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वेदों के संहिता भाग में मंत्रों का शुद्ध रूप रहता है जो इश्वर स्तुति एवं विभिन्न यज्ञों के समय पढ़ा जाता है। अभिलाषा प्रकट करने वाले मंत्रों तथा गीतों का संग्रह होने से संहिताओं को संग्रह कहा जाता है। इन संहिताओं में अनेक इश्वर से सम्बद्ध सूक्त प्राप्त होते हैं। सूक्त की परिभाषा करते हुए वृहद्देवताकार कहते हैं-
सूक्त के चार भेद:- देवता, ऋषि, छन्द एवं अर्थ। अनेक सूक्त ईश्वर (विष्णु,शिव व ब्रह्मा) अथवा शक्ति (त्रिदेवी) को जो समर्पित है। इनमे साकार व निराकर दोनो ईश्वर को मान्यता प्राप्त है यह वेदो के सूक्त होते है अर्थात वेद हि होते है, यह भी श्रुति ग्रंथ है।
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सत्य सूक्त
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ऋषि - मधुच्छन्दा, निवास स्थान - पृथ्वीस्थानीय, सूक्त संख्या - ऋग्वेद 1.1
ऋग्वेदीय देवों में अग्नि का सबसे प्रमुख स्थान है। वैदिक आर्यों के लिए देवताओं में इन्द्र के पश्चात अग्नि देव का ही पूजनीय स्थान है। वैदिक मंत्रों के अनुसार अग्निदेव नेतृत्व शक्ति से सम्पन्न, यज्ञ की आहुतियों को ग्रहण करने वाला तथा तेज एवं प्रकाश का अधिष्ठाता हैं। अग्नि को द्यावापृथ्वी का पुत्र बताया गया है। मातरिश्वा भृगु तथा अंगिरा इसे भूतल पर लाए। अग्नि पार्थिव देव है। यज्ञाग्नि के रूप में इसका मूर्तिकरण प्राप्त होता है। अतः इसे ऋत्विक होता और पुरोहित बताया गया है। यह यजमानों के द्वारा विभिन्न देवों के उद्देश्य से अपने में प्रक्षिप्त हविष् को उनके पास पहुँचाता है।
यथा - अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् होतारं रत्नधातमम्॥
ऋग्वेद में अग्नि को धृतपृष्ठ, शोचिषकेश, रक्तश्मश्रु,रक्तदन्त, गृहपति, देवदूत, हव्यवाहन, समिधान, जातवेदा, विश्वपति, दमूनस, यविष्ठय, मेध्य आदि नामों से सम्बोधित किया गया है।
‘मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद् वायुरजायत’ पुरुष सूक्त के अनुसार अग्नि और इन्द्र जुडवां भाई हैं इसका रथ सोने के समान चमकता है और दो मनोजवा एवं मनोज्ञ वायुप्रेरित लाल घोड़ो द्वारा खींचा जाता है। अगि् न का प्रांचीनतम प्रयोजन दुष्टात्माओं और आक्रामक,अभिचारों को समाप्त करना है। अपने प्रकाश से राक्षसों को भगाने के कारण ये रक्षोंहन् कहे गए हैं। देवों की प्रतिष्ठा करने के लिए अग्नि का आह्वान किया जाता है- जैसे
सूक्त संख्या - 11, ऋषि - गृत्समद एवं हिरण्यस्तूप, निवास - द्युस्थानीय
पवित्र गायत्री मंत्र का सम्बन्ध सवितृ से ही माना जाता हैं सविता शब्द की निष्पत्ति सु धातु से हुई है जिसका अर्थ है - उत्पन्न करना, गति देना तथा प्रेरणा देना। सवितृ देव का सूर्य देवता से बहुत साम्य है। सविता का स्वरूप आलोकमय तथा स्वर्णिम है। इसीलिए इसे स्वर्णनेत्र, स्वर्णहस्त, स्वर्णपाद, एवं स्वर्ण जिव्य की संज्ञा दी गई है। उसका रथ स्वर्ण की आभा से युक्त है जिसे दोया अधिक लाल घोड़े खींचते है, इस रथ पर बैठकर वह सम्पूर्ण विश्व में भ्रमण करता है। इसे असुर नाम सेभी सम्बोधित किया जाता है। प्रदोष तथा प्रत्यूष दोनों से इसका सम्बन्ध है। हरिकेश, अयोहनु, अंपानपात्, कर्मक्रतु, सत्यसूनु, सुमृलीक, सुनीथ आदि इसके विशेषण हैं।
ऋषि - दीर्घतमा, निवास स्थान - द्युस्थानीय, सूक्त संख्या - 5
निरुक्त के अनुसार विष्णु शब्द विष् धातु से बनता है जिसका अर्थ है 'व्यापनशील होना', लोकों में अपनी किरणों को फैलाने वाला। इसका मूल धातु 'विश्' भी कहा गया है, जिससे विष्णु शब्द का एक अन्य अर्थ क्रियाशील होना भी है। यह सभी देवताओं में अधिक क्रियाशील है तथा उनकी सहायता भी करता है। ‘वृत्र’ वध के समय विष्णु ने इन्द्र की सहायता की थी। ऋग्वेद में विष्णु द्वारा तीन पगों में ब्रह्माण्ड को नापने का महत्वपूर्ण कार्य का वर्णन मिलता है। विष्णु के लिए ‘त्रिविक्रम’ शब्द का प्रयोग भी मिलता है जिसका अर्थ है सूर्य रूप विष्णु पृथ्वीलोक, द्युलोक और अंतरिक्ष में अपनी किरणों का प्रसार करते हैं तथा उनके प्रकाश से जरायुज, अण्डज और उद्भिज सभी प्रकार की सृष्टि होती है। विष्णु शरीर का अधिष्ठातृ देवता है। उनका उच्चलोक परमपद है जहाँ मधु उत्सव है। पक्षियों में ‘गरुड’ इनका वाहन है। विष्णु को उरुक्रम, उरगाय भीम गिरिष्ठा, वृष्ण, गिरिजा, गिरिक्षत, सहीयान् नामों से सम्बोधित किया गया है।
ऋषि - गृत्समद, निवास स्थान - अन्तरिक्ष, सूक्त संख्या -250
वेदीय देवों के प्रमुख देव इन्द्र है अपने महानकार्यो एवं गुणों के कारण इन्द्र आर्यों का राष्ट्रीय एवं जातीय देवता बन गया। ऋग्वेदानुसार इन्द्र के तीन विशेष गुण है- महान कार्यो को करने वाला, अतुल पराक्रमी तथा असुरों को युद्ध में जीतना।
यथा -
निरूक्ताकार यास्क कहते है - “ या च का च बलकृतिः इन्द्र कमेर्ण तत्”। इन्द्र के पिता ‘द्यौस’ अग्नि और पूषा भाई तथा इन्द्राणी पत्नी हैं। इन्द्र के आयुधों में वज्र प्रमुख है। जब इन्द्र सोमपान करते मरुत की सहायता पाकर वृत्र पर आक्रमण करते हैं तब इस युद्ध में द्युलोक और पृथ्वीलोक काँप उठते हैं, पर्वत नष्ट हो जाते हैं तथा उनसे जल के झरने बहने लगते हैं। जिससे सूखी नदियाँ जलपूर्ण हो प्रवाहित होने लगती हैं। यथादृ
ऋग्वेद में इन्द्र को वज्री, वज्रबाहु , शचीपति,शतक्रतु, मत्वान्, दस्योहन्ति, शिप्री, हरिशमश्रु, मनस्वान्, वसुपति, तुविष्मान् आदि नामों से जाना जाता है।
रुद्र भी देखें।
ऋषि - गृत्समद, निवास स्थान - अन्तरिक्ष, सूक्तसंख्या -3
ऋग्वेद में रुद्र को शक्तिशाली तथा भयंकर रूप में चित्रित किया गया है। दृढ़ अंगों से युक्त, यमराज आदि आठ मूर्तियों वाला प्रचण्ड पालन पोषण करने वाला व भूरे रंग का वह रुद्र दीप्तिमान् स्वर्णलंकारो से चमकता है। उसके पास विशेष आयुध हैं। शस्त्र के रूप में धनुष बाण धारण करता है। रुद्र रथ पर आसीन होकर नि त्य युवा सिंह के समान भंयकर शत्रुओं को मारने वाले और उग्र स्वरूप वाले हैं। ऋग्वेद में रुद्र को मरुतों का पिता एवं स्वामी भी कहा गया है। रुद्र ने मरुतों के पृश्नि नाम की गौओं के थनों से उत्पन्न किया था। रुद्र को स्वास्थ्य का देवता भी कहा गया है। यथा -
रुद्र के अधृष्म, द्रुतगामी, प्रचेतस् , विश्वनियन्ता, भिषसमम् मीढ़वान नीलोदर, नीलकण्ठ, लोहितपृष्ठ, चेकितान आदि विशेषण हैं।
ऋषि - वामदेव, निवास स्थान - पृथ्वी स्थानीय, सूक्त संख्या - 11
बृहस्पति एक ओर जहाँ युद्ध का देवता है, वहीं दूसरी ओर पुरोहित का कार्य भी करता है, एवं स्त्रोतों की रचना की करता है। इस प्रकार बृहस्पति में ब्राह्मण तथा क्षत्रिय दोनों की चरित्रगत विशेषताएँ पायी जाती हैं। इसकी पीठकाली तथा शृंग तीक्ष्ण हैं। बृहस्पति स्वर्णिम वर्ण का देवता है। यह शस्त्र के रूप में धनुष -बाण तथा परशु धारण करता है। बृहस्पति को वज्रिन भी कहा गया है वह युद्ध में इन्द्र की सहायता करता है। इस के बिना कोई भी यज्ञ कार्य पूर्ण नहीं हो सकता। बृहस् पति मनुष्यों को उत्तम वय, सौभाग्य प्रदान करता है, ऋणों को पृष्ठ, ब्रह्मणस्पति, शक्तिपुत्र, सुगोपाः, मरुत्संखा, द्युतिमान्, गणपति वाचस्पति भी कहा गया है।
ऋषि - कक्षीवान् एवं वसिष्ठ, निवास स्थान - द्युस्थानीय, सूक्तसंख्या - 50
अश्विनी देवता दो अलग-अलग भाई हैं। सुनहरी चमक सौन्दर्य और कमल की मालाओं से ये सदा विभूषित रहते हैं। इनका मार्ग स्वर्णमय है। अश्विनी देवता को मधु अतिप्रिय है। इनके रथ में तीन पहिए हैं और उनका वेग पवन से भी अधिक तेज है। इसमें सुनहरी पंखों वा ले घोडे़ जुते हैं। इस रथ को ऋभु नामक देवताओं ने बनाया था। वे उषा के प्रकट होने के अनन्तर और सूर्योदय के मध्य प्रकट होते हैं। अश्विनी देवता स्वर्ग के पुत्र है। उनको विवस्वान् और त्वष्टा की पुत्री सरण्यू का पुत्र भी कहा गया है। ये देवता कुशल चिकित्सक तथा स्वर्ग के वैद्य है। अश्विनौ के निचेतास, हिरण्यवर्तनी, रुद्रवर्तनी, पुरुशाकतमा, मधुपाणि, तमोहन्ता, शुभ्रस्पति , दिवोनपात् अश्वमद्या, वृष्णा आदि भी विशेषण हैं।
ऋषि - शुनःशेप एवं वशिष्ठ, निवास स्थान - द्युस्थानीय, सूक्त संख्या 12
वरुण देव द्युलोक और पृथिवी लोक को धारण करने वाले तथा स्वर्गलोक और आदित्य एवं नक्षत्रों के प्रेरक हैं। ऋग्वेद में वरुण का मुख्य रूप शासक का है। वह जनता के पाप पुण्य तथ सत्य असत्य का लेखा जोखा रखता है। ऋग्वेद में वरुण का उज्जवल रूप वर्णित है। सूर्य उसके नेत्र है। वह सुनहरा चोगा पहनता है और कुशा के आसन पर बैठता है। उसका रथ सूर्य के समान दीप्तिमान है तथा उसमें घोड़े जुते हुए हैं। उसके गुप्तचर विश्वभर में फैलकर सूचनाएँ लाते हैं। वरुण रा त्र और दिवस का अधिष्ठाता है। वह संसार के नियमों में चलाने का व्रत धारण किए हुए है। ऋग्वेद में वरुण के लिए क्षत्रिय स्वराट, उरुशंश, मायावी, धृतव्रतः दिवः कवि, सत्यौजा, विश्वदर्शन आदि विशेषणों का प्रयोग मिलता है।
ऋषि - दीर्घतमा, वामदेव, वसिष्ठ निवास स्थान - द्युस्थानीय, सूक्त संख्या 20
उषा शब्द वस् दीप्तौ धातु से निष्पन्न हुआ है। जिसकाअर्थ है प्रकाशमान होना। इस सौन्दर्य की देवी के उदित् होते ही आकाश का कोना कोना जगमगाने लगता है तथाविश्व हर्ष के अतिरेक से भर जाता है। यह प्रत्येक प्राणी को अपने कार्य में प्रवृत कर देती है। उषा का रथ चमकदार है और उसे लाल रंग के घोड़े खींचते है। उषा को रात्रि की बहन भी कहा गया है। आकाश से उत्पन्न होने के कारण उषा को स्वर्ग की पुत्री भी कहा गया है। उषा सूर्य की प्रेमिका है इसके अतिरिक्त उषा का सम्बन्ध अश्विनी कुमारो से भी कहा गया है। उषा अपने भक्तों को धन, यश, पुत्र आदि प्रदान करती हैं ऋग्वेद में उषा को रेवती, सुभगाः, प्रचेताः, विश्ववारा, पुराणवती मधुवती,ऋतावरी, सुम्नावरी, अरुषीः, अमर्त्या आदि विशेषणों से अलंकृत किया गया है।
ऋषि - कण्व, निवास स्थान - पृथ्वीस्थानीय, सूक्त संख्या - 120
नवम मण्डल से सम्बद्ध सोम, ऋग्वेद का प्रमुख देवता है। ऋग्वेदनुसार सोम एक वनस्पति थी जो मुंजवान पर्वत पर पैदा होती थी। इसका रस अत्यधिक शक्तिशाली एवं स्फूर्तिदायक था। सोमरस इन्द्र का प्रिय पेय पदार्थ था सोमरस का पान करके ही उसने वृत्र का वध किया था। सोमरस देवताओं को अमरत्व प्रदान करता है। सोम का वास्तविक निवास स्थान स्वर्ग ही है। श्येन द्वारा पृथ्वी पर औषधि के रूप में लाया गया है। ऋग्वेद में सोम को त्रिषधस्थ, विश्वजित्, अमरउद्दीपक, अघशंस, स्वर्वित्, पवमान आदि विशेषण मिलते हैं।
यह सूक्त शुक्ल यजुर्वेद के ३४वें अध्याय में है। इसमें छः मन्त्र हैं। मनुष्य के शरीर में प्रत्येक इन्द्रिय का अपना विशिष्ट महत्त्व है, परन्तु मन का महत्त्व सर्वोपरि है; क्योंकि मन सभी को नियन्त्रित करने वाला, विलक्षण शक्तिसम्पन्न तथा सर्वाधिक प्रभावशाली है। इसकी गति सर्वत्र है, सभी कर्मेन्द्रियाँ-ज्ञानेन्द्रियाँ, सुख-दुःख मनके ही अधीन हैं। स्पष्ट है कि व्यक्तिका अभ्युदय मनके शुभ संकल्पयुक्त होनेपर निर्भर करता है, यही प्रार्थना मन्त्रद्रष्टा ऋषिने इस सूक्तमें व्यक्त की है।
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