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केन्द्रीय तिब्बती अध्ययन विश्वविद्यालय (तिब्बती: ཝ་ཎ་མཐོ་སློབ, Wylie: वा ना म्थो स्लोब / Central University for Tibetan Studies (CUTS)) भारत का स्ववित्तपोषित विश्वविद्यालय है। यह उत्तर प्रदेश में वाराणसी के निकट सारनाथ में स्थित है। यह पूरे भारत में अपने ढंग का एकमेव विश्वविद्यालय है।
केन्द्रीय तिब्बती अध्ययन विश्वविद्यालय | |
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केन्द्रीय तिब्बती अध्ययन विश्वविद्यालय का मुख्य द्वार | |
केन्द्रीय तिब्बती अध्ययन विश्वविद्यालय का मुख्य द्वार | |
अंग्रेज़ी नाम: सेंट्रल यूनिवर्सिटी फॉर टिबेटन स्टडीज़ | |
स्थापित | 1976 |
प्रकार: | सार्वजनिक |
अध्यक्ष: | एन गवांग |
कुलपति: | प्रो. वांगचुक दोरजी नेगी |
अवस्थिति: | सारनाथ (वाराणसी), उत्तर प्रदेश, भारत |
परिसर: | शहरी |
जालपृष्ठ: | www.cihts.ac.in |
बुद्ध, बौद्धधर्म व दर्शन की शिक्षा व उसके अध्ययन, संरक्षण व विस्तार में तिब्बत देश के बौद्ध अध्येता आचार्यों का योगदान अत्यन्त अतुलनीय है । धार्मिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से प्रायः आठवीं सदी से तिब्बत भारत का अभिन्न मित्र रहा है । तिब्बती राजा स्रोङ्चन गोनपो ने थोनमी सम्भोट आदि को भारत में उस दौरान नालन्दा, तक्षशिला आदि बौद्धविहारों में अध्ययन के लिये भेजा, जहाँ तिब्बती अध्येताओं ने भाषा, व्याकरण, बौद्ध धर्मदर्शन, तन्त्र, काव्य आदि विद्याओं का श्रद्धापूर्वक अध्ययन किया । पुनः तिब्बती वर्णमाला तथा उसके व्याकरण का स्वरूप विकसित हुआ । तिब्बत में अनेक बौद्ध शिक्षाकेन्द्र सम्ये आदि मठ-विहार स्थापित किये गये । आचार्य पद्मसम्भव तथा शान्तरक्षित जैसे उद्भट बौद्ध मनीषियों को ससम्मान भारत से तिब्बत में आमन्त्रित किया गया, जहाँ बौद्ध धर्म दर्शन, तन्त्र, व्याकरण, काव्य वाङ्मय का टीका सहित संस्कृत से तिब्बती में अनुवाद भारतीय पण्डित तथा तिब्बती अनुवादक आचार्यों ने दीर्घकाल तक किया। इसे दो भागों में विभाजित किया गया । बुद्ध के सूत्र-वचनों को कन्ग्युर तथा शास्त्र व टीका आदि को तन्ग्युर नाम दिया गया ।
भारत में मुस्लिम व अंग्रेज-शासन होने से उस दौरान संस्कृत के मूल बौद्ध ग्रन्थ लुप्त हो गये। 1959 ई. में तिब्बत पर चीनी आधिपत्य हो जाने से दलाईलामा अपने अनुयायी भक्तों के साथ भारत में शरणार्थी के रूप में आ गये। तभी तिब्बती बौद्ध धर्म साहित्य के संरक्षण व विकास के लिए तत्कालीन प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू जी के साथ उनका विचार-विमर्श हुआ । लुप्त भारतीय बौद्ध वाङ्मय का तिब्बती अनुवाद के आधार पर संस्कृत पुनरुद्धार इत्यादि महत्त्वपूर्ण कार्य, तिब्बती व हिमालयी बौद्ध संस्कृति शिक्षा के संरक्षण हेतु वाराणसी के पास सारनाथ में 1967 ई. में भारत सरकार के अधीन केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान की स्थापना की गई, जिसमें स्नातकोत्तर अध्यापन व शोध की व्यवस्था की गई । उस समय इसका नाम 'केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान' (Central Institute of Higher Tibetan Studies) था।
आरम्भ में यह संस्थान सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय की शाखा के रूप में कार्य करता था और बाद में 1977 में वह भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अधीन एक स्वशासित संगठन के रूप में उभरा। आरम्भ में कुछ वर्षों तक इस संस्था की परीक्षा प्रणाली सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के अधीन रही । पुनः 1988 में भारत सरकार ने इसे मानित विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान कर दिया, जिससे पूर्वमध्यमा से आचार्य कक्षा पर्यन्त समस्त परीक्षा कार्यों का दायित्व संस्थान के हाथ में आ गया। यह संस्थान इस समय संस्कृति मन्त्रालय, भारत सरकार, शास्त्री भवन, नई दिल्ली के अधीन कार्यरत है, जो केन्द्रीय रूप में पूर्णतया अनुदान इसे प्रदान करता है। इसका सुदीर्घ संचालन पूर्व प्राचार्य / निदेशक तिब्बती भिक्षु प्रो. समदोङ् रिनपोछे ने किया । इस समय 2001 से अब तक पद्मश्री गेशे प्रो. एन. समतेन ने इसके कुलपति पद का सुचारु दायित्व निर्वाह किया । संस्थान में शैक्षणिक अतीश भवन, सम्भोट भवन तथा सुविस्तृत एवं आधुनिक तकनीकी सुविधाओं से सुदृढ़ शान्तरक्षित ग्रन्थालय है । इसके अलावा प्रशासनिक भवन, कुलपति कार्यालय, अनेक छात्रावास तथा शोध विभाग के साथ सोवा - रिग्पा चिकित्सा भवन, निदान केन्द्र, प्रायोगिक चिकित्सा केन्द्र, कुलपति आवास, प्राध्यापक आचार्य एवं अधिकारी, कर्मचारी आवास, खेलकूद-क्षेत्र इत्यादि सुदृढ़ भव्य एवं सुरक्षित भवन हैं।
केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान नई शिक्षा नीति 2020 के सार को अपने पाठ्यक्रम में शामिल करते हुए, माध्यमिक विद्यालय स्तर (पूर्व मध्यमा और उत्तर मध्यमा) से लेकर स्नातक (शास्त्री), स्नातकोत्तर (आचार्य) तक सभी शैक्षणिक स्तरों पर छात्रों को विषय चयन के असंख्य विकल्प प्रदान करता है। पी-एच.डी. (विद्यावारिधि) में प्रवेश लेने वाले बौद्ध दर्शन के छात्रों को चार साल की पूर्व महाविद्यालयी शिक्षा प्रदान की जाती है, ताकि वे विभिन्न भाषाओं (विषयों) में भी पारंगत हो सकें। ललित कला अध्ययन पाठ्यक्रम के लिए छात्र उत्तरमध्यमा में प्रवेश पा सकते हैं। तीन वर्षीय शास्त्री कार्यक्रम स्नातक डिग्री (उपाधि) के बराबर और दो वर्षीय आचार्य कार्यक्रम परास्नातक के बराबर हैं।
संस्थान बौद्ध अध्ययन, तिब्बती इतिहास और संस्कृति, चिकित्सा विज्ञान, ललित कला और पुनर्स्थापन जैसे विभिन्न विषयों में पी-एच.डी. (विद्यावारिधि) कार्यक्रम की सुविधा प्रदान करता है। विद्यावारिधि की उपाधि पी-एच.डी. के समतुल्य है। यह यूजीसी द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार चलाया जाता है। इसके अतिरिक्त छात्र अपनी रुचि के अनुसार ऐच्छिक विषय के रूप में निम्नलिखित विषयों में से किसी एक का चयन कर सकता है- एशियाई इतिहास, तिब्बती इतिहास, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, पालि, उन्नत संस्कृत, हिंदी, एवं आंग्लभाषा ।
तिब्बत में प्रचलित प्राचीन 5 महाविद्याओं के नाम पर वर्तमान में 5 संकाय सेवारत हैं ।
इस संकाय के अन्तर्गत दो विभाग कार्यरत हैं- 1. मूलशास्त्र विभाग, 2. सम्प्रदाय शास्त्र विभाग । मूलशास्त्र बौद्ध अभिधर्म, न्याय प्रमाण, मनोविज्ञान, माध्यमिक मत इत्यादि संस्कृत मूलक बौद्ध शास्त्रों का छात्रों को अध्ययन कराता है । इसमें नागार्जुन के शिष्यों व महासिद्धों के विचारों के पुनरुद्धार एवं उनके युगानुरूप समायोजन पर भी बल दिया जाता है । मूलशास्त्र है तिब्बती में अनूदित संस्कृत बौद्ध धर्म व दर्शन । इसमें स्नातकोत्तर अध्ययन, एम.फिल. व पी-एच.डी. शोधकार्य किया जाता है। इसका अध्ययन पूर्वमध्यमा से लेकर आचार्य पर्यन्त अनिवार्य रूप में निर्धारित है। इसमें शिक्षण व परीक्षा का माध्यम तिब्बती भाषा ही है । स्नातकोत्तर में मूल प्रश्नपत्रों के अतिरिक्त एक प्रश्नपत्र कण्ठस्थ वाक् परीक्षा का भी निर्धारित है । इसमें आचार्य, सह आचार्य तथा सहायक आचार्य पदों पर नियुक्त होकर आचार्यगण शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। इसका एक विभागाध्यक्ष भी होता है ।
सम्प्रदाय शास्त्र विभाग के अन्तर्गत तिब्बत के प्राचीन परम्परागत सम्प्रदायों में कर्ग्युद, साक्या, गेलुक्, ञिङ्गा तथा बोन सम्प्रदाय के शास्त्रों, टीकाओं की शिक्षा तिब्बती भाषा के माध्यम से दी जाती है । इसमें तिब्बती विद्वानों के द्वारा बुद्धवचन तथा भारतीय आचार्यों के ग्रन्थों पर प्रणीत व्याख्या टीका तथा कुछ अन्य दार्शनिक ग्रन्थों का शिक्षण किया जाता है । इसमें भी स्नातकोत्तर अध्ययन एवं शोधकार्य छात्र करते हैं । इन सभी सम्प्रदायों में से एक ही सम्प्रदाय लेकर छात्र अध्ययन करते हैं । इस विभाग में प्रत्येक सम्प्रदाय के पृथक्-पृथक् आचार्य, सह आचार्य तथा सहायक आचार्य एवं विभागाध्यक्ष विद्वान् सेवारत हैं । ये दोनों विभाग सामयिक शोध संगोष्ठियों, कार्यशालाओं के आयोजन के साथ ग्रन्थ रचना भी करते हैं। विदेशों से आने वाले छात्रों को भी बौद्ध वाङ्मय की शिक्षा देते हैं तथा उनके शोध कार्य में सहायता भी करते हैं।
इस संकाय के अन्तर्गत मुख्य रूप से तीन विभाग कार्यरत हैं- 1. संस्कृत विभाग, 2. तिब्बती भाषा एवं साहित्य विभाग, 3. प्राच्य एवं आधुनिक भाषा विभाग। इसके अतिरिक्त शिक्षाशात्र विभाग (बी-एड.) को भी बहुत समय बाद इसी के साथ रखा गया है।
यह संकाय विभिन्न भाषाओं के व उनके साहित्य से सम्बन्ध रखता है ।
इसके अन्तर्गत संस्कृत भाषा, व्याकरण, काव्य, नाटक, नीति, छन्द, कोश, अलंकार, रस, उपन्यास, सांख्य, वेदान्त, न्याय आदि संस्कृत बौद्ध दर्शन एवं बौद्धकाव्य इत्यादि विषय निहित हैं । तिब्बती आचार्यों ने पाणिनि व्याकरण से सम्बद्ध रामचन्द्र प्रणीत प्रक्रिया कौमुदी का अनुवाद तिब्बती में बहुत पहले कर दिया था । स्नातक कक्षा पर्यन्त संस्कृत अध्ययन को अनिवार्यता दी गई है । मध्यमा, स्नातक तथा स्नातकोत्तर कक्षा में वैकल्पिक विषय-खवर्ग के रूप में भी संस्कृत अध्ययन प्रचलित है । शास्त्री तथा आचार्य परीक्षा में प्रश्नोत्तर माध्यम संस्कृत है।
तिब्बती तेंङ्ग्युर से संस्कृत का गहरा सम्बन्ध है । संस्कृत में निहित प्राचीन भारतीय बौद्ध वाङ्मय तथा उसकी टीकाओं, व्याकरण, काव्य इत्यादि विषयों का तिब्बती में अनुवाद पुराकाल में किया गया है, जिसका पुनरुद्धार अनुवाद - समीक्षा आदि कार्य के सम्पादन के लिये बौद्ध विद्वानों को संस्कृत का ज्ञान अपरिहार्य है । तिब्बती व हिमालयी छात्र-छात्रायें अरुणाचल, सिक्किम, असम, बंगाल, लेह, दक्षिण भारत इत्यादि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के विद्यार्थी पुनरुद्धार करने हेतु संस्कृत का अध्ययन अनिवार्य तौर पर करते हैं। मुख्य परीक्षा में संस्कृत को द्वितीय प्रश्नपत्र रूप में रखा गया है। संस्थानीय छात्र संस्कृत विभाग से संस्कृत में दक्षता प्राप्त कर पुनः पुनरुद्धार, अनुवाद, कोश आदि अनुभागों में विभिन्न पदों पर नियुक्त होकर सेवारत हैं और वे कठोर परिश्रम एवं सत्प्रयास से प्राचीन बौद्ध ग्रन्थों का पुनरुद्धार तथा अनुवाद कार्य कर रहे हैं, जो अभी तक के प्रकाशित ग्रन्थों का अध्ययन करने से विदित होता है। विभाग प्रत्येक अधिसत्र में यथासमय संस्कृत प्रशिक्षण शिविर, संस्कृत नाटकों का मंचन, शोध संगोष्ठियों, भाषण तथा निबन्ध प्रतियोगिताओं का आयोजन कर छात्रों को लाभान्वित करता रहता है। विभाग में आचार्य, सह-आचार्य, सहायक आचार्य व विभागाध्यक्ष कार्यरत हैं ।
इस विभाग में तिब्बती भाषा, व्याकरण-सूत्र, काव्य, रस, अलंकार, गद्य, पद्य व नाटक तथा कथा का अध्ययन किया जाता है । तिब्बती भाषा की परीक्षा अनिवार्यतः प्रथम प्रश्नपत्र के रूप में निर्धारित है । अभी दो वर्ष पूर्व से स्नातकोत्तर अध्ययन की शुरुआत भी इस विभाग ने कर दी है। इसमें दण्डी कृत काव्यादर्श, हर्षदेव कृत नागानन्द नाटक तथा साहित्यदर्पण जैसे अनेक संस्कृत काव्य शास्त्रीय ग्रन्थों को पाठ्यक्रम में रखा गया है। एम. फिल. तथा पी-एच.डी. शोध अध्ययन भी इसके द्वारा संचालित है । विभागाध्यक्ष आचार्य, सहाचार्य व सहायक आचार्य इसमें नियुक्त हैं। तिब्बती भाषा में दक्षता प्राप्त कर छात्र बौद्ध धर्म दर्शन के अध्ययन में समर्थ होते हैं।
इस विभाग के अन्तर्गत विद्यार्थी स्नातक पर्यन्त अनिवार्य रूप से हिन्दी या अंग्रेजी भाषा का अध्ययन करते हैं। मुख्य परीक्षा में इसका प्रश्नपत्र तृतीय होता है। इसमें हिन्दी तथा अंग्रेजी में से किसी एक ही भाषा का छात्र अध्ययन कर सकते हैं । हिन्दी भाषा में गद्य, पद्य, उपन्यास, नाटक, कथा तथा निबन्ध विधाओं के प्रशस्त ग्रन्थों को पाठ्यक्रम में रखा गया है। इसी के साथ हिन्दी व्याकरण की शिक्षा भी दी जाती है । स्नातकोत्तर में भी इसे एक वैकल्पिक प्रश्नपत्र के रूप में पढ़ा जाता है। साहित्य शास्त्र के सिद्धान्त व समीक्षा साहित्य को भी स्थान दिया गया है। इसी तरह अंग्रेजी भाषा में प्राचीन से अर्वाचीन साहित्य तक की शिक्षा दी जाती है। साथ ही भाषा का इतिहास व उसके विविध आयामों को सम्मिलित किया गया है । यथासमय विशिष्ट विद्वानों के व्याख्यान, शोध संगोष्ठियाँ, कार्यशालाएँ तथा वाद-विवाद प्रतियोगितायें भी आयोजित की जाती हैं। इसके अलावा पालि अध्ययन भी इसी विभाग में समाहित है । पालि थेरवाद का अध्ययन वैकल्पिक खवर्ग के एक प्रश्नपत्र के तौर पर स्नातकोत्तर पर्यन्त होता है । पालि भाषा संबन्धी प्रशिक्षण कार्यशाला, विशिष्ट व्याख्यान भी इसमें आयोजित किये जाते हैं ।
इस विभाग का संचालन तिब्बती प्रशासन विभाग धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) द्वारा होता है। इसमें छात्रों के लिये बी. ए. बी.एड., बी. एस. सी. बी. एड. ये चार पाठ्यक्रम संचालित होते हैं । इसमें बी.एड. कोर्स द्विवर्षीय है तथा चार साल का एकीकृत बी. ए. बी. एड. इनोवेटिव कोर्स संचालित होता है । इसमें अनुशासन, प्रशासन, स्वास्थ्य, मनोविज्ञान, तर्कशास्त्र, मन विज्ञान, बौद्धदर्शन, तत्त्वमीमांसा, तान्त्रिक विज्ञान तथा संज्ञानात्मक विज्ञान की शिक्षा दी जाती है । अपने निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति के लिये विभागीय सदस्य यथाकालिक व्याख्यान, वेबिनार इत्यादि कार्यक्रमों का कुशल संचालन करते हैं । इस विभाग में निदेशक (सी.टी.ई.) कार्यालय सहायक, पुस्तकालयाध्यक्ष तथा अनेक सहायक आचार्य नियुक्त होकर अपनी श्लाघनीय सेवा दे रहे हैं । उपाधि प्राप्त अनेक छात्र केन्द्रीय तिब्बती विद्यालय, मठ तथा बौद्ध विहारों में रोजगार प्राप्त कर शिक्षक पद पर कार्यरत हैं ।
इस संकाय के अन्तर्गत अभी एकमात्र समाजशास्त्र विभाग संचालित होता है । इसमें तिब्बती इतिहास, एशिया इतिहास, राजनीति विज्ञान तथा अर्थशास्त्र विषय का अध्ययन वैकल्पिक ‘खवर्ग’ एक प्रश्नपत्र के रूप में स्नातक कक्षा पर्यन्त किया जाता है। छात्र इन उपर्युक्त विषयों में से किसी एक को ही अध्ययन का विषय बना सकते हैं । इन सभी विषयों का बौद्ध साहित्य से गहरा सम्बन्ध है । सामाजिक, राजनीतिक व ऐतिहासिक विचारों के साथ छात्र बौद्ध धर्म दर्शन के विचारों की तुलना करते हैं । इस विभाग ने अभी तत्काल तिब्बती इतिहास में स्नातकोत्तर अध्ययन, एम. फिल. तथा पी-एच. डी. कोर्स भी प्रारम्भ कर दिया है। सभी विभागीय सदस्य छात्रों के ज्ञान व अनुभव के विस्तार के लिए यथाकालिक शैक्षणिक भ्रमण, संगोष्ठी, कार्यशाला व विशिष्ट व्याख्यान का आयोजन भी करते रहते हैं। विभाग में विभागाध्यक्ष तथा संकायाध्यक्ष के अतिरिक्त आचार्य, सह-आचार्य तथा सहायक आचार्य परिश्रमपूर्वक दृढ़ निष्ठा के साथ अपने दायित्व का भलीभाँति निर्वाह करते हैं।
इसके अन्तर्गत तिब्बती चित्रकला तथा तिब्बती काष्ठकला ये दो विभाग कार्यरत हैं। इसमें तिब्बती पट चित्र निर्माण के साथ बौद्ध दर्शन, चित्रकला, इतिहास, हस्तकला, दर्शन एवं इतिहास, भारतीय पाश्चात्य कला इतिहास व सौन्दर्य शास्त्र, तिब्बती भाषा एवं साहित्य, हिन्दी तथा अंग्रेजी शिक्षा दी जाती है । प्राचीन विद्वानों से प्राप्त चित्रलेखन कला की धरोहर तथा उसकी तकनीक सिखायी जाती है । तिब्बती काष्ठ कला के साथ बौद्ध दर्शन आदि का ज्ञान प्रदान करने के लिये यह विभाग कृत संकल्प है । चित्रलेखन में प्रयुक्त उपकरण आदि को सूक्ष्म पद्धति से सिखाया जाता है। विभाग काष्ठ पर कप-प्लेट, चम्मच आदि भोजनपात्र तथा सजावट की विविध वस्तुओं को तैयार कर उच्च कार्यक्रमों के आयोजन पर उनकी प्रदर्शनी भी लगाता है। इसके अतिरिक्त छात्रों के लिये शैक्षणिक भ्रमण, प्रासंगिक गोष्ठियों, विशिष्ट व्याख्यान आदि का आयोजन भी कराता है ।
इस संकाय के अन्तर्गत ये दो विभाग सेवारत हैं - (क) सोवा-रिग्पा विभाग (ख) भोट ज्योतिष विभाग
प्राचीन तिब्बती स्वास्थ्य रक्षा की परम्परा के संरक्षण एवं संवर्धन के लिये 1993 ई. में इस संकाय की स्थापना की गई । तिब्बती चिकित्सा पद्धति का संरक्षण संवर्धन व जनसामान्य एवं विपुल समाज को स्वास्थ्य सेवायें प्रदान करना संकाय का लक्ष्य है । इसमें स्नातकोत्तर (एम.डी. आयुर्वेदाचार्य) अध्ययन की व्यवस्था की गई है। इसके अतिरिक्त पी-एच. डी., एम. फिल. आदि शोधकार्य भी संचालित हैं । इस संकाय के वाग्भट्ट पुस्तकालय में 130 खण्डों में तिब्बत में मुद्रित व प्रकाशित दुर्लभ तिब्बती चिकित्सा की पाण्डुलिपियाँ खरीदी गयीं ।
संकाय में फार्माकोपिया इकाई के तहत पारम्परिक औषधि की पहचान, शुद्ध प्रभावकारिता साबित की जाती है । इस समय औषधकोश ग्रन्थ भी तैयार किया जा रहा है, वहीं चरकसंहिता का संस्कृत से तिब्बती में अनुवाद भी चल रहा है। औषधि के निर्माण का तरीका भी सिखाया जाता है । हिमालयीन क्षेत्र से दवा खरीदी जाती है।
निदान केन्द्र में चिकित्सकों के द्वारा मरीजों के विभिन्न रोगों का निदान किया जाता है । जिसमें छात्र प्रति सप्ताह वहाँ जाकर उसका व्यावहारिक ज्ञान लेते हैं, साथ ही हीमेटोलॉजी यूरिन सुम स्टूल आदि के ज्ञानवर्धन हेतु कक्षायें चलाई जाती हैं । प्रायोगिक पद्धति से छात्रों को हर स्तर पर शिक्षा दी जाती है । दूरदराज से मरीज विभिन्न रोगों का उपचार कराकर औषधि ले जा हैं । चिकित्सा खंड थेरेपी विंग चिकित्सा सुविधा भी जुलाई 2019 से युथोक सोवा- रिपा चिकित्सा खंड में 10 शय्या अन्तरंग चिकित्सा उपचार की व्यवस्था की गई है । बी.एस. आर. एम. एस. के छात्रों को चिकित्सकीय प्रभाव व शिक्षण प्रक्रिया भी बताई जाती है । अस्थि, मालिश, हड्डी जोड़ने सम्बन्धी कार्यों का प्रशिक्षण छात्रों को दिया जाता है।
संकाय की विशिष्ट योजनाओं में तवांग परियोजना मेन्मेग्याला, पट्टा आधारित भूमि पर वृक्षारोपण, वृक्षारोपण भूमि योजना, औषधि पौधों की प्रदर्शनी इत्यादि योजनायें प्रगति पथ पर अग्रसर हैं । अभी भारत सरकार द्वारा प्रदत्त विपुल अनुदान से नवीन भव्य चिकित्सालय का निर्माण चल रहा है जिसमें 4 चिकित्सा भवन तैयार हो चुके हैं। शेष निर्माण कार्य भी द्रुतगति से चल रहा है ।
संकाय में आचार्य, सह आचार्य, सहायक आचार्य पदों पर तिब्बती विद्वान् शिक्षण कार्यरत हैं । ये विद्वान् नाड़ी देखकर रोग के लक्षण को जानकर तदनुरूप निदान भी करते हैं । इसी के साथ औषधालय सहायक, अतिथि प्राध्यापक, चिकित्सक, फर्मकोपिया सहायक, औषधि वितरक, नर्स आदि अत्यन्त निष्ठापूर्वक जनसेवा में तत्पर होकर कुशलता के साथ समर्पित हैं ।
परम्परागत प्राचीन भोट ज्योतिष की शिक्षा इस विभाग के द्वारा स्नातकोत्तर पर्यन्त दी जाती है। इसके द्वारा भारतीय पञ्चाङ्ग की तरह भोट वार्षिक पञ्चाङ्ग भी प्रकाशित किया जाता है। इसके अतिरिक्त शोधकार्य भी संचालित है । भारतीय ज्योतिष में प्रारम्भिक शीघ्रबोध, होड़ाचक्र, मुहूर्त चिन्तामणि आदि शास्त्रों की संस्कृत में शिक्षा भी दी जाती है। विभाग देशी-विदेशी ज्योतिष विद्वानों के विशिष्ट व्याख्यान, संगोष्ठियों तथा प्रायोगिक कार्यशालाओं का आयोजन भी यथासमय करता रहता है । विभाग में विभागाध्यक्ष के अलावा आचार्य, सह आचार्य तथा सहायक आचार्य शिक्षण कार्य करते हैं ।
संस्थानीय शोध विभाग संस्थान के निर्धारित प्रमुख लक्ष्य व संकल्प से साक्षात् सम्बन्ध रखता है । यह संस्थान की कार्य योजना में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करता है । तिब्बती भाषा में प्राचीन भारतीय संस्कृत बौद्ध शास्त्रों की परम्परा का भरपूर स्वागत हुआ । तिब्बती आचार्यों ने अनुवाद के माध्यम से भारतीय ज्ञान-परम्परा को सुरक्षित बनाये रखा, ऐसा जानकर किस भारतीय अध्येता मनीषी का हृदय प्रसन्न नहीं होगा ? मूल संस्कृत बौद्ध शास्त्रों के लुप्त हो जाने से यह विभाग संस्थान के आरम्भकाल से ही तिब्बती अनुवाद के आधार पर संस्कृत में उनका पुनरुद्धार अनुवाद आदि कार्य में दत्तचित्त है । यह कार्य संस्कृत पण्डितों की सहायता से किया जाता है । इस विभाग के चार उपविभाग हैं- पुनरुद्धार, अनुवाद, दुर्लभ बौद्ध ग्रन्थ शोध विभाग तथा कोश विभाग।
इस विभाग ने नागार्जुन आर्यदेव, शान्तरक्षित, कमलशील, अतीश, दीपंकर इत्यादि अनेक आचार्यों के शास्त्रों का संस्कृत पुनरुद्धार, समीक्षा तथा हिन्दी अनुवाद के साथ सम्पन्न कर तथा उसे प्रकाशित कराकर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । पुराकाल में तिब्बती में अनूदित प्राचीन पोथी में एक या दो भारतीय पण्डितों तथा तिब्बती अनुवादक का नाम अन्त में उल्लिखित मिलता है । इस शोध कार्य से संस्कृत मूल प्राप्त हो जाने से शोधार्थियों का निश्चित रूप से उपकार हुआ तथा विदेशी बौद्ध अध्येताओं के शोध-अध्ययन में यह कार्य सहायक सिद्ध हुआ । तिब्बत में अनुवाद कार्य कई शताब्दियों तक चलता रहा, जिसे तिब्बती शरणार्थी एवं राहुल सांकृत्यायन जैसे विद्वान् जिस किसी तरह से पराधीन तिब्बत से भारत लाने में सफल रहे। इस विभाग में कार्यरत विद्वान् संस्कृत विभाग से संस्कृत का अध्ययन कर व उसमें दक्षता प्राप्त कर इस उत्कृष्ट महत्त्वपूर्ण पुनरुद्धार कार्य को संस्कृत मनीषी के पर्यवेक्षण में करते हैं। अपने कार्य में महत्त्वपूर्ण दिशा-निर्देश की प्राप्ति के लिये यथाकालिक संगोष्ठियों, अनुवाद-कार्यशालाओं का आयोजन भी करते रहते हैं। विभाग में अनेक आचार्य, सह आचार्य, सहायक आचार्य तथा शोध सहायक अपना उत्कृष्ट योगदान दे रहे हैं।
शोध कार्य में अनुवाद प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण योगदान है । किसी भी शास्त्र का अनेक भाषाओं में अनुवाद किये जाने से उसकी उपयोगिता बढ़ जाती है। मान लीजिए किसी विदेशी या स्वदेशी विद्वान् की अंग्रेजी में अधिक दक्षता हो और वह बौद्ध दर्शन विज्ञ भी हो, तब उस बौद्ध दर्शन के ग्रन्थ का विस्तृत परिचय, अनुवाद सन्दर्भ संकेत अंग्रेजी में उपलब्ध होने से उसे अध्ययन में सहायता मिलेगी । इसी तरह जो संस्कृत में विशेष दक्ष नहीं है, तब उसे हिन्दी अनुवाद संस्कृत मूलक ग्रन्थ को समझने में आसानी होगी। इस तरह अनुवादक को तीन-चार सामयिक भाषाओं का ज्ञान अपरिहार्य है ।
यह विभाग बुद्धवचन के साथ उन पर प्राचीन भारतीय बौद्ध आचार्यों की टीकाओं तथा भोट आचार्यों द्वारा विरचित ग्रन्थों के अनुवाद एवं भोटपाठ का सम्पादन सहित शोधपरक सन्दर्भों, समीक्षात्मक भूमिका-लेखन द्वारा ग्रन्थों के सतत प्रकाशन में तत्पर है। ऐसे अनेक प्राचीन बौद्ध वाङ्मय के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का पुनरुद्धार कर, संस्कृत में अनुवाद कर समीक्षा के साथ उन्हें प्रकाशित किया गया है। कुछ ग्रन्थों के अनुवाद तिब्बती, संस्कृत, हिन्दी व अंग्रेजी- इन चार भाषाओं तक में किये गये । अनूदित बौद्ध धर्म व दर्शन के प्रकाशित ग्रन्थों से निश्चित रूप से बौद्ध दार्शनिक प्रक्रिया को समझने तथा गुत्थियों को सुलझाने में अनुसन्धाताओं को पर्याप्त सहायता मिली है। समस्त अनूदित बौद्ध वाङ्मय को संस्थान के प्रकाशन विभाग से प्राप्त किया जा सकत है। विभाग यथासमय अनुवाद की समस्याओं पर विचार-विमर्श एवं बहुमूल्य सुझाव प्राप्त करने हेतु कार्यशालाओं, संगोष्ठियों व विशिष्ट व्याख्यानों का आयोजन करता है। विभाग में आचार्य, सह आचार्य, सहायक आचार्य तथा शोध सहायक अपने दायित्व का परिश्रम पूर्वक निर्वाह करते हैं ।
यह संस्थानीय शोध योजना का एक महत्त्वपूर्ण विभाग है । विलुप्त बौद्ध वाङ्मय में विशेषकर बौद्धतन्त्र साहित्य का पुनरुद्धार, सम्पादन व प्रकाशन तथा शोध परिकल्पना के दायित्व का भलीभाँति निर्वाह करता है। विभाग 1985 ई. से सेवारत होकर नेपाल एवं तिब्बत की पाण्डुलिपियों का नेवारी, शारदा, ब्राह्मी इत्यादि लिपियों से देवनागरी में अवतरण कर विशुद्ध सम्पादन करने हेतु पूर्णतया समर्पित है । विमलप्रभा टीका, हेवज्रतन्त्रम्, पञ्चविंशतिसाहस्र प्रज्ञापारमिता, सम्पादन के सिद्धान्त और उपादान, भारतीय तन्त्रशास्त्र, गुह्यादि अष्टसिद्धि, ज्ञानोदयतन्त्रम्, दुर्लभ बौद्धग्रन्थ परिचय, बौद्धतन्त्रकोश, लुप्त बौद्ध वचन संग्रह, वसन्ततिलका, डाकिनीजालसंवररहस्य, कृष्णयमारितन्त्रम्, महामायातन्त्रम्, सूत्र- तन्त्रोद्भवाः कतिपयधारणी- मन्त्राः, अध्यात्मसारशतकम्, योगिनीसंचारतन्त्रम्, चर्यामेलापकप्रदीपम्, तत्त्वज्ञानसंसिद्धिः, कुरुकुल्लाकल्पः, चक्रसंवरतन्त्रम्, बौद्धस्तोत्ररत्नाकरः, कालचक्रतन्त्रलघुग्रन्थसंग्रहः इत्यादि ऐसे ही अनेक दुर्लभ तन्त्र ग्रन्थों का प्रकाशन कर इस विभाग ने लुप्त व अप्रकाशित प्राचीन ज्ञान-सम्पदा को उपलब्ध कराकर बौद्ध जगत् का विशेष उपकार किया है। विभाग षाण्मासिकी शोध पत्रिका ‘धी:’ का यथासमय प्रकाशन कर कार्तिक पूर्णिमा तथा वैशाख पूर्णिमा को उसका लोकार्पण भी कराता है। अभी तक इसके 60 अंक प्रकाशित किये जा चुके हैं। इसमें अप्रकाशित दुर्लभ लघु ग्रन्थों, तन्त्र विषयक निबन्धों का प्रकाशन होता है। देश- विदेशीय विद्वानों के पास यह पत्रिका प्रेषित की जाती है। विभाग का एक अपना समृद्ध पुस्तकालय भी है। इसमें प्राचीन लिपि विशेषज्ञ आचार्य, सह आचार्य, सहायक आचार्य व शोध सहायक गहन परिश्रम कर यथासमय अपनी कार्ययोजना को सफल बनाते हैं ।
किसी भी ग्रन्थ के पाठ निर्धारण, शब्द समस्या तथा समीक्षा आदि कार्यों की सम्पन्नता के लिये शब्द समुद्र कोश की शरण में जाना ही पड़ता है। जहाँ एक अर्थ के प्रतिपादक सभी शब्द व उनके सन्दर्भ एक ही स्थान पर मिल जाते हैं । कोश संरचना वस्तुतः एक कठिन कार्य है । व्याकरण उपमान, आप्त वचन इत्यादि के अलावा कोश में भी शक्ति ग्रहण की क्षमता होती है । बौद्ध धर्म दर्शन जहाँ अगाध है, विपुल ग्रन्थराशि है । उसके आधार पर सन्दर्भों के अन्वेषण में बड़ा आयास करना होता है । इसी दृष्टि से संस्थान ने शोधकार्य में कोश योजना बनाकर कोश विभाग की स्थापना की । इस योजना में विभाग द्वारा भोट संस्कृत कोश के अभी तक 16 भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं । उपलब्ध भोट संस्कृत कोशों में यह कोश एक अत्यन्त प्रशस्त व समृद्ध कोश है। भोट संस्कृत सन्दर्भ निर्देशिका कोश भी प्रकाशित हो चुका है । भोट संस्कृत छात्रोपयोगी कोश, भोट संस्कृत आयुर्विज्ञान कोश, ज्योतिष कोश, अभिधर्मकोश इत्यादि की रचना का कार्य अन्तिम चरण में है । वहीं भावी योजनाओं में बौद्धन्यास कोश, तिब्बती हिन्दी कोश, ग्रन्थकोश, क्रियाकोश इत्यादि भी कार्ययोजना के तहत प्रस्तावित हैं ।
विभाग यथासमय कोश के विख्यात सुधीजनों को आमन्त्रित कर संगोष्ठियों तथा कार्यशालाओं का आयोजन करता है । इसमें भी आचार्य, सह आचार्य, सहायक आचार्य तथा शोध सहायक विद्वान् दत्तचित्त होकर अपने दायित्व का यथावत् निर्वाह करते हैं ।
तिब्बती साहित्य के बृहत् इतिहास को तैयार करने के लिये तिब्बती साहित्य केन्द्र की स्थापना की गई । तिब्बती में संस्कृत से अनूदित ग्रन्थों की संख्या प्रायः 5 हजार तथा तिब्ब विद्वानों की विविध विषयों पर एक लाख से अधिक रचनायें उपलब्ध हैं । इस केन्द्र में एक वरिष्ठ अनुसन्धाता ने बृहत् तिब्बती साहित्य का इतिहास के प्रारूप की चार भागों में रचना कर दी है, जो सम्पन्न होने की स्थिति में है । इसके अतिरिक्त केन्द्र ने अनुवाद व व्याख्या ग्रन्थ के रूप में अन्य साहित्यिक रचनायें भी प्रकाशित की हैं ।
बौद्ध दर्शन शास्त्र के विश्वविख्यात प्राचीनतम नालन्दा आचार्य शान्तरक्षित ( 8वीं सदी) के नाम पर ग्रन्थालय का नामकरण किया गया है। यह ग्रन्थालय विविध प्राचीनतम पोथियों का संग्रहालय है। इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं उपादेय कंग्युर-तंग्युर सेक्सन है। इसमें पत्राकार रूप में काष्ठ फलक तथा पीले रेशमी वस्त्र से लपेट कर पुन:- भोट आचार्यों द्वारा संस्कृत से तिब्बती में अनूदित प्राचीन पाण्डुलिपियों का संग्रह है । व्याकरण, काव्य, बौद्ध धर्म-दर्शन, तन्त्र तथा टीकाओं पर हजारों हस्तलेख हैं । तिब्बती आचार्यों द्वारा रचित स्वतन्त्र ग्रन्थ भी हस्तलेख के रूप में सुरक्षित हैं। इसमें बुद्धवचन को कंग्युर तथा उन पर टीका व्याख्याओं को तंग्युर के रूप में समझना चाहिए। यह कार्य भारतीय आचार्यों तथा भोट आचार्यों के परस्पर सहयोग से हजारों वर्षों की अवधि में बौद्ध संस्कृत ग्रन्थ राशि का तिब्बती में लगातार अनुवाद किया गया था । इसे तिब्बती विद्वान् प्रमुख चोमदेन रिगपई राल्ट्री के रूप में जाना जाता है । इसके पश्चात् इस कार्य को सूचीबद्ध कर विशाल कंग्युर व तंग्युर में वर्गीकृत किया गया। 1608 ई. में प्रथम भाग लिथांग कंग्युर प्रस्तुत किया गया था । इसके पश्चात् अनेक संस्करणों में देगे, तंग्युर, ल्हासा कंग्युर, देले थेलपा कंग्युर, नार्थन कंग्युर, लद्दाख तोग कंग्युर, उर्ग कंग्युर इत्यादि में किया गया । इसमें पारम्परिक तिब्बती चिकित्सा, कला ( थंका चित्रकला) भी संग्रह का एक भाग है | 2019-20 ई. तक विभागीय कोष में 38,997 व्यक्तिगत किताबें तिब्बती भाषा में विद्यमान हैं । इसमें काष्ठोत्कीर्णित ग्रन्थ भी सुरक्षित हैं।
शान्तरक्षित ग्रन्थालय माइक्रोफिच, माइक्रोफिल्म, आडियो, वीडियो प्रलेख जैसी आधुनिक तकनीकी सुविधाओं से समृद्ध एवं सशक्त है । यह देश विदेशीय अध्येताओं व अनुसन्धाताओं के लिये उपयोगी साबित हो रहा है । इसके अन्तर्गत अवाप्ति, तकनीकी, इनफ्लिब्नेट, सामयिकी पत्र-पत्रिका, सन्दर्भ, तिब्बती कंग्युर तंग्युर, आदान-प्रदान, संचयागार, मल्टीमीडिया तथा कम्प्यूटर आदि अनुभाग कार्यरत हैं । इसमें पुस्तकालयाध्यक्ष, सहायक पुस्तकालयाध्यक्ष, तकनीकी अधिकारी, प्रलेखन अधिकारी, प्रोफेसनल असिस्टेन्ट, सेमी-प्रोफेसनल असिस्टेंट तथा अनेक संविदा नियुक्ति पर कर्मचारी सेवारत हैं।
इसमें प्रधान कार्यपालक अधिकारी कुलपति होते हैं । उसके बाद कुलसचिव, उपकुलसचिव, सहायक कुलसचिव जैसे महत्त्वपूर्ण पदों पर अधिकारी कार्यरत हैं । इसमें सोसाइटी समिति, प्रबन्ध परिषद्, विद्वत्परिषद्, वित्त समिति, योजना एवं प्रबोधक परिषत् तथा प्रकाशन समिति गठित हैं जो पृथक्-पृथक् निर्धारित कार्य-योजनाओं पर यथासमय आहूत की जाती हैं। इसके अन्तर्गत प्रशासन प्रथम, प्रशासन द्वितीय, परीक्षा, अनुरक्षण, वित्त तथा प्रकाश प्रमुख अनुभाग संस्थानीय प्रबन्धन का दायित्व निर्वाह करते हैं । शैक्षणिक कर्मचारियों की पत्रावलियों का रखरखाव, नियुक्ति प्रक्रिया, प्रशासनिक कार्य, परीक्षा सम्बन्धी गोपनीय कार्य, परिसर की स्वच्छता, बागवानी, भण्डारण वस्तु सुरक्षा, वित्तलेखा बजट, बिलों का भुगतान व वेतन सम्बन्धी कार्य समस्त शैक्षणिक व गैर शैक्षणिक विभागों के लिये आवश्यक संसाधनों को प्रदान करना, भवन-भूमि की सुरक्षा व निर्माण इत्यादि अनेक महत्त्वपूर्ण कार्यों को सभी सदस्य नियमित रूप से सम्पादित करते हैं । इसमें निजी सचिव कुलपति, निजी सचिव कुलसचिव, अनुभाग अधिकारी, वरिष्ठ सहायक, वरिष्ठ लिपिक, स्टेनो टाइपिस्ट, इलेक्ट्रीशियन, बहुउद्देश्यीय कर्मचारी, कम्प्यूटर टाइपिंग इन्स्ट्रक्टर, माली, सफाई, कर्मचारी तथा सेवा-निवृत्त कर्मचारी कार्यरत हैं ।
शोध पुनरुद्धार, अनुवाद, कोश, दुर्लभ बौद्ध ग्रन्थ तथा शिक्षण विभागीय सदस्यों द्वारा सम्पादित व व्याख्यायित ग्रन्थराशि तथा बाहरी विद्वानों के द्वारा भी रचित बौद्ध अध्ययन ग्रन्थों को विशुद्ध रूप में प्रकाशित करना एवं उनके क्रय-विक्रय की व्यवस्था करना अनुभाग प्रमुख कार्य है।
पुस्तकों के प्रकाशन, प्रूफ-संशोधन, रखरखाव के दायित्व का निर्वाह नियुक्त कर्मचारी दृढ़ता से करते हैं। भारत के अलावा विदेशों से भी मांगपत्र पर पत्रालय सेवा के द्वारा ग्रन्थों का सम्प्रेषण यथासमय किया जाता है । संस्थानीय एवं बाह्य लेखकों की पाण्डुलिपियों का गठित समिति परीक्षण भी करती है, वहीं सुन्दर आकर्षक प्रकाशन पर भी ध्यान देती है । यही विभाग सारस्वत सामग्री को शोधार्थियों तथा उत्कृष्ट विद्वानों तक पहुँचाकर वाङ्मय का विकास करता है। आस्ट्रिया, टोकियो, जापान, वेरलाग जर्मनी, हैम्वर्ग जर्मनी, चेन्नई, नई दिल्ली, लेह लद्दाख, देहरादून, मैसूर इत्यादि स्थानों पर पुस्तक-विनिमय का कार्य कर अपने प्रकाशन के स्तर को उच्चीकृत किया जाता है।
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