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जीन डी एन ए के न्यूक्लियोटाइडओं का ऐसा अनुक्रम है, जिसमें सन्निहित कूटबद्ध सूचनाओं से अंततः प्रोटीन के संश्लेषण का कार्य संपन्न होता है। यह अनुवांशिकता के बुनियादी और कार्यक्षम घटक होते हैं। यह यूनानी भाषा के शब्द जीनस से बना है। क्रोमोसोम पर स्थित डी.एन.ए. (D.N.A.) की बनी अति सूक्ष्म रचनाएं जो अनुवांशिक लक्षणें का धारण एंव एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरण करती हैं, उन्हें जीन (gene) कहते हैं।
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जीन आनुवांशिकता की मूलभूत शारीरिक इकाई है। यानि इसी में हमारी आनुवांशिक विशेषताओं की जानकारी होती है जैसे हमारे बालों का रंग कैसा होगा, आंखों का रंग क्या होगा या हमें कौन सी बीमारियां हो सकती हैं। और यह जानकारी, कोशिकाओं के केन्द्र में मौजूद जिस तत्त्व में रहती है उसे डीऐनए कहते हैं। जब किसी जीन के डीऐनए में कोई स्थाई परिवर्तन होता है तो उसे उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) कहा जाता है। यह कोशिकाओं के विभाजन के समय किसी दोष के कारण पैदा हो सकता है या फिर पराबैंगनी विकिरण की वजह से या रासायनिक तत्त्व या वायरस से भी हो सकता है।
प्रकृति के परिवर्तन में आण्विक डीएनए म्यूटेशन हो सकता है या नहीं कर सकते मापने में परिवर्तन के परिणामस्वरूप एक जावक जीव की उपस्थिति या कार्य है।
जीवन की इकाई कोशिका है और कोशिकाओं का समुच्चय जीवित शरीरी या प्राणी कहा जाता है। कल्पना कीजिए, इस सृष्टि में यदि एक ही आकार के जीव होते, एक ही ऋतु होती और रात अथवा दिन में से कोई एक ही रहा करता तो कैसा लगता। एक ही प्रकार का भोजन, एक ही प्रकार का कार्य, एक ही प्रकार के परिवेश का निवास ऊब उत्पन्न कर देता है इसीलिए हम उसमें किंचित् परिवर्तन करते रहते हैं। प्रकृति भी एकरसता से ऊबकर परिवर्तन करती रहती है। जंतुजगत् की विविधता पर हम दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि, उदाहरण के लिए, बिल्ली जाति के जंतुओं में ही कितना भेद है : बिल्ली, शेर, चीता, सिंह, सभी इसी वर्ग के जंतु हैं। इसी प्रकार, कुत्तों में देशी, शिकारी, बुलडाग, झबरा, आदि कई नस्ल दिखलाई देते हैं।
इस विविधता के मूल कारण का ज्ञान सभी को नहीं होता और सबसे बड़ी बात तो यह है कि कौतूहलवश भी कोई इस भेद को जानना नहीं चाहता। हमें यह वैविध्य इतना सहज और सामान्य प्रतीत होता है कि हमारा ध्यान इस ओर कभी नहीं जाता। किंतु, यदि हम इस वैविध्य के कारण की मीमांसा करें तो सचमुच हमें चकित हो जाना पड़ेगा। इस वैविध्य का मूल कारण उत्परिवर्तन है।
उत्परिवर्तन की परिभाषा अनेक प्रकार से दी गई है, किंतु सभी का निष्कर्ष यही है कि यह एक प्रकार का आनुवंशिक परिवर्तन (hereditary change) है। कोशिकाविज्ञान (cytology) के विद्यार्थी यह जानते हैं कि कोशिकाओं के केंद्रक में गुणसूत्र (chromosomes) एक नियत युग्मसंख्या (no. of pairs) में पाए जाते हैं। इन सूत्रों पर निश्चित दूरियों और स्थानों (loci) पर मटर की फलियों की भाँति जीन्स (genes) लिपटे रहते हैं। जीवरासायनिक दृष्टि से जीन्स न्यूक्लीइक अम्ल (nucleic acids) होते हैं। इनकी एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ये, कोशिका विभाजन (cell divisions) के समय, स्वत: आत्मप्रतिकृत (self replicated) हो जाते हैं।
डीआक्सीरिबोन्यूक्लिक एसिड (DNA) के वाट्सन-क्रिक माडेलों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि जब जब डी-एन-ए-की दुहरी कुंडलिनी (double helix) प्रतिलिपित होती है तब तब मूल संरचना की हूबहू अनुकृति (replica) तैयार होती जाती है। इस प्रक्रिया में बिरले ही अंतर पड़ता है। किंतु भूल तो सभी से होती है--प्रकृति भी इससे अछूती नहीं है। प्रतिलिपिकरण के समय, कभी कभी, न्यूक्लिओटाइडों के संयोजन में दोष उत्पन्न हो जाता है। यह दोष दुर्घटनावश ही होता है; इसी को उत्परिवर्तन की संज्ञा प्रदान की गई है।
गोल्डस्मिट् ने उत्परिवर्तन की परिभाषा देते हुए बतलाया है कि उत्परिवर्तन वह साधन (means) है, जिसके द्वारा नए आनुवंशिक टाइप (hereditary types) उत्पन्न होते हैं। डॉ॰जान्स्की और उनके सहयोगियों के मतानुसार उत्परिवर्तन नवीन किस्मों या नस्लों की उत्पत्ति करनेवाले पथभ्रष्ट बिन्दु (point of departure) है।
उद्विकास (Evolution) के अनेक प्रमाणों में उत्परिवर्तन को भी एक प्रमाण माना जाता है। इस संबंध में हालैंड के वनस्पतिशास्त्री, ह्यगो डीविज्र (De Vries) का नाम संमानपूर्वक लिया जाता है। इन्होंने ईनोथेरा लैमाकिएना (eenothera lamarckiana) नामक एक पौधे पर कई प्रकार के प्रयोग किए थे। इस पौधे में प्रतिवर्ष कई प्रकार के स्पीशीज़ होते जाते थे, जिन्हें उन्होंने पाँच समूहों में वर्गीकृत किया और अपने प्रयोगों के परिणामों के आधार पर निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले--
1. नवीन स्पीशीज़ की उत्पत्ति क्रमिक न होकर तात्कालिक एक-ब-एक होती है;
2. आरंभ में ये स्पीशीज़ अपने माता पिता की ही भाँति स्थिर होते हैं।
3. एक ही समय में सामान्य तौर पर एक साथ एक जैसे बहुत से स्पीशीज़ उत्पन्न होते हैं।
4. उत्परिवर्तनों की कोई निश्चित दिशा नहीं होती, वे किसी भी रूप में विकसित हो सकते हैं।
5. उत्परिवर्तन बीच बीच में कई बार हो सकता है।
इसी प्रकार के प्रयोग बीडिल एवं टैटम नामक दो अमरीकन जीव वैज्ञानिकों ने न्यूरोस्पोरा (neurospora) नामक फफूँदी (mold) पर किए थे। उन्होंने इस रोग के बीजाणु (spores) को एक्स अथवा अल्ट्रावायलेट किरणों द्वारा अभिकर्मित (treatment) करके उनके बढ़ने की गति की जाँच की। उन्होंने पाया कि कल्चर मीडियम में इस प्रकार के अभिकर्मित बीजाणु बढ़ नहीं पा रहे हैं, अत: उन्होंने कुछ एमिनोएसिडों को मिला दिया। इसके फलस्वरूप वे ही पौधे पुन: वृद्धि को प्राप्त होने लगे। अत: उनका मत था कि विकिरण के कारण बीजाणुओं की सामान्य उत्पादन क्षमता पर आघात पहुँचता है और यह दोष अगली पीढ़ियों में भी वर्तमान रहता है। इसी प्रकार के आकस्मिक आनुवंशिक परिवर्तनों को उत्परिवर्तन कहा जाता है।
सजीव प्राणियों के सभी प्रकार के आकार, आकृति, रासायनिक संरचना, रोग आदि गुणों (characters) का उत्परिवर्तन हो सकता है। इसी आधार पर उत्परिवर्तनों की कई कोटियाँ बना ली गई हैं, जैसे जीन उत्परिवर्तन, गुणसूत्र उत्परिवर्तन आदि। उत्परिवर्तन को तात्कालिक अथवा आकस्मिक आनुवंशिक परिवर्तन कहा गया है। यह परिवर्तन दोषयुक्त ही हो, यह कोई आवश्यक नहीं है। सभी उत्परिवर्तन दूषित या हानिकारक नहीं होते। इनसे लाभ भी होता है और इस प्राकृतिक दोष का लाभ उठाया भी जाता रहा है। इस पर हम यथास्थान पुन: विचार करेंगे।
उत्परिवर्तन की घटनाएँ विरल अथवा यदा-कदा होती हैं। ड्रोसोफिला (drosophila) नामक कदली मक्खी (fruit fly) के अध्ययनों द्वारा ज्ञात हुआ है कि इस प्रकार का उत्परिवर्तन कई लाख सामान्य स्पीशीज़ में से किसी एक में बहुत ही नगण्य रूप में परिलक्षित होता है। आल्टेनवर्ग ने रेस के घोड़ों की आधुनिक तीव्र गति का कारण क्रमिक आरोपित उत्परिवर्तन बतलाया है। यह या ऐसा परिवर्तन सदा लाभप्रद ही हो (आल्टेन वर्ग के मतानुसार), ऐसा नहीं कह सकते। बहुत से उदाहरणों में, इस उत्परिवर्तन के कारण घोड़ों की गति में न्यूनता भी आ सकती है। अत: निष्कर्ष यही निकलता है कि उत्परिवर्तन "मनमाना परिवर्तन" (random change) होता है। यहाँ डार्विन का "प्राकृतिक वरण का सिद्धांत" (theory of natural selection) अथवा "योग्यतम का जीवन" (survival of the fittest) लागू होता है, जिसके अनुसार इस आकस्मिक परिवर्तन को सह सकनेवाले जीव जीवित रह पाते हैं, अन्यथा निर्बलों की मृत्यु हो जाती है। मैंडेल ने मटर की फलियों पर जो प्रयोग किए थे, उनके परिणामों का कारण यही उत्परिवर्तन बतलाया जाता है।
उत्परिवर्तन कब होगा, यह कोई निश्चित रूप से नहीं कह सकता। कोशिकाविभाजन के उपरांत वर्धन (development) की किसी भी अवस्था या चरण (stage) में उत्परिवर्तन की घटना घट सकती है। यदि उत्परिवर्तन किसी एक ही बीजाणु (gamete) या युग्मक में होता है तो भावी संतति में से केवल एक में यह परिलक्षित होगा। उत्परिवर्तित पीढ़ी में से आधी संतति में उत्परिवर्तन के लक्षण वर्तमान होंगे और शेष आधा इनसे अप्रभावित रहेगा। उत्परिवर्तन के लक्षणों से युक्त संततियों की भावी पीढ़ियों में भी वे ही लक्षण दिखलाई देते रहेंगे। काय कोशिकाओं (somatic or body cells) में उत्परिवर्तन हो जाने पर उसे पहचान पाना दुष्कर कार्य होता है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि वह सर्वथा अदृश्य हो जाता है और उसपर किसी भी दृष्टि भी नहीं जा पाती। किंतु जनन कोशिकाओं (germ or reproduction cells) में हुए उत्परिवर्तन जनांकिकीय (genetically) दृष्टि से महत्वपूर्ण होते हैं।
उत्परिवर्तन क्यों होते हैं, इसका संतोषजनक उतर जीव वैज्ञानिकों के पास उपलब्ध नहीं है। हाँ, इन लोगों ने कुछ ऐसी विधियाँ निकाली हैं, जिनके द्वारा कृत्रिम या आरोपित ढंग से उत्परिवर्तन किए जा सकते हैं। आरोपित उत्परिवर्तन सर्वदा बाहरी कारणों से ही हो सकता है, जिन्हें हम नीचे दी गई कोटियों में वर्गीकृत कर सकते हैं:--
1. तापक्रम-जननकोशिकाओं में सहनबिंदु तक तापक्रम में वृद्धि कर दी जाए तो उत्परिवर्तन की गति बढ़ जाएगी।
2. रसायन-सरसों के तेल का धुआँ, फार्मैल्डिहाइड पेराक्साइड, नाइट्रस अम्ल आदि का प्रयोग करने पर उत्परिवर्तन दर में वृद्धि हो सकती है।
3. विकिरण-एक्सकिरण, गामा, बीटा, अल्ट्रावायलेट किरणों आदि के प्रयोग से भी उत्परिवर्तन दर में वृद्धि हो जाती है। स्वर्गीय प्रोफेसर एच.जे.मुलर ने इस कारक पर अनेक अद्भुत अनुसंधान किए हैं।
4. वायुमंडल में असाधारण रूप से परिवर्तन करके उत्परिवर्तन दर में वृद्धि बढाई जा सकती है
जीन-विनिमय के समय कुछ दुर्घटनाएँ हो सकती हैं। इन दुर्घटनाओं को हम तीन समूहों में विभाजित कर सकते हैं:--
इनमें से प्रथम दो प्रकार के परिवर्तन गंभीर माने गए हैं, जिनसे कोशिका की मृत्यु तक हो सकती है। तीसरे प्रकार का परिवर्तन इतना गंभीर नहीं होता। आनुवंशिकी वैज्ञानिकों ने उत्परिवर्तन के निम्नलिखित भेद बतलाए हैं:--
1. जीन या बिंदु उत्परिवर्तन
2. आरोपित उत्परिवर्तन
उत्परिवर्तन की परिभाषा करते हुए बतलाया गया है कि उत्परिवर्तन किसी स्पीशीज़ के आनुवंशिक पदार्थ में उत्पन्न गतिशील रासायनिक परिवर्तन का नाम है। ये परिवर्तन गुणसूत्रों की संरचना तथा संख्या में उत्पन्न होते हैं। अत: इस दृष्टि से किसी जीन की आणविक संरचना (molecular structure) परिवर्तन को "जीन उत्परिवर्तन" कहेंगे। किंतु, जब इस प्रकार के परिवर्तन गुणसूत्र के किसी बिन्दुविशेष या खंडविशेष (segment) में दिखलाई देंगे तो उन्हें "बिंदु उत्परिवर्तन" कहेंगे। वस्तुत: इन दोनों प्रकार के परिवर्तनों में कोई विशेष भेद नहीं होता, अत: इन दोनों पदों (terms) का पर्याय, रूपों में उल्लेख किया गया है। उत्परिवर्तन तात्कालिक (spontaneous) होते हैं, अत: इन्हें "तात्कालिक उत्परिवर्तन" भी कहते हैं। बिंदु उत्परितर्वन अति सूक्ष्म होते हैं और उनका प्रभाव संपूर्ण जीव परिवर्तन पर नहीं पड़ता। अत: उत्परिवर्तन शब्द का प्रयोग साधारणतया बिंदु उत्परिवर्तन के लिए ही किया जाता है।
किसी मनुष्य की जनन कोशिका में जीन उत्परिवर्तन होने पर यह उसके युग्मनज (zygote) में स्थानांतरित हो जाता है और इस प्रकार इन कोबिकाओं द्वारा उत्पन्न नई पीढ़ी तक पहुँच जाता है। असंख्य बार कोशिका-विभाजनों के फलस्वरूप उत्परिवर्तन जीन भी अपनी प्रतिलिपियाँ उत्पन्न करते करते किसी लक्षण या गुण विशेष के लिए प्रभावी (dominant) बन जाता है।
प्रभावी उत्परितर्वनों को उनकी वाहक कोशिकाओं में स्थित गुणसूत्रों या जीनों में सरलतापूर्वक ढूँढ़ा जा सकता है। किंतु ऐसे उत्परिवर्तन सुप्त (recessive) उत्परिवर्तनों की तुलना में कम ही दृष्टिगोचर होते हैं। परंतु जहाँ तक मनुष्य में हुए उत्परिवर्तनों का प्रश्न है, ऐसे उत्परिवर्तन अधिकतर प्रभावी हो बतलाए गए हैं। लिंगसहलग्न उत्परिवर्तन (sex-linked mutation) विषमयुग्मी (heterogamous) नरों में ही अधिकतर दिखालाई देते हैं क्योंकि इनमें लिंगसहलग्न प्रभावी जीन पाए जाते हैं। अत: नर जनकों के प्रसुप्त उत्परिवर्तन द्वितीय पीढ़ी की नर संतानों में ही दिखलाई देते हैं। मनुष्य के अधिकांश लिंगसहलग्न उत्परिवर्तन प्रसुप्त माने गए हैं।
उभययलिंगाश्रयी पादपों (monoecious plans) में बहुधा दृष्टिगोचर होते हैं। अप्रभावी उत्परिवर्तन यदि जननकोशिकाओं में उत्पन्न होते हैं तो भावी संततियाँ अवश्य ही विषमयुग्मजी (heterozygous) होंगी। अलिंगसूत्री अप्रभावी उत्परिवर्तन एक बार जब उत्पन्न हो जाते हैं, तो कई पीढ़ियों तक दिखलाई ही नहीं देते। किंतु यही उत्परिवर्तन यदि लिंगसहलग्न होते हैं, तो अगली पीढ़ी में ही प्रभावी हो जाते हैं।
प्राणघातक उत्परिवर्तनों (lethal mutations) को अधिकतर अप्रभावी या प्रसुप्त माना जाता है। प्राणघातक उत्परिवर्तन यदि जननकोशिका (germ cell) में ही जाते हैं, तो भावी संतति विषमयुग्मी होगी। यदि ऐसे उत्परिवर्तन अंडा देनेवाले जंतुओं में हो जाएँ तो विषमयुग्मजी जनकों के लगभग 1। 4 अंडों से बच्चे ही नहीं उत्पन्न होंगे। लगभग इतनी ही संततियाँ भ्रौणिक परिवर्धन (embryonic) की विविध दशाओं में, जन्म के समय अथवा जन्म लेने के तत्काल बाद मर जाएँगी। घातक उत्परिवर्तनि अलिंगसूत्रों में आम तौर पर दिखलाई देते हैं और ये किसी ये गुणसूत्र में हो सकते हैं। समयुग्मजी (homoygous) मुर्गी के भ्रुण के गुणसूत्रों में यदि घातक जीन हों तो ऐसी संतति का कंकाल कुरूप या टेढ़ा मेढ़ा होगा और वह जन्म के पूर्व ही मर गई होगी। किंतु विषमयुग्मी भ्रुणों से बच्चे उत्पन्न होते हैं और जीवित भी रहते हैं, भले ही उनके अस्थिपंजर टेढ़े मेढ़े हों। ऐसे बच्चों की क्रीपर फाउल (creeper fowl) कहते हैं, क्योंकि मुर्गी के इन बच्चों के पैर और कमर ठिंगने होते हैं।
विरल उदाहरणों में प्रतिलोमित उत्परिवर्तन भी हो जाते हैं। कभी-कभी उत्परिवर्तित जीन अनेक पीढ़ियों तक वर्तमान रह जाता और एक ही कुल के सहस्रों सदस्यों में फैला होता है। किंतु, जब सहसा किसी सदस्य की जननकोशिका में कोई जीन सामान्य अप्रभावी युग्मविकल्पी (allele) को उत्परिवर्तित कर देता है तो ऐसी स्थिति में एक और उत्परिवर्तन हो जाता है। इस प्रकार के पुनरुत्परिवर्तन को प्रतिलोम उत्परिवर्तन की संज्ञा प्रदान की गई है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उत्परिवर्तन की रोगी दशा पुन: सामान्य की ओर परिवर्तित हो सकती है। बैक्टीरिया में कुछ उत्परिवर्तित दशाएँ ऐसी भी होती हैं जिनमें वे विटामिन बनाने की क्षमता खो बैठते है। किंतु कुछ काल बाद वे पुन: विटामिन उत्पन्न करने लगते हैं। उनके सामान्य अवस्था में पुन: लौट आने को पूर्वकारी उत्परिवर्तन कहते हैं।
कायिक उत्परिवर्तन साधारणतया शरीर के ऊतकों में ही दृष्टिगोचर होते हैं। कायिक उत्परिवर्तनों का प्रभाव दीर्घकालिक नहीं होता। भ्रौणिक अवस्था की प्राथमिक दशाओं में होनेवाले उत्परिवर्तनों के कारण शरीर में चकत्ते बन जाते हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि कैन्सर भी एक प्रकार का कायिक उत्परिवर्तन ही है। ड्रोसोफिला मक्खी की आँखे सामान्यतया लाल होती हैं, किंतु श्वेत धब्बे या एक आँख में पूरी तरह की सफेदी भी दिखलाई पड़ सकती है। ऐसी मक्खियों को मोजेक कहा जाता है। इस प्रकार के उत्परिवर्तनों के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं।
वैज्ञानिकों ने प्रयोगों द्वारा पता लगाया है कि उत्परिवर्तनों पर परिवेश का प्रभाव तीन प्रकार से पड़ता है, तापक्रम द्वारा, कतिपय रसायनों द्वारा और किरणन द्वारा।
तापक्रम- उत्परिवर्तन पर तापक्रम का क्या प्रभाव पड़ता है, इसपर अधिकतर प्रयोग कदली मक्खी, ड्रोसोफिला, को ही लेकर किए गए हैं। एक ऐसे ही प्रयोग में जब लिंगसहलग्न अप्रभावी घातक जीनों का अध्ययन किया गया तो पता चला कि 14 डिग्री सें.ग्रे. पर 0.087 प्रतिशत, 22 डिग्री सें.ग्रे. पर 0.188 प्रतिशत और 28 डिग्री सें.ग्रे. पर 0.325 प्रतिशत घातक जीन उत्पन्न हुए। इससे एक बात यह स्पष्ट होती है कि तापक्रम में यदि 10 डिग्री की भी वृद्धि हो जाती है तो उत्परिवर्तन की दर में दूनी अथवा तिगुनी वृद्धि हो जाती है। इस प्रसंग में एक मनोरंजक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि तापक्रम में वृद्धि द्वारा ही नहीं, अपितु अतिशय न्यूनता द्वारा भी उत्परिवर्तन प्रभाव पड़ सकता है। ड्रोसोफ़िला मिलेनोगैस्टर के तीन दिनों के डिंभों (larvae) को -6 डिग्री ताप (शीताघात) पर रखने पर देखा गया कि 25 से 40 मिनट के भीतर इनके एक्स तथा द्वितीय गुणसूत्रों में घातक उत्परिवर्तन की दर तीनगुनी हो गई। अस्तु, यह विचित्र बात है कि शीत तथा ताप में अतिशय वृद्धि का लगभग एक समान ही प्रभाव पड़ता है। ऐसा क्यों होता है, इस पर अभी अधिक प्रकाश नहीं पड़ा है।
उत्परिवर्तन पर रासायनिक प्रभाव के फलों का अध्ययन अनेक प्रकार से किया गया है। रासायनिक अभिकर्मो द्वारा उत्परिवर्तन दर में वृद्धि का प्रयास अनेक विधियों द्वारा किया गया है। इस प्रसंग में ओवरबैश और राबसन (Auerbach and Robson) द्वारा अभी हाल में ही (1949 ¨Éå) किए गए प्रयोगों द्वारा ज्ञात हुआ है कि सरसों का धुआँ अत्यधिक प्रभावकारी उत्परिवर्तक माध्यम है। वयस्क ड्रोसोफिला में उचित मात्रा में दिए गए धुएँ के प्रभाव को देखने पर ज्ञात हुआ कि इससे उत्परिवर्तन दर में 10 प्रतिशत से भी अधिक की वृद्धि हो जाती है। सरसों के धुएँ के अतिरिक्त अनेक पराक्साइडें (peroxides), फार्मेलीन, पर्मेन्गनेट, यूरीथेन, कैफीन आदि भी उत्परिवर्तन दर में वृद्धि करने वाले प्रमाणित हुए हैं। सरसों तथा पराक्साइडों के अतिरिक्त दूसरे रसायनों के प्रभाव अपेक्षाकृत कम ही देखे गए। दूसरी कमी इनमें यह भी पाई गई कि इनका प्रभाव सूत्रोविभाजन (mitosis) के विशेष चरणों में या परिवर्तन की विशेष दिशाओं में ही दृष्टिगोचर होता है। इसी प्रकार कुछ रसायन केवल नर को हर प्रभावित कर पाते हैं, मादा को नहीं। इसका कारण यह बतलाया गया है कि जब तक कोई रसायन कोशिका के केंद्रक आवरण की भेदकर भीतर तक नहीं पहुँच जाता, तब तक उसका प्रभाव संदिग्ध ही होगा; दूसरे, बाहरी रसायन की कोशिकाद्रव्य ही यदि निष्प्रभावित कर देगा, तो उसका प्रभाव तो होगा ही नहीं।
किरणन या विकिरण (Irradiation)- द्वारा उत्परिवर्तन की संभावना पर एच. जे. मुलर ने सन् 1927 में कुछ प्रयोग किए थे। उन्होंने ड्रोसोफिला पर एक्स-किरणों का प्रक्षेपण करके अनेक प्रकार के उत्परिवर्तन उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की। तब से अब तक मक्का, जौ, कपास, चुहिया आदि पर भी किरणन के प्रभावों का अध्ययन करने को जिस विधि को निकाला, उस सी.एल.बी (C.L.B.) विधि कहते हैं। इस विधि द्वारा ड्रोसोफिला के एक्स-गुणसूत्रों में नए घातक (lethal) जोनों की खोज की जाती है।
सी.एल.बी. का तात्पर्य है : सी = cross-over suppressor. एल = recessive lethal तथा बी = bar eyes। मादा ड्रासाफ़िला के एक एक्स-गुणसूत्र में उपर्युक्त तीन विशेषताएँ (एक विनिमयज निरोधक जीन, एक अप्रभावी घातक जीन और बार नेत्रों का प्रभावी जीन) छाँटकर अलग कर ली जाती हैं और दूसरे एक्स-गुणसूत्र को सामान्य ही रखा जाता है। नर मक्खियों में एक्स-किरणें आरोपित कर उन्हें सी.एल.बी. मक्खियों से मैथुनरत किया जाता है। इनसे उत्पन्न बार मादा बच्चों में सी.एल.बी. गुणसूत्र रहते हैं, जो माता से प्राप्त होते हैं। पिता से उन्हें अभिकर्मित एक्स-गुणसूत्र मिलते हैं। इन बार मादाओं का किसी भी नर से संयोग कराने पर जो संतानें उत्पन्न होती हैं, उनमें आधे पुत्रों (द्वितीय पीढ़ी) में सी.एल.बी. गुण सूत्र होते हैं; यदि ये एक्स-सूत्र घातक हुए तो ये भी सभी पुत्र मर जाते हैं। किंतु सभी मादासंततियाँ जीवित रहती हैं, क्योंकि उनमें सामान्य एक्स-सूत्र रहता है। इस प्रकार, इस विधि द्वारा स्पष्ट और अस्पष्ट दोनों प्रकार के उत्परिवर्तनों का अध्ययन किया जाता है।
एक्स-किरण का प्रभाव उसकी मात्रा पर निर्भर करता है। मुलर ने मात्रा में वृद्धि करके उत्परिवर्तन दर में वृद्धि का प्रभाव देखा था। आगे चलकर उनके शिष्य ओलिवर ने और भी प्रयोग किए और अनेक प्रकार के तथ्य उपस्थित किए। एक्स-किरणों का प्रभाव इतना अधिक इसलिए पड़ता है कि वे गुणसूत्रों को भंग कर देती हैं, जिनसे भाँति भाँति के प्रभाव दृष्टिगोचर होते हैं। इनके अतंर्गत् स्थानांतरण प्रतिलोमन (inversion), डिलीशन (delition) द्विगुणन आदि समाविष्ट हैं। सच पूछिए तो किरणन, चाहे वह किसी भी प्रकार का हो, तभी उत्परिवर्तन करता है, जब उसमें आयन उत्पन्न करने की क्षमता हो। उदाहरण के लिए, रेडियम में तीन प्रकार के विकिरण (अल्फा, बीटा, गामा) उत्पन्न होते हैं। लैन्सन ने गामा विकिरण पर कई सफल प्रयोग किए हैं।
अल्ट्रावायलेट प्रकश- अल्टेनवर्ग ने अल्ट्रावायलेट प्रकाशकिरणों के उत्परिवर्तित प्रभावों के ड्रोसोफ़िला पर प्रयोग किए हैं। उन्होंने वयस्क मक्खियों के स्थान पर उनके अंडों पर किरणन किया। इन किरणों का प्रभाव उच्चतर जंतुओं और मनुष्यों पर न पड़कर केवल बहुत कोमल जंतुओं और जनन कोशिकाओं पर ही पड़ सकता है। इनकी शक्ति बहुत मंद तथा न्यून होती है। जब तक इन्हें विशेष रसायनों से संलग्न नहीं किया जाता, तब तक इनकी कार्यक्षमता हीन ही रहती है। इन किरणों का प्रभाव एक्स-किरणों की ही भॉति होता है और ये भी जीन उत्परिवर्तन तथा गुणसूत्रीय विपथन (aberrations) दोनों उत्पन्न करते हैं। आयनकारक विकिरण के फलस्वरूप गुणसूत्रों में यदि एकल भंग (single break) होता है, तो ऊतकों का सूक्ष्म अध्ययन आवश्यक होगा। किंतु, जब दोहरा भंग होता है और वह भी एक ही गुणसूत्र में, जब उनसे हीनता (deficiency) और प्रतिलोमन (inversion) उत्पन्न होगा। यही दोहरा भंग यदि असमजात (non-homologous) गुणसूत्रों में होता है तो स्थानांतरण उत्पन्न होगा।
उत्परिवर्तनों के महत्त्व के निम्नलिखित पक्ष हो सकते हैं-
उद्विकासीय महत्व - आरंभ में ही हमने देखा है कि सृष्टि के जीवजगत् में विविधता दृष्टिगोचर होती है। उद्विकास सिद्धांत (evolution theory) की मान्यता है कि यह सारा दृश्यजगत् अणु से ही महान हुआ है। अर्थात् प्रत्येक महान की इकाई कोई न कोई अणु है। यही अणु एक से दो, दो से चार, आठ, सोलह और अनंत तथा अकथ्य और अकल्पनीय गुणनों के दौर से गुजरता गुजरता दैत्याकार रूप धारण कर लेता है। जीवजगत् की विविधता के संबंध में कोई व्यवस्थित व्याख्या उपलब्ध नहीं है, तथापि इस संबंध में अब तक जो कुछ कहा सुना गया है, उसका सारांश इस प्रकार है-
जीवोत्पत्ति की आदिम अवस्थाओं में पृथ्वी का वातावरण अनिश्चित और भौगोलिक परिवेश आज जैसा नहीं था। भौतिक और रासायनिक दृष्टि से तत्कालीन धरती विशेष प्रकार के संक्रमण काल से होकर गुजर रही थी। वायुमंडलीय प्रभावों से जीव जंतुओं की आकृति, आकार, वर्ण, आदि पूर्णरूपेण प्रभावित थे। प्रकृति जीवों को संरक्षण प्रदान करने की स्थिति में नहीं थी। केवल वे ही जीव जीवित रह पाते थे, जो सबल थे। वायुमंडलीय प्रभाव शक्तिशाली होने के कारण कोमल जीवों के गुणसूत्रों में परिवर्तन हो जाना सामान्य बात रही होगी। इससे नए नए प्रकार के जीव जंतुओं का विकास तेजी से हुआ होगा। यही कारण है कि जिस तेजी से वे फैले उसी गति से समाप्त होते गए। उनका चिह्न, उनको सत्ता का प्रमाण, जीवाश्मों (fossils) में सिमटकर रह गए।
गुणसूत्रों में परिवर्तन के फलस्वरूप जंतुकुलों में ही नहीं, स्पीशीज़ तक में विविधता आ गई। यह विविधता आज तक वर्तमान है और अब इसमें परिवर्तन की संभावना (कम से कम, प्राकृतिक रूप से) कम ही है। कारण यह है कि आज का प्राकृतिक पर्यावरण पर्याप्त दूषित हो गया है और भाँति भाँति के तकनीकी तथा वैज्ञानिकी आविष्कारों द्वारा मनुष्य प्रकृति को अपनी चेरी बनाता जा रहा है। यही कारण है कि अब उत्परिवर्तन के लिए कृत्रिम साधनों का प्रयोग करना पड़ता है।
2. सामाजिक महत्व- कृत्रिम साधनों द्वारा उत्परिवर्तन कराकर जीव, चिकित्सा और कृषि वैज्ञानिक नस्लसुधार, रोगमार्जन, उत्पादनवृद्धि और मानवकल्याण की अनेक योजनाओं को क्रियान्वित कर रहे हैं। कृषि क्षेत्र में पशुओं तथा अनाजों का नस्लसुधार और उत्पादनवृद्धि उत्परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण पक्ष प्रमाणित हुई है। आनुवंशिकी की एक नवीन शाखा सुजनन विज्ञान (eugenics) को वैज्ञानिक तेजी से विकसित करने में लगे हुए हैं।
सुजनन विज्ञान के दो पक्ष हैं: (1) सकारात्मक तथा (2) नकारात्मक। सकारात्मक सुजनन विज्ञान का लक्ष्य अच्छी और मनचाही संतति उत्पन्न करना है। इसके लिए ऐसे निर्दोष माता पिता (जनक) का चयन करना होगा, जैसा हम चाहते हैं। इनके संयोग से जो संततियाँ उत्पन्न होंगी उनकी सूक्ष्म एवं गंभीरतापूर्वक जाँच कर उन्हीं का पुन: संयोग कराया जाएगा। सामाजिक सांस्कृतिक मर्यादाओं की उस समय क्या स्थिति होगी, यह तो समय की बतलाएगा।
नकारात्मक सुजनन विज्ञान इसी योजना का दूसरा पक्ष है। इसके अतंर्गत ऐसे आनुवंशिक रोगों से ग्रस्त मनुष्यों का चुनाव किया जाएगा, जो सामाजिक दृष्टि से अवांछनीय समझे जाएँगे। उनके दोषों को जीन उत्परिवर्तन की कृत्रिम विधियों द्वारा नष्ट करने का प्रयास किया जाएगा। अभी तक वैज्ञानिक इन योजनाओं के सैद्धांतिक पक्ष पर ही ध्यान देने में लगे हैं, इनका व्यावहारिक प्रयोग अभी भविष्य के गर्भ में हैं। दूसरी और औद्योगिक और तकनीकी आविष्कारों के प्रसार के कारण वातावरण नम एवं जलदूषित होता चला जा रहा है। अणु बमों के परीक्षणों, अनावश्यक युद्धों में घातक बमों के प्रयोगों के कारण विकिरण प्रभाव धीरे धीरे फैलते जा रहे हैं। यदि इन पर नियंत्रण नहीं रखा गया तो वह दिन दूर नहीं जब जीव इस धरती से लुप्त हो जाएँगे और पृथ्वी भी चंद्रमा की भॉति निर्जन हो जाएगी। चिकित्सा के क्षेत्र में एक्स-किरणों तथा अन्य किरणों और प्रकाशों के प्रयोग के भी घातक एवं मंद प्रभावों की ओर लोगों का ध्यान जाने लगा है। चिकित्सकों के मन में यह आशंका घर करती जा रही है कि तात्कालिक लाभ करनेवाली चिकित्साविधियाँ कहीं भयानक और घातक न हो जाएँ।
जनसंख्या आनुवंशिकी के नाम से विज्ञान की एक नई शाखा तेजी से विकसित हो रही है। इसके अंतर्गत मानवकल्याण की अनेक समस्याओं पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जा रहा है। आज का विश्व बहुत सीमित एवं संकुचित होता जा रहा है। एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप तक पहूँचने में अब कुछ घंटों का ही समय लगता है। अतंरराष्ट्रीय आवागमन, परिव्रजन, युद्ध, शरणार्थी जीवन आदि के कारण मनुष्य अत्यधिक घुलते मिलते जा रहे हैं। इस घालमेल के परिणामों का अध्ययन करना इस नई शाखा का मुख्य लक्ष्य है। उत्परिवर्तन के लिए संकरण (cross-breeding) की एक ऐसी विधि आज वैज्ञानिकों को सुलभ है, जिसका प्रयोग वे धड़ल्ले से करते जा रहे हैं। इसका परिणाम आगे क्या होगा, यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है।
मनुष्य के कल्याण के लिए जनसंख्या आनुवंशिकी क्या कुछ कर पाएगी, यह अभी से कुछ नहीं कहा जा सकता। विश्व की जनसंख्या जिस द्रुत गति से बढ़ती जा रही है और भोजन तथा आवास की समस्याएँ जितनी गंभीर बनती जा रही है, उनसे आशंका उत्पन्न होती है कि कहीं डाइनोसोरों, उड़नदैत्यों (flving demons) आदि की भाँति मनुष्य भी एक न एक दिन पृथ्वी से लुप्त (extinct) हो जाए। उत्परिवर्तन, जीन विनिमय, संकरण और अंगों के प्रतिरोपण, कृत्रिम गर्भाधान, कृत्रिम उर्वरक द्वारा अन्नोत्पादनवृद्धि शुद्ध और असली घी, दूघ, तेल आदि के स्थान पर वनस्पति, दुग्धचूर्ण और कपास, ऊन, रेशम, पाट आदि के वस्त्रों के स्थान पर नाइलन, टेरिलोन पोलिएस्टर, काँच, प्लास्टिक आदि का प्रयोग जिस द्रुत गति से हो रहा है उससे भाँति-भाँति आशंकाओं का उठना स्वाभाविक ही होगा।
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