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मधुसूदनी (इंसुलिन) (रासायनिक सूत्र:C45H69O14N11S.3H2O) अग्न्याशय यानि पैंक्रियाज़ के अन्तःस्रावी भाग लैंगरहैन्स की द्विपिकाओं की बीटा कोशिकाओं से स्रावित होने वाला एक जन्तु हार्मोन[2] है। रासायनिक संरचना की दृष्टि से यह एक पेप्टाइड हार्मोन है जिसकी रचना ५१ अमीनो अम्ल से होती है। यह शरीर में ग्लूकोज़ के उपापचय को नियंत्रित करता है। पैंक्रियाज यानी अग्न्याशय एक मिश्रित ग्रन्थि है जो आमाशय के नीचे कुछ पीछे की ओर स्थित होती है। भोजन के कार्बोहइड्रेट अंश के पाचन के पश्चातग्लूकोज का निर्माण होता हैं। आंतो से अवशोषित होकर यह ग्लूकोज रक्त के माध्यम से शरीर के सभी भागों में पहुंचता है। शरीर की सभी सजीव कोशिकाओं में कोशिकीय श्वसन की क्रिया होती है जिसमें ग्लूकोज के विघटन से ऊर्जा उत्पन्न होती है जिसका जीवधारी विभिन्न कार्यों में प्रयोग करते हैं।[3] ग्लूकोज के विघटन से शरीर को कार्य करने, सोचने एवं अन्य कार्यों के लिए ऊर्जा प्राप्त होती है।
इंसुलिन के प्राथमिक संरचना की खोज ब्रिटिश आण्विक जीवशास्त्री फ्रेड्रिक सैंगर ने की थी। यह प्रथम प्रोटीन था जिसकी शृंखला ज्ञात हो पायी थी। इस कार्य के लिए उन्हें १९५८ में रासायनिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। अग्नाशय स्थित आइलैंड्स ऑफ लैंगरहैंड्स अग्न्याशय का केवल एक प्रतिशत भाग ही होता है।[4] एक सामान्य अग्न्याशय में एक लाख से अधिक आइलैंड्स होते हैं और प्रत्येक आइलैंड में ८०-१०० बीटा कोशिकाएं होती हैं। ये कोशिकाएं प्रति १० सैकेंड में २ मिलीग्राम प्रतिशत की दर से ब्लड ग्लूकोज को नापती रहती हैं। एक या डेढ मिनट में बीटा कोशिकाएं रक्त शर्करा स्तर को सामान्य बनाए रखने के लिए आवश्यक इंसुलिन की मात्रा उपलब्ध करा देती हैं। जब मधुमेह नहीं होती है तो रक्त-शर्करा के स्तर को अत्यधिक ऊपर उठाना लगभग असंभव रहता है। अतएव इंसुलिन की आपूर्ति लगभग कभी खत्म ही नहीं होती। इसके अलावा अग्न्याशय में एल्फा नामक कोशिकाएं भी होती हैं जो ग्लूकागॉन नामक तत्त्व निर्मित करती हैं। ग्लूकागॉन इंसुलिन के प्रभावों को संतुलित करके रक्त-शर्करा स्तर को सामान्य बनाए रखता है। अग्न्याशय की डेल्टा कोशिकाएं सोमाटोस्टेन नामक एक तत्त्व बनाती हैं जो इंसुलिन और ग्लूकागॉन के बीच संचार का कार्य करता है।
बैंटिग और वेस्ट द्वारा इंसुलिन की खोज ने मानव इतिहास में मधुमेह पर विजय को अमर कर दिया है। तभी से शुद्ध, कम पीड़ादायी इंसुलिन निर्माण के प्रयास जारी हैं। सबसे पहले वोभाइन इंसुलिन बैलों के अग्नाशय से प्राप्त किया गया। फिर पोरसीन इंसुलिन सुअर के अग्नाशय से प्राप्त किया गया। अन्ततः वर्तमान में शुद्धतम मानव इंसुलिन उपलब्ध हुआ। बैलों और सुअरों को बड़ी मात्रा में मारकर इंसुलिन निर्माण का तरीका मानव इन्सुलीन बनाने में प्रयोग नहीं होता। इसे आनुवांशिक अभियांत्रिकी डी.एन.ए. रीकोम्बीनेट तकनीक का इस्तेमाल कर बनाते हैं।[5]
इंसुलिन से मधुमेह के उपचार के दो समूह माने गये हैं:एक मानव शरीर में निर्मित इंसुलिन, दूसरा उत्पादन किया गया इंसुलिन। बाजार में उपलब्ध अधिकांश इंसुलिन की एकाग्रता १०० इकाइयों/मि.ली. तक होती है। इंसुलिन के चार प्रकार की होती है। ये इन की श्रेणी पर निर्भर करता है कि इंजेक्शन के बाद शरीर में प्रभाव कितनी जल्दी दिखे।
इस इंसुलिन प्रकार का प्रभाव बहुत तेजी से दिखाई देता है और लगभग एक घंटे अधिकतम और ३-४ घंटॆ जारी रहता है। यह तरल और शुद्ध रंग का होता है। इसका इंजेक्शन भोजन से १५ मिनट पूर्व लेना चाहिये, जिससे कि प्रभाव भोजन के दस मिनट बाद दिखायी दे।
इंसुलिन एक ग्लूकोज को रक्त के माध्यम से शरीर की कोशिकाओं में प्रवेश देता है। इसकी अनुपस्थिति में मधुमेह रोग हो जाता है। इसके इंजेक्शन से रक्त शर्करा की मात्रा घट जाती है। अतएव इंसुलिन की आवश्यकता शरीर को ऊर्जा प्राप्त करने हेतु ग्लूकोज का प्रयोग करने के लिए होती है। मधुमेह रोगियों में इंसुलिन के स्राव की मात्रा स्वस्थ व्यक्तियों की अपेक्षा कम होती है या स्रवित इंसुलिन ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पाता है। शरीर में रक्त नलिकाएं ग्लूकोज एवं इंसुलिन को एक साथ लेकर चलती हैं एवं यदि शरीर में पर्याप्त इंसुलिन उपलब्ध नहीं होता है तो ग्लूकोज केवल रक्त में ही सीमित रह जाता है और कोशिकाओं को नहीं मिल पाता है, जिससे शरीर की कोशिकाओं को ऊर्जा नहीं मिल पाती और यही ग्लूकोज़ मूत्र के रास्ते बाहर निकल जाती है।[3]
मधुमेह जब ४० वर्ष के लगभग हो तो उसे टाइप-२ मधुमेह कहते हैं। भारत के ९५%-९८%रोगी टाइप-२ के ही हैं। बचपन में होने वाले मधुमेह को टाइप-१ कहते हैं। टाइप वन में अग्नाशय में इन्सुलिन स्त्रावित करने वाली बीटा कोशिकाएं पूर्णतः बर्बाद हो जाती हैं। इन रोगियों को बिना इन्सुलीन की सूई के कोई दूसरा चारा नहीं हैं। टाइप-२ के रोगियों में बीटा कोशिकाएं कुछ-कुछ बची रहती है और दवाइयों द्वारा उन्हें झकझोर कर इन्सुलिन स्त्रावित करने को बाध्य किया जाता है, किन्तु इस तरह बीटा कोशिकाओं को झकझोरने की भी एक सीमा होती हैं और अन्ततः एक समय आता है जब वह थेथर हो जाता है और तब दवाइयां असर नहीं करतीं।[6]
हाल में दुनिया में हुए डी सी सी टी ट्रायल और यू के पी डी परीक्षणों के परिणामों से ज्ञात हुआ है कि मधुमेह-रोगियों के लिए हर हाल में रक्त-शर्करा स्तर सही बनाये रखना अत्यावश्यक होता है। इस प्रकार टाइप-२ के रोगियों को भी अन्ततः थोड़ा-बहुत इंसुलिन की आवश्यकता तो होती ही है। ये भी आवश्यक नहीं कि एक बार इन्सुलीन लेना आरंभ कर देने से जीवन पर्यन्त इंसुलिन लेनी होगी। यह भी संभव है, कि कुछ दिन ही इंसुलिन लेने पर लाब हो और बाद में दवाइयों से काम चल जाये। इंसुलिन के कई दुष्प्रभाव भी हैं: इससे वज़न में बढोत्तरी होने का डर, इन्सुलीन रेसीसटेन्ट की अवस्था, इन्सुलीन द्वारा थक्के बनने का डर, इन्सुलीन द्वारा ब्लड सुगर जरूरत से ज्यादा कम होने (हाइपोग्लाईसीमिया) का डर आदि कई समस्याओं का अंदेश रहता है।[6]
अमरीका के नॉर्थवेस्टर्न विश्वविद्यालय और ब्राज़ील में रियो डी जनेरो के फ़ेडरल विश्वविद्यालय में शोधरत वैज्ञानिकों के अनुसार इंसुलिन अल्ज़ाइमर्स रोग के उपचार में प्रयोग किया जा सकता है। ये मनुष्य की स्मृति खोने से मस्तिष्क का बचाव करता है। अल्जाइमर मस्तिष्क के मधुमेह का ऐसा रूप है जहाँ ख़तरनाक प्रोटीन मस्तिष्क की कोशिकाओं को इंसुलिन की सुरक्षा की कमी होने की वजह से बहुत हानि पहुँचा सकती हैं। किसी व्यक्ति को तब मधुमेह होता है जब उसका शरीर इंसुलिन हॉर्मोन निर्माण में असमर्थ हो जाता है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि इंसुलिन के प्रति संवेदनशीलता भी मस्तिष्क से याददाश्त मिटाने वाले अल्ज़ाइमर्स रोग को बढ़ाने में सहायक एक कारक हो सकता है।[7] इसकी रिपोर्ट नेशनल अकादमी ऑफ़ साइंसेज़ के प्रकाशन यूएस जर्नल में प्रकाशित हुई है। भारत में बायोकॉन नामक कंपनी ने बसालॉग नामक एक इंसुलिन ब्रांड निकाला है, जो आम उपलब्ध इंसुलिन से ४० प्रतिशत सस्ता होगा।[8] इससे लंबे समय तक लेने के बाद इंजेक्शन लगाने वाले स्थान पर अभिक्रिया होने व वसा कम होने की संभावना होती है। भारत में मुंबई के श्रेया लाइफ साइंसेज द्वारा एक ओरल इंसुलिन स्प्रे विकसित किया गया है। इस ओरल-रिकोसुलीन से रोगी को इंसुलिन का इंजेक्शन लेने से मुक्ति मिलेगी। इसे मुंह व नाक के रास्ते स्प्रे द्वारा लिया जा सकेगा। इस स्प्रे का प्रयोग टाइप-१ और टाइप-२ मधुमेह रोगी कर सकते हैं। इसके एक पैकेट का मूल्य लगभग २००० रुपए है।[9] यहां ये ध्यान योग्य है, कि भारत विश्व की मधुमेह राजधानी है। यहां मधुमेह के ४ करोड़ रोगी हैं, जिनका प्रतिशत १०-१२% की दर से बढ़ता जा रहा है। इस प्रकार अकेले भारत में ही ५४० करोड़ रु. के इंसुलिन की खपत होती है।
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