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भावप्रकाश आयुर्वेद का एक मूल ग्रन्थ है। इसके रचयिता आचार्य भाव मिश्र थे। भावप्रकाश, माधवनिदान तथा शार्ङ्गधरसंहिता को संयुक्त रूप से 'लघुत्रयी' कहा जाता है (जबकि चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता तथा अष्टांगहृदय को सम्मिलित रूप से 'बृहत्त्रयी' कहा जाता है)। भावप्रकाश की रचना भावमिश्र द्वारा सन् 1500 से 1600 के मध्य किया गया था। भाव मिश्र को प्राचीन भारतीय औषधि-शास्त्र का अन्तिम आचार्य माना जाता है। उनकी जन्मतिथि और स्थान आदि के बारे में कुछ भी पता नहीं है किन्तु इतना ज्ञात है कि सम्वत १५५० में वे वाराणसी में आचार्य थे और अपनी कीर्ति के शिखर पर विराजमान थे। उनके पिता का नाम लटकन मिश्र था।
आचार्य भाव मिश्र अपने पूर्व आचार्यो के ग्रन्थों से सार भाग ग्रहण कर अत्यन्त सरल भाषा में इस ग्रन्थ का निर्माण किया । भावप्रकाश में आयुवैदिक औषधियों में प्रयुक्त वनस्पतियों एवं जड़ी-बूटियों का वर्णन है। भावप्रकाशनिघण्टु भावप्रकाश का एक खण्ड है जिसमें सभी प्रकार के औद्भिज, प्राणिज व पार्थिव पदार्थों के गुणकर्मों का विस्तृत विवेचन है।[1] इसलिए इस ग्रन्थ को "भारतीय मैटीरिया मेडिका" भी कहा जाता है।
बैद्यनाथ, डाबर, पतंजलि, हिमालय आदि के द्वारा तैयार की गयी आयुर्वेदिक औषधियाँ प्रायः भावप्रकाश के आधार पर तैयार की जातीं हैं।
यह ग्रंथ विषयवस्तु एवं आकार की दृष्टि से अत्यन्त विलक्षण है क्योंकि इसमें समग्र आयुर्वेद साहित्य को समन्वित किया गया है। चरक, सुश्रुत और वाग्भट आदि पूर्वाचार्यों द्वारा प्रदत्त ज्ञान यहाँ एक साथ उपलब्ध है। आयुर्वेद में ऐसा कोई अन्य ग्रंथ नहीं है जिसमें आयुर्वेद के सम्पूर्ण अंगों का इतना समुचित एवं सुव्यवस्थित वर्णन प्राप्त होता हो।
इस ग्रन्थ में पृथ्वी पर प्राप्त सभी प्रकार के वानस्पतिक (औद्भिज), प्राणिज व पार्थिव (अं: Plants, Animals & Minerals) पदार्थों के गुणकर्मों का संस्कृत भाषा में श्लोकबद्ध वर्णन मिलता है।
ग्रन्थ के आरम्भ में मग्गलाचरण के बाद ग्रंथकार आयुर्वेद का लक्षण बताते हैं –
अर्थात् – जिसमें आयु (अवस्था) के हित और अहित पदार्थ, रोगों का निदान एवं व्याधियों का विनाश (चिकित्सा) के विषय में कहा गया हो, विद्वान् उसे आयुर्वेद कहते हैं।
इस ग्रन्थ में वनौषधियों के निर्णय और स्वरूप ज्ञान के लिए शास्त्र-निर्दिष्ट पद्धति से वनों और पर्वतों में जाकर अमूल्य ज्ञान का संग्रह है। इस ग्रन्थ के अंत में लिखा गया परिशिष्ट भाग आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा का समन्वित देशी चिकित्सा प्रणाली का मार्ग दर्शन करता है। परिशिष्ट तीन खण्डों में विभाजित है। प्रथम खंड में प्राकृतिक पदार्थो (अयुर्वेदिक जड़ी बूटियों ), द्वितीय खंड में यूनानी चिकित्सा तथा तृतीय खंड में देशी चिकित्सा का विवरण मिलता है। पुस्तक के सबसे अंत में अकारादि-क्रमानुसार निघन्टु भाग-स्थित द्रव्यों के व्यहारोपयोगी अंग तथा उनकी मात्राएँ दी गई हैं।
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