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ग़ुलाम विषय पर इस्लामिक दृष्टिकोण विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
गुलामी पर इस्लाम के विचार (Islamic views on slavery) इस्लाम विचारों की जटिल और बहुमुखी निकाय को प्रस्तुत करता है,[1][2] जिसमें विभिन्न इस्लामी समूहों एवं विचारकों के इस विषय पर विचारों को रखा जाता है जो इतिहास में मूल रूप से भिन्न रहे हैं।[3] इस्लामिक कानून केवल उन गैर-मुस्लिमों को कानूनी गुलाम मानता था जिन्हें इस्लामी शासन की सीमाओं से परे कैद या खरीदा गया था, या गुलामों के बेटे और बेटियों को पहले से ही कैद में रखा गया था। बाद के शास्त्रीय इस्लामी कानून में, गुलामी के विषय को बहुत विस्तार से कवर किया गया है। दास, चाहे वे मुस्लिम हों या किसी अन्य धर्म के, धार्मिक मामलों में अपने साथी के बराबर थे।[4] इस्लामी दुनिया में ग़ुलामों ने आगे चलकर ग़ज़नवी साम्राज्य, ख्वारिज्मी साम्राज्य, दिल्ली ग़ुलाम वंश, ममलूक राजवंश (इराक) और मामलुक साम्राज्य बड़ी सल्तनतें क़ायम कीं या उनका आधार रखा।
प्रोफेसर जियाउर्रहमान आज़मी के अनुसार ग़ुलाम अरबी भाषा में 'अब्द' कहते हैं और 'अब्द' का प्रयोग कुरआन तथा हदीसों में 'स्वतंत्र मनुष्य' तथा दास दोनों के लिए आया है। [5] जैसे:
'निश्चय ही इसमें हर उस 'अब्द' के लिए निशानी है जो (अल्लाह की ओर) रूजू करने वाला है' (कुरआन 34:9) 'निश्चय ही वह एक कृतज्ञ अब्द (बन्दा) था' (कुरआन 17:3) नबी को भी अच्छा अर्थात बन्दा कहा गया है।
अब्द का दूसरा अर्थ दास या हिन्दुस्तानी भाषा में गुलाम के हैं। जैसे कि कुरआन में है - 'ऐ ईमानवालो, मारे गए लोगों के बारे में किसास अनिवार्य ठहराया गया है। स्वतंत्र का बदला स्वतंत्र, अब्द (गुलाम) का बदला अब्द (गुलाम), स्त्री का बदला स्त्री......' (कुरआन 2:178)
क्या तुमने देखा नहीं उस व्यक्ति को जो एक बन्दे को रोकता है जब वह नमाज़ पढ़ता है (सूरा- 96, अल-अलक, आयतें -9, 10) यह संकेत इस्लाम विरोधियों के सरदार अबू-लहब की ओर है जो नबी को नमाज पढ़ने से रोका करता था।
मुशरिक पुरुषों से अपनी स्त्रियों का विवाह न करो जब तक कि वे ईमान न लाएँ। ईमानवाला एक अब्द एक मुशरिक पुरुष से अच्छा है चाहे वह तुम्हें कितना ही अच्छा लगे (सूरा-2, अल-बकरा, आयत-221)
ऐ ईमान लानेवालो! मारे जानेवालों के विषय में हत्यादंड (क़िसास) तुमपर अनिवार्य किया गया, स्वतंत्र-स्वतंत्र बराबर है और ग़़ुलाम-ग़ुलाम बराबर है और औरत-औरत बराबर है। फिर यदि किसी को उसके भाई की ओर से कुछ छूट मिल जाए तो सामान्य रीति का पालन करना चाहिए; और भले तरीके से उसे अदा करना चाहिए। यह तुम्हारें रब की ओर से एक छूट और दयालुता है। फिर इसके बाद भो जो ज़्यादती करे तो उसके लिए दुखद यातना है (2:178)
किसी ईमानवाले का यह काम नहीं कि वह किसी ईमानवाले का हत्या करे, भूल-चूक की बात और है। और यदि कोई क्यक्ति यदि ग़लती से किसी ईमानवाले की हत्या कर दे, तो एक मोमिन ग़ुलाम को आज़ाद करना होगा और अर्थदंड उस (मारे गए क्यक्ति) के घरवालों को सौंपा जाए। यह और बात है कि वे अपनी ख़शी से छोड़ दें। और यदि वह उन लोगों में से हो, जो तुम्हारे शत्रु हों और वह (मारा जानेवाला) स्वयं मोमिन रहा तो एक मोमिन को ग़ुलामी से आज़ाद करना होगा। और यदि वह उन लोगों में से हो कि तुम्हारे और उनके बीच कोई संधि और समझौता हो, तो अर्थदंड उसके घरवालों को सौंपा जाए और एक मोमिन को ग़ुलामी से आज़ाद करना होगा। लेकिन जो (ग़ुलाम) न पाए तो वह निरन्तर दो मास के रोज़े रखे। यह अल्लाह की ओर से निश्चित किया हुआ उसकी तरफ़ पलट आने का तरीक़ा है। अल्लाह तो सब कुछ जाननेवाला, तत्त्वदर्शी है(4:92)
तुममें जो बेजोड़े के हों और तुम्हारे ग़ुलामों और तुम्हारी लौंडियों मे जो नेक और योग्य हों, उनका विवाह कर दो। यदि वे ग़रीब होंगे तो अल्लाह अपने उदार अनुग्रह से उन्हें समृद्ध कर देगा। अल्लाह बड़ी समाईवाला, सर्वज्ञ है (24:32)
मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी (1903-1979) ने लिखा:
इस्लाम ने स्पष्ट रूप से और स्पष्ट रूप से एक स्वतंत्र व्यक्ति को पकड़ने, उसे गुलाम बनाने या उसे गुलामी में बेचने की आदिम प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया है। इस बिंदु पर मुहम्मद के स्पष्ट और स्पष्ट शब्द इस प्रकार हैं: "लोगों की तीन श्रेणियां हैं जिनके खिलाफ मैं निर्णय के दिन खुद एक वादी बनूंगा। इन तीनों में से एक वह है जो एक स्वतंत्र व्यक्ति को गुलाम बनाता है, फिर उसे बेचता है और इस पैसे को खाता है" (अल-बुखारी और इब्न मज्जाह)[6]
अब्दुल्लाह बिन उमर- रज़ियल्लाहु अन्हुमा- का वर्णन है कि अल्लाह के रसूल- सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमायाः "कोई दास जब अपने मालिक का शुभचिंतक रहे और अच्छी तरह अल्लाह की इबादत करे, उसे दोगुना प्रतिकार मिलेगा।" अबू मूसा अशअरी- रज़ियल्लाहु अन्हु- कहते हैं कि अल्लाह के रसूल- सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमायाः "जो ग़ुलाम अच्छी तरह अपने पालनहार की इबादत करे और अपने मालिक के अधिकार अदा करे, उसका शुभचिंतक रहे तथा उसकी बात मानकर चले, उसे दोगुना प्रतिकार मिलेगा।"
अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अन्हु- से रिवायत है, वह कहते हैं कि नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया : “जो शख़्स किसी मुसलमान ग़ुलाम को आज़ाद करेगा, तो अल्लाह आज़ाद किए गए ग़ुलाम के शरीर के हर अंग के बदले उसके शरीर का एक अंग दोज़ख़ से आज़ाद करेगा।”[7]
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