Loading AI tools
मानव शरीर के अध्ययन व उसकी व्याधियों के निदान का विज्ञान विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
आयुर्विज्ञान, (संस्कृत- आयुः+विज्ञान से, अंग्रेजी- Medicine) मरीज (रोगी) की देखभाल, निदान संचालन, प्राग्ज्ञान, रोगों से उनका बचाव (निरोधन व रोकथाम), उपचार, उनके रोग तथा अभिघात (ज़ख्म) का उपशमन एवं उनकी स्वास्थ्य की वृद्धि करने का विज्ञान तथा कला (कार्यान्वन, अभ्यास या उद्यम) है।[1][2] यह वह विज्ञान व कला है जिसका संबंध मानव शरीर को नीरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु (निरोगी जीवन) बढ़ाने से है। आयुर्विज्ञान, बीमारीयों की रोकथाम और उपचार द्वारा स्वास्थ्य को बनाए रखने तथा बहाल करने के लिए विकसित विभिन्न प्रकार की स्वास्थ्यसेवा अभ्यासों को शामिल करती है। समकालीन आयुर्विज्ञान, जैवचिकित्सा विज्ञान , जैवचिकित्सा अनुसंधान, आनुवंशिकी, चिकित्सा प्रौद्योगिकी का अनुप्रयोग, चोट और बीमारी का निदान , उपचार और रोकथाम करने के लिए करती हैं, आम तौर से औषधियों या शल्यक्रिया के माध्यम से परन्तु मनोचिकित्सा, बाहरी स्प्लिन्ट्स (कुशा) और ट्रैक्शन (कर्षण) , चिकित्सा उपकरणों , बायोलॉजिक्स (जीवोत्पाद) और आयनकारी विकिरण जैसे कई विविध उपचारों के माध्यम से भी।[3]
आयुर्विज्ञान का अभ्यास प्रागैतिहासिक काल से किया जाता रहा है, और इस समय के अधिकांश समय में यह एक कला (रचनात्मकता और कौशल का क्षेत्र) थी, जो अक्सर स्थानीय संस्कृति की धार्मिक और दार्शनिक मान्यताओं से जुड़ा होता था। उदाहरण के लिए, एक रोगहारी ओझा, जड़ी-बूटियों का प्रयोग करकेे उपचार के लिए प्रार्थना करेगा, या एक प्राचीन दार्शनिक और चिकित्सक, देहद्रव के सिद्धांतों के अनुसार रक्तपात का प्रयोग करेगा । हाल की शताब्दियों में, आधुनिक विज्ञान के आगमन के बाद से , अधिकांश आयुर्विज्ञान, कला और विज्ञान (दोनों) का एक संयोजन बन गई है (आधारिक और अनुप्रयुक्त दोनों) उदाहरण के लिए, जबकि टांके के लिए सिलाई तकनीक अभ्यास के माध्यम से सीखी गई एक कला है, सिलाई किए जाने वाले ऊतकों में कोशिका और आणविक स्तर पर क्या होता है इसका ज्ञान विज्ञान के माध्यम से उत्पन्न होता है।
आयुर्विज्ञान के पूर्ववैज्ञानिक रूप, जिसे अब पारंपरिक चिकित्सा या लोक चिकित्सा के रूप में जाना जाता है, वैज्ञानिक चिकित्सा के अभाव में आमतौर पर उपयोग किया जाता है, और इस प्रकार इसे वैकल्पिक चिकित्सा कहा जाता है । सुरक्षा और प्रभावकारिता की चिंताओं के साथ वैज्ञानिक चिकित्सा के बाहर वैकल्पिक उपचारों को नीमहकीमी कहा जाता है । प्राचीन सभ्यताएं मनुष्य ने होने वाले रोगों के निदान की कोशिश करती रहे हैं। इससे कई चिकित्सा (आयुर्विज्ञान) पद्धतियाँ विकसित हुई। इसी प्रकार भारत में भी आयुर्विज्ञान पर विकास हुआ जिसमें आयुर्वेद और सिद्ध चिकित्सा प्रणाली प्रमुख हैं, हालांकी जिनका वर्तमान उपयोग वैकल्पिक चिकित्सा के अंतर्गत आता है।
आयुर्विज्ञान का कई हजार वर्षों से इंसानों द्वारा विकास व उन्नयन किया जाता रहा है । पुरातन काल से वर्तमान में चली आ रही चिकित्सा पद्धतियों को पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों के रूप में जाना जाता है वहीं पाश्चात्य में 'पुनर्जागरण' के बाद जिस चिकित्सा प्रणाली जिसका सिद्धांत तथ्य-साक्ष्य आधारित निदान है उसको आधुनिक चिकित्सा पद्धति कहा जाता है।[4]
प्रागैतिहासिक चिकित्सा में पौधे ( जड़ी-बूटी ), जानवरों के अंग और खनिज शामिल थे। कई मामलों में इन सामग्रियों का उपयोग पुजारियों, ओझाओं या चिकित्सकों द्वारा जादुई पदार्थों के रूप में किया जाता था । प्रसिद्ध आध्यात्मिक प्रणालियों में जीववाद (निर्जीव वस्तुओं में आत्माएं होने की धारणा), अध्यात्मवाद (देवताओं से याचना या पूर्वजों की आत्माओं के साथ संवाद) शामिल हैं; शमनवाद (किसी व्यक्ति को रहस्यवादी शक्तियों से संपन्न करना); और दैववाणी (जादुई ढंग से सत्य प्राप्त करना)। चिकित्सा नृविज्ञान का क्षेत्र उन तरीकों की जांच करता है जिनसे संस्कृति और समाज स्वास्थ्य, स्वास्थ्य सेवा और संबंधित मुद्दों के इर्द-गिर्द संगठित होते हैं या प्रभावित होते हैं।
आयुर्विज्ञान पर प्रारंभिक अभिलेख प्राचीन मिस्र चिकित्सा, बेबीलोनियाई चिकित्सा, आयुर्वेदिक चिकित्सा ( भारतीय उपमहाद्वीप में ), शास्त्रीय चीनी चिकित्सा (आधुनिक पारंपरिक चीनी चिकित्सा के पूर्ववर्ती ), और प्राचीन यूनानी आयुर्विज्ञान और रोमन चिकित्सा से खोजे गए हैं ।
मिस्र में, इम्होटेप (तीसरी सहस्राब्दी ईसा पूर्व) नाम से जाना जाने वाला इतिहास का पहला चिकित्सक है। मिस्र का सबसे पुराना चिकित्सा ग्रंथ लगभग 2000 ईसा पूर्व का कहुन स्त्रीरोगवैज्ञानिक पेपाइरस है , जो स्त्री रोग संबंधी रोगों का वर्णन करता है। 1600 ईसा पूर्व का एडविन स्मिथ पपाइरस शल्यक्रिया पर एक प्रारंभिक कृति है, जबकि 1500 ईसा पूर्व का एबर्स पपाइरस चिकित्सा पर एक पाठ्यपुस्तक के समान है।[5]
चीन में, चीनी भाषा में आयुर्विज्ञान के पुरातात्विक साक्ष्य कांस्य युग के शांग राजवंश के समय के हैं, जो जड़ी-बूटी के लिए बीजों और शल्यक्रिया के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरणों पर आधारित हैं।[6] चीनी चिकित्सा की जननी, हुआंगदी नेईजिंग, दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में लिखी गयी और तीसरी शताब्दी में संकलित एक चिकित्सा ग्रंथ है।[7]
प्राचीन भारत आयुर्विज्ञान के विकास में अग्रणी भूमिका निभाता रहा है , महर्षि चरक को आयुर्वेद एवं भारत में चिकित्सा का जनक माना जाता है वहीं महर्षि सुश्रुत को शल्य चिकित्सा का जनक माना जाता है । भारत में, शल्यचिकित्सक सुश्रुत ने कई शल्यचिकित्सक अस्रोपचार का वर्णन किया, जिनमें प्लास्टिक शल्यक्रिया के सबसे शुरुआती रूप भी शामिल थे।[8][संदिग्ध][9]समर्पित चिकित्साल्यों के शुरुआती अभिलेख श्रीलंका के मिहिंटेल से मिलते हैं जहां रोगियों के लिए समर्पित औषधीय उपचार सुविधाओं के प्रमाण मिलते हैं। [10][11] [12]
ग्रीस में, प्राचीन यूनानी चिकित्सक हिप्पोक्रेट्स , "आधुनिक आयुर्विज्ञान के जनक", ने चिकित्सा के लिए तर्कसंगत दृष्टिकोण की नींव रखी।[13][14]हिप्पोक्रेट्स ने चिकित्सकों के लिए हिप्पोक्रेटीय शपथ की शुरुआत की , जो आज भी प्रासंगिक और उपयोग में है, और वे बीमारियों को तीव्र , चिरकारी , स्थानिक और महामारी ( जानपादिक ) के रूप में वर्गीकृत करने वाला पहला व्यक्ति थे, और जिसने "प्रकोपन (एक्ससेर्बेशन), पुनरातर्वन (रिलैप्स) , वियोजन (रिज़ॉल्यूशन) , संकटावस्था (क्राइसिस), प्रवेग (पैरॉक्सिज्म), उल्लाघ (कॉन्वालेसेन्स)" जैसे शब्दों का पहली बार उपयोग किया।[15][16][17]यूनानी चिकित्सक गैलेन भी प्राचीन दुनिया के सबसे महान शल्यचिकित्सकों में से एक थे और उन्होंने मस्तिष्क और आँखों की सर्जरी सहित कई साहसिक अस्रोपचार किए। पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन और प्रारंभिक मध्य युग की शुरुआत के बाद , चिकित्सा की यूनानी परंपरा पश्चिमी यूरोप में अवनति में चली गई, हालांकि यह पूर्वी रोमन (बीजान्टिन) साम्राज्य में निर्बाध रूप से जारी रही ।
पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व के दौरान प्राचीन हिब्रू चिकित्सा के बारे में हमारा अधिकांश ज्ञान तोराह् , यानी मूसा की पांच पुस्तकों से आता है , जिसमें विभिन्न स्वास्थ्य संबंधी कानून और अनुष्ठान शामिल हैं। आधुनिक चिकित्सा के विकास में हिब्रू का योगदान बीजान्टिन युग में चिकित्सक आसफ यहूदी के साथ शुरू हुआ।[18]
ईसाई दया और करुणा के आदर्शों के कारण रोगियों के लिए केवल मरने की जगह के बजाय, चिकित्सा देखभाल और इलाज की संभावना प्रदान करने वाली संस्था के रूप में चिकित्सालयों की अवधारणा, बीजान्टिन साम्राज्य में दिखाई दी।[19]
यद्यपि मूत्रपथदर्शन ( यूरोस्कोपी) की अवधारणा गैलेन को ज्ञात थी, उन्होंने रोग का स्थानीयकरण करने के लिए इसके उपयोग के महत्त्व पर ध्यान नहीं दिया। वर्षों बाद ऐसे समय में बीमारी का निर्धारण करने के लिए यूरोस्कोपी की क्षमता का एहसास बीजान्टिन के अधीन थियोफिलस प्रोतोस्पैथरियस जैसे चिकित्सकों ने किया जब कोई सूक्ष्मदर्शी या परिश्रावक मौजूद नहीं था। यह प्रथा अंततः यूरोप के बाकी हिस्सों में फैल गई। [20]
750 ईस्वी के बाद, मुस्लिम दुनिया में हिप्पोक्रेट्स, गैलेन और सुश्रुत के कार्यों का अरबी में अनुवाद किया गया ,और इस्लामी चिकित्सक कुछ महत्वपूर्ण चिकित्सकीय अनुसंधान में लग गये।उल्लेखनीय इस्लामी चिकित्सा अग्रदूतों में फ़ारसी बहुश्रुत इब्न सिना शामिल हैं , जिन्हें इम्होटेप और हिप्पोक्रेट्स के साथ, "चिकित्सा का जनक" भी कहा जाता है ।[21] उन्होंने "आयुर्विज्ञान का अभिनियम" लिखी जो कई मध्ययुगीन यूरोपीय विश्वविद्यालयों में एक मानक चिकित्सा पाठ बन गई[22], जिसे चिकित्सा के इतिहास में सबसे प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक माना जाता है।[23] अन्य में अबुलकसिस[24], इब्न ज़ुह्र[25], इब्न अल-नफ़ीस[26] , और इब्न रुश्द[27] शामिल हैं। फ़ारसी चिकित्सक रेज़ेस[28], देहतरलवाद के यूनानी सिद्धांत पर सवाल उठाने वाले पहले लोगों में से एक थे[29], जो फिर भी मध्ययुगीन पश्चिमी और मध्ययुगीन इस्लामी चिकित्सा दोनों में प्रभावशाली रहा। रेज़ेज़ की कृति "अल-मंसूरी" के कुछ खंड , अर्थात् "शल्यक्रिया पर" और "चिकित्सा पर एक समान्य पुस्तक", यूरोपीय विश्वविद्यालयों में चिकित्सा पाठ्यक्रम का हिस्सा बने।[30] इसके अतिरिक्त, उन्हें एक चिकित्सकों का चिकित्सक[31], बाल चिकित्सा का जनक[28][32], और नेत्र विज्ञान के अग्रणी बताया गया है। उदाहरण के लिए, वह प्रकाश के प्रति आँख की पुतली की प्रतिक्रिया को पहचानने वाले पहले व्यक्ति थे[32]। फ़ारसी बिमारिस्तान अस्पताल सार्वजनिक चिकित्सालयों का एक प्रारंभिक उदाहरण थे।[33][34]
यूरोप में, चार्लेमेन ने आदेश दिया कि प्रत्येक गिरजाघर और इसाई मठ के साथ एक चिकित्सालय जोड़ा जाना चाहिए और इतिहासकार जेफ्री ब्लेनी ने मध्य युग के दौरान स्वास्थ्यसेवा देखभाल में कैथोलिक चर्च की गतिविधियों की तुलना एक कल्याणकारी राज्य के प्रारंभिक संस्करण से की: "उसने (कैथोलिक कलीसिया ने) बूढ़ों के लिए चिकित्सालयों का संचालन किया और युवाओं के लिए अनाथालय; सभी उम्र के बीमारों के लिए धर्मशालाएँ; कुष्ठ रोगियों के लिए स्थान; और छात्रावास या सराय बनवाया जहाँ तीर्थयात्री सस्ते बिस्तर और भोजन खरीद सकते थे"। इसने अकाल के दौरान जनगण को भोजन की आपूर्ति की और गरीबों को भोजन वितरित किया। इस कल्याण प्रणाली को वित्त पोषित करने के लिए चर्च ने बड़े पैमाने पर कर एकत्र करके और बड़े खेत और सम्पदा पर कब्ज़ा करके किया।बेनिदिक्तिन कोटी समुदाय, उनके अपने मठों में अस्पताल और इन्फर्मरी स्थापित करने, चिकित्सीय जड़ी-बूटियाँ उगाने और अपने जिलों के मुख्य चिकित्सा देखभाल प्रदाता बनने के लिए जाना जाता था, जैसा कि क्लूनी के महान ऐब्बे में देखा जा सकता था । चर्च ने कैथेड्रल, स्कूलों और विश्वविद्यालयों का एक संजाल-तन्त्र भी स्थापित किया जहां चिकित्सा का अध्ययन किया जाता था।सालेर्नो में स्कोला मेदिका सालेर्निताना , यूनानी और अरब चिकित्सकों की शिक्षा को ध्यान में रखते हुए , मध्यकालीन यूरोप में सबसे बेहतरीन आयुर्विज्ञान विद्यालय बन गया।[35]
हालाँकि, चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी में काली मौत ने मध्य पूर्व और यूरोप दोनों को तबाह कर दिया था, और यह भी वितर्क है कि पश्चिमी यूरोप आम तौर पर मध्य पूर्व की तुलना में महामारी से उबरने में अधिक प्रभावी था।[36] प्रारंभिक आधुनिक काल में, यूरोप में आयुर्विज्ञान और शरीररचना विज्ञान के महत्वपूर्ण प्रारंभिक व्यक्ति उभरे, जिनमें गैब्रिएल फैलोपियो और विलियम हार्वे शामिल थे ।
आयुर्विज्ञान सोच में प्रमुख बदलाव, विशेष रूप से 14वीं और 15वीं शताब्दी में काली मौत के दौरान, जिसे विज्ञान और चिकित्सा के लिए "पारंपरिक प्राधिकारी" दृष्टिकोण कहा जा सकता है, उसकी क्रमिक अस्वीकृति थी। यह धारणा थी कि क्योंकि अतीत में किसी प्रमुख व्यक्ति ने कहा था कि कुछ ऐसा होना चाहिए, तो यह वैसा ही होगा, और इसके विपरीत जो कुछ भी देखा गया वह एक विसंगति थी (जो सामान्य रूप से यूरोपीय समाज में इसी तरह के बदलाव के समान थी - उदाहरणतः खगोल विज्ञान पर टॉलेमी के सिद्धांतों की कॉपरनिकस की अस्वीकृति )। वेसालियस जैसे चिकित्सकों ने अतीत के कुछ सिद्धांतों में सुधार किया या उनका खंडन किया। आयुर्विज्ञान के छात्रों और विशेषज्ञ चिकित्सकों दोनों द्वारा उपयोग किए जाने वाले पाठ मतेरिया मेदिका और थेफार्माकोपिया थीं ।
एंड्रियास वेसालियस मानव शरीर रचना विज्ञान पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक डी ह्यूमनी कॉर्पोरिस फैब्रिका के लेखक थे ।[37] जीवाणुओं और सूक्ष्मजीवों को पहली बार 1676 में एंटोनी वैन लीउवेनहॉक द्वारा सूक्ष्मदर्शी से देखा गया था , जिससे वैज्ञानिक क्षेत्र सूक्ष्मजैविकि की शुरुआत हुई।[38] इब्न अल-नफीस से अलग, स्वतंत्र रूप से, माइकल सर्वेटस ने फुफ्फुसीय परिसंचरण की पुनः खोज की , लेकिन यह खोज जनता तक नहीं पहुंच सकी क्योंकि इसे पहली बार 1546 में "पेरिस की पांडुलिपि" में लिखा गया था , और बाद में धर्ममीमांसक कार्य में प्रकाशित किया गया, जिसकी उन्होंने 1553 में अपने जीवन से कीमत चुकाई।[39] बाद में इसका वर्णन गयारेनाल्डस कोलंबस और एंड्रिया सेसलपिनो ने किया। पाठ्यपुस्तक 'इंस्टीट्यूशंस मेडिके' (1708) और लीडेन में उनके अनुकरणीय शिक्षण के कारण हरमन बोएरहावे को कभी-कभी "शरीर क्रिया विज्ञान के जनक" के रूप में जाना जाता है। पियरे फौचर्ड को "आधुनिक दंत चिकित्सा का जनक" कहा जाता है।[40]
पशुचिकित्सा, पहली बार, 1761 में मानव चिकित्सा से वास्तव में अलग हो गई थी, जब फ्रांसीसी पशुचिकित्सक क्लाउड बौर्गेलैट ने फ्रांस के ल्योन में दुनिया का पहला पशु चिकित्सा विद्यालय स्थापित किया था। इससे पहले, आयुर्वैज्ञानिक डॉक्टर मनुष्यों और अन्य जानवरों दोनों का इलाज करते थे।
आधुनिक वैज्ञानिक जैवचिकित्सकीय अनुसंधान (जहां परिणाम परीक्षण योग्य और पुनरुत्पादनीय हैं) ने जड़ी-बूटियों, यूनानी "चार देहद्रव" और अन्य ऐसी पूर्व-आधुनिक धारणाओं पर आधारित प्रारंभिक पश्चिमी परंपराओं को प्रतिस्थापित करना शुरू कर दिया। आधुनिक युग वास्तव में 18वीं शताब्दी के अंत में एडवर्ड जेनर की चेचक के टीके की खोज ( चीन में पहली बार प्रचलित मसूरिकायन की विधि से प्रेरित ), रोग के संचरण के बारे में 1880 के आसपास रॉबर्ट कोच द्वारा जीवाणुओं की खोज, और फिर 1900 के आसपास प्रतिजैविक औषधियों की खोज के साथ शुरू हुआ।
18वीं सदी के बाद का आधुनिकता काल यूरोप से और भी अग्रणी शोधकर्ताओं को लेकर आया। जर्मनी और ऑस्ट्रिया से , डॉक्टरों रुडोल्फ विरचो , विल्हेम कॉनराड रॉन्टगन , कार्ल लैंडस्टीनर और ओटो लोवी ने उल्लेखनीय योगदान दिया। यूनाइटेड किंगडम में अलेक्जेंडर फ्लेमिंग , जोसेफ लिस्टर , फ्रांसिस क्रिक और फ्लोरेंस नाइटिंगेल को महत्वपूर्ण माना जाता है। स्पैनिश डॉक्टर सैंटियागो रामोन वाई काजल को आधुनिक तंत्रिका विज्ञान का जनक माना जाता है ।
न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया से मौरिस विल्किंस , हॉवर्ड फ्लोरे और फ्रैंक मैकफर्लेन बर्नेट आए । महत्वपूर्ण कार्य करने वाले अन्य लोगों में विलियम विलियम्स कीन , विलियम कोली , जेम्स डी. वॉटसन (संयुक्त राज्य अमेरिका), साल्वाडोर लूरिया (इटली); अलेक्जेंड्रे यर्सिन (स्विट्जरलैंड); कितासातो शिबासाबुरो (जापान); जीन-मार्टिन चारकोट , क्लाउड बर्नार्ड , पॉल ब्रोका (फ्रांस); एडोल्फो लुत्ज़ (ब्राजील); निकोलाई कोरोटकोव (रूस); सर विलियम ओस्लर (कनाडा); और हार्वे कुशिंग (संयुक्त राज्य अमेरिका) शामिल हैं।
जैसे-जैसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी विकसित हुई, आयुर्विज्ञान औषधियों पर अधिक निर्भर हो गई । पूरे इतिहास में और यूरोप में 18वीं शताब्दी के अंत तक, न केवल जानवरों और पौधों के उत्पादों का उपयोग दवा के रूप में किया जाता था, बल्कि मानव शरीर के अंगों और तरल पदार्थों का भी उपयोग किया जाता था। भेषजगुण विज्ञान का विकास आंशिक रूप से जड़ी-बूटी से हुआ है और कुछ दवाएं अभी भी पौधों( एट्रोपिन , एफेड्रिन , वारफारिन , एस्पिरिन , डिगॉक्सिन , विंका एल्कलॉइड्स , टैक्सोल , हायोसाइन , आदि) से प्राप्त होती हैं। टीकों की खोज एडवर्ड जेनर और लुई पाश्चर ने की थी।
पहला प्रतिजीवी ( एंटीबायोटिक) आर्स्फेनमाइन (साल्वर्सन) था, जिसकी खोज 1908 में पॉल एर्लिच ने की थी, जब उन्होंने देखा था कि जीवाणु जहरीले रंजकों को ग्रहण करते हैं जो मानव कोशिकाएं नहीं करती हैं। एंटीबायोटिक दवाओं का पहला प्रमुख वर्ग सल्फा दवाएं थीं , जो जर्मन रसायनज्ञों द्वारा मूल रूप से एज़ो रंजकों से प्राप्त की गई थीं।
भेषजगुण विज्ञान तेजी से परिष्कृत हो गया है; आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी विशिष्ट शारीरिक प्रक्रियाओं के लिए लक्षित दवाओं को विकसित करने की अनुमति देती है, जिन्हें कभी-कभी दुष्प्रभावों को कम करने के लिए शरीर के साथ अनुकूलता के लिए रूपांकीत किया जाता है। संजीनिकी और मानव आनुवंशिकी एवं मानव विकास के ज्ञान का आयुर्विज्ञान पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ रहा है, क्योंकि अधिकांश एकजीनीय आनुवंशिक विकारों के प्रेरक जीन की अब पहचान कर ली गई है, और आणविक जैविकी , क्रमविकास और आनुवंशिकी में तकनीकों का विकास चिकित्सा प्रौद्योगिकी, अभ्यास और निर्णय लेने को प्रभावित कर रहा है।
साक्ष्य-आधारित चिकित्सा व्यवस्थित समीक्षाओं और परा-विश्लेषण के उपयोग के माध्यम से अभ्यास के सबसे प्रभावी कलनविधि (चीजों को करने के तरीके) स्थापित करने के लिए एक समकालीन आंदोलन है । इस आंदोलन को आधुनिक वैश्विक सूचना विज्ञान द्वारा सुगम बनाया गया है, जो मानक संदेशाचार के अनुसार जितना संभव हो उतना उपलब्ध साक्ष्य एकत्र करने और विश्लेषण करने की अनुमति देता है जिसे बाद में स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं तक प्रसारित किया जाता है। कोक्रेन सहयोग इस आंदोलन का नेतृत्व करता है। 2001 में 160 कोक्रेन व्यवस्थित समीक्षाओं की समीक्षा से पता चला कि, दो पाठकों के अनुसार, 21.3% समीक्षाओं ने अपर्याप्त साक्ष्य का निष्कर्ष निकाला, 20% ने बिना किसी प्रभाव के साक्ष्य का निष्कर्ष निकाला, और 22.5% ने सकारात्मक प्रभाव का निष्कर्ष निकाला।
इसी प्रकार अन्य सभ्यताओ में भी आयुर्विज्ञान का विकास हुआ और अनेक पद्धितियाँ जुड़ती गई जैसे 'एक्युपेन्चर' इसका विकास चीन में माना जाता है जोकि एक पारंपरिक चिकित्सा पद्धति है । आधुनिक चिकित्सा पद्धति एक महत्वपूर्ण पड़ाव जब आया जब रोबर्ट कोक द्वारा-व्याधियों की ज़र्म थ्योरी ( कीटाणु सिद्धांत ) - दिया गया ।[41]
प्रारंभ में आयुर्विज्ञान का अध्ययन जीवविज्ञान की एक शाखा की भाँति किया गया और शरीर-रचना-विज्ञान (अनैटोमी) तथा शरीर-क्रिया-विज्ञान (फ़िज़िऑलॉजी) को इसका आधार बनाया गया। शरीर में होनेवाली क्रियाओं के ज्ञान से पता लगा कि उनका रूप बहुत कुछ रासायनिक है और ये घटनाएँ रासानिक क्रियाओं के फल हैं। ज्यों-ज्यों खोजें हुईं त्यों-त्यों शरीर की घटनाओं का रासायनिक रूप सामने आता गया। इस प्रकार रसायन विज्ञान का इतना महत्त्व बढ़ा कि वह आयुर्विज्ञान की एक पृथक् शाखा बन गया, जिसका नाम जीवरसायन (बायोकेमिस्ट्री) रखा गया। इसके द्वारा न केवल शारीरिक घटनाओं का रूप स्पष्ट हुआ, वरन् रोगों की उत्पत्ति तथा उनके प्रतिरोध की विधियाँ भी निकल आईं। साथ ही भौतिक विज्ञान ने भी शारीरिक घटनाओं को भली भाँति समझने में बहुत सहायता दी। यह ज्ञात हुआ कि अनेक घटनाएँ भौतिक नियमों के अनुसार ही होती हैं। अब जीवरसायन की भाँति जीवभौतिकी (बायोफ़िज़िक्स) भी आयुर्विज्ञान का एक अंग बन गई है और उससे भी रोगों की उत्पत्ति को समझने में तथा उनका प्रतिरोध करने में बहुत सहायता मिली है। विज्ञान की अन्य शाखाओं से भी रोगरोधन तथा चिकित्सा में बहुत सहायता मिली है। और इन सबके सहयोग से मनुष्य के कल्याण में बहुत प्रगति हुई है, जिसके फलस्वरूप जीवनकाल बढ़ गया है।
शरीर, शारीरिक घटनाओं और रोग संबंधी आंतरिक क्रियाओं का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करने में अनेक प्रकार की प्रायोगिक विधियों और यंत्रों से, जो समय-समय पर बनते रहे हैं, बहुत सहायता मिली है। किंतु इस गहन अध्ययन का फल यह हुआ कि आयुर्विज्ञान अनेक शाखाओं में विभक्त हो गया और प्रत्येक शाखा में इतनी खोज हुई है, नवीन उपकरण बने हैं तथा प्रायोगिक विधियाँ ज्ञात की गई हैं कि कोई भी विद्वान् या विद्यार्थी उन सब से पूर्णतया परिचित नहीं हो सकता। दिन--प्रति--दिन चिकित्सक को प्रयोगशालाओं तथा यंत्रों पर निर्भर रहना पड़ रहा है और यह निर्भरता उत्तरोत्तर बढ़ रही है।
प्रत्येक शिक्षा का ध्येय मनुष्य का मानसिक विकास होता है, जिससे उसमें तर्क करके समझने और तदनुसार अपने भावों को प्रकट करने तथा कार्यान्वित करने की शक्ति उत्पन्न हो जाय। आयुर्विज्ञान की शिक्षा का भी यही उद्देश्य है। इसके लिए सब आयुर्विज्ञान के विद्यार्थियों में विद्यार्थी को उपस्नातक के रूप में पाँच वर्ष बिताने पड़ते हैं। मेडिकल कॉलेजों (आयुर्विज्ञान विद्यालयों) में विद्यार्थियों को आधार विज्ञानों का अध्ययन करके उच्च माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने पर भरती किया जाता है। तत्पश्चात् प्रथम दो वर्ष विद्यार्थी शरीररचना तथा शरीरक्रिया नामक आधारविज्ञानों का अध्ययन करता है जिससे उसको शरीर की स्वाभाविक दशा का ज्ञान हो जाता है। इसके पश्चात् तीन वर्ष रोगों के कारण इन स्वाभाविक दशाओं की विकृतियाँ का ज्ञान पाने तथा उनकी चिकित्सा की रीति सीखने में व्यतीत होते हैं। रोगों को रोकने के उपाय तथा भेषजवैधिक का भी, जो इस विज्ञान की नीति संबंधी शाखा है, वह इसी काल में अध्ययन करता है। इन पाँच वर्षों के अध्ययन के पश्चात् वह स्नातक बनता है। इसके पश्चात् वह एक वर्ष तक अपनी रुचि के अनुसार किसी विभाग में काम करता है और उस विषय का क्रियात्मक ज्ञान प्राप्त करता है। तत्पश्चात् वह स्नातकोत्तर शिक्षण में डिप्लोमा या डिग्री लेने के लिए किसी विभाग में भरती हो सकता है।
सब आयुर्विज्ञान महाविद्यालय (मेडिकल कॉलेज) किसी न किसी विश्वविद्यालय से संबंधित होते हैं जो उनकी परीक्षाओं तथा शिक्षणक्रम का संचालन करता है और जिसका उद्देश्य विज्ञान के विद्यार्थियों में तर्क की शक्ति उत्पन्न करना और विज्ञान के नए रहस्यों का उद्घाटन करना होता है। आयुर्विज्ञान विद्यालयों (मेडिकल कॉलेजों) के प्रत्येक शिक्षक तथा विद्यार्थी का भी उद्देश्य यही होना चाहिए कि उसे रोगनिवारक नई वस्तुओं की खोज करके इस आर्तिनाशक कला की उन्नति करने की चेष्टा करनी चाहिए। इतना ही नहीं, शिक्षकों का जीवनलक्ष्य यह भी होना चाहिए कि वह ऐसे अन्वेषक उत्पन्न करें।
चिकित्सापद्धति का केंद्रस्तंभ वह सामान्य चिकित्सक (जेनरल प्रैक्टिशनर) है जो जनता या परिवारों के घनिष्ठ संपर्क में रहता है तथा आवश्यकता पड़ने पर उनकी सहायता करता है। वह अपने रोगियों का मित्र तथा परामर्शदाता होता है और समय पर उन्हें दार्शनिक सांत्वना देने का प्रयत्न करता है। वह रोग संबंधी साधारण समस्याओं से परिचित होता है तथा दूरवर्ती स्थानों, गाँवों इत्यादि, में जाकर रोगियों की सेवा करता है। यहाँ उसको सहायता के वे सब उपकरण नहीं प्राप्त होते जो उसने शिक्षण काल में देखे थे और जिनका प्रयोग उसने सीखा था। बड़े नगरों में ये बहुत कुछ उपलब्ध हो जाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर उसको विशेषज्ञ से सहायता लेनी पड़ती है या रोगी को अस्पताल में भेजना होता है। आजकल इस विज्ञान की किसी एक शाखा का विशेष अध्ययन करके कुछ चिकित्सक विशेषज्ञ हो जाते हैं। इस प्रकार हृदयरोग, मानसिक रोग, अस्थिरोग, बालरोग आदि में विशेषज्ञों द्वारा विशिष्ट चिकित्सा उपलब्ध है।
आजकल चिकित्सा का व्यय बहुत बढ़ गया है। रोग के निदान के लिए आवश्यक परीक्षाएँ, मूल्यवान् औषधियाँ, चिकित्सा की विधियाँ और उपकरण इसके मुख्य कारण हैं। आधुनिक आयुर्विज्ञान के कारण जनता का जीवनकाल भी बढ़ गया है, परंतु औषधियों पर बहुत व्यय होता है। खेद है कि वर्तमान आर्थिक दशाओं के कारण उचित उपचार साधारण मनुष्य की सामथ्र्य के बाहर हो गया है।
चिकित्साविज्ञान की शक्ति अब बहुत बढ़ गई है और निरंतर बढ़ती जा रही है। आजकल गर्भनिरोध किया जा सकता है। गर्भ का अंत भी हो सकता है। पीड़ा का शमन, बहुत काल तक मूर्छावस्था में रखना, अनेक संक्रामक रोगों की सफल चिकित्सा, सहज प्रवृत्तियों का दमन और वृद्धि, औषधियों द्वारा भावों का परिवर्तन, शल्यक्रिया द्वारा व्यक्तित्व पर प्रभाव आदि सब संभव हो गए हैं। मनुष्य का जीवनकाल अधिक हो गया है। दिन--प्रति--दिन नवीन औषधियाँ निकल रही हैं; रोगों का कारण ज्ञात हो रहा है; उनकी चिकित्सा ज्ञात की जा रही है।
सरकार के स्वास्थ्य संबंधी तीन प्रमुख कार्य हैं। पहले तो जनता में रोगों को फैलने न देना; दूसरे, जनता की स्वास्थ्यवृद्धि, जिसके लिए उपयुक्त भोजन, शुद्ध जल, रहने के लिए उपयुक्त स्थान तथा नगर की स्वच्छता आवश्यक है; तीसरे, रोगग्रस्त होने पर चिकित्सा संबंधी उपयुक्त और उत्तम सहायता उपलब्ध करना। इन तीनों उद्देश्यों की पूर्ति में चिकित्सक का बहुत बड़ा स्थान और उत्तरदायित्व है।
एक अंतःविषय टीम के रूप में एक साथ काम करते हुए, चिकित्सकों के अलावा कई उच्च प्रशिक्षित स्वास्थ्य वृत्तिक, आधुनिक स्वास्थ्य देखसेवा के वितरण में शामिल हैं। उदाहरणों में शामिल हैं: परिचारिकाएं , आपातकालीन चिकित्सा प्रविधिज्ञ और पराचिकित्सक, प्रयोगशाला वैज्ञानिक, भेषजज्ञ , पदचिकित्सक , भौतिक चिकित्सक , श्वसन चिकित्सक , वाक्-चिकित्सक , व्यावसायिक चिकित्सक , रेडियोग्राफर, आहारविद् , और जैवाभियंता , आयुर्विज्ञान भौतिकीविद् , शल्यचिकित्सक ,सर्जन के सहायक और ओ०टि० प्रविधिज्ञ।
मानव चिकित्सा को रेखांकित करने वाला दायरा और विज्ञान कई अन्य क्षेत्रों से मेल खाता है। चिकित्सालय में भर्ती मरीज को आम तौर पर उनकी मुख्य समस्या के आधार पर एक विशिष्ट टीम की देखरेख में रखा जाता है, उदाहरण के लिए ह्रदयशास्त्र दल, जो मुख्य समस्या के निदान या उपचार या कोई आगामी जटिलताएँ/विकास में मदद करने के लिए अन्य विशिष्टताओं, जैसे शल्य-विकिरणचिकित्सा के साथ बातचीत कर सकती है।
चिकित्सकों के पास आयुर्विज्ञान की कुछ शाखाओं में कई विशेषज्ञताएं और उपविशेषज्ञताएं प्राप्त होती हैं, जो नीचे सूचीबद्ध हैं। कुछ उपविशेषताओं में कौन सी विशेषताएँ हैं, इस संबंध में अलग-अलग देशों में भिन्नताएँ हैं।
आयुर्विज्ञान की मुख्य शाखाएँ हैं:
कार्य के अनुसार
रोगी के अनुसार
शरीर के अंग के अनुसार
|
प्रभाव के अनुसार
शल्यक्रिया के अनुसार
|
आधुनिक चिकित्साशास्त्र (गूगल पुस्तक; लेखक - धर्मदत्त वैद्य)
रसतरंगिणी का हिन्दी अनुवाद (गूगल पुस्तक; अनुवादक - काशीनाथ शास्त्री)
Seamless Wikipedia browsing. On steroids.
Every time you click a link to Wikipedia, Wiktionary or Wikiquote in your browser's search results, it will show the modern Wikiwand interface.
Wikiwand extension is a five stars, simple, with minimum permission required to keep your browsing private, safe and transparent.