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गणितीय विश्लेषण से शब्दार्थ के अनुसार गणित को सरलतम तत्वों में विघटित करने का तात्पर्य होता है। ये तत्व अंततोगत्वा संख्याएँ ही हैं। क्रॉनेकर ने भी कहा है : ईश्वर ने धन पूर्णांकों की रचना की है, तथा अन्य सभी संख्याएँ मनुष्य द्वारा बनाई हुई हैं।
संख्या की कल्पना ने अनेक सामान्य सिद्धांतों से ही रूप ग्रहण किया है। हम धन पूर्णांकों से प्रारंभ करते हैं। जोड़ने तथा गुणन की कठिनाइयों को दूर करने के लिये ऋण संख्याओं तथा भिन्नांकों की कल्पना की गई तथा परिमेय संख्याओं (rational number) के निकायों का निर्माण हुआ। परिमेय संख्याओं का निकाय क्रमित है, अर्थात यदि इस निकाय की दो भिन्न संख्याएँ क तथा ख हों तो उनमें से एक दूसरी से बड़ी होगी, तथा यदि क> ख और ख >ग तो क > ग जबकि क ख और ग इस निकाय की संख्याएँ हैं। यदि दो भिन्न परिमेय संख्याएँ क तथा ख दी हुई हों तो हम सदा एक तीसरी परिमेय संख्या ग प्राप्त कर सकते हैं, जो इनमें से एक से बड़ी हो तथा दूसरे से छोटी हो। इससे यह सिद्ध होता है कि किन्हीं दो भिन्न परिमेय संख्याओं के बीच असंख्य परिमेय संख्याएँ होती हैं।
भिन्नाकों तथा ऋणांकों का समावेश दो दृष्टिकाणों से न्यायोचित सिद्ध किया जा सकता है। किसी इकाई के बराबर भागों में से कुछ को व्यक्त करने के लिये भिन्नाकों की आवश्यकता होती है तथा ऋण संख्याएँ विपरीत दिशाओं में स्थित मापों को नापने के लिये उपयुक्त साधन प्रदान करती हैं। इस तर्क को व्यावहारिक गणित के विद्वान का तर्क माना जा सकता है। दूसरी ओर शुद्ध गणितज्ञ का भी तर्क है। इसके लिये धन, ऋण, भिन्न तथा पूर्ण संख्याओं की कल्पना एक ऐसे आधार पर स्थित है जो मापों से स्वतंत्र है। इनकी दृष्टि में गणितीय विश्लेषण एक ऐसी पद्धति है जो केवल संख्याओं से संबद्ध है तथा जिसका नापी जानेवाली वस्तुओं से कोई वास्तविक संबंध नहीं है।
गणितीय विश्लेषण को पूर्णाकों की कल्पना पर आधारित करना संभव है। तत्पश्चात भिन्न प्रकार की संख्याओं की, उनके बीच समानता तथा असामनता की, तथा चारों आधारभूत संक्रियाओं की क्रमागत परिभाषाएँ अमूर्त रूप से प्रस्तुत की जा सकती हैं।
परिमेय से अपरिमेय तक की संख्याओं की कल्पना का विस्तार उतना ही स्वाभाविक है जितना धन पूर्णांकों से भिन्न संख्याओं तथा ऋण परिमेय संख्याओं तक का। सभी स्थितियों में हल संभव होने के लिए अपरिमेय संख्याओं की कल्पना की गई। यदि हमें ऐसे वर्ग की कर्ण रेखा को नापना हो जिसकी हर भुजा इकाई हो तो व्यावहारिक दृष्टि से भी इस विस्तार की आवश्यकता स्पष्ट हो जाती है।
अपरिमेय संख्याओं का समावेशन करने के लिये डेडकिंड (Dedekind) तथा कैंटर (Cantor) ने अपने अपने सिद्धांत प्रस्तुत किए। परिमेय तथा अपरिमेय संख्याएँ दोनों वास्तविक संख्याओं के नाम से अभिहित की जाती हैं। इसके बाद संख्या की कल्पना का विस्तार संमिश्र संख्याओं तक किया गया: x + i y एक संमिश्र संख्या है जहाँ x और y वास्तविक संख्याएँ हैं तथा i, -1 का वर्गमूल है। संख्याओं की कल्पना से चरों (Variables) की कल्पना का उदगम होता है, जो इन मूल्यों को ग्रहण करते हें। चरों की कल्पना से हम वास्तविक चरों के फलन अथवा संमिश्र चरों के फलन (Function) की कल्पना तक पहुँचते हैं। तब संमिश्र चरों के फलित सिद्धांत और वास्तविक चरों के फलन सिद्धांत का विकास होता है। यह सब गणितीय विश्लेषण के अंतर्गत आता है।
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