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हिन्दू श्रुति ग्रंथों की कविता को पारम्परिक रूप से कहा जाता है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद संहिता में लगभग १०५५२ मंत्र हैं। स्वयं एक मंत्र है और ऐसा माना जाता है कि यह पृथ्वी पर उत्पन्न प्रथम ध्वनि है।

इसका शाब्दिक अर्थ 'विचार' या 'चिन्तन' होता है [1] । 'मंत्रणा', और 'मंत्री' इसी मूल से बने शब्द हैं । मन्त्र भी एक प्रकार की वाणी है, परन्तु साधारण वाक्यों के समान वे हमको बन्धन में नहीं डालते, बल्कि बन्धन से मुक्त करते हैं।[2]

काफी चिन्तन-मनन के बाद किसी समस्या के समाधान के लिये जो उपाय/विधि/युक्ति निकलती है उसे भी सामान्य तौर पर मंत्र कह देते हैं। "षडकर्णो भिद्यते मंत्र" (छः कानों में जाने से मंत्र नाकाम हो जाता है) - इसमें भी मंत्र का यही अर्थ है।

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आध्यात्मिक

परिभाषा: मंत्र वह ध्वनि है जो अक्षरों एवं शब्दों के समूह से बनती है। यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड एक तरंगात्मक ऊर्जा से व्याप्त है जिसके दो प्रकार हैं - नाद (शब्द) एवं प्रकाश। आध्यात्मिक धरातल पर इनमें से शब्कोई भी एक प्रकार की ऊर्जा दूसरे के बिना सक्रिय नहीं होती। मंत्र मात्र वह ध्वनियाँ नहीं हैं जिन्हें हम कानों से सुनते हैं, यह ध्वनियाँ तो मंत्रों का लौकिक स्वरुप भर हैं।

ध्यान की उच्चतम अवस्था में साधक का आध्यात्मिक व्यक्तित्व पूरी तरह से प्रभु के साथ एकाकार हो जाता है जो अन्तर्यामी है। वही सारे ज्ञान एवं 'शब्द' (ॐ) का स्रोत है। प्राचीन ऋषियों ने इसे शब्द-ब्रह्म की संज्ञा दी - वह शब्द जो साक्षात् ईश्वर है! उसी सर्वज्ञानी शब्द-ब्रह्म से एकाकार होकर साधक मनचाहा ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

‘‘मननात त्रायते यस्मात्तस्मान्मंत्र उदाहृतः’’, अर्थात जिसके मनन, चिंतन एवं ध्यान द्वारा संसार के सभी दुखों से रक्षा, मुक्ति एवं परम आनंद प्राप्त होता है, वही मंत्र है। ‘‘मन्यते ज्ञायते आत्मादि येन’’ अर्थात जिससे आत्मा और परमात्मा का ज्ञान (साक्षात्कार) हो, वही मंत्र है। ‘‘मन्यते विचार्यते आत्मादेशो येन’’ अर्थात जिसके द्वारा आत्मा के आदेश (अंतरात्मा की आवाज) पर विचार किया जाए, वही मंत्र है। ‘‘मन्यते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थिताःदेवताः’’ अर्थात् जिसके द्वारा परमपद में स्थित देवता का सत्कार (पूजन/हवन आदि) किया जाए-वही मंत्र है। ‘‘मननं विश्वविज्ञानं त्राणं संसारबन्धनात्। यतः करोति संसिद्धो मंत्र इत्युच्यते ततः।।’’ अर्थात यह ज्योतिर्मय एवं सर्वव्यापक आत्मतत्व का मनन है और यह सिद्ध होने पर रोग, शोक, दुख, दैन्य, पाप, ताप एवं भय आदि से रक्षा करता है, इसलिए मंत्र कहलाता है। ‘‘मननात्तत्वरूपस्य देवस्यामित तेजसः। त्रायते सर्वदुःखेभ्यस्स्तस्मान्मंत्र इतीरितः।।’’ अर्थात जिससे दिव्य एवं तेजस्वी देवता के रूप का चिंतन और समस्त दुखों से रक्षा मिले, वही मंत्र है। ‘‘मननात् त्रायते इति मंत्रः’’ अर्थात जिसके मनन, चिंतन एवं ध्यान आदि से पूरी-पूरी सुरक्षा एवं सुविधा मिले वही मंत्र है। ‘‘प्रयोगसमवेतार्थस्मारकाः मंत्राः’’ अर्थात अनुष्ठान और पुरश्चरण के पूजन, जप एवं हवन आदि में द्रव्य एवं देवता आदि के स्मारक और अर्थ के प्रकाशक मंत्र हैं। ‘‘साधकसाधनसाध्यविवेकः मंत्रः।’’ अर्थात साधना में साधक, साधन एवं साध्य का विवेक ही मंत्र कहलाता है। ‘‘सर्वे बीजात्मकाः वर्णाः मंत्राः ज्ञेया शिवात्मिकाः‘‘ अर्थात सभी बीजात्मक वर्ण मंत्र हैं और वे शिव का स्वरूप हैं। ‘‘मंत्रो हि गुप्त विज्ञानः’’ अर्थात मंत्र गुप्त विज्ञान है, उससे गूढ़ से गूढ़ रहस्य प्राप्त किया जा सकता है।

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मंत्र की उत्पत्ति

मंत्र की उत्पत्ति भय से या विश्वास से हुई है। आदि काल में मंत्र और धर्म में बड़ा संबंध था। प्रार्थना को एक प्रकार का मंत्र माना जाता था। मनुष्य का ऐसा विश्वास था कि प्रार्थना के उच्चारण से कार्यसिद्धि हो सकती है। इसलिये बहुत से लोग प्रार्थना को मंत्र समझते थे।

जब मनुष्य पर कोई आकस्मिक विपत्ति आती थी तो वह समझता था कि इसका कारण कोई अदृश्य शक्ति है। वृक्ष का टूट पड़ना, मकान का गिर जाना, आकस्मिक रोग हो जाना और अन्य ऐसी घटनाओं का कारण कोई भूत या पिशाच माना जाता था और इसकी शांति के लिये मंत्र का प्रयोग किया जाता था। आकस्मिक संकट बार-बार नहीं आते। इसलिये लोग समझते थे कि मंत्र सिद्ध हो गया। प्राचीन काल में वैद्य ओषधि और मंत्र दोनों का साथ-साथ प्रयोग करता था। ओषधि को अभिमंत्रित किया जाता था और विश्वास था कि ऐसा करने से वह अधिक प्रभावोत्पादक हो जाती है। कुछ मंत्रप्रयोगकर्ता (ओझा) केवल मंत्र के द्वारा ही रोगों का उपचार करते थे। यह इनका व्यवसाय बन गया था।

मंत्र का प्रयोग सारे संसार में किया जाता था और मूलत: इसकी क्रियाएँ सर्वत्र एक जैसी ही थीं। विज्ञान युग के आरंभ से पहले विविध रोग विविध प्रकार के राक्षस या पिशाच माने जाते थे। अत: पिशाचों का शमन, निवारण और उच्चाटन किया जाता था। मंत्र में प्रधानता तो शब्दों की ही थी परंतु शब्दों के साथ क्रियाएँ भी लगी हुई थीं। मंत्रोच्चारण करते समय ओझा या वैद्य हाथ से, अंगुलियों से, नेत्र से और मुख से विधि क्रियाएँ करता था। इन क्रियाओं में त्रिशूल, झाड़ू, कटार, वृक्षविशेष की टहनियों और सूप तथा कलश आदि का भी प्रयोग किया जाता था। रोग की एक छोटी सी प्रतिमा बनाई जाती थी और उसपर प्रयोग होता था। इसी प्रकार शत्रु की प्रतिमा बनाई जाती थी और उसपर मारण, उच्चाटन आदि प्रयोग किए जाते थे। ऐसा विश्वास था कि ज्यों-ज्यों ऐसी प्रतिमा पर मंत्रप्रयोग होता है त्यों-त्यों शत्रु के शरीर पर इसका प्रभाव पड़ता जाता है। पीपल या वट वृक्ष के पत्तों पर कुछ मंत्र लिखकर उनके मणि या ताबीज बनाए जाते थै जिन्हें कलाई या कंठ में बाँधने से रोगनिवारण होता, भूत प्रेत से रक्षा होती और शत्रु वश में होता था। ये विधियाँ कुछ हद तक इस समय भी प्रचलित हैं। संग्राम के समय दुंदुभी और ध्वजा को भी अभिमंत्रित किया जाता था और ऐसा विश्वास था कि ऐसा करने से विजय प्राप्त होती है।

ऐसा माना जाता था कि वृक्षों में, चतुष्पथों पर, नदियों में, तालाबों में और कितने ही कुओं में तथा सूने मकानों में ऐसे प्राणी निवास करते हैं जो मनुष्य को दु:ख या सुख पहुँचाया करते हैं और अनेक विषम स्थितियाँ उनके कोप के कारण ही उत्पन्न हो जाया करती हैं। इनका शमन करने के लिये विशेष प्रकार के मंत्रों और विविधि क्रियाओं का उपयोग किया जाता था और यह माना जाता था कि इससे संतुष्ट होकर ये प्राणी व्यक्तिविशेष को तंग नहीं करते। शाक्त देव और देवियाँ कई प्रकार की विपत्तियों के कारण समझे जाते थे। यह भी माना जाता था कि भूत, पिशाच और डाकिनी आदि का उच्चाटन शाक्त देवों के अनुग्रह से हो सकता है। इसलिये ऐसे देवों का मंत्रों के द्वारा आह्वान किया जाता था। इनकी बलि दी जाती थी और जागरण किए जाते थे।

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मारण मंत्र

अपने शत्रु पर ओझा के द्वारा लोग मारण मंत्र का प्रयोग करवाया करते थे। इसमें मूठ नामक मंत्र का प्रचार कई सदियों तक रहा। इसकी विधि क्रियाएँ थीं लेकिन सबका उद्देश्य यह था कि शत्रु का प्राणांत हो। इसलिये मंत्रप्रयोग करनेवाले ओझाओं से लोग बहुत भयभीत रहा करते थे और जहाँ परस्पर प्रबल विरोध हुआ वहीं ऐसे लोगों की माँग हुआ करती थी। जब किसी व्यक्ति को कोई लंबा या अचानक रोग होता था तो संदेह हुआ करता था कि उस पर मंत्र का प्रयोग किया गया है। अत: उसके निवारण के लिये दूसरा पक्ष भी ओझा को बुलाता था और उससे शत्रु के विरूद्ध मारण या उच्चाटन करवाया करता था। इस प्रकार दोनों ओर से मंत्रयुद्ध हुआ करता था।

जब संयोगवश रोग की शांति या शत्रु की मृत्यु हो जाती थी तो समझा जाता था कि यह मंत्रप्रयोग का फल है और ज्यों-ज्यों इस प्रकार की सफलताओं की संख्या बढ़ती जाती थी त्यों-त्यों ओझा के प्रति लागों का विश्वास द्दढ़ होता जाता था और मंत्रसिद्धि का महत्व बढ़ जाता था। जब असफलता होती थी तो लोग समझते थे कि मंत्र का प्रयोग भली भाँति नहीं किया गया। ओझा लोग ऐसी क्रियाएं करते थे जिनसे प्रभावित होकर मनुष्य निश्चेष्ट हो जाता था। क्रियाओं को इस समय हिप्नोटिज्म कहा जाता है।

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मंत्रग्रन्थ

मंत्र, उनके उच्चारण की विधि, विविधि चेष्टाएँ, नाना प्रकार के पदार्थो का प्रयोग भूत-प्रेत और डाकिनी शाकिनी आदि, ओझा, मंत्र, वैद्य, मंत्रौषध आदि सब मिलकर एक प्रकार का मंत्रशास्त्र बन गया है और इस पर अनेक ग्रंथों की रचना हो गई है।

मंत्रग्रंथों में मंत्र के अनेक भेद माने गए हैं। कुछ मंत्रों का प्रयोग किसी देव या देवी का आश्रय लेकर किया जाता है और कुछ का प्रयोग भूत प्रेत आदि का आश्रय लेकर। ये एक विभाग हैं। दूसरा विभाग यह है कि कुछ मंत्र भूत या पिशाच के विरूद्ध प्रयुक्त होते हैं और कुछ उनकी सहायता प्राप्त करने के हेतु। स्त्री और पुरुष तथा शत्रु को वश में करने के लिये जिन मंत्रों का प्रयोग होता है वे वशीकरण मंत्र कहलाते हैं। शत्रु का दमन या अंत करने के लिये जो मंत्रविधि काम में लाई जाती है वह मारण कहलाती है। भूत को उनको उच्चाटन या शमन मंत्र कहा जाता है।

लोगों का विश्वास है कि ऐसी कोई कठिनाई, कोई विपत्ति और कोई पीड़ा नहीं है जिसका निवारण मंत्र के द्वारा नहीं हो सकता और कोई ऐसा लाभ नहीं है जिसकी प्राप्ति मंत्र के द्वारा नहीं हो सकती।

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इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

सन्दर्भ

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