि महादेवी आदि।
2)स्मृति की रेखाएं (1943) 3)श्रृंखला की कड़ियां 4)मेरा परिवार 5) जाट
1. पथ के साथी (1956), 2. मेरा परिवार (1972), 3. स्मृतिचित्र (1973) और 4. संस्मरण (1983)
रचनात्मक गद्य के अतिरिक्त महादेवी का विवेचनात्मक गद्य तथा दीपशिखा, यामा और आधुनिक कवि- महादेवी की भूमिकाएँ उत्कृष्ट गद्य-लेखन का नमूना समझी जाती हैं। उनकी कलम से बाल साहित्य की रचना भी हुई है।
उनका पहला गीत काव्य संग्रह है। इस संग्रह में १९२४ से १९२८ तक के रचित गीत संग्रहीत हैं। नीहार की विषयवस्तु के सम्बंध में स्वयं महादेवी वर्मा का कथन उल्लेखनीय है- "नीहार के रचना काल में मेरी अनुभूतियों में वैसी ही कौतूहल मिश्रित वेदना उमड़ आती थी, जैसे बालक के मन में दूर दिखायी देने वाली अप्राप्य सुनहली उषा और स्पर्श से दूर सजल मेघ के प्रथम दर्शन से उत्पन्न हो जाती है।" इन गीतों में कौतूहल मिश्रित वेदना की स्वाभाविक अभिव्यक्ति हुई है।
रश्मि महादेवी वर्मा का दूसरा कविता संग्रह है। इसमें १९२७ से १९३१ तक की रचनाएँ हैं। इसमें महादेवी जी का चिंतन और दर्शन पक्ष मुखर होता प्रतीत होता है। अतः अनुभूति की अपेक्षा दार्शनिक चिंतन और विवेचन की अधिकता है।
में रश्मि का चिन्तन और दर्शन अधिक स्पष्ट और प्रौढ़ होता है। कवयित्री सुख-दु:ख में समन्वय स्थापित करती हुई पीड़ा एवं वेदना में आनन्द की अनुभूति करती है। वह उस सामंजस्यपूर्ण भावभूमि में पहुँच गई हैं, जहाँ दुःख सुख एकाकार हो जाते हैं और वेदना का मधुर रस ही उसकी समरसता का आधार बन जाता है। सांध्यगीत में यह सामंजस्य भावना और भी परिपक्व और निर्मल बनकर साधिका को प्रिय के इतना निकट पहुँचा देती है कि वह अपने और प्रिय के बीच की दूरी को ही मिलन समझने लगती है।
में १९३४ से १९३६ ई० तक के रचित गीत हैं। इन गीतों मं नीरजा के भावों का परिपक्व रूप मिलता है। यहाँ न केवल सुख-दुख का बल्कि आँसू और वेदना, मिलन और विरह, आशा और निराशा एवं बन्धन-मुक्ति आदि का समन्वय है। दीपशिखा में १९३६ से १९४२ ई० तक के गीत हैं। इस संग्रह के गीतों का मुख्य प्रतिपाद्य स्वयं मिटकर दूसरे को सुखी बनाना है। यह महादेवी की सिद्धावस्था का काव्य है, जिसमें साधिका की आत्मा की दीपशिखा अकंपित और अचंचल होकर आराध्य की अखंड ज्योति में विलीन हो गई है।
में महादेवी की अन्तिम दिनों में रची गयीं रचनाएँ संग्रहीत हैं जो पाठकों को अभिभूत भी करेंगी और आश्चर्यचकित भी, इस अर्थ में कि महादेवी काव्य में ओत-प्रोत वेदना और करुणा का वह स्वर, जो कब से उनकी पहचान बन चुका है। 'अग्निरेखा` में दीपक को प्रतीक मानकर अनेक रचनाएँ लिखी गयी हैं। साथ ही अनेक विषयों पर भी कविताएँ हैं।[1]
दीपशिखा में महादेवी वर्मा के गीतों का अधिकारिक विषय ‘प्रेम’ है। पर प्रेम की सार्थकता उन्होंने मिलन के उल्लासपूर्ण क्षणों से अधिक विरह की पीड़ा में तलाश की है।[2]
सप्तपर्णा में महादेवी ने अपनी सांस्कृतिक चेतना के सहारे वेद, रामायण, थेर गाथा, अश्वघोष, कालिदास, भवभूति एवं जयदेव की कृतियों से तादात्म्य स्थापित करके 39 चयनित महत्वपूर्ण अंशों का हिन्दी काव्यानुवाद इस प्रस्तुत किया है। आरंभ में 61 पृष्ठीय ‘अपनी बात’ में उन्होंने भारतीय मनीषा और साहित्य की इस अमूल्य धरोहर के संबंध में गहन शोधपूर्ण विमर्ष भी प्रस्तुत किया है। ’सप्तपर्णा’ के अंतर्गत आर्षवाणी, वाल्मीकि, थेरगाथा, अश्वघोष, कालिदास और भवभूति के बाद सातवें सोपान पर महादेवी वर्मा ने जयदेव को प्रतिष्ठित किया है। उन्होंने बताया है कि जयदेव (१२वीं शती का पूर्वार्द्ध) का जब आविर्भाव हुआ तब संस्कृत के शृंगारी काव्य के नायक-नायिका के रूप में राधाकृष्ण की प्रतिष्ठा हो चुकी थी।...महादेवी जी ने ’सप्तपर्णा’ में संस्कृत और पालि साहित्य के चयनित अंशों का काव्यानुवाद प्रस्तुत करते समय अपनी दृष्टि भारतीय चिंतनधारा और सौंदर्यबोध की परंपरा के इतिहास पर केंद्रित रखी है। उनकी यह कृति उन्हें एक सफल सृजनात्मक काव्यानुवादक, साहित्येतिहासकार तथा संस्कृति-चिंतक के रूप में प्रतिष्ठित करने में पूर्ण समर्थ है, इसमें संदेह नहीं।[3]
नीहार जीवन के उषाकाल की ही रचना है, जिसमें सत्य कुहाजाल में छिपा रह कर भी मोहक और कुतूहलपूर्ण प्रतीत होती है। 'रश्मि' युवावस्था के प्रारंभिक दिनों की रचना है। जब सत्य की किरणें आत्मा में ज्ञान की ज्वाला जगा देती हैं। 'नीरजा' कवयित्री की प्रौढ़ मानसिक स्थिति की कृति है, जिसमें दिन के उज्जवल प्रकाश में कमलिनी की तरह वह अपने साधना मार्ग पर अपना सौरभ बिखरा देती हैं। 'सांध्यगीत' में जीवन के संध्याकाल की करुणार्द्रता और वैराग्य भावना के साथ-साथ आत्मा की अपने आध्यात्मिक घर को लौट चलने की प्रवृत्ति वर्तमान है। 'दीपशिखा' में रात के शांत, स्निग्ध और शून्य वातावरण में आराध्य के सम्मुख जीवन दीप के जलते रहने की भावना प्रमुख है। इस प्रकार उन्होंने अपने जीवन के अहोरात्र को इन पाँच प्रतीकात्मक शीर्षकों में विभक्त कर अपनी जीवन साधना का मर्म स्पष्ट कर दिया है।
वेदना की इस एकांत साधना के फलस्वरूप महादेवी की कविता में विषयों का वैविध्य बहुत कम है। उनकी कुछ ही कविताएँ ऐसी हैं, जिनमें राष्ट्रीय और सांस्कृतिक उद्बोधन अथवा प्रकृति का स्वतंत्र चित्रण हुआ है। शेष सभी कविताओं में विषयवस्तु और दृष्टिकोण एक ही होने के कारण उनकी काव्यभूमि विस्तृत नहीं हो सकी हैं। इससे उनके काव्य को हानि और लाभ दोनों हुआ है। हानि यह हुई है कि विषय परिवर्तन न होने से उनके समस्त काव्य में एकरसता और भावावृत्ति बहुत अधिक है। लाभ यह हुआ है कि सीमित क्षेत्र के भीतर ही कवयित्री ने अनुभूतियों के अनेकानेक आयामों को अनेक दृष्टिकोणों से देख-परखकर उनके सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेद-प्रभेदों को बिंबरूप में सामने रखते हुए चित्रित किया है। इस तरह उनके काव्य में विस्तारगत विशालता और दर्शनगत गुरुत्व भले ही न मिले, पर उनकी भावनाओं की गंभीरता, अनुभूतियों की सूक्ष्मता, बिंबों की स्पष्टता और कल्पना की कमनीयता के फलस्वरूप गांभीर्य और महत्ता अवश्य है। इस तरह उनके काव्य विस्तार का नहीं गहराई का काव्य है।
महादेवी का काव्य वर्णनात्मक और इतिवृत्तात्मक नहीं हैं। आंतरिक सूक्ष्म अनुभूतियों की अभिव्यक्ति उन्होंने सहज भावोच्छवास के रूप में की है। इस कारण उनकी अभिव्यंजना पद्धति में लाक्षणिकता और व्यंजकता का बाहुल्य है। रूपकात्मक बिंबों और प्रतीकों के सहारे उन्होंने जो मोहक चित्र उपस्थित किए हैं, वे उनकी सूक्ष्म दृष्टि और रंगमयी कल्पना की शक्तिमत्ता का परिचय देते हैं। ये चित्र उन्होंने अपने परिपार्श्व, विशेषकर प्राकृतिक परिवेश से लिए हैं पर प्रकृति को उन्होंने आलंबन रूप में बहुत कम ग्रहण किया। प्रकृति उनके काव्य में सदैव उद्दीपन, अलंकार, प्रतीक और संकेत के रूप में ही चित्रित हुई हैं। इसी कारण प्रकृति के अति परिचित और सर्वजनसुलभ दृश्यों या वस्तुओं को ही उन्होंने अपने काव्य का उपादान बनाया हैं। उसके असाधारण और अल्पपरिचित दृश्यों की ओर उनका ध्यान नहीं गया है। फिर भी सीमित प्राकृतिक उपादानों के द्वारा उन्होंने जो पूर्ण या आंशिक बिंब चित्रित किए हैं, उनसे उनकी चित्रविधायिनी कल्पना का पूरा परिचय मिल जाता है। इसी कल्पना के दर्शन उनके उन चित्रों में भी होते हैं, जो उन्होंने शब्दों से नहीं, रंगों और तूलिका के माध्यम से निर्मित किए हैं। उनके ये चित्र 'दीपशिखा' और 'यामा' में कविताओं के साथ प्रकाशित हुए हैं।
महादेवी वर्मा ने लिखा है- 'कला के पारस का स्पर्श पा लेने वाले का कलाकार के अतिरिक्त कोई नाम नहीं, साधक के अतिरिक्त कोई वर्ग नहीं, सत्य के अतिरिक्त कोई पूँजी नहीं, भाव-सौंदर्य के अतिरिक्त कोई व्यापार नहीं और कल्याण के अतिरिक्त कोई लाभ नहीं।' लेखन-अवधि में उन्होंने एकनिष्ठ होकर अबाध-गति से भावमय सृजन और कर्ममय जीवन की साधना में लिखी हुई बात को सार्थक बनाया।[4] एक महादेवी ही हैं जिन्होंने गद्य में भी कविता के मर्म की अनुभूति कराई और 'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति' उक्ति को चरितार्थ किया है। विलक्षण बात तो यह है कि न तो उन्होंने उपन्यास लिखा, न कहानी, न ही नाटक फिर भी श्रेष्ठ गद्यकार हैं। उनके ग्रंथ लेखन में एक ओर रेखाचित्र, संस्मरण या फिर यात्रावृत्त हैं तो दूसरी ओर संपादकीय, भूमिकाएँ, निबंध और अभिभाषण, पर सबमें जैसे संपूर्ण जीवन का वैविध्य समाया है। बिना कल्पनाश्रित काव्य रूपों का सहारा लिए कोई रचनाकार गद्य में इतना कुछ अर्जित कर सकता है, यह महादेवी को पढ़कर ही जाना जा सकता है।[5] हिन्दी साहित्य में चंद्रकान्ता मणि के समान द्रवणशील करुण रस की देवी महादेवी वर्मा न केवल विशिष्ट कलाकार, कवयित्री और गद्य लेखिका हैं अपितु इससे आगे एक श्रेष्ठ निबंधकार भी हैं। उनका गद्य कविता की भांति सौंदर्य के भुलावे में डालकर हमें जीवन से दूर नहीं ले जाता, वह तो हमारी शिराओं में चेतना भरकर हमें यथार्थ जीवन में झांकने की प्रेरणा प्रदान करता है।[6]
स्मृति की रेखाएं और अतीत के चलचित्र में निरंतर जिज्ञासा शील महादेवी ने स्मृति के आधार पर अमिट रेखाओं द्वारा अत्यंत सह्रदयतापूर्वक जीवन के विविध रूपों को चित्रित कर उन पात्रों को अमर कर दिया है। इनमें गाँव, गँवई के निर्धन, विपन्न लोग, बालविधवाओं, विमाताओं, पुनर्विवाहिताओं तथा कथित भ्रष्टाओं और वृद्ध-विवाह के कारण प्रताड़िताओं के अत्यंत सशक्त एवं करुण चित्र है। केवल नारियाँ ही नहीं, उपेक्षित पुरुष वर्ग का भी महादेवी ने सही चित्रण किया है। रामा, घीसा, अलोपी और बदलू आदि के रेखाचित्र उनके असाधारण मानवतावाद की ओर इंगित करते हैं। महादेवी ने अधिकांश अपने रेखाचित्रों में निम्नवर्गीय पात्रों की विशेषताओं, दुर्बलताओं और समस्याओं का चित्रण किया है। सेवक रामा की वात्सल्यपूर्ण सेवा, भंगिन सबिया की पति-परायणता और सहनशीलता, घीसा की निश्छल गुरुभक्ति, साग-भाजी के विक्रेता अंधे अलोपी का सरल व्यक्तित्व, कुंभकार बदलू तथा रधिवा का सरल दांपत्य प्रेम, पहाड़ की रमणी लक्षमा का महादेवी के प्रति अनुपम स्नेह-भाव, वृद्ध भक्तिन की प्रगल्भता तथा स्वामी-भक्ति, चीनी युवक की करुण-मार्मिक जीवन-गाथा, पार्वत्य कुली जंगबहादुर तथा उसके अनुज धनिया की कर्मठता आदि अनेक विषयों को रेखाचित्रों में स्थान दिया है। सभी स्मृति-चित्रों को महादेवी ने अपने जीवन के भीतर से प्रस्तुत किया है, अतः यह स्वाभाविक ही है कि इनमें उनके अपने जीवन की विविध घटनाओं एवं उनके चरित्र के विभिन्न अंशों को स्थान प्राप्त हुआ है। उन्होंने अपनी अनुभूतियों को ज्यों का त्यों यथार्थ रूप में अंकित किया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि महादेवी के रेखाचित्रों में चरित्र-चित्रण का तत्व प्रमुख रहा है, कथानक उसका अंगीभूत होकर प्रकट हुआ है। उनके इन रेखाचित्रों में गंभीर लोक का भी पर्याप्त समावेश हुआ है।
'पथ के साथी' में महादेवी ने अपने समकालीन रचनाकारों का चित्रण किया है। जिस सम्मान और आत्मीयतापूर्ण ढंग से उन्होंने इन साहित्यकारों का जीवन-दर्शन और स्वभावगत महानता को स्थापित किया है वह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। 'पथ के साथी' में संस्मरण भी हैं और महादेवी द्वारा पढ़े गए कवियों के जीवन पृष्ठ भी। उन्होंने एक ओर साहित्यकारों की निकटता, आत्मीयता और प्रभाव का काव्यात्मक उल्लेख किया है और दूसरी ओर उनके समग्र जीवन दर्शन को परखने का प्रयत्न किया है। 'पथ के साथी' में कवींद्र रवींद्र, दद्दा (मैथिलीशरण गुप्त), प्रसाद, निराला, पंत, सुभद्राकुमारी चौहान तथा सियारामशरण गुप्त की रेखाएँ शब्द-चित्र के रूप में आईं हैं। शृंखला की कड़ियाँ' (1942 ई.) में सामाजिक समस्याओं, विशेष कर अभिशप्त नारी जीवन के जलते प्रश्नों के संबंधों में लिखे उनके विचारात्मक निबंध संकलित हैं।
रचनात्मक गद्य के अतिरिक्त 'महादेवी का विवेचनात्मक गद्य' तथा 'दीपशिखा', 'वामा' और 'आधुनिक कवि- महादेवी' की भूमिकाओं में उनकी आलोचनात्मक प्रतिभा को आसानी से महसूस किया जा सकता है।
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