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फ्रांस और आगामी विश्व में लोकतान्त्रिक संघर्ष विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
फ्रांसीसी क्रान्ति (फ्रेंच: 1789-2009) फ्रांस के इतिहास Archived 2023-06-22 at the वेबैक मशीन की राजनैतिक और सामाजिक उथल-पुथल एवं आमूल परिवर्तन की अवधि थी जो 1789 से 1799 तक चली। बाद में, ने फ्रांसीसी साम्राज्य के विस्तार द्वारा कुछ अंश तक इस क्रान्ति को आगे बढ़ाया। क्रान्ति के फलस्वरूप राजा को गद्दी से हटा दिया गया, एक गणतंत्र की स्थापना हुई, खूनी संघर्षों का दौर चला, और अन्ततः नेपोलियन की तानाशाही समाप्त हुई जिससे इस क्रान्ति के अनेकों मूल्यों का पश्चिमी यूरोप में तथा उसके बाहर प्रसार हुआ। इस क्रान्ति ने आधुनिक इतिहास की दिशा बदल दी। इससे विश्व भर में पूर्ण राजतन्त्र का ह्रास होना शुरू हुआ, नये गणतन्त्र एवं उदार प्रजातन्त्र बने।
महापरिवर्तनों ने पाश्चात्य सभ्यता को हिला दिया उसमें फ्रांस की राज्यक्रांति सर्वाधिक नाटकीय और जटिल साबित हुई। इस क्रांति ने केवल फ्रांस को ही नहीं अपितु समस्त यूरोप के जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया। फ्रांसीसी क्रांति को पूरे विश्व के इतिहास में मील का पत्थर कहा जाता है। इस क्रान्ति ने अन्य यूरोपीय देशों में भी स्वतन्त्रता की ललक कायम की और अन्य देश भी राजशाही से मुक्ति के लिए संघर्ष करने लगे। इसने यूरोपीय राष्ट्रों सहित एशियाई देशों में राजशाही और निरंकुशता के खिलाफ़ वातावरण तैयार किया। जिसके कारण ही क्रांति में परिवर्तन हुआ
फ्रांसीसी क्रांति के कारण
निरंकुशता अपनी पराकाष्ठा पर थी। उसने कहा- "मैं ही राज्य हूँ मेरे शब्द ही कानुन हैं।" वह अपनी इच्छानुसार कानून बनाता था। उसने शक्ति का अत्यधिक केन्द्रीयकरण राजतंत्र के पक्ष में कर दिया। कूटनीति और सैन्य कौशल से फ्रांस का विस्तार किया। इस तरह उसने राजतंत्र को गंभीर पेशा बनाया।
चौदहवें लुई ने जिस शासन व्यवस्था का केन्द्रीकरण किया था उसमें योग्य राजा का होना आवश्यक था किन्तु उसके उत्तराधिकारी पन्द्रहवाँ लुई एवं सोलहवाँ लुई पूर्णतः अयोग्य थे। लुई 15वां (1715-1774) अत्यंत विलासी, अदूरदर्शी और निष्क्रिय शासक था। आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध एवं सप्तवर्षीय युद्ध में भाग लेकर देश की आर्थिक स्थिति को भारी क्षति पहुँचाई। इसके बावजूद भी वर्साय का महल विलासिता का केन्द्र बना रहा। उसने कहा कि मेरे बाद प्रलय होगी।
क्रांति की पूर्व संध्या पर सोलहवाँ लुई (1774 - 93) शासक था। वह एक अकर्मण्य और अयोग्य शासक था। उसने भी स्वेच्छाचारित और निरंकुशता का प्रदर्शन किया। उसने कहा कि "यह चीज इसलिए कानूनी है कि यह मैं चाहता हूं।" अपने एक मंत्री के त्यागपत्र के समय उसने कहा कि-काश! मैं भी त्यागपत्र दे पाता। उसकी पत्नी मैरी एंटोइंटे का उस पर अत्यधिक प्रभाव था। वह फिजूलखर्ची करती थी। उसे आम आदमी की परेशानियों की कोई समझ नहीं थी। एक बार जब लोगों का जुलूस रोटी की मांग कर रहा था तो उसने सलाह दी कि यदि रोटी उपलब्ध नहीं है तो लोग केक क्यों नहीं खाते।
इस तरह देश की शासन पद्धति पूरी तरह नौकरशाही पर निर्भर थी। जो वंशानुगत थी। उनकी भर्ती तथा प्रशिक्षण के कोई नियम नहीं थे और इन नौकरशाहों पर भी नियंत्रण लगाने वाली संस्था मौजूद नहीं थी। इस तरह शासन प्रणाली पूरी तरह भ्रष्ट, निरंकुश, निष्क्रिय और शोषणकारी थी। व्यक्तिगत कानून और राजा की इच्छा का ही कानून लागू होता था। फलतः देश में एक समान कानून संहिता का अभाव तथा विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कानूनों का प्रचलन था। इस अव्यवस्थित और जटिल कानून के कारण जनता को अपने ही कानून का ज्ञान नहीं था। इस अव्यवस्थित निरंकुश तथा संवेदनहीन शासन तंत्र का अस्तित्व जनता के लिए कष्टदायी बन गया। इन उत्पीड़क राजनीतिक परिस्थितियों ने क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया। फ्रांस की अराजकपूर्ण स्थिति के बारें में यू कहा जा सकता है कि "बुरी व्यवस्था का तो कोई प्रश्न नहीं, कोई व्यवस्था ही नहीं थी।"
किसानों की संख्या सर्वाधिक थी और इनकी दशा निम्न और सोचनीय थी। किसानों को राज्य, चर्च तथा अन्य जमीदारों को अनेक प्रकार के कर देने पड़ते थे और सामंती अत्याचारी को सहना पड़ता था। एक दृष्टि से किसानों के असंतोष का मुख्य कारण सामंतों द्वारा दिए जा रहे कष्ट एवं असुविधाएं थी और राजतंत्र इस पर चुप्पी साधे हुए था। इस तरह किसान इतने दुःखी हो चुके थे कि वे स्वयं ही एक क्रांतिकारी तत्व के रूप में परिणत हो गए और उन्हें क्रांति करने के लिए मात्र एक संकेत की आवश्यकता थी।
मध्यम वर्ग (बुर्जुआ) में साहुकार व्यापारी, शिक्षक, वकील, डॉक्टर, लेखक, कलाकार, कर्मचारी आदि सम्मिलित थे। उनकी आर्थिक दशा में अवश्य ठीक थी फिर भी वे तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के प्रति आक्रोशित थे। इस वर्ग को कोई राजनीतिक अधिकार प्राप्त नहीं था और पादरी और कुलीन वर्ग का व्यवहार इनके प्रति अच्छा नहीं था। इस कारण मध्यवर्ग कुलीनों की सामाजिक श्रेष्ठता से घृणा रखता था और राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन कर अपने अधिकारों को प्राप्त करने के इच्छुक था। यही कारण था कि फ्रांस की क्रांति में उनका मुख्य योगदान रहा और उन्होंने क्रांति को नेतृत्व प्रदान किया। मध्यवर्ग को कुछ आर्थिक शिकायतें भी थी। पूर्व के वाणिज्य व्यापार के कारण इस वर्ग ने धनसंपत्ति अर्जित कर ली थी किन्तु अब सामंती वातावरण में उनके व्यापार पर कई तरह के प्रतिबंध लगे थे जगह-जगह चुंगी देनी पड़ती थी। वे अपने व्यापार व्यवसाय के लिए उन्मुक्त वातावरण चाहते थे। इसके लिए उन्होंने क्रांति को नेतृत्व प्रदान किया। इस तरह हम कह सकते हैं कि फ्रांस की क्रांति फ्रांसीसी समाज के दो परस्पर विरोधी गुटों के संघर्ष का परिणाम थी। एक तरफ राजनीतिक दृष्टिकोण से प्रभावशाली और दूसरी तरफ आर्थिक दृष्टिकोण से प्रभावशाली वर्ग थे। देश की राजनीति और सरकार पर प्रभुत्व कायम करने के लिए इन दोनों वर्गों में संघर्ष अनिवार्य था। इस तरह 1789 की फ्रांसीसी क्रांति, फ्रांसीसी समाज में असमानता के विरूद्ध संघर्ष थी।
फ्रांस की आर्थिक अवस्था संकटग्रस्त थी। राज्य दिवालियापन के कगार पर पहुंच गया था। वस्तुतः फ्रांस के राजाओं की फिजूलखर्ची तथा लुई 14वें के लगातार युद्धों के कारण शाही कोष खाली हो गया था। उसकी मृत्यु के बाद लुई 15वें ने आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध एवं सप्तवर्षीय युद्ध में भाग लिया जिससे राजकोष पर बोझ और बढ़ा और अंततः लुई 16वें ने अमेरिकी स्वतंत्रता युद्ध में भाग लेकर फ्रांस की आर्थिक दशा को और भी जर्जर बना दिया।
सम्राट, साम्राज्ञी और उनके परिवार पर राज्य की अत्यधिक राशि खर्च की जाती थी। वर्साय का राजमहल राजकोष के लूटपाट का साधन बना था। दूसरी तरफ कर प्रणाली असंतोषजनक थी। विशेषाधिकारों के कारण सम्पन्न वर्ग कर से मुक्त था तथा गरीब किसान जो आर्थिक दृष्टि से विपन्न था, एकमात्र करदाता था। इस तरह राजकोष की स्थिति अत्यंत सोचनीय हो गई थी। सरकार फ्रांस में आय के अनुसार व्यय करने के बजाय व्यय के अनुसार आय को निश्चित करती थी।
राज्य ऋण के बोझ तले दबता गया। मूल धन की तो बात ही क्या फ्रांस ब्याज चुकाने में असमर्थ था अर्थात् राज्य दिवालिएपन की स्थिति में पहुंच गया था।
देश की आर्थिक दुर्व्यवस्था को व्यापार वाणिज्य को प्रोत्साहन देकर सुधारा जा सकता था परन्तु सरकार की वाणिज्य नीति इतनी अनियंत्रित एवं दोषपूर्ण थी कि उससे राज्य में उत्पादन एवं व्यापार का विकास संभव नहीं था।
लुई 16वें ने तुर्गों, नेकर जैसे वित्त सलाहकारों के माध्यम से आर्थिक संकट को दूर करने का प्रयास किया लेकिन ये सुधार प्रयास लागू नहीं हो सके क्योंकि विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग ने अपने ऊपर कर लगाने की बात स्वीकार नहीं की। अंततः विशेषाधिकार उन्मूलन के प्रस्तावों को पारित करने के लिए इस्टेट जनरल की बैठक बुलाने की मांग की गई और 1789 ई. में एस्टेट जनरल की बैठक के साथ ही क्रांति का आगमन हुआ, इसलिए तत्कालीन आर्थिक दुर्दशा को फ्रांस की क्रांति का सबसे महत्वपूर्ण कारण माना जाता है।
फ्रांसीसी क्रांति में दार्शनिकों की भूमिका के संदर्भ में दो मत सामने आते हैं-एक, दार्शनिकों ने क्रांति की परिस्थितियों को जन्म देकर क्रांति को उत्पन्न किया और दूसरा क्रांति का स्रोत तो उस समय के राष्ट्रीय जीवन के दोषों में तथा सरकार की भूलों में था और दार्शनिकों ने क्रांति उत्पन्न नहीं की। किसी भी मत पर निर्णय देने के पूर्व उन दार्शनिकों के विचारों और क्रांति के साथ उनके संबंधों को समझना वांछनीय होगा। दार्शनिकों के विचारों की लोकप्रियता का निर्धारण तो उस समय उनके छपे लेखों के संस्करणों और प्रसार के आधार पर देखा जाना चाहिए।
मॉण्टेस्क्यू (1689-1755 ई.) ने अपनी पुस्तक 'द स्पिरिट ऑफ लॉज' (The Spirit of Laws) में राजा के दैवी अधिकारों के सिद्धान्तों का खण्डन किया और फ्रांसीसी राजनीतिक संस्थाओं की आलोचना ही नहीं कि वरन् विकल्प भी प्रस्तुत किया। उसने लिखा कि फ्रांसीसी सरकार निरकुंश सरकार है क्योंकि फ्रांस में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका संबंधी सभी शक्तियां एक ही व्यक्ति अर्थात् राजा के हाथों में केन्द्रित है इसलिए फ्रांस की जनता को स्वतंत्रता प्राप्त नहीं है। इसी सदंर्भ में उसने “शक्ति के पृथक्करण” का सिद्धान्त दिया जिसके अनुसार शासन के तीन प्रमुख अंग-कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका को अलग-अलग हाथों में रखने की सलाह दी। उसने इंग्लैंड की सरकार को आदर्श बताया क्योंकि वहां संवैधानिक राजतंत्र था जिससे वहां नागरिकों को स्वतंत्रता थी। इस प्रकार मॉण्टेस्क्यू ने शक्ति के पृथक्करण के माध्यम से फ्रांस की निरंकुश राजव्यवस्था पर चोट की। उसके ये विचार इतने लोकप्रिय हुए कि 'द स्पिरिट ऑफ लाज' के तीन वर्षों में छह संस्करण प्रकाशित हुए। यहां ध्यान रखने की बात यह है कि मॉण्टेस्क्यू ने न तो क्रांति की बात की और न ही राजतंत्र को समाप्त करने की। उसने तो सिर्फ निरंकुश राजतंत्र के दोषों को उजागर किया और संवैधानिक राजतंत्र की बात की।
वाल्टेयर ( 1694 - 1778 ई.) ने अपनी पुस्तकों, जैसे "लेटर्स ऑन द इंगलिश" आदि, के माध्यम से ब्रिटेन में व्याप्त उदार राजनीति, धर्म और विचार की स्वतंत्रता का बहुत अच्छा चित्रण किया तथा पुरातन फ्रांसीसी व्यवस्था से उसकी तुलना की और फ्रांस में व्याप्त बुराईयों एवं कमियों का उल्लेख किया। प्रतिबंधित होने से पूर्व ये पुस्तकें बहुत लोकप्रिय हुई थी। वाल्टेयर ने चर्च के भ्रष्ट अचारण, असहिष्णुता, अन्याय, दमन और अत्याचार के विरोध में लिखा। चर्च की भ्रष्टता पर उंगली उठाते हुए उसने लिखा कि अब तो कोई ईसाई बचा नहीं क्योंकि एक ही ईसाई था और उसे सूली पर चढ़ा दिया गया। उसने लिखा कि कुख्यात एवं बदनाम चीज को कुचल दो। यह स्पष्ट रूप से फ्रांस के निरंकुश राजतंत्र एवं चर्च के अत्याचार पर प्रहार था। प्रो.केटेलबी ने वाल्टेयर को फ्रांस का बौद्धिक ईश्वर (Intellectual God of France) कहा है। वह दलितों के खातिर संघर्ष के लिए हमेशा तैयार रहता था। वाल्टेयर इंग्लैंड के संवैधानिक राजतंत्र के अनुरूप ही फ्रांस में भी वैसा ही शासन स्थापित करना चाहता था। उसने कहा कि मैं सौ चूहों के स्थान पर एक सिंह का शासन पसंद करता हूँ। वाल्टेयर ने क्रांति की बात नहीं की लेकिन वैचारिक स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि तैयार की। उसने पुरातन फ्रांसीसी व्यवस्था की बुराईयों को उजागर किया। उसने लोगों के समक्ष तत्कालीन फ्रांसीसी समाज का आइना प्रस्तुत किया और यह बताया कि आइना में दाग कहा है।
रूसो ने अपनी पुस्तक “एमिली”, “सोशल कॉन्ट्रैक्ट” व “रूसोनी” के माध्यम से मनुष्य की स्वतंत्रता की बात की। उसने कहा कि मनुष्य स्वतंत्र पैदा होते हुए भी सर्वत्र जंजीरों से जकड़ा हुआ है। इन जंजीरों से मुक्ति पाने का एक ही तरीका है कि हम प्राकृतिक आदिम अवस्था की ओर लौटें। रूसों ने कहा कि सामूहिक इच्छा से बने राज्य का यह अनिवार्य तथा सार्वभौम कर्तव्य है कि वह सारे समाज को सर्वोपरि मानते हुए कार्य को संचालित करे। जिन लोगों को कार्यपालिका शक्ति सौपीं गई है वे जनता के स्वामी नहीं, उसके कार्यकारी है और उनका कर्तव्य जनता की आज्ञा का पालन करना है। इस तरह उसका दृढ़ विश्वास था कि सर्वोपरि सत्ता जनता के हाथ में होनी चाहिए, किसी एक व्यक्ति या संस्था के हाथ में नहीं। सार्वभौम सत्ता जनता की इच्छा में निहित है जिसे “सामान्य इच्छा” (General Will) कहा गया। राज्य के कानून को इसी सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति होना चाहिए लेकिन कानून का स्वरूप ऐसा नहीं रह गया है, बल्कि यह शासक की इच्छा पर निर्भर रहने लगा है।
रूसों ने भी क्रांति की बात नहीं की लेकिन सभी व्यक्तियों को स्वतंत्र एवं समान माना और फ्रांसीसी क्रांति का नारा 'स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व' उसी के विचारों से प्रभावित था। नेपोलियन ने उसके महत्व को स्वीकार करते हुए कहा कि यदि रूसो नहीं होता तो फ्रांस में क्रांति नहीं होती। रूसों की 'सोशल कॉन्ट्रैक्ट' की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक वर्ष में उसके 13 संस्करण प्रकाशित हुए।
18वीं शताब्दी के श्रेष्ठ विचारकों की रचनाओं को संकलित कर आम जनता तक पहुंचाने का श्रेय फ्रांसीसी विद्वान दिदरो (1713-84) को दिया जाता है इसने एक ज्ञान कोष (इन्साइक्लोपीडिया) का प्रकाशन किया। इसमें शासन की बुराइयों, चर्च की भ्रष्टता तथा हर क्षेत्र में व्याप्त असमानता को उजागर किया गया। फ्रांस की सरकार ने दिदरों को अपना घोर शत्रु माना और उसकी पुस्तक पर अनेक प्रतिबंध लगाए।
विचारकों का एक वर्ग इस समय फ्रांस में व्याप्त आर्थिक अव्यवस्था और उसके विश्लेषण पर केन्द्रित था। इन अर्थशास्त्रियों को “फिज्योक्रात” के नाम से जाना जाता था। इसमें प्रमुख थे- तुर्गों, क्वेसने, मिराबों आदि। क्वेसने मुक्त व्यापार का समर्थक था। व्यापारिक उत्पादन एवं वितरण की पूर्ण स्वतंत्रता तथा चुंगी कर एवं अन्य करों का विरोधी था। उसका तर्क था कि केवल भूमि सारी संपत्ति का मूल स्रोत है। अतः कर केवल भूमि पर लगाना चाहिए व्यापारी एवं कारीगरों पर नहीं।
लुई 16वें के काल तक आते-आते फ्रांस की वित्तीय व्यवस्था ऋणों में डुब चुकी थीं। अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम ने फ्रांस के दिवालिएपन पर मुहर लगा दी। अतः आर्थिक दुरावस्था को दूर करने के क्रम में तुर्गों, नेकर, कोलोन जैसे अर्थशास्त्रियों की मदद ली। कोलोन ने विशेषाधिकार प्राप्त कुलीन वर्ग पर कर लगाने का सुझाव दिया जिसे कुलीनों ने अस्वीकार कर दिया। अंततः स्टेस्ट्स जनरल की बैठक बुलाई गई। यह बैठक 1789 में 175 वर्ष बाद हो रही थी। स्टेट्स जनरल की बैठक का समाचार सुनकर सभी वर्ग उत्साहित थे। कुलीनाें को उम्मीद थी कि इस बैठक में वे उन विशेषाधिकारों को प्राप्त कर सकेंगे जो लुई 14वां के समय उनसे छिन लिए गए थे। मध्यवर्ग के लोगों का मानना था कि वे अपने पक्ष में प्रगतिशील नीतियों का निर्धारण करवा सकेंगे। किसानों को आशा थी कि वह सामंती विशेषाधिकारो के विरूद्ध आवाज उठाकर अपने अधिकारों को सुरक्षित कर उनके शोषण चक्र से मुक्त हो सकेंगे। इस तरह फ्रांसीसी राजतंत्र का समर्थन करने के लिए फ्रांसीसी जनसंख्या का कोई महत्वपूर्ण भाग तैयार नहीं था।
एस्टेट्स जनरल के अधिवेशन में मताधिकार पद्धति के मुद्दे पर तृतीय स्टेट एवं अन्य स्टेट के बीच विवाद हो गया। मतदान के बारे में कहा गया कि प्रत्येक स्टेट का एक ही मत माना जाएगा। इस प्रकार विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का दो तथा जनसाधारण का एक ही मत होता है। (विशेषाधिकार वर्ग में प्रथम स्टेट और द्वितीय स्टेट के और कुलीन वर्ग आते हैं। जनसाधारण के प्रतिनिधियों ने अर्थात् 'तृतीय स्टेट' ने इस मतदान प्रणाली का विरोध किया क्योंकि इससे वे बहुत में होते हुए भी अल्पमत में आ जाते। तृतीय स्टेट यह चाहता था कि तीनों श्रेणियों के प्रतिनिधि एक साथ बैठकर बहुमत से निर्णय ले लेकिन पादरी एवं कुलीन वर्ग अलग-अलग बैठक चाहते थे। अतः तृतीय स्टेट ने स्टेट्स जनरल की बैठक का बहिष्कार कर अपने को समस्त राष्ट्र का प्रतिनिधि मानते हुए राष्ट्रीय सभा के रूप में घोषित कर दिया और पास के टेनिस कोर्ट में अपनी सभा बुलाई।
फ्रांसीसी क्रांति विभिन्न चरणों से होते हुए अपने मुकाम तक पहुंची। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से क्रांति को निम्नलिखित चार चरणों में बांट कर देखा जा सकता है।
इस चरण में पेरिस की भीड़ ने बास्तील के क़िले पर नियंत्रण स्थापित किया। इस तरह क्रांति की शुरूआत हुई। वस्तुतः बास्तील का किला निरंकुशता एवं अत्याचार का प्रतीक था और इसके पतन से पुरातन व्यवस्था को गहरी चुनौती मिली। इस घटना का प्रभाव फ्रांस के ग्रामीण क्षेत्रों में भी पड़ा और ग्रामीणों ने सामंती करों के अभिलेखों को आग लगा दी। जनता की इन कार्यवाहियों का राष्ट्रीय सभा पर भी गहरा असर पड़ा। अतः 4 अगस्त 1789 जो रात भर का राष्ट्रीय सभा का अधिवेशन चला जिसमें कानून निर्मित करके सभी विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया। इस तरह इंग्लैंड और अमेरिका को समान कर दिया गया। राष्ट्रीय सभा का महत्वपूर्ण कार्य था- एक संविधान का निर्माण करना। अतः राष्ट्रीय सभा ही संविधान सभा कहलायी और 26 अगस्त 1789 को संविधान सभा ने मानवाधिकारों की घोषणा की।
संविधान सभा ने चर्च की संपत्ति को ज़ब्त कर लिया और जनता पर चर्च के नियंत्रण को कम करने का प्रयास किया। इस संदर्भ में चर्च को राज्य के अधीन ले आया गया और उसे रोम के पोप के प्रभाव से मुक्त कर राष्ट्रीय चर्च के रूप में तब्दील कर दिया गया।
राज्य के प्रति पादरियों की वफ़ादारी सुरक्षित करने के लिए "सिविल कांस्टीच्यूशन ऑफ क्लर्जी" बनाया गया। जिसके अनुसार पादरियों को राज्य के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी और जनता के द्वारा उनका चुनाव होता था। पोप और कुछ पादरियों ने इस कदम का विरोध किया। जिन पादरियों ने राज्य के प्रति निष्ठा की शपथ ग्रहण कि वे “ज्यूरर” कहलाए जबकि शपथ नहीं लेने वाले “नॉन ज्यूरर” कहलाए। इस कानून से क्रांति के विरूद्ध एक माहौल निर्मित होने लगा क्योंकि अभी तक छोटे पादरियों ने क्रांति का समर्थन किया था। अब वे इससे अलग हो गए और कुछ पादरी देश छोड़ विदेशों में चले गए और वहां यूरोप में क्रांति के विरूद्ध प्रचार करने लगे।
राष्ट्रीय संविधान सभा ने फ्रांस के लिए लिखित संविधान तैयार किया और इस संविधान को 1791 में लुई सोलहवें ने अपनी स्वीकृति दे दी। संविधान में दो बातों पर बल दिया गया-एक, राज्य की सार्वभौम शक्ति जनता में निहित है और दूसरा, शक्ति का पृथक्करण राज्य एवं जनता के हित मे
यद्यपि शासन प्रणाली राजतंत्रात्मक बनी रहीं परन्तु राजा के अधिकारों को सीमित किया गया। अब वह कानून निर्माता नहीं रहा। राजा को किसी देश से युद्ध या संधि करने का अधिकार नहीं था। कानून बनाने का अधिकार एक व्यवस्थापिका सभा को दिया गया और उसके सदस्यों की संख्या 745 थी।
व्यवस्थापिका के सदस्यों के निर्वाचन के लिए नागरिकों को सक्रिय और निष्क्रिय दो भागों में विभक्त कर दिया गया और मताधिकार केवल सक्रिय नागरिकों को दिया गया। सक्रिय नागरिक 25 वर्ष से अधिक आयु के वे लोग थे जो राज्य को तीन दिन की आय के बराबर प्रत्यक्ष कर देते थे जबकि निष्क्रिय नागरिक वे थे जो ग़रीब थे।
राष्ट्रीय सभा ने फ्रांस की प्रशासनिक संरचना में परिवर्तन किया। प्राचीन प्रांतों को खत्म करके सम्पूर्ण देश को 83 विभागों (Departments) में विभक्त किया गया। इन विभागों को कैन्टैन (Cantan) और कम्यून (Comune) में बांटा गया। प्रत्येक इकाई का शासन चलाने के लिए निर्वाचन परिषद् होती थी जिसका चुनाव सक्रिय नागरिक करते थे। इस तरह स्थानीय स्तर से लेकर केन्द्रीय स्तर तक सारी राज्य व्यवस्था बर्जआ वर्ग में आ गई।
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