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बौद्ध मंदिर विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
महाबोधि विहार या महाबोधि मन्दिर, बोध गया स्थित प्रसिद्ध बौद्ध विहार है। यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर घोषित किया है।यह विहार उसी स्थान पर खड़ा है जहाँ गौतम बुद्ध ने ईसा पूर्व 6वी शताब्धिं में ज्ञान प्राप्त किया था।
महाबोधि विहार | |
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विश्व धरोहर सूची में अंकित नाम | |
देश | भारत |
प्रकार | सांस्कृतिक |
मानदंड | i, ii, iii, iv, vi |
सन्दर्भ | 1056 |
युनेस्को क्षेत्र | एशिया-प्रशान्त |
शिलालेखित इतिहास | |
शिलालेख | 2002 (26th सत्र) |
यह विहार मुख्य विहार या महाबोधि विहार के नाम से भी जाना जाता है। इस विहार की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तूप के समान है। इस विहार में गौतम बुद्ध की एक बहुत बड़ी मूर्त्ति स्थापित है। यह मूर्त्ति पदमासन की मुद्रा में है। यहां यह अनुश्रुति प्रचिलत है कि यह मूर्त्ति उसी जगह स्थापित है जहां गौतम बुद्ध को ज्ञान बुद्धत्व (ज्ञान) प्राप्त हुआ था। विहार के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग बनी हुई है। ये रेलिंग ही बोधगया में प्राप्त सबसे पुराना अवशेष है। इस विहार परिसर के दक्षिण-पूर्व दिशा में प्राकृतिक दृश्यों से समृद्ध एक पार्क है जहां बौद्ध भिक्षु ध्यान साधना करते हैं। आम लोग इस पार्क में विहार प्रशासन की अनुमति लेकर ही प्रवेश कर सकते हैं।
इस विहार परिसर में उन सात स्थानों को भी चिह्नित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सात सप्ताह व्यतीत किया था। जातक कथाओं में उल्लिखित बोधि वृक्ष भी यहां है। यह एक विशाल पीपल का वृक्ष है जो मुख्य विहार के पीछे स्थित है। बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। वर्तमान में जो बोधि वृक्ष वह उस बोधि वृक्ष की पांचवीं पीढी है। विहार समूह में सुबह के समय घण्टों की आवाज मन को एक अजीब सी शांति प्रदान करती है।
मुख्य विहार के पीछे बुद्ध की लाल बलुआ पत्थर की 7 फीट ऊंची एक मूर्त्ति है। यह मूर्त्ति वज्रासन मुद्रा में है। इस मूर्त्ति के चारों ओर विभिन्न रंगों के पताके लगे हुए हैं जो इस मूर्त्ति को एक विशिष्ट आकर्षण प्रदान करते हैं। कहा जाता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इसी स्थान पर सम्राट अशोक ने हीरों से बना राजसिहांसन लगवाया था और इसे पृथ्वी का नाभि केंद्र कहा था। इस मूर्त्ति की आगे भूरे बलुए पत्थर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्ह बने हुए हैं। बुद्ध के इन पदचिन्हों को धर्मचक्र प्रर्वतन का प्रतीक माना जाता है।
बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद दूसरा सप्ताह इसी बोधि वृक्ष के आगे खड़ी अवस्था में बिताया था। यहां पर बुद्ध की इस अवस्था में एक मूर्त्ति बनी हुई है। इस मूर्त्ति को 'अनिमेश लोचन' कहा जाता है। मुख्य विहार के उत्तर पूर्व में अनिमेश लोचन चैत्य बना हुआ है।
मुख्य विहार का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद तीसरा सप्ताह व्यतीत किया था। अब यहां पर काले पत्थर का कमल का फूल बना हुआ है जो बुद्ध का प्रतीक माना जाता है।
महाबोधि विहार के उत्तर पश्चिम भाग में एक छतविहीन भग्नावशेष है जो रत्नाघारा के नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद चौथा सप्ताह व्यतीत किया था। दन्तकथाओं के अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली। प्रकाश की इन्हीं रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा यहां लगे अपने पताके में किया है।
बुद्ध ने मुख्य विहार के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर पर स्थित अजपाला-निग्रोधा वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति के बाद पांचवा सप्ताह व्यतीत किया था। बुद्ध ने छठा सप्ताह महाबोधि विहार के दायीं ओर स्थित मूचालिंडा क्षील के नजदीक व्यतीत किया था। यह क्षील चारों तरफ से वृक्षों से घिरा हुआ है। इस क्षील के मध्य में बुद्ध की मूर्त्ति स्थापित है। इस मूर्त्ति में एक विशाल सांप बुद्ध की रक्षा कर रहा है। इस मूर्त्ति के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार बुद्ध प्रार्थना में इतने तल्लीन थे कि उन्हें आंधी आने का ध्यान नहीं रहा। बुद्ध जब मूसलाधार बारिश में फंस गए तो सांपों का राजा मूचालिंडा अपने निवास से बाहर आया और बुद्ध की रक्षा की।
इस विहार परिसर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृक्ष है। बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना सांतवा सप्ताह इसी वृक्ष के नीचे व्यतीत किया था। यहीं बुद्ध दो बर्मी (बर्मा का निवासी) व्यापारियों से मिले थे। इन व्यापारियों ने बुद्ध से आश्रय की प्रार्थना की। इन प्रार्थना के रूप में "बुद्धं शरणं गच्छामि" (मैं बुद्ध को शरण जाता हूँ) का उच्चारण किया। इसी के बाद से यह प्रार्थना प्रसिद्ध हो गई।
यह महाबोधि विहार के पश्चिम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। यह बोधगया का सबसे बड़ा और पुराना मठ है, इसे 1934 ई. में बनाया गया था। बर्मी विहार (गया-बोधगया रोड पर निरंजना नदी के तट पर स्थित) 1936 ई. में बना था। इस विहार में दो प्रार्थना कक्ष है। इसके अलावा इसमें बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा भी है। इससे सटा हुआ ही थाई मठ है (महाबोधि विहार परिसर से 1किलोमीटर पश्िचम में स्थित)। इस मठ के छत की सोने से कलई की गई है। इस कारण इसे गोल्डेन मठ कहा जाता है। इस मठ की स्थापना थाईलैंड के राजपरिवार ने बौद्ध की स्थापना के 2500 वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में किया था। इंडोसन-निप्पन-जापानी मंदिर (महाबोधि मंदिर परिसर से 11.5 किलोमीटर दक्षिण-पश्िचम में स्थित) का निर्माण 1972-73 में हुआ था। इस विहार का निर्माण लकड़ी के बने प्राचीन जापानी विहारों के आधार पर किया गया है। इस विहार में बुद्ध के जीवन में घटी महत्वपूर्ण घटनाओं को चित्र के माध्यम से दर्शाया गया है। चीनी विहार (महाबोधि मंदिर परिसर के पश्चिम में पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित) का निर्माण 1945 ई. में हुआ था। इस विहार में सोने की बनी बुद्ध की एक प्रतिमा स्थापित है। इस विहार का पुनर्निर्माण 1997 ई. किया गया था। जापानी विहार के उत्तर में भूटानी मठ स्थित है। इस मठ की दीवारों पर नक्काशी का बेहतरीन काम किया गया है। यहां सबसे नया बना विहार वियतनामी विहार है। यह विहार महाबोधि विहार के उत्तर में 5 मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है। इस विहार का निर्माण 2002 ई. में किया गया है। इस विहार में बुद्ध के शांति के अवतार अवलोकितेश्वर की मूर्त्ति स्थापित है।
इन मठों और विहारों के अलावा के कुछ और स्मारक भी यहां प्रसिद्ध है। इन्हीं में से एक है भारत की सबसे ऊंचीं बुद्ध मूर्त्ति जो कि 6 फीट ऊंचे कमल के फूल पर स्थापित है। यह पूरी प्रतिमा एक 10 फीट ऊंचे आधार पर बनी हुई है। स्थानीय लोग इस मूर्त्ति को 80 फीट ऊंचा मानते हैं।
बोधगया आने वालों को राजगीर भी जरुर घूमना चाहिए। यहां का विश्व शांति स्तूप देखने में काफी आकर्षक है। यह स्तूप ग्रीधरकूट पहाड़ी पर बना हुआ है। इस पर जाने के लिए रोपवे बना हुआ। इसका शुल्क 25 रु. है। इसे आप सुबह 8 बजे से दोपहर 12.50 बजे तक देख सकते हैं। इसके बाद इसे दोपहर 2 बजे से शाम 5 बजे तक देखा जा सकता है।
शांति स्तूप के निकट ही वेणु वन है। कहा जाता है कि बुद्ध एक बार यहां आए थे।
राजगीर में ही प्रसद्धि सप्तपर्णी गुफा है जहां बुद्ध के निर्वाण के बाद पहला बौद्ध सम्मेलन का आयोजन किया गया था। यह गुफा राजगीर बस पड़ाव से दक्षिण में गर्म जल के कुंड से 1000 सीढियों की चढाई पर है। बस पड़ाव से यहां तक जाने का एक मात्र साधन घोड़ागाड़ी है जिसे यहां टमटम कहा जाता है। टमटम से आधे दिन घूमने का शुल्क 100 रु. से लेकर 300 रु. तक है। इन सबके अलावा राजगीर मे जरासंध का अखाड़ा, स्वर्णभंडार (दोनों स्थल महाभारत काल से संबंधित है) तथा विरायतन भी घूमने लायक जगह है। घूमने का सबसे अच्छा समय: ठंढे के मौसम में
यह स्थान राजगीर से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। प्राचीन काल में यहां विश्व प्रसिद्ध नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था। अब इस विश्वविद्यालय के अवशेष ही दिखाई देते हैं। लेकिन हाल में ही बिहार सरकार द्वारा यहां अंतरराष्ट्रीय विश्व विद्यालय स्थापित करने की घोषणा की गई है जिसका काम प्रगति पर है। यहां एक संग्रहालय भी है। इसी संग्रहालय में यहां से खुदाई में प्राप्त वस्तुओं को रखा गया है।
नालन्दा से 5 किलोमीटर की दूरी पर प्रसिद्ध जैन तीर्थस्थल पावापुरी स्थित है। यह स्थल भगवान महावीर से संबंधित है। यहां महावीर एक भव्य मंदिर है। नालन्दा-राजगीर आने पर इसे जरुर घूमना चाहिए।
नालन्दा से ही सटा शहर बिहार शरीफ है। मध्यकाल में इसका नाम ओदन्तपुरी था। वर्तमान में यह स्थान मुस्लिम तीर्थस्थल के रूप में प्रसिद्ध है। यहां मुस्लिमों का एक भव्य मस्जिद बड़ी दरगाह है। बड़ी दरगाह के नजदीक लगने वाला रोशनी मेला मुस्लिम जगत में काफी प्रसिद्ध है। बिहार शरीफ घूमने आने वाले को मनीराम का अखाड़ा भी अवश्य घूमना चाहिए। स्थानीय लोगों का मानना है अगर यहां सच्चे दिल से कोई मन्नत मांगी जाए तो वह जरुर पूरी होती है।
गया, राजगीर, नालन्दा, पावापुरी तथा बिहार शरीफ जाने के लिए सबसे अच्छा साधन ट्रेन है। इन स्थानों को घूमाने के लिए भारतीय रेलवे द्वारा एक विशेष ट्रेन बौद्ध परिक्रमा चलाई जाती है। इस ट्रेन के अलावे कई अन्य ट्रेन जैसे श्रमजीवी एक्सप्रेस, पटना राजगीर इंटरसीटी एक्सप्रेस तथा पटना राजगीर पसेंजर ट्रेन भी इन स्थानों को जाती है। इसके अलावे सड़क मार्ग द्वारा भी यहां जाया जा सकता है।
नजदीकी हवाई अड्डा गया (14 किलोमीटर/ 20 मिनट)। इंडियन गया से कलकत्ता और बैंकाक के साप्ताहिक उड़ान संचालित करती है। टैक्सी शुल्क: 200 से 250 रु. के लगभग।
नजदीकी रेलवे स्टेशन गया जंक्शन। गया जंक्शन से बोध गया जाने के लिए टैक्सी (शुल्क 200 से 300 रु.) तथा ऑटो रिक्शा (शुल्क 100 से 150 रु.) मिल जाता है।
गया, पटना, नालन्दा, राजगीर, वाराणसी तथा कलकत्ता से बोध गया के लिए बसें चलती है।
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