विधि संबंधी विषयों पर महत्वपूर्ण सुझाव देने के लिए सरकारें आवश्यकतानुसार आयोग नियुक्त कर देती है; इन्हें विधि आयोग (Law Commission, लॉ कमीशन) कहते हैं। स्वतन्त्र भारत में अब तक 22 विधि आयोग बन चुके हैं। 21 वें विधि आयोग का कार्यकाल 2018 तक था और न्यायमूर्ति बलबीर सिंह चौहान इसके अध्यक्ष थे। 19 फरवरी 2020 को केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा 22 वें विधि आयोग के गठन को मंजूरी दी गयी है जिसका कार्यकाल सरकारी राजपत्र में गठन के आदेश के प्रकाशन की तिथि से तीन वर्ष की अवधि के लिए होगा और जो जटिल कानूनी मसलों पर सरकार को सलाह देगा।
सिद्धांत | कानून के शासन के तहत समाज में अधिकतम न्याय प्रसार और भारत में सुशासन को बढ़ावा देने के लिए कानूनी संशोधन करना। (अनुवाद) |
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स्थापना | पहली बार 1834 में; वर्तमान 19 फरवरी 2020 |
प्रकार | भारत सरकार का अभिकरण |
वैधानिक स्थिति | तदर्थ, कार्यकाल आधारित |
उद्देश्य | भारत में विधि सुधार |
स्थान |
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सदस्यता |
अध्यक्ष, 1 स्थायी सदस्य, 1 सदस्य सचिव, 2 अंशकालिक सदस्य, 2 पदेन सदस्य |
अध्यक्ष |
न्यायमूर्ति बलबीर सिंह चौहान (21वां विधि आयोग) |
पूर्णकालिक सदस्य |
न्यायमूर्ति रवि आर. त्रिपाठी और एस.शिव कुमार |
अंशकालिक सदस्य |
सत्य पाल जैन, बिमल एन. पटेल और अभय भारद्वाज |
जालस्थल | www.lawcommissionofindia.nic.in |
इतिहास
प्रथम आयोग
प्रथम आयोग 1833 के चार्टर ऐक्ट के अंतर्गत सन् 1834 में बना। इसके निर्माण के समय भारत ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन में था किंतु विधि पारित करने के लिए कोई एकमेव सत्ता न थी, न्यायालयों का अधिकारक्षेत्र अस्पष्ट एवं परस्पर स्पर्शी था तथा कुछ विधियों का स्वरूप भी भारत के प्रतिकूल था। इस स्थिति को दृष्टि में रखते हुए लार्ड मैकाले ने ब्रिटिश पार्लमेंट में भारत के लिए एक विधि आयोग की निर्मिति पर बल दिया।
प्रथम आयोग के चार सदस्य थे जिसमें मैकाले अध्यक्ष थे। इस आयोग को वर्तमान न्यायालयों के अधिकारक्षेत्र एवं नियमावली, तथा ब्रिटिश भारत में प्रचलित समस्त विधि के विषय में जाँच करने, रिपोर्ट देने और जाति धर्मादि को ध्यान में रखकर उचित सुझाव देने का कार्य सौंपा गया।
सर्वप्रथम इस आयोग का ध्यान आपराधिक विधि की ओर आकर्षित हुआ। बंगाल तथा मद्रास में इस्लामिक दंडविधि प्रचलित थी जो अपने आदिमपन एवं अविचारिकता के कारण सर्वथा अनुपयुक्त थी। मैकाले के मार्गदर्शन में प्रथम आयोग ने भारतीय दंडसंहिता का प्रारूप तैयार किया किंतु कारणवश उसे विधि का रूप न दिया जा सका।
भारत का सिविल ला भी अस्तव्यस्त दशा में था। उसपर दी गई गई रिपोर्ट, जिसे देशीय विधि (लैक्स लोसाइ) रिपोर्ट नाम दिया गया, अत्यधिक महत्वपूर्ण मानी गई किंतु वह गहन विवाद का विषय बनी रही। उसका केवल एक खंड ही पारित हुआ-जाति निर्योग्यता निवारक विधि। मैकाले के अवकाशप्राप्त होते ही यह आयोग भी निष्क्रिय हो गया|
द्वितीय आयोग
द्वितीय आयोग की नियुक्ति 1853 ई. के चार्टर के अंतर्गत हुई। इसे प्रथम आयोग द्वारा प्रस्तुत प्रारूपों, एवं न्यायालय तथा न्यायप्रक्रिया के सुधार हेतु आयोग द्वारा दिए गए सुझावों का परीक्षण कर रिपोर्ट देने का कार्य सौंपा गया। इस आयोग के आठ सदस्य थे।
अपनी प्रथम रिपोर्ट में आयोग ने फोर्ट विलियम स्थित सर्वोच्च न्यायालय एवं सदर दीवानी और निजामत अदालतों के एकीकरण का सुझाव दिया, प्रक्रियात्मक विधि की संहिताएँ तथा योजनाएँ प्रस्तुत कीं। इसी प्रकार पश्चिमोत्तर प्रांतों और मद्रास तथा बंबई प्रांतों के लिए भी तृतीय और चतुर्थ रिपोर्ट में योजनाएँ बनाइर्ं। फलस्वरूप 1859 ई. में दीवानी व्यवहारसंहिता एवं लिमिटेशन ऐक्ट, 1860 में भारतीय दंडसंहिता एवं 1861 में आपराधिक व्यवहारसंहिता बनीं। 1861 ई. में ही भारतीय उच्च न्यायालय विधि पारित हुई जिसमें आयोग के सुझाव साकार हुए। 1861 में दीवानी संहिता उच्च न्यायालयों पर लागू कर दी गई। अपनी द्वितीय रिपोर्ट में आयोग ने संहिताकरण पर बल दिया, किंतु साथ ही यह सुझाव भी दिया कि हिंदुओें और मुसलमानों के वैयक्तिक कानून को स्पर्श करना बुद्धिमत्तापूर्ण न होगा। यह कार्य फिर एक शताब्दी के बाद ही संपन्न हुआ। इस आयोग की आयु केवल तीन वर्ष रही।
तृतीय आयोग
तृतीय आयोग की नियुक्ति का प्रमुख कारण द्वितीय आयोग का अल्पायु होना था। सीमित समय में द्वितीय आयोग कार्य पूर्ण न कर सका था। तृतीय आयोग १८६१ में निर्मित हुआ। इसके सम्मुख मुख्य समस्या थी मौलिक दीवानी विधि के संग्रह का प्रारूप बनाना। तृतीय आयोग की नियुक्ति भारतीय विधि के संहिताकरण की ओर प्रथम पग था।
आयोग ने सात रिपोर्टें दीं। प्रथम रिपोर्ट ने आगे चलकर भारतीय दाय विधि का रूप लिया। द्वितीय रिपोर्ट में था अनुबंध विधि का प्रारूप, तृतीय में भारतीय परक्राम्यकरण विधि का प्रारूप, चतुर्थ में विशिष्ट अनुतोष विधि का, पंचम में भारतीय साक्ष्य विधि का एवं षष्ठ में संपत्ति हस्तांतरण विधि का प्रारूप प्रस्तुत किया गया था। सप्तम एवं अंतिम रिपोर्ट आपराधिक संहिता के संशोधन के विषय में थी। इन रिपोर्टों के उपरांत भी उन्हें विधि का रूप देने में भारतीय शासन ने कोई तत्परता नहीं दिखाई। १८६९ में इस विषय की ओर आयोग के सदस्यों ने अधिकारियों का ध्यान आकर्षित भी किया। किंतु परिणाम कुछ न निकला। इसी बीच सदस्यों तथा भारत सरकार के मध्य अनुबंध विधि के प्रारूप पर मतभेद ने विकराल रूप ले लिया, फलत: आयोग के सदस्यों ने असंतोष व्यक्त करते हुए त्यागपत्र दे दिया और इस प्रकार तृतीय आयोग समाप्त हो गया।
चतुर्थ आयोग
चतुर्थ आयोग के गठन का भी मुख्य कारण तृतीय आयोग के समान द्वितीय आयोग की द्वितीय रिपोर्ट थी। भारत सरकार ने अनेक शाखाओं के विधि प्रारूप का कार्य विटली स्टोक्स को सौंपा था जो 1879 ई. में पूर्ण किया गया। इसकी पूर्ति पर सरकार ने एक आयोग इन विधेयकों की धाराओं का परीक्षण करने तथा मौलिक विधि के शेष अंगों के निमित्त सुझाव देने के लिए नियुक्त किया। यही था चतुर्थ आयोग। इसकी जन्मतिथि थी 11 फ़रवरी 1879 और सदस्य थे विटली स्टोक्स, सर चार्ल्स टर्नर एवं रेमन्ड वेस्ट। इस आयोग ने नौ मास में अपनी रिपोर्ट पूर्ण कर दी। उसने कहा कि भारत में विधिनिर्माण के लिए आवश्यक तत्वों का अभाव है अतएव मूल सिद्धांत आंग्ल विधि से लिए जाएँ किंतु यह आगमन सीमित हो ताकि वह भारत की विरोधी परिस्थितियों में उपयुक्त एवं उपयोगी हो, संहिताओं के सिद्धांत विस्तृत, सादे एव सरलता से समझ आने वाले हों। विधि सर्वत्र अभिन्न हो, तथा विकृति विषयक विधि का निर्माण हो।
इन सिफारिशों के फलस्वरूप व्यवस्थापिका सभा ने 1881 ई. में परक्राम्यकरण, 1882 में न्यास, संपत्ति हस्तांतरण और सुखभोग की विधियों तथा 1882 में ही समवाय विधि, दीवानी तथा आपराधिक व्यवहार संहिता का संशोधित संस्करण पारित किया। इन सभी संहिताओं में वैंथम के सिद्धांतों का प्रतिबिंब झलकता है। इन संहिताओं को भारत की विधि को अस्पष्ट, परस्परविरोधी तथा अनिश्चित अवस्था से बाहर निकालने का श्रेय है। चारों आयोगों के परिश्रम से ही प्रथम आयोग के सम्मुख उपस्थित किया गया कार्य संपन्न हो सका।
पंचम आयोग
भारत की स्वतंत्रता के बाद 5 अगस्त 1955 को पंचम विधि आयोग की घोषणा भारतीय संसद में हुई। इसका कार्य पूर्व आयोगों से भिन्नता लिए हुए था। उनका मुख्य कार्य था नवनिर्माण तथा संशोधन। इसके अध्यक्ष थे श्री मोतीलाल चिमणलाल सेटलवाड और उनके अतिरिक्त 10 अन्य सदस्य थे।
इसके समक्ष दो मुख्य कार्य रखे गए। एक तो न्याय शासन का सर्वतोमुखी पुनरावलोकन और उसमें सुधार हेतु आवश्यक सुझाव, दूसरा प्रमुख केंद्रीय विधियों का परीक्षण कर उन्हें आधुनिक अवस्था में उपयुक्त बनाने के लिए आवश्यक संशोधन प्रस्तुत करना। प्रथम समस्या पर अपनी चतुर्दश रिपोंर्ट में आयोग ने जाँच के परिणामस्वरूप उत्पन्न विचार व्यक्त किए। इस रिपोर्ट में आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, तथा अधीन न्यायालय, न्याय में क्लिंब, वादनिर्णय, डिक्री निष्पादन, शासन के विरुद्ध वाद, न्यायालय शुल्क, विधिशिक्षा, वकील, विधिसहायता, विधि रिपोर्ट, एवं न्यायालय की भाषा आदि महत्वपूर्ण विषयों पर मत प्रगट किए।
अपने कार्य के दूसरे पक्ष में विधि आयोग ने अनेक प्रतिवेदन अब तक प्रस्तुत किए है। यह सभी अत्यंत खोजपूर्ण और महत्वपूर्ण हैं। जिन विषयों पर अब तक रिपोर्ट आ चुकी हैं उनमें प्रमुख हैं दुष्कृति में शासन का दायित्व, बिक्रीकर संबंधी संसदीय विधि, उच्चन्यायालयों के स्थान से संबंधित समस्या, ब्रिटिश विधि जो भारत में लागू है, पंजीकरण विधि 1908, भागिता विधि 1932 एवं भारतीय साक्ष्य विधि, इत्यादि।
अन्य
स्वतन्त्र भारत में अब तक भारत में 22 विधि आयोग बन चुके हैं। 22वें विधि आयोग का कार्यकाल 2021 तक है।
इन्हें भी देखें
संदर्भ ग्रंथ
- बी. के। आचार्य : कोडिफिकेशन इन ब्रिटिश इंडिया;
- रेन्किन : बैकग्राउंड टु इंडियन ला;
- एम. पी. जैन : इंडियन लीगल हिस्ट्री;
- रिपोर्ट्स - ला कमीशन (पाँचवाँ)
बाहरी कड़ियाँ
- Official Website of the Law Commission of India
- तीन वर्ष की अवधि के लिए 21वें भारतीय विधि आयोग का गठन
- Reports of Law Commission of India 1-50
- Reports of Law Commission of India 51-100
- Reports of Law Commission of India 101-169
- Reports of Law Commission of India 170-195
- How does Law Commission function?
- Interview of Current Chairman of Law Commission
- Ministry of Law and Justice (India)
- Law Commissions of other countries
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