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अग्निरेखा महादेवी वर्मा का अंतिम कविता संग्रह है जो मरणोपरांत १९९० में प्रकाशित हुआ। इसमें उनके अन्तिम दिनों में रची गयीं रचनाएँ संग्रहीत हैं जो पाठकों को अभिभूत भी करती हैं और आश्चर्यचकित भी, इस अर्थ में कि महादेवी के काव्य में ओत-प्रोत वेदना और करुणा का वह स्वर, जो कब से उनकी पहचान बन चुका है इसमें मुखर होकर सामने आता है। अग्निरेखा में दीपक को प्रतीक मानकर अनेक रचनाएँ लिखी गयी हैं। साथ ही अनेक विषयों पर भी कविताएँ हैं। -
अग्निरेखा | |
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[[चित्र:|150px]] मुखपृष्ठ | |
लेखक | महादेवी वर्मा |
देश | भारत |
भाषा | हिंदी |
विषय | साहित्य |
प्रकाशन तिथि |
१९९० |
महादेवी वर्मा का विचार है कि अंधकार से सूर्य नहीं दीपक जूझता है-
रात के इस सघन अंधेरे में जूझता-
सूर्य नहीं, जूझता रहा दीपक!
कौन सी रश्मि कब हुई कम्पित,
कौन आँधी वहाँ पहुँच पायी?
कौन ठहरा सका उसे पल भर,
कौन सी फूँक कब बुझा पायी।।
अग्निरेखा के पूर्व भी महादेवी जी ने दीपक को प्रतीक मानकर अनेक गीत लिखे हैं- किन उपकरणों का दीपक, मधुर-मधुर मेरे दीपक जल, सब बुझे दीपक जला दूँ, यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो, पुजारी दीप कहाँ सोता है, दीपक अब जाती रे, दीप मेरे जल अकम्पित घुल अचंचल, पूछता क्यों शेष कितनी रात आदि। शायद यही है कि करीन शोमेर ने महादेवी के लिए 'स्वज्वलित दीपक' (self consuming lamp) का सार्थक शीर्षक दिया है।
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