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ऐतरेय उपनिषद , ऋग्वेद का एक उपनिषद है। ऋग्वेद के ऐतरेय आरण्यक के अन्तर्गत द्वितीय आरण्यक के अध्याय 4, 5 और 6 का नाम ऐतरेयोपनिषद् है। यह उपनिषद् ब्रह्मविद्याप्रधान है। 'प्रज्ञानं ब्रह्म' (प्रज्ञान ही ब्रह्म है) इसी उपनिषद में आया है, जो चार महावाक्यों में से एक है।
ऐतरेय उपनिषद | |
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देवनागरी | ऐतरेय |
IAST | ऐतरेयोपनिषद् |
Date | लगभग ६ठी शताब्दी ईसापूर्व |
Author(s) | Aitareya Mahidasa |
Type | मुख्य उपनिषद् |
Linked Veda | ऋग्वेद |
Linked Brahmana | ऐतरेय ब्राह्मण का भाग |
Linked Aranyaka | अतरेय आरण्यक |
Chapters | three |
Verses | 33 |
Philosophy | आत्मा, ब्रह्म |
Commented by | आदि शंकराचार्य, मध्वाचार्य |
Popular verse | प्रज्ञानं ब्रह्म |
आदि शंकराचार्य इसके ऊपर जो भाष्य लिखा है वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसके उपोद्घात-भाष्य में उन्होंने मोक्ष के हेतु का निर्णय करते हुए कर्म और कर्मसमुच्चित ज्ञानका निराकरण कर केवल ज्ञानको ही उसका एकमात्र साधन बतलाता है। फिर ज्ञानके अधिकार का निर्णय किया है और बड़े समारोह के साथ कर्मकाण्डी के अधिकार का निराकरण करते हुए संन्यासी को ही उसका अधिकारी ठहराया है। वहां वे कहते हैं कि ‘गृहस्थाश्रम्’ अपने गृहविशेष के परिग्रह का नाम है और यह कामनाओं के रहते हुए ही हो सकता है तथा ज्ञानी में कामनाओं का सर्वथा अभाव होता है। इसलिए यदि किसीप्रकार चित्तशुद्धि हो जाने से किसी को गृहस्थाश्रम में ही ज्ञान हो जाय तो भी कामनाशून्य हो जाने से अपने गृहविशेष के परिग्रह का अभाव हो जाने के कारण उसे स्वतः ही भिक्षुकत्व की प्राप्ति हो जायगी। अचार्य का मत है कि ‘यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहोति’ आदि श्रुतियाँ केवल अज्ञानियों के लिये हैं, बोधवान् के लिये इस प्रकार की कोई विधि नहीं की जा सकती।
इस प्रकार विद्वान् के लिये पारिव्राज्य की अनिवार्यता दिखलाकर वे जिज्ञासु के लिये भी उनकी अवश्यकर्तव्यता का विधान करते है। इसके लिये उन्होंने ‘शान्तों दान्त उपरतस्तितिक्षुः’ ‘अत्याश्रमिभ्यः परमं पवित्रं प्रोवाच सम्यगृषिसंघजुष्टम्’ ‘कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः’ आदि श्रुति और ‘ज्ञात्वा नैष्कर्म्यमाचरेत्’ ‘ब्रह्माश्रमपदे वसेत्’ आदि स्मृतियों को उद्धृत किया है। ब्रह्मजिज्ञासु ब्रह्मचारी के लिये भी चतुर्थाश्रमका विधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि उसके विषय में यह शंका नहीं की जा सकती कि उसे ऋणत्रय की निवृत्ति किये बिना संन्यास का अधिकार नहीं हैं; क्योंकि गृहस्थाश्रमको स्वीकार करने से पूर्व तो उसका ऋणी होना ही सम्भव नहीं है। अतः आचार्य का सिद्धान्त है कि जिसे आत्मतत्वकी जिज्ञासा है और जो साध्य-साधनारूप अनित्य संसार से मुक्ति होना चाहता है, वह किसी भी आश्रम में हो, उसे संसार ग्रहण करना ही चाहिये।
इस सिद्धान्त के मुख्य आधार दो ही हैं-
अतः ज्ञानोपयोगिनी साधन-सम्पत्ति को उपार्जन करना तथा कामनाओं का आभाव-ये ही गृहत्याग के मुख्य हेतु हैं। जो लोग घर में रहते हुए ही शमदमादि साधनसम्पन्न हो सकते हैं और जिन बोधवानों की निष्कामतामें अपने गृहविशेष में रहना बाधक नहीं होता वे घर में रहते हुए भी ज्ञानोपार्जन और ज्ञानरक्षा कर ही सकते हैं। वे स्वरूप से संन्यासी न होनेपर भी वस्तुतः संन्यासधर्मसम्पन्न होने के कारण आचार्य के मत का ही अनुसरण करने वाले हैं। अस्तु।
इस उपनिषद् में तीन अध्याय हैं। उनमें से पहले अध्याय में तीन खण्ड हैं तथा दूसरे और तीसरे अध्यायों में केवल एक-एक खण्ड हैं। प्रथम अध्याय में यह बतालाया गया है कि सृष्टि के आरम्भ में केवल एक आत्मा ही था, उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं था उसने लोक-रचना के लिये ईक्षण (विचार) किया और केवल सकल्प से अम्भ, मरीचि और मर तीन लोकोंकी रचना की। इन्हें रचकर उस परमात्माने उनके लिये लोकपालोकी रचना करनेका विचार किया और जलसे ही एक पुरुष की रचनाकर उसे अवयवयुक्त किया। परमात्मा के संकल्प से ही उस विराट् पुरुष इन्द्रिय गोलक और इन्द्रियाधिष्ठाता देव उत्पन्न हो गये। जब वे इन्द्रियाधिष्ठाता देवता इस महासमुद्रमें आये तो परमात्माने उन्हें भूख-प्यास से युक्त कर दिया। तब उन्होंने प्रार्थना की कि हमें कोई भी ऐसा आयतन प्रदान किया जाय जिसमें स्थित होकर हम अन्न-भक्षण कर सकें। परमात्मा ने उनके लिये गौका शरीर प्रस्तुत किया, किन्तु उन्होंने ‘यह हमारे लिये पर्याप्त नहीं हैं ‘ऐसा कहकर उसे अस्वीकार कर दिया। तत्पश्चात् घोड़े का शरीर लाया गया किन्तु वह भी अस्वीकृत हुआ। अन्त में परमात्मा ने उनके लिए मनुष्य का शरीर लाया।
उसे देखकर सभी देवताओं ने एक स्वर में उनका अनुमोदन किया और वे सब परमात्मा की आज्ञा से उसके भिन्न-भिन्न अवयवों में वाक्, प्राण, चक्षु आदि रूपसे स्थति हो गये। फिर उनके लिये अन्नकी रचना की गयी। अन्न देखकर भागने लगा। देवताओं ने उसे वाणी प्राण चक्षु एवं श्रोत्रादि भिन्न-भिन्न कारणों से ग्रहण करना चाहा; परन्तु वे इसमें सफल न हुए। अन्त में उन्होंने उसे अपानद्वार ग्रहण कर लिया। इस प्रकार यह सारी सृष्टि हो जानेपर परमात्मा ने विचार किया कि अब मुझे भी इसमें प्रवेश करना चाहिये; क्योंकि मेरे बिना यह सारा प्रपंच अकिंचित्कर ही है। अतः वह उस पुरुष की मूर्द्धसीमाको विदीर्णकर उसके द्वारा उसमें प्रवेश किया कर गया। इस प्रकार जीवभावको प्राप्त होनेपर उसका भूतोंके साथ तादात्म्य हो जाता हैं। पीछे जब गुरुकृपासे बोध होनेपर उसे अपने सर्वव्यापक शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार होता है तो उसे ‘इदम’- इस तरह अपरोक्षरूप से देखने के कारण उसकी ‘इन्द्र’ संज्ञा हो जाती है।
इस प्रकार ईक्षण से लेकर परमात्मा के प्रवेशपर्यन्त जो सृष्टिक्रम बतलाया गया है, इसे ही विद्यारण्यस्वामी ने ईश्वर सृष्टि कहा है। ईक्षणादिप्रवेशान्तः संसार ईशकल्पितः। इस आख्यायिका में बहुत-सी विचित्र बातें देखी जाती हैं। यों तो माया में कोई भी बात कुतूहलजनक नहीं हुआ करती; तथापि आचार्य का तो कथन है कि यह केवल अर्थवाद है। इसका अभिप्राय आत्मबोध कराने में है। यह केवल आत्मा के अद्वितीयत्व का बोध कराने के लिये ही कही गयी है; क्योंकि समस्त संसार आत्माका ही संकल्प होनेके कारण आत्मस्वरूप ही है। द्वितीय अध्यात्म के आरम्भ में इसी प्रकार उपक्रम कर भगवान भाष्याकारने आत्मतत्वका बड़ा सुन्दर और युक्तियुक्त विवेचन किया है।
इस अध्याय में आत्मज्ञान के हेतुभूत वैराग्य की सिद्धिके लिये जीव की तीन अवस्थाओं का, जिन्हें प्रथम अध्यायमें ‘आवसथ’’ नामसे कहा है, वर्णन किया गया है। जीवके तीन जन्म माने गये हैं-
‘आत्मा वै पुत्रनामासि’ (कौषी) ( 2। 11) इस श्रुति के अनुसार पिता और पुत्र का अभेद है; इसीलिये पिता के पुनर्जन्म को भी पुत्रका तृतीय जन्म बतलाया गया है। वामदेव ऋषि ने गर्भ में रहते हुए ही अपने बहुत-से जन्मों का अनुभव बतलाया था और यह कहा जाता था कि मैं लोहमय दुर्गों के समान सैकड़ों शरीर में बंदी रह चुका हूँ; किन्तु अब आत्माज्ञान हो जाने से मैं श्येन पक्षी के समान उनका भेदन कर बाहर निकल आया हूँ। ऐसा ज्ञान होने के कारण ही वामदेव ऋषि देहपात के अनन्तर अमर पद को प्राप्त हो गये थे। अतः आत्मा को भूत एवं इन्द्रिय आदि अनात्मप्रपंचसे सर्वथा असंग अनुभव करना ही अमरत्व-प्राप्तिका एकमात्र साधन है।
इस प्रकार द्वितीय अध्याय में आत्माज्ञान को परमपद-प्राप्ति का एकमात्र साधन बताकर तीसरे अध्याय में उसी का प्रतिपादन किया गया है। वहाँ बतलाया है कि हृदय मन, संज्ञान, आज्ञान, विज्ञान, मेधा, दृष्टि, धृत, मति, मनीषा, जूति, स्मृति, संकल्प, क्रतु, असु काम एवं वश-ये सब प्रज्ञान के ही नाम हैं। यह प्रज्ञान ही ब्रह्मा, इन्द्र, प्रजापति, समस्त देवगण, पश्चमहाभूत तथा उद्विज्ज, स्वेदज अण्डज और जरायुज आदि सब प्रकार जीव-जन्तु हैं। यही हाथी, घोड़े, मनुष्य तथा सम्पूर्ण स्थावर जंगम जगत् है। इस प्रकार यह सारा संसार प्रज्ञानमें स्थिति है, प्रज्ञानसे ही प्रेरित होनेवाला है और स्वयं भी प्रज्ञानस्वरूप ही है, तथा प्रज्ञान ही ब्रह्म है ( प्रज्ञानं ब्रह्म )। जो इस प्रकार जानता है वह इस लोक से उत्क्रमण कर उस परमाधाम में पहुँच समस्त कामनाओं को प्राप्त कर अमर हो जाता है।
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