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जेरोम ब्रूनर (Jerome Seymour Bruner ; 1 अक्टूबर, 1915 – 5 जून, 2016) अमेरिकी मनोवैज्ञानिक थे जिन्होने मानव के संज्ञानात्मक मनोविज्ञान तथा संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धान्त (cognitive learning theory) पर उल्लेखनीय योगदान दिया। वे न्यू यॉर्क के यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ ला में वरिष्ट अनुसन्धान फेलो थे।[1] उन्होने १९३७ में ड्यूक विश्वविद्यालय से बीए किया और १९४१ में हारवर्ड विश्वविद्यालय से पी एच डी की।[2][3]
जेरोम ब्रूनर (Jerome Bruner) | |
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Bruner pictured in the Chanticleer 1936, as a junior at Duke University | |
जन्म |
Jerome Seymour Bruner October 1, 1915 New York City, New York, United States |
मृत्यु |
June 5, 2016 (aged 100) Manhattan, New York, United States |
आवास | New York City, United States |
राष्ट्रीयता | American |
क्षेत्र | Psychology |
संस्थान |
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शिक्षा |
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प्रसिद्धि |
Contributions to cognitive psychology and educational psychology Coining the term "scaffolding" |
उल्लेखनीय सम्मान | Balzan Prize (1987), CIBA Gold Medal for Distinguished Research Distinguished Scientific Award of the American Psychological Association |
बू्रनर ने संज्ञानात्मक विकास का मॉडल प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, यह वह माडल है जिसके द्वारा मनुष्य अपने वातावरण से सामंजस्य स्थापित करता है। ब्रूनर ने अपना संज्ञान सम्बन्धी अध्ययन सर्वप्रथम प्रौढ़ों पर किया, तत्पश्चात् विद्यालय जाने वाले बालकों पर, फिर तीन साल के बालकों पर और फिर नवजात शिशु पर किया।
प्रतिनिधित्व का बू्रनर के सिद्धान्त में महत्वपूर्ण स्थान है। प्रतिनिधित्व उन नियमों की व्यवस्था है जिनके द्वारा व्यक्ति अपने अनुभवों को भविष्य में आने वाली घटनाओं के लिए संरक्षित करता है। यह व्यक्ति विशेष के लिए उसके संसार का/वातावरण का प्रतिनिधित्व करता है।
प्रतिनिधित्व तीन प्रकार से हो सकता है - संक्रियात्मक प्रतिनिधित्व (enactive representation)- (action-based), दृश्यप्रतिमा प्रतिनिधित्व (iconic representation (image-based)), और प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व (symbolic representation (language-based)।
यह प्रतिनिधितव की सबसे प्रारम्भिक अवस्था है जो जीवन के प्रथम वर्ष के उत्तरार्द्ध में पाया जाता है। इसके अन्तर्गत वातावरणीय वस्तुओं पर बालक की प्रतिक्रिया आती है। इस प्रकार का प्रतिनिधित्व संवेदी-गामक अवस्था () की पहचान है। यह व्यक्ति पर केन्द्रित होता है। अतः इसे आत्म केन्द्रित भी कह सकते हैं।
यह प्रत्यक्षीकरण (परसेप्शन) को क्रिया से अलग करता है क्रियाओं की पुनरावृत्ति द्वारा ही बालक के मन में क्रियाओं की अवधारणा का विकास होता है। अर्थात क्रियाओं को स्थानिक परिपेक्ष्य में समझना आसान हो जाता है। इस प्रकार इस प्रतिनिधित्व में क्रियामुक्त अवधारणा का विकास होता है। यह प्रतिनिधित्व प्रथम वर्ष के अन्त तक पूर्णतया विकसित हो जाता है।
यह किसी अपरिचित जन्मजात प्रतीकात्मक क्रिया से प्रारम्भ होता है जो कि बाद में विभिन्न व्यवस्थाओं में रूपान्त्रित हो जाता है। क्रिया और अवधारणा प्रतिकात्मक क्रियाविधि को प्रदर्शित कर सकती हैं। लेकिन भाषा प्रतीकात्मकक्रिया का सबसे अधिक विकसित रूप है।
ये तीनों प्रतिनिधित्व वैसे तो एक दूसरे से पृथक व स्वतन्त्र हैं किन्तु यह एक दूसरे में परिवर्तित भी हो सकते है। यह स्थिति तब होती है जब बालक के मन में कोई दुविधा होती है और वह अपनी समस्या को सुलझाने के लिए सभी प्रतिनिधित्वों की पुनरावृत्ति करता है। यह तीन प्रकार से हो सकता है - मिलान द्वारा, बेमिलान द्वारा तथा एक दूसरे से स्वतन्त्र रहकर।
अगर दो प्रतिनिधित्व आपस में मिलान करते है तो व्यक्ति को दुविधा नहीं होती है और वह सामान्य प्रक्रियाओं को करते हुए अपनी समस्याओं को सुलझा लेता है। जब दो प्रतिनिधित्व में बेमिलान होता है तो किसी एक में सुधार किया जाता है या उसे दबा कर दिया जाता है। पूर्व किशोरावस्था में यह दुविधा क्रिया और दृश्य व्यवस्था के बीच होती है जिनमें उन्हें एक या अन्य चुनना होता है। बार-बार समस्या समाधान करते-करते उनमें प्राथमिकता का विकास होता है।क्रिया और प्रतिनिधित्व एक दूसरे से स्वतन्त्र नहीं हो सकते हैं किन्तु प्रतिकात्मक प्रतिनिधित्व उन दोनों से स्वतन्त्र हो सकता है। प्रतिनिधित्व के माध्यम के रूप में भाषा अनुभव से अलग होती है और जब यह अनुभव और चिन्तन के आधार पर प्रयोग किया जाता है तो उच्च स्तर की मानसिक क्रियाओं को करने में सक्षम होती है।
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