Loading AI tools
विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
भौतिकी में, किसी घूर्णन करने वाली वस्तु के अक्ष के घूर्णन को पुरस्सरण या अयन (precession) कहते हैं। पुरस्सरण दो तरह का होता है-
प्रायः हम देखते हैं कि घूर्णन करने वाली वस्तु का अक्ष अपनी स्थिति बदलता रहता है। दूसरे शब्दों में, घूर्णन-अक्ष स्वयं किसी अन्य अक्ष के परितः घूर्णन कर रहा होता है।
खगोलविज्ञान में, खगोलीय पिण्ड के किसी घूर्णीय या कक्षीय प्राचल (पैरामीटर) का धीरे-धीरे परिवर्तित होना अयन (precession) कहलाता है।
आधे वर्ष तक सूर्य, आकाश के उत्तर गोलार्ध में रहता है, आधे वर्ष तक दक्षिण गोलार्ध में। दक्षिण गोलार्ध से उत्तर गोलार्ध में जाते समय सूर्य का केंद्र आकाश के जिस बिंदु पर रहता है उसे वसंतविषुव कहते हैं। यह विंदु तारों के सापेक्ष स्थिर नहीं है; यह धीरे-धीरे खिसकता रहता है। इस खिसकने को विषुव अयन या संक्षेप में केवल अयन (प्रिसेशन) कहते हैं।
वसंतविषुव से चलकर और एक चक्कर लगाकर जितने काल में सूर्य फिर वहीं लौटता है उतने को एक सायन वर्ष कहते हैं। किसी तारे से चलकर सूर्य के वहीं लौटने को नाक्षत्र वर्ष कहते हैं। यदि विषुव चलता न होता तो सायन और नाक्षत्र वर्ष बराबर होते। अयन के कारण दोनों वर्षों में कुछ मिनटों का अंतर पड़ता है। आधुनिक नापों के अनुसार औसत नाक्षत्र वर्ष का मान 365 दिन, 6 घंटा, 9 मिनट, 9.6 सेकंड के लगभग और औसत सायन वर्ष का मान 365 दिन, 5 घंटा, 48 मिनट, 46.054 सेकंड के लगभग है। सायन वर्ष के अनुसार ही व्यावहारिक वर्ष रखना चाहिए, अन्यथा वर्ष का आरंभ सदा एक ऋतु में न पड़ेगा। हिंदुओं में जो वर्ष अभी तक प्रचलित था वह सायन वर्ष से कुछ मिनट बड़ा था। इसलिए वर्ष का आरंभ आगे की ओर खिसकता जा रहा था। उदाहरणत: पिछले ढाई हजार वर्षों में 21 या 22 दिन का अंतर पड़ गया है। ठीक-ठीक बताना संभव नहीं है, क्योंकि सूर्यसिद्धांत, ब्राह्मसिद्धान्त, आर्यभटीय इत्यादि में वर्षमान थोड़ा बहुत भिन्न है। यदि हम लोग दो चार हजार वर्षों तक पुराने वर्षमान का ही प्रयोग करें तो सावन भादों के महीने उस ऋतु में पड़ेंगे जब कड़ाके का जाड़ा पड़ता रहेगा। इसीलिए भारत सरकार ने अब अपने राष्ट्रीय पंचांग में 365.2422 दिनों का सायन वर्ष अपनाया है।
अयन का एक परिणाम यह होता है कि आकाशीय ध्रुव, अर्थात् आकाश का वह बिंदु जो पृथ्वी के अक्ष की सीध में है, तारों के बीच चलता रहता है। वह एक चक्कर लगभग 26,000 वर्षों में लगाता है। जब कभी उत्तर आकाशीय ध्रुव किसी चमकीले तारे के पास आ जाता है तो वह तारा पृथ्वी के उत्तर गोलार्ध में ध्रुवतारा कहलाने लगता है। इस समय उत्तर आकाशीय ध्रुव प्रथम लघु सप्तर्षि (ऐल्फ़ा अरसी मैजोरिस) के पास है। इसीलिए इस तारे को हम ध्रुवतारा कहते हैं। अभी आकाशीय ध्रुव ध्रुवतारे के पास जा रहा है, इसलिए अभी सैकड़ों वर्षों तक पूर्वोक्त तारा ध्रुवतारा कहला सकेगा। लगभग 5,000 वर्ष पहले प्रथम कालिय (ऐल्फ़ा ड्रैकोनिस) नामक तारा ध्रुवतारा कहलाने योग्य था। बीच में कोई तारा ऐसा नहीं था जो ध्रुवतारा कहलाता। आज से 15,000 वर्ष पहले अभिजित (वेगा) नामक तारा ध्रुवतारा था। हमारे गृह्म सूत्रों में विवाह के अवसर पर ध्रुवदर्शन करने का आदेश है। प्रत्यक्ष है कि उस समय कोई न कोई ध्रुवतारा अवश्य था। इससे अनुमान किया गया है कि यह प्रथा आज से लगभग 5,000 वर्ष पहले चली होगी।
शतपथ ब्राह्मण में लिखा है कि कृत्तिकाएँ पूर्व में उदय होती हैं। इससे शतपथ लगभग 3,000 ई. पू. का ग्रंथ जान पड़ता है, क्योंकि अयन के कारण कृत्तिकाएँ उसके पहले और बाद में पूर्व में नहीं उदय होती थीं।
लट्टू को नचाकर भूमि पर एक प्रकार रख देने से कि लट्टू का अक्ष खड़ा न रहकर तिरछा रहे, लट्टू का अक्ष धीरे-धीरे मँडराता रहता है और वह एक शंकु (कोण) परिलिखत करता है। ठीक इसी तरह पृथ्वी का अक्ष एक शंकु परिलिखित करता है जिसका अर्ध शीर्षकोण लगभग 23 डिग्री होता है। कारण यह है कि पृथ्वी ठीक-ठीक गोलाकार नहीं है। भूमध्य पर व्यास अधिक है। मोटे हिसाब से हम यह मान सकते हैं कि केंद्रीय भाग शुद्ध रूप से गोलाकर है और उसके बाहर निकला भाग भूमध्यरेखा पर चिपका हुआ एक वलय है। सूर्य सदा रविमार्ग के समतल में रहकर पृथ्वी को आकर्षित करता है। यह आकर्षण पृथ्वी के केंद्र से होकर नहीं जाता, क्योंकि पूर्वकल्पित वलय का एक खंड अपेक्षाकृत सूर्य के कुछ निकट रहता है, दूसरा कुछ दूर। निकटस्थ भाग पर आकर्षण अधिक पड़ता है, दूरस्थ पर कम। इसलिए इन आकर्षणों की यह प्रवृत्ति होती है कि पृथ्वी को घुमाकर उसके अक्ष को रविमार्ग के धरातल पर लंब कर दें। यह घूर्णनज ब पृथ्वी के अपने अक्ष के परित: घूर्णन के साथ संलिष्ट (कॉम्बाइन) किया जाता है तो परिणामी घूर्णन अक्ष की दिशा निकलती है जो पृथ्वी के अक्ष की पुरानी दिशा से जरा सी भिन्न होती है, अर्थात् पृथ्वी का अक्ष अपनी पुरानी स्थिति से इस नवीन स्थिति में आ जाता है। दूसरे शब्दों में, पृथ्वी का अक्ष घूमता रहता है। अक्ष के इस प्रकार घूमने में चंद्रमा भी सहायता करता है। वस्तुत: चंद्रमा का प्रभाव सूर्य की अपेक्षा दूना पड़ता है। सूक्ष्म गणना करने पर सब बातें ठीक वही निकलती हैं जो बेध द्वारा देखी जाती हैं।
पृथ्वी की मध्यरेखा के फूले द्रव्य पर सूर्य के असम आकर्षण से पृथ्वी का अक्ष एक शंकु परिलिखित करता है।
चंद्रमार्ग का समतल रविमार्ग के समतल से 5 डिग्री का कोण बनाता है। इस कारण चंद्रमा पृथ्वी को कभी रविमार्ग के ऊपर से खींचता है, कभी नीचे से। फलत:, भूमध्यरेखा तथा रविमार्ग के धरातलों के बीच का कोण भी थोड़ बहुत बदलता रहता है। जिसे ''विदोलन (न्यूटेशन) कहते हैं। पृथ्वीअक्ष के चलने से वसंत और शरद् विषुव दोनों चलते रहते हैं।
ऊपर बताए गए अयन को चांद्र-सौर-अयन (लूनि-सोलर प्रिसेशन) कहते हैं। इसमें भूमध्य का धरातल बदलता रहता है। परंतु ग्रहों के आकर्षण के कारण स्वयं रविमार्ग थोड़ा विचलित होता है। इससे भी विषुव की स्थिति में अंतर पड़ता है। इसे ग्रहीय अयन (प्लैनेटरी प्रिसेशन) कहते हैं।
Seamless Wikipedia browsing. On steroids.
Every time you click a link to Wikipedia, Wiktionary or Wikiquote in your browser's search results, it will show the modern Wikiwand interface.
Wikiwand extension is a five stars, simple, with minimum permission required to keep your browsing private, safe and transparent.