काँगड़ा
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काँगड़ा (Kangra) भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य के काँगड़ा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।[1][2]
काँगड़ा Kangra | |
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काँगड़ा हवाई अड्डे से हिमालय का दृश्य | |
निर्देशांक: 32.09°N 76.27°E | |
देश | भारत |
प्रान्त | हिमाचल प्रदेश |
ज़िला | काँगड़ा ज़िला |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | 9,528 |
भाषा | |
• प्रचलित | पहाड़ी, हिन्दी |
समय मण्डल | भारतीय मानक समय (यूटीसी+5:30) |
काँगड़ा हिमाचल प्रदेश का ऐतिहासिक नगर तथा जिला है; इसका अधिकतर भाग पहाड़ी है। इसके उत्तर और पूर्व में क्रमानुसार लघु हिमालय तथा बृहत् हिमालय की हिमाच्छादित श्रेणियाँ स्थित हैं। पश्चिम में सिवालिक (शिवालिक) तथा दक्षिण में व्यास और सतलज के मध्य की पहाड़ियाँ हैं। बीच में काँगड़ा तथा कुल्लू की सुन्दर उपजाऊ घाटियाँ हैं। काँगड़ा चाय और चावल तथा कुल्लू फलों के लिए प्रसिद्ध है। व्यास (विपासा) नदी उत्तर-पूर्व में रोहतांग से निकलकर पश्चिम में मीर्थल नामक स्थान पर मैदानी भाग में उतरती है। काँगड़ा जिले में कड़ी सर्दी पड़ती है परंतु गर्मी में ऋतु सुहावनी रहती है, इस ऋतु में बहुत से लोग शैलावास के लिए यहाँ आते हैं; जगह-जगह देवस्थान हैं अत: काँगड़ा को देवभूमि के नाम से भी अभिहित किया गया है। हाल ही में लाहुल तथा स्पीत्ती प्रदेश का अलग सीमांत जिला बना दिया गया है और अब काँगड़ा का क्षेत्रफल 4,280 वर्ग मील रह गया है।
काँगड़ा नगर लगभग 2,350 फुट की ऊँचाई पर, पठानकोट से 52 मील पूर्व स्थित है। हिमकिरीट धौलाधार पर्वत तथा काँगड़ा की हरी-भरी घाटी का रमणीक दृश्य यहाँ दृष्टिगोचर होता है। यह नगर बाणगंगा तथा माँझी नदियों के बीच बसा हुआ है। दक्षिण में पुराना किला तथा उत्तर में बृजेश्वरी देवी के मंदिर का सुनहला कलश इस नगर के प्रधान चिह्न हैं। एक ओर पुराना काँकड़ा तथा दूसरी ओर भवन (नया काँगड़ा) की नयी बस्तियाँ हैं। काँगड़ा घाटी रेलवे तथा पठानकोट-कुल्लू और धर्मशाला-होशियारपुर सड़कों द्वारा यातायात की सुविधा प्राप्त है। काँगड़ा पहले 'नगरकोट' के नाम से प्रसिद्ध था और ऐसा कहा जाता है कि इसे राजा सुसर्माचंद ने महाभारत के युद्ध के बाद बसाया था। छठी शताब्दी में नगरकोट जालंधर अथवा त्रिगर्त राज्य की राजधानी था। राजा संसारचंद (18वीं शताब्दी के चतुर्थ भाग में) के राज्यकाल में यहाँ पर कलाकौशल का बोलबाला था। "काँगड़ा कलम" विश्वविख्यात है और चित्रशैली में अनुपम स्थान रखती है। काँगड़ा किले, मंदिर, बासमती चावल तथा कटी नाक की पुन: व्यवस्था और नेत्रचिकित्सा के लिए दूर-दूर तक विख्यात था। 1905 के भूकम्प में नगर बिल्कुल उजड़ गया था, तत्पश्चात् नयी आबादी बसायी गयी। यहाँ पर देवीमंदिर के दर्शन के लिए हजारों यात्री प्रति वर्ष आते हैं तथा नवरात्र में बड़ी चहल-पहल रहती है।
प्राचीन काल में त्रिगर्त नाम से विख्यात काँगड़ा हिमाचल की सबसे खूबसूरत घाटियों में एक है। धौलाधर पर्वत श्रृंखला से आच्छादित यह घाटी इतिहास और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। एक जमाने में यह शहर चंद्र वंश की राजधानी थी। काँगड़ा का उल्लेख 3500 साल पहले वैदिक युग में मिलता है। पुराण, महाभारत तथा राजतरंगिणी में इस स्थान का जिक्र किया गया है।
यह मंदिर इस क्षेत्र का सबसे लोकप्रिय मंदिर है। कहा जाता है पहले यह मंदिर बहुत समृद्ध था।, इस मंदिर को बहुत बार विदेशी लुटेरों द्वारा लूटा गया। महमूद गजनवी ने 1009 ई॰ में इस शहर को लूटा और मंदिर को नष्ट कर दिया था। यह मंदिर 1905 ई॰ में विनाशकारी भूकम्प से पूरी तरह नष्ट हो गया था। सन् 1920 में इसे दोबारा बनवाया गया। अजय बन्याल ने इसके लिए काफी अहम कार्य किया है जो कि आज भी किताबों में ढूंढने पर नहीं मिल पाता है अधिक जानकारी के लिए अखिल भारतीय पंडित कर्मचारी संगठन के राष्ट्रीय संगठन अध्यक्ष तारा चंद शर्मा से रिपन अस्पताल में सम्पर्क कर सकते हैं।
काँगड़ा के शासकों की निशानी यह किला भूमाचंद ने बनवाया था। वाणगंगा नदी के किनारे बना यह किला 350 फीट ऊँचा है। इस किले पर अनेक हमले हुए हैं। सबसे पहले कश्मीर के राजा श्रेष्ठ ने 470 ई॰ में इस पर हमला किया। सन् 1886 में यह किला अंग्रेजों के अधीन हो गया, किले के सामने लक्ष्मीनारायण और आदिनाथ के मंदिर बने हुए हैं। किले के भीतर दो तालाब हैं, एक तालाब को कपूर सागर के नाम से जाना जाता है।
यह झील व्यास नदी से बनी है। सन् 1960 ई॰ में व्यास नदी पर एक बांध बनवाया गया और इसे महाराणा प्रताप सागर झील कहा गया। इस झील का पानी 180 से 400 वर्ग कि॰मी॰ के क्षेत्र में फैला है। सन् 1983 ई॰ में इस झील को वन्यजीव अभयारण्य घोषित कर दिया गया। यहाँ लगभग 220 पक्षियों की प्रजातियाँ प्रवास करती हैं। इस बांध को पोंग बांध भी कहा जाता है।
यह आर्ट गैलरी काँगड़ा घाटी की कला, शिल्प और समृद्ध अतीत का भंडार है। यहाँ काँगड़ा की लोकप्रिय लघु पेंटिग्स, मूर्तियों का संग्रह और मिट्टी के बर्तन देखे जा सकते हैं।
काँगड़ा के दक्षिण से 15 कि॰मी॰ दूर स्थित मसरूर बस्ती समुद्र तल से 800 मीटर की ऊँचाई पर है, इस नगर में 15 शिखर मंदिर है। चट्टानों को काटकर बनाये गये इन मंदिरों का सम्बन्ध दसवीं शताब्दी से है। यह मंदिर इंडो-आर्यन शैली में बना हुआ हैं। इन मंदिरों की तुलना अजंता और एलौरा के मंदिरों से की जाती है। यह मंदिर अति सुन्दर तथा रमणीक है | यहां पर एक सुन्दर बडा सा पानी का तालाब भी है |
यह झील घने जंगलों से घिरी है। इसकी पृष्ठभूमि में धौलाधर पर्वत श्रृंखलाएँ इसे एक बेहद खूबसूरत स्थान बनाते हैं। करायरी झील इस क्षेत्र में ट्रैकिंग का प्रकाश स्तम्भ है।
काँगड़ा राज्य की सीमाओं के नजदीक ही सुजानपुर किला है। इस किले को काँगड़ा के राजा अभयचंद ने 1758 ई॰ में बनवाया था।
काँगड़ा से 10 कि॰मी॰ दूर चिन्मय तपोवन सिद्धबाड़ी में स्थित है। इस आश्रम परिसर की स्थापना हाल ही में गीता के व्याख्याता स्वामी चिन्मयानंद ने की थी। इस खूबसूरत स्थान पर हनुमान की एक विशाल मूर्ति स्थापित है, साथ की एक विशाल शिवलिंग भी यहाँ दूर से देखा जा सकता है।
काँगड़ा से 7 कि॰मी॰ की दूरी पर हवाईअड्डा है जो सीधी दिल्ली से जुड़ा हुआ है।
पठानकोट काँगड़ा का निकटतम ब्रोड गेज रेल मुख्यालय है। पठानकोट काँगड़ा से लगभग 90 कि॰मी॰ की दूरी पर है। काँगड़ा मंदिर शहर से लगभग दो किमी दूर स्थित सबसे नज़दीकी रेलस्टेशन है।
काँगड़ा बेहतर सड़क मार्ग से धर्मशाला से जुड़ा है जो 18 कि॰मी॰ दूर स्थित है। धर्मशाला हिमाचल और निकटवर्ती शहरों से जुड़ा हुआ है।
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