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भारतीय उपनाम विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
उपाध्याय विश्व की प्राचीनतम भाषा देववाणी संस्कृत का एक लोकप्रचलित उपाधि नाम है जो गुरुकुल के उन आचार्यो के लिए इस्तेमाल में लिया जाता है, जो भारतवर्ष में अनादिकाल से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक गुरु-शिष्य परम्परा के तहत गुरुकुल में अपने विद्यार्थियों को पढ़ाया करते थे। स्नातक, परास्नातक और उच्च शोध शिक्षा प्रणाली को इजाद करने वाले भारत के उपाध्यायों की गुरुकुल शिक्षा प्रणाली विश्वभर में सबसे ज्यादा चर्चित रही हैं। भारत के गुरुकुल और उसके उपाध्यायों का इतिहास बेहद ही प्राचीनतम और ब्यापक है, जिसे महज किसी भी लेख और ऐतिहासिक ग्रँथ में समेटना पूरी तरह असंभव है। भारत का सम्पूर्ण इतिहास,समयचक्र के हिसाब से प्रचलित प्रत्येक कालखंड (सतयुग,द्वापर,त्रेता,कलयुग) चारों वेद,छह शास्त्र,18 पुराण,उपनिषद समेत सभी महान ग्रन्थों में गुरुकुल और उनके उपाध्यायों का विशेष और विस्तृत वर्णन है। "उपाध्याय" Upadhyay- (संस्कृत - उप + अधि + इण घं) इस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है- 'उपेत्य अधीयते अस्मात्' जिसके पास जाकर अध्ययन किया जाए,वह उपाध्याय कहलाता है।।
वैदिक काल से ही गुरुकुल के शिक्षकों को उपाध्याय कहा जाता था। सरल शब्दों में यदि कहा जाय तो गुरुकुलों में विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला गुरु जिसे वर्तमान में शिक्षक,आचार्य या अध्यापक कहा जाता है। लेकिन ध्यान रहे कि प्राचीन काल के उपाध्याय की परिभाषा आज के शिक्षक से करोड़ों गुना बेहद ही विस्तृत है "वह गुरु जो अपने शिष्यों को बहुत ही सहजता से अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी रोशनी की तरफ लाकर उनके जीवन के सभी अमंगलों को मंगल में परिवर्तित-कर उनका सम्पूर्ण भौतिक और आध्यात्मिक विकास कर पाने की क्षमता रखता हो। यही नही अपितु "लोक कल्याण से परलोक कल्याण" के गूढ़ मार्ग के रहस्यों को समझा सके ऐसे योग्य योगी को ही ["उपाध्याय"] की पदवी (डिग्री) देकर गुरुकुल संभालने की जिम्मेदारी दी जाती थी। यह सर्वविदित है कि भारत की वैदिक सभ्यता विशुद्ध वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित सँस्कृति रही है। सनातन सँस्कृति में समर्थगुरु की परिकल्पना शिष्य और समाज के लिए ईश्वर के समतुल्य और उसकी महिमा संसार सागर से पार करने वाली बताई गई है।इसीलिए गुरुकुल के अध्यापक की योग्यता भी श्रेष्ठतम दर्जे की हो भारत के बड़े विद्वानों ने इस पर अनादिकाल से ही सबसे ज्यादा बल दिया है। सनातन सभ्यता में गुरुकुलों के उपाध्यायों का ऐतिहासिक कालक्रम मुख्य तीन कालखण्डों में विभक्त है।
वैदिक सभ्यता में अनादिकाल से ही गुरुकुलों के शिक्षकों को उपाध्याय कहा जाता था। इस कालखंड को गुरुकुलों का स्वर्णिम काल कहा जाता है। गुरुकुलों में योग्य अध्यापकों के निर्माण और आपूर्ति के लिए चिरकाल तक भारतवर्ष के गुरूकुलों में समय-समय पर बड़े-बड़े सिद्ध ऋषियों,महाउपाध्यायों,आचार्यों के द्वारा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की बड़ी और कड़ी परीक्षाऐं आयोजित की जाती थी। इन परीक्षाओं में सबसे श्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले विद्वान ब्रह्मचारियों को ही केवल उपाध्याय की उपाधि देकर गुरुकुलों में अध्यापन की जिम्मेदारी दी जाती थी। ऐ संयासी या गृहस्थ,स्त्री या पुरुष दोनों हो सकते थे। उपाध्याय या कुलपति का मर्म समझने के लिए हमें सनातन सभ्यता की प्राचीन गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को समझना होगा। गुरुकुल का उपाध्याय बनने के लिये परीक्षार्थी को शास्त्र विद्या ही नही ब्लकि शस्त्र विधा समेत दुनिया की सभी ज्ञात विद्याओं में देशभर में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर आदर्श शिक्षक के हर पैमाने में खरा उतरना पड़ता था। यही कारण था कि भारत के गुरुकुल से पढ़ा बच्चा पूरी दुनियाँ में ज्ञान और विज्ञान की पताका फहराने में सफल हुआ करता था। गुुुरुकुल के उपाध्यायों के द्वारा 32 विधाओं और 64 कलाओं को केंद्र में रखकर समस्त आध्यात्मिक और भौतिक ज्ञान-विज्ञान जिसके अंतर्गत सभी प्रमुख विषयों,वेद,दर्शन,उपनिषद्, व्याकरण,गणित,भौतिक विज्ञान,रसायन विज्ञान,जीव विज्ञान,सामाजिक विज्ञान,चिकित्सा,भूगोल,खगोल,अन्तरिक्ष,गृह निर्माण,शिल्प,कला,संगीत,तकनीकी,राजनीति,अर्थशास्त्र,न्याय,विमान विद्या,युद्ध-आयुध निर्माण,योग,यज्ञ एवं कृषि विज्ञान,आध्यात्मिक विज्ञान आदि सभी विषयों की शिक्षा गुरुकुलों में शिष्यों को दी जाती थी। रामायण और महाभारत में स्पष्ट उल्लेख किया है कि ज्ञान-विज्ञान की समस्त शाखाओं,उपशाखाओं,वेद-ग्रँथ,शास्त्र के साथ शस्त्र अर्थात युद्ध विद्या समेत सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड की ज्ञात और अदृश्य विद्याओं को गुरुकुल में विद्यार्थियों को सहज पढ़ाने की योग्यता रखने वाले गुरु या शिक्षक को उपाध्याय,कुलपति या आचार्य की संज्ञा दी गई।
यदि भारत देश का प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान काल तक का इतिहास उठाकर देखा जाये तो भारतवर्ष में जब भी विदेशी आक्रांताओं ने हमला किया और देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा,तब-तब उसकी सबसे बड़ी कीमत भारत के गुरुकुलों और उनके उपाध्यायों को चुकानी पड़ी। चूंकि सनातन सभ्यता को जीवंत रखने वाले गुरुकुल के उपाध्यायों के द्वारा देश के युवाओं को श्रेष्ठतम स्तर की शिक्षा- दिक्षा और उन्नत परवरिश देकर आदर्श नागरिकों का निर्माण किया जाता था।
मध्यकाल में गुरुकुल के अध्यापक लगातार विदेशी आक्रांताओं के दमनचक्र से जूझते हुये भारी दबाव के बीच काम करने को मजबूर थे। इतिहास गवाह रहा है कि विदेशी आक्रमणकारियों के धर्मपरिवर्तन करवाने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बने गुरुकुलों को सबसे पहले निशाने में लेकर भारतीय संस्कृति को नष्ट- भ्रष्ट करने के अनगिनत प्रयास किए गए। चूँकी भारत के गुरुकुल सर्वदा परतंत्रता के धुर विरोधी और स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक रहे । मध्यकाल के अरबी आक्रांता मुहम्मद बिन कासिम से लेकर उसके बाद महमूद गजनवी,मोहम्मद गौरी,कुतुबुददीन ऐबक,खिलजी,तुगलक,तैमूर लंग, सिकंदर,सैय्यद,लोधी से लेकर मुगलकाल में भी गुरुकुलों को आग लगाकर वहां के अनगिनत उपाध्यायों,आचार्यों को धर्मपरिवर्तन कराने का दबाव देकर उनके उपर नाना प्रकार के क्रूर जुल्म किये गए। जब गुरुकुल के आचार्यों ने झुकने से इंकार कर दिया तो उनका सर कलम कर दिया गया।
मुगलों के बाद अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा कर गुरुकुलों को नष्ट- भ्रष्ट करना शुरू कर दिया। इस काल को गुरुकुलों का अस्तकाल कहा जाता है। चूंकि आजादी के सभी आंदोलनों में गुरुकुलों की भूमिका सबसे अहम थी,गुरुकुल के उपाध्यायों के द्वारा अपने गुरुकुलों के सभी विधार्थियों में देशभक्ति की भावना भरकर प्रत्येक गुरुकुल से देश को आजाद करने के लिए युवाओं की फौज तैयार की जा रही थी। उपाध्यायों के निर्देश पर ही आए दिन गुरुकुल के युवा विद्यार्थियों की टोलियां गांव- गांव, शहर- शहर जाकर लोगों को ब्रिटिश राज के खिलाफ खुली बगावत कर समाज को जनआंदोलन करने की प्रेरणा देकर आम जनता का खुद नेतृत्व कर रहे थे। ब्रिटिश सरकार के खुपिया विभाग, गुप्त सर्वेक्षण कमेटियां, ईसाई मिशनरियों के मासिक और वार्षिक सर्वेक्षण रिपोर्ट्स,शीर्ष ब्रिटिश अधिकारी विलियम एडम्स की विस्तृत आख्या उसके बाद सन 1823 में ब्रिटिश शासन के विशेष सर्वे अधिकारी G.W. Litnar और Thomas Munro ने उत्तर और दक्षिण भारत का गहन सर्वे कर समृद्ध और शिक्षित भारत तथा स्वतंत्रता आंदोलनों के पीछे गुरुकुलों के उपाध्यायों और उनके युवा विद्यार्थियों के पूर्ण सक्रिय होने के पुख्ता सबूतों की एक विस्तृत रिपोर्ट ब्रिटिश संसद में पेश की गयी। रिपोर्ट में बहस के दौरान ब्रिटिश संसद में भारत के गुरुकुलों और उनके उपाध्यायों पर कड़ी कार्यवाही करने की मांग की गयी। ब्रिटिश सरकार ने रिपोर्ट का गहन अध्ययन करने के बाद बड़ी ही ही चतुराई से एक रणनीति के तहत आंदोलन कर रही आम जनता को दंडित करने के बजाय स्वतंत्रता आंदोलन के लिए राष्ट्रीय भावना के प्रचार-प्रसार के मुख्य केंद्र बिंदु बन चुके सभी गुरुकुलों में आगजनी कर वहां के उपाध्यायों को गिरफ्तार कर उन्हे चुन- चुनकर फांसी पर चड़ाना शुरु कर दिया। इस तरह गुरुकुल के हजारों- हजार आचार्यों को फांसी देने के बाद भी जब स्वतंत्रता आंदोलनो की आग गुरुकुलों से भड़कती रही तब परेशान ब्रिटिश शासन ने सभी गुरुकुलों के उपाध्यायों का पूर्ण दमन करने का दृढ़ संकल्प लेकर सभी गुरुकुलों की मान्यता रद्द कर वहां के उपाध्यायों से खौफनाक बदला लेने की योजना को अंतिम रूप देने का मसौदा तय कर दिया।
यूँ तो गुुुरुकुल के आचार्य उपाध्याय मध्य काल से लेकर मुगल काल तक लगातार मौत के घाट उतारे गये। इसके बाबजूद 1850 तक भारत में लगभग 7 लाख 32 हजार गुरुकुल सक्रिय स्तिथ में मौजूद थे। शताब्दियों चले ब्रिटिशकालीन स्वतंत्रता आंदोलनों के खूनी संघर्ष में भी अधिकतर आचार्य अंग्रेजी हुकूमत के हाथों मारे गए,यहाँ तक की आचार्यों की विधवाओं(गुरूमाताओं) तक का खौफनाक उत्पीड़न और दमन किया गया। परिणामस्वरूप उपाध्याय भारतवर्ष में बेहद दुर्लभतम मानव प्रजाति की श्रेणी में सिमट गये। हालांकि भारत में ब्रिटिश राज के मध्य तक भारत में गुरुकुल शिक्षा प्रणाली गुरुकुलों के उपाध्यायों के नेतृत्व में चलती रही। लेकिन लार्ड मैकॉले (Thomas Babington Macaulay)की सिफारिश पर गवर्नर जरनल "लार्ड विलियम बैंटिक"का English Education Act 1835 तत्पश्चात ब्रिटिश संसद ने स्थाई कानून जिसकी ड्रॉफ्टिंग खुद लॉर्ड मैकाले ने की थी Indian Education Act 1858 बनाकर भारत के सभी गुरुकुलों और उनमें पढ़ाने वाले सभी अध्यापकों की मान्यताएँ रद्द कर उन्हें बंद करने के सख्त आदेश जारी कर दिये और भारत मे गुरुकुलों के स्थान पर नये कान्वेंट स्कूल खोले गये।
आंखिर कहाँ गये भारत के लाखों गुरुकुल ? और कहाँ गये उन गुरुकुलों में पढ़ाने वाले उपाध्याय ? यह एक ऐसा ज्वलंत यक्ष प्रशन है जो दुनियाभर के हर इतिहासकार और आम नागरिकों को परेशान करता है। अनादिकाल से गुरूकुलों में शिक्षा-दिक्षा देने वाले उपाध्यायों और उनके गुरुकुलों को मध्यकाल से लेकर ब्रिटिशकाल तक लगातार क्रूर दमनचक्र का सामना करना पढ़ा, जिसके चलते गुरुकुल प्रबंधन धीरे-धीरे अस्त-ब्यस्त और कमजोर पड़ने लगे। इसके बाबजूद भी गुरुकुल अपने सीमित संसाधनों के साथ लगातार सरहनीय कार्य करते रहे। ब्रिटिश हुकूमत ने कानून बनाकर गुरुकुल उजाड़ने के बाद अधिकतर आचार्यों को गिरफ्तार कर उन पर फर्जी मुकदमे चलाकर फाँसी पर चढ़ा दिया गया और शेष मुट्ठीभर बचे हुये उपाध्यायों को घोर यातनाओं के साथ जेल की कालकोठरियों में धकेल दिया। इस तरह गुरुकुलों के दुखद अंत के साथ ही भारतीय गुरुकुलों के आचार्य "उपाध्याय" आजादी के महायज्ञ में अपने प्राणों की आहुति देकर गुमनानी के अंधेरे खो गये।
प्राचीन काल के[जैन साहित्य】 के अलावा बौद्ध साहित्य में भी उपाध्याय (उपज्झाय) के संबंध में अनेक निर्देश उपलब्ध हैं। महावग्ग (1-31) के अनुसार उपसंपन्न भिक्षु को बौद्ध ग्रंथों की शिक्षा उपाध्याय द्वारा ही दी जाती थी। पढ़ने का प्रार्थनापत्र भी उसी की सेवा में प्रस्तुत किया जाता था। (महावग्ग 1.25.7)। इत्सिंग के विवरण से ज्ञात होता है कि जब उपासक प्र्व्राज्या लेता था, जब उपाध्याय के सम्मुख ही उसे श्रम की दीक्षा दी जाती थी। दीक्षाग्रहण के पश्चात् ही उसे 'त्रिचीवर' भिक्षापात्र और निशीदान (जलपात्र) प्रदान करता था। उपसंपन्न भिक्षु को 'विनय' की शिक्षा उपाध्याय द्वारा ही दी जाती थी। केवल पुरुष ही नहीं, स्त्रियाँ भी उपाध्याय होती थीं। पतंजलि ने उपाध्याया की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है- 'उपेत्याधीयते अस्या: सा उपाध्याया।'
उपाध्याय संस्था का विकास संभवत: इस प्रकार हुआ।विद्या,ज्ञान-विज्ञान और धार्मिक संस्कार,अर्थात ज्ञानतत्व और धर्मतत्व का शिष्यों और समाज को उपदेश देने का कार्य जो कुल का मुख्य पुरोहित या कुलपति करता था।उसे ही कुलोउपाध्याय या उपाध्याय के नाम से जाना जाता था। भारत ही नही विश्व के सभी मानव जातियों और सभ्यताओं में उपाध्याय या कुलपति से मिलता-जुलता उसी स्तर के जिम्मेदारियों वाला पद पाया गया है। जिस तरह भारतीय आर्यों में कुलपति ही उपाध्याय होता था। यहूदियों में 'अब्राहम आइजे' आदि कुलपति उपाध्याय का काम करते थे। अरब लोगों में "शेख" यह काम करता था। आज भी वह उस समाज का नेता तथा धार्मिक कृत्यों और मामलों में प्रमुख होता है। रोमन कैथोलिक और ग्रीक संप्रदाय में उपाध्याय का अधिकार मानने की प्रथा है।
कालखंड के हिसाब से सभी युगों में गुरुकुल के अध्यापकों के लिये देवभाषा सँस्कृत में उपाध्याय शब्द का इस्तेमाल किया गया है। विश्व के सबसे प्राचीनतम महाग्रन्थ वेदों में इसका विस्तार से वर्णन है। त्रेता युग में त्रिकालदर्शी आदिकवि महर्षि बाल्मीकि द्वारा रचित महाग्रंथ रामायण के बालकाण्ड में सीता स्वयंवर के समय जब भगवान राम ने शिवजी का धनुष भंग कर स्वयंवर जीता, तब राजा जनक के राजकुल पुरोहित,आचार्य सदानन्द अपने राजा जनक और मुनि विश्वामित्र से प्रार्थना करते हैं कि अयोध्या के राजा दशरथ एवं उनके गुरुकुल उपाध्याय को स्वयंवर का सन्देश पत्र प्रेक्षित किया जाना चाहिए। तब राजा जनक अपनी ओर से लिखे पत्र में राजा दशरथ को अपने गुरुकुल उपाध्याय महर्षि वशिष्ठ समेत सभी आचार्यों को अपने साथ लेकर राम सीता विवाह का निमंत्रण भेजते हैं। द्वापर युग में भी भगवान कृष्ण के बेहद अल्प समय में गुरूकुल उपाध्याय मुनि संदीपनी से शिक्षा गृहण करने का वर्णन है। कुलमिलाकर वैदिककालीन इतिहास,वेद-पुराण, शास्त्र, उपनिषद, रामायण, महाभारत, मध्यकालीन भारत का इतिहास,आधुनिक भारत का इतिहास सभी जगह गुरुकुल के आचार्यों,अध्यापकों के लिए देववाणी संस्कृत में उपाध्याय शब्द का प्रयोग किया गया है।
जैन धर्म में, एक उपाध्याय आचार्य के बाद जैन तपस्वी वर्ग का दूसरा सर्वोच्च नेता है। णमोकार मंत्र का चौथा श्लोक नमो उव्वझयनं कहता है, जिसका अर्थ है उपाध्याय को प्रणाम करना।
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