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कश्मीर घाटी के हिंदू मूल निवासी विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
कश्मीरी पंडित (जिन्हें कश्मीरी ब्राह्मण भी कहा जाता है)[7] कश्मीरी हिंदू हैं और वृहत्तर सारस्वत ब्राह्मण समुदाय का हिस्सा हैं। वे जम्मू और कश्मीर के भारत के केंद्र शासित प्रदेश में एक पहाड़ी क्षेत्र, कश्मीर घाटी[8][9] के पंच गौड़ ब्राह्मण समूह[10] से संबंधित हैं। मुस्लिम प्रभाव के क्षेत्र में प्रवेश करने से पूर्व कश्मीरी पंडित मूल रूप से कश्मीर घाटी में ही रहते थे। मुस्लिम प्रभाव बढ़ने के साथ बड़ी संख्या में लोग इस्लाम में परिवर्तित हो गए। वे कश्मीर जाति के मूल निवासी के तौर पर शेष एकमात्र कश्मीरी हिंदू समुदाय हैं।[11]
कुल जनसंख्या | |
---|---|
300,000[1][2][3] to 600,000[4][5][6] (1990 के पहले कश्मीर घाटी में रहने वाले अनुमानित कश्मीरी पंडित) | |
विशेष निवासक्षेत्र | |
भारत (जम्मू और कश्मीर • राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र • लद्दाख़ • उत्तर प्रदेश • हिमाचल प्रदेश • उत्तराखंड • हरियाणा • राजस्थान • पंजाब) | |
भाषाएँ | |
कश्मीरी एवं हिन्दी | |
धर्म | |
हिंदू | |
सम्बन्धित सजातीय समूह | |
कश्मीरी हिंदू, कश्मीरी, भारतीय, दरद, हिंदुस्तानी लोग, हिंद-आर्यन, सारस्वत ब्राह्मण, प्रवासी भारतीय |
अशोक के समय से, तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास, कश्मीर क्षेत्र की हिंदू जाति व्यवस्था बौद्ध धर्म की आमद से प्रभावित हुई। नतीजतन परंपरागत वर्ण-व्यवस्था की रेखा धुँधली हुई, ब्राह्मणों को अपवाद छोड़कर जो कि इस परिवर्तनों से अलग बने रहे।[12][13] आरंभिक कश्मीरी समाज की एक और उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि उस समय के अन्य समुदायों में महिलाओं की स्थिति की तुलना में उन्हें उच्च सम्मान प्राप्त था।[14]
कई ऐतिहासिक संघर्षों का साक्षी उत्तरी भारत आठवीं शताब्दी से ही तुर्कों और अरबों के हमलों के साए में बना रहा, हालाँकि उन्होंने आम तौर पर दूसरी आसान जगहों के बदले पहाड़ से घिरे कश्मीर घाटी को नजरअंदाज कर दिया। चौदहवीं सदी से पहले तक घाटी में मुस्लिम शासन स्थापित नहीं हुआ था। आखिरकार जब यह स्थापित हुआ तो ऐसा नहीं कि केवल बाहरी आक्रमण के परिणामस्वरूप हुआ, बल्कि स्थानीय आंतरिक समस्याओं के कारण हुआ जिसमें हिंदू लोहार राजवंश के कमजोर शासन और भ्रष्टाचार की प्रमुख भूमिका थी।[15][16]
मोहिब्बुल हसन इस पतन की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि,
"दामर (सामंती मुखिया) ताकतवर हुए, शाही रौब को खारिज किया, और उनके लगातार विद्रोहों ने देश को भ्रम में डाल दिया। जान और माल सुरक्षित नहीं थे, खेती में गिरावट आई, और ऐसे भी दौर आए जब व्यापार ठप्प पड़ गया। सामाजिक और नैतिक रूप से भी दरबार और देश पतन के गर्त में डूब गया।"[16]
उपर्युक्त उद्धरण के आलोक में देखें तो इतिहास में इसका भी उल्लेख है कि किसानों का शोषण करने वाले दामर उपाधिकारी सामंतों का दमन कर उन्हें दंडित करने का कार्य 'उत्पल' राजवंश के संस्थापक अवंतिवर्मन (9वीं सदी) ने किया था।[17] अंतिम लोहार राजा का शासनकाल ब्राह्मणों के लिए विशेषकर दुखकर था, कारण कि सूहादेव ने उन्हें अपनी कराधान प्रणाली में शामिल कर लिया जबकि पहले उन्हें छूट दी गई थी।[18]
ज़ुल्जू, जो शायद तुर्किस्तान[19] का एक मंगोल था, ने 1320 में तबाही मचाई, जब उसने कश्मीर घाटी के कई इलाकों को जीतने वाली सेना की कमान संभाली। हालाँकि ज़ुल्जू शायद मुसलमान नहीं था।[19] कश्मीर के सातवें मुस्लिम शासक सुल्तान सिकंदर बुतशिकन (1389-1413) की गतिविधियाँ भी इस क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण थीं। सुल्तान को एक मूर्तिभंजक (iconoclast) के रूप में निर्दिष्ट किया गया क्योंकि उसने कई गैर-मुस्लिम धार्मिक प्रतीकों को ध्वस्त किया और आबादी को धर्म-परिवर्तन या पलायन करने के लिए मजबूर किया। पारंपरिक धर्मों के बहुत से अनुयायी, जो इस्लाम में परिवर्तित न हुए, भारत के अन्य हिस्सों में चले गए। प्रवासियों में कुछ पंडित शामिल थे, हालांकि संभव है कि इस समुदाय के कुछ लोग नए शासकों से बचने के साथ ही आर्थिक कारणों से भी विस्थापित हुए हों। ब्राह्मणों को उस समय सामान्यतया शासकों द्वारा अन्य क्षेत्रों में भूमि की पेशकश की जा रही थी जिससे कि समुदाय के परंपरागत उच्च साक्षरता और व्यवहार ज्ञान का उपयोग किया जा सके, साथ ही संधिबद्धता द्वारा उन्हें भी वैधता भी प्राप्त हो सके। जनसंख्या और धर्म दोनों में परिवर्तन का परिणाम यह हुआ कि कश्मीर घाटी मुख्य रूप से मुस्लिम क्षेत्र बन गया।[20][21] बुतशिकन का उत्तराधिकारी, कट्टर मुस्लिम ज़ैन-उल-अबिदीन (1423-74), हिंदुओं के प्रति सहिष्णु था। उसने उन सभी को हिंदू धर्म में पुनर्वापसी की मंजूरी दी जिनको मुस्लिम-धर्म में परिवर्तन के लिए विवश किया गया, साथ ही वह मंदिरों के जीर्णोद्धार में भी प्रवृत्त हुआ। उसने इन पंडितों की शिक्षा का सम्मान किया, जिनके लिए उसने भूमि दी और साथ ही उन लोगों को प्रोत्साहित किया, जिन्हें वापस लौटने के लिए छोड़ दिया गया था। उसने एक योग्यतातंत्र (meritocracy) को संचालित किया तथा ब्राह्मण और बौद्ध दोनों उसके निकटतम सलाहकार थे।[22]
विकासशील समाज अध्ययन पीठ (CSDS) के पूर्व निदेशक डी॰एल॰ शेठ ने 1947 में आजादी के तुरंत बाद भारतीय समाजों, जिसने मध्यवर्ग गठित किया और जो पारंपरिक रूप से "शहरी और पेशेवर" थे (डॉक्टर, वकील, शिक्षक, इंजीनियर, आदि।) को सूचीबद्ध किया। इस सूची में कश्मीरी पंडित, गुजरात के नागर ब्राह्मण; दक्षिण भारतीय ब्राह्मण; पंजाबी खत्री, और उत्तरी भारत से कायस्थ; महाराष्ट्र से चितपावन और चंद्रसेनिया कायस्थ प्रभु; प्रोबासी और भद्रलोक बंगाली; पारसी और मुस्लिम तथा ईसाई समुदायों के उच्च-वर्गीय शामिल थे। पी॰के॰ वर्मा के अनुसार, "शिक्षा एक सामान्य सूत्र था, जो इस अखिल भारतीय कुलीन वर्ग को साथ-साथ जोड़े हुए था" और इन समुदायों के लगभग सभी सदस्य अंग्रेजी पढ़ और लिख सकते थे तथा स्कूल से परे भी कुछ शिक्षित थे।[23][24][25]
कश्मीरी पंडित डोगरा शासन (1846-1947) के दौरान घाटी की जनसंख्या के कृपा-प्राप्त अंग थे। उनमें से 20 प्रतिशत ने 1950 के भूमि सुधारों के परिणामस्वरूप घाटी छोड़ दी,[26] और 1981 तक पंडित आबादी का कुल 5 प्रतिशत रह गए।[27] 1990 के दशक में आतंकवाद के उभार के दौरान कट्टरपंथी इस्लामवादियों और आतंकवादियों द्वारा उत्पीड़न और धमकियों के बाद वे अधिक संख्या में जाने लगे। 19 जनवरी 1990 की घटनाएँ विशेष रूप से शातिराना थीं। उस दिन, मस्जिदों ने घोषणाएँ कीं कि कश्मीरी पंडित काफ़िर हैं और पुरुषों को या तो कश्मीर छोड़ना होगा, इस्लाम में परिवर्तित होना होगा या उन्हें मार दिया जाएगा। जिन लोगों ने इनमें से पहले विकल्प को चुना, उन्हें कहा गया कि वे अपनी महिलाओं को पीछे छोड़ जाएँ। कश्मीरी मुसलमानों को पंडित घरों की पहचान करने का निर्देश दिया गया ताकि धर्मांतरण या हत्या के लिए उनको विधिवत निशाना बनाया जा सके।[28] कई लेखकों के अनुसार, 1990 के दशक के दौरान 140,000 की कुल कश्मीरी पंडित आबादी में से लगभग 100,000 ने घाटी छोड़ दी।[29] अन्य लेखकों ने पलायन का और भी ऊँचा आँकड़ा सुझाया है जो कि 150,000[30] से लेकर 190,000 (लगभग 200,000[31] की कुल पंडित आबादी का) तक हो सकता है। तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन की एक गुपचुप पलायन संघटित करने में संलिप्तता विवाद का विषय रही जिससे योजनाबद्ध पलायन की प्रकृति विवादास्पद बनी हुई है।[32] कई शरणार्थी कश्मीरी पंडित जम्मू के शरणार्थी शिविरों में अपमानजनक परिस्थितियों में रह रहे हैं।[33]
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