भाव मिश्र को प्राचीन भारतीय औषधि-शास्त्र का अन्तिम आचार्य माना जाता है। उनकी जन्मतिथि और स्थान आदि के बारे में कुछ भी पता नहीं है किन्तु इतना ज्ञात है कि सम्वत १५५० में वे वाराणसी में आचार्य थे और अपनी कीर्ति के शिखर पर विराजमान थे। उन्होने भावप्रकाश नामक आयुर्वेद ग्रन्थ की रचना की है। उनके पिता का नाम लटकन मिश्र था।[1]
आचार्य भाव प्रकाश का समय सोलहवीं सदी के आसपास है। आचार्य भाव मिश्र अपने पूर्व आचार्यो के ग्रन्थों से सार भाग ग्रहण कर अत्यन्त सरल भाषा में इस ग्रन्थ का निर्माण किया है। उन्होने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही यह बता दिया कि यह शरीर, धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इन पुरुषार्थ चतुष्टक की प्राप्ति का मूल है। और जब यह शरीर निरोग रहेगा, तभी कुछ प्राप्त कर सकता है। इसलिए शरीर को निरोग रखना प्रत्येक व्यक्ति का पहला कर्तव्य है।
इस संस्करण में विमर्श का अधोन्त परिष्कार, विभिन्न वन औषधियों का अनुसंधान, साहित्य का अंतर भाव एवं प्रत्येक वनस्पति का यथास्थिति, असंदिग्ध परिचय देने की चेष्टा की गई है। तथा उन औषधियों का आभ्यांतर प्रयोग यथास्थल किया गया है।
सन्दर्भ
इन्हें भी देखें
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