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ऐतरेय आरण्यक ऐतरेय ब्राह्मण का अंतिम खंड है। "ब्राह्मण" के तीन खंड होते हैं जिनमें प्रथम खंड तो ब्राह्मण ही होता है जो मुख्य अंश के रूप में गृहीत किया जाता है। "आरण्यक" ग्रंथ का दूसरा अंश होता है तथा "उपनिषद्" तीसरा। कभी-कभी उपनिषद् आरण्यक का ही अंश होता है और कभी कभी वह आरण्यक से एकदम पृथक् ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित होता है। ऐतरेय आरण्यक अपने भीतर "ऐतरेय उपनिषद्" को भी अंतर्भुक्त किए हुए हैं।
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ऐतरेय अरण्यक के पाँच अवांतर खंड हैं जो स्वयं आरण्यक के नाम से ही अभिहित किए जाते हैं। ये पाँचों आरण्यक वस्तुत पृथक् ग्रंथ माने जाते हैं। आज भी श्रावणी के अवसर पर ऋग्वेदी लोग इन अवांतर आरण्यकों के आद्य पदों का पाठ स्वतंत्र रूप से करते हैं जो इनके स्वतंत्र ग्रंथ मानने का प्रमाण माना जा सकता है।
ग्रंथ के प्रथम आरण्यक में "महाव्रत" का वर्णन है जो ऐतरेय ब्राह्मण के "गवामयन" का ही एक अंश है। द्वितीय आरण्यक के अंतिम तीन अध्यायों में (चतुर्थ से लेकर षष्ठ अध्याय तक) ऐतरेय उपनिषद् है। तृतीय आरण्यक को "संहितोपनिषद्" भी कहते हैं, क्योंकि इसमें संहिता, पद और क्रम पाठों का वर्णन तथा स्वर, व्यंजन आदि के स्वरूप का विवेचन है। चतुर्थ आरण्यक में महाव्रत के पंचम दिन में प्रयुक्त होनेवाली महानाम्नी ऋचाएँ दी गई हैं और अंतिम आरण्यक में निष्केवल्य शास्त्र का वर्णन पूरे ग्रंथ की समाप्ति करता है।
इन आरण्यकों में प्रथम तीन के रचयिता ऐतरेय, चतुर्थ के आश्वलायन तथा पंचम के शौनक माने जाते हैं। ऐतरेय आरण्यक के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में ऐकमत्य नहीं है। डाक्टर कीथ इसे यास्करचित निरुक्त से अर्वाचीन मानकर इसका समय षष्ठ शती विक्रमपूर्व मानते हैं, परंतु वास्तव में यह निरुक्त से प्राचीनतर है। ऐतरेय ब्राह्मण की रचना करनेवाले महिदास ऐतरेय ही इस आरण्यक के प्रथम तीन अंशों के भी रचयिता हैं। फलत: ऐतरेय आरण्यक को ऐतरेय ब्राह्मण का समकालीन मानना युक्तियुक्त है। इस आरण्यक को निरुक्त से प्राचीन मानने का कारण यह है कि इसके तृतीय खंड का प्रतिपाद्य विषय, जो वैदिक व्याकरण है, प्रातिशाख्य तथा निरुक्त दोनों के तद्विषयक विवरण से नि:संदेह प्राचीन है।
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