लौह स्तंभ
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दिल्ली का लौह स्तम्भ, दिल्ली में क़ुतुब मीनार के निकट स्थित एक विशाल स्तम्भ है। यह अपनेआप में प्राचीन भारतीय धातुकर्म की पराकाष्ठा है। यह कथित रूप से राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (राज ३७५ - ४१३) से निर्माण कराया गया, किन्तु कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसके पहले निर्माण किया गया, सम्भवतः ९१२ ईपू में। इस स्तम्भ की उँचाई लगभग सात मीटर है और पहले हिन्दू व जैन मन्दिर का एक भाग था। तेरहवीं सदी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने क़ुतुब मीनार की स्थापना की। लौह-स्तम्भ में लोहे की मात्रा करीब ९८% है और अभी तक जंग नहीं लगा है।
लगभग १६०० से अधिक वर्षों से यह खुले आसमान के नीचे सदियों से सभी मौसमों में अविचल खड़ा है। इतने वर्षों में आज तक उसमें जंग नहीं लगी, यह बात दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय है। जहां तक इस स्तंभ के इतिहास का प्रश्न है, यह चौथी सदी में बना था। इस स्तम्भ पर पाली जो खुदा हुआ है, उसके अनुसार इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। चन्द्रराज द्वारा मथुरा में विष्णु पहाड़ी पर निर्मित भगवान विष्णु के मंदिर के सामने इसे ध्वज स्तंभ के रूप में खड़ा किया गया था। इस पर गरुड़ स्थापित करने हेतु इसे बनाया गया होगा, अत: इसे गरुड़ स्तंभ भी कहते हैं। १०५० में यह स्तंभ दिल्ली के संस्थापक अनंगपाल द्वारा लाया गया।
इस स्तंभ की ऊँचाई ७३५.५ से.मी. है। इसमें से ५० सेमी. नीचे है। ४५ से.मी. चारों ओर पत्थर का प्लेटफार्म है। इस स्तंभ का घेरा ४१.६ से.मी. नीचे है तथा ३०.४ से.मी. ऊपर है। इसके ऊपर गरुड़ की मूर्ति पहले कभी होगी। स्तंभ का कुल वजन ६०९६ कि.ग्रा. है। १९६१ में इसके रासायनिक परीक्षण से पता लगा कि यह स्तंभ आश्चर्यजनक रूप से शुद्ध इस्पात का बना है तथा आज के इस्पात की तुलना में इसमें कार्बन की मात्रा काफी कम है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के मुख्य रसायन शास्त्री डॉ॰ बी.बी. लाल इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस स्तंभ का निर्माण गर्म लोहे के २०-३० किलो को टुकड़ों को जोड़ने से हुआ है। माना जाता है कि १२० कारीगरों ने () दिनों के परिश्रम के बाद इस स्तम्भ का निर्माण किया। आज से सोलह सौ वर्ष पूर्व गर्म लोहे के टुकड़ों को जोड़ने की उक्त तकनीक भी आश्चर्य का विषय है, क्योंकि पूरे लौह स्तम्भ में एक भी जोड़ कहीं भी दिखाई नहीं देता। सोलह शताब्दियों से खुले में रहने के बाद भी उसके वैसे के वैसे बने रहने (जंग न लगने) की स्थिति ने विशेषज्ञों को चकित किया है। इसमें फास्फोरस की अधिक मात्रा व सल्फर तथा मैंगनीज कम मात्रा में है। स्लग की अधिक मात्रा अकेले तथा सामूहिक रूप से जंग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा देते हैं। इसके अतिरिक्त ५० से ६०० माइक्रोन मोटी (एक माइक्रोन = १ मि.मी. का एक हजारवां हिस्सा) आक्साइड की परत भी स्तंभ को जंग से बचाती है।
इतिहासकारों ने महरौली के लोह स्तंभ को सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय के काल में रखा है और लोह स्तंभ में वर्णित राजा चंद्र को चंद्रगुप्त द्वितीय से जोड़ दिया है।
कुछ इतिहासकार मानते है कि उस लोह स्तंभ में जो लेख है वो गुप्त लेखो की शैली का है और कुछ कहते है कि चंद्रगुप्त द्वितीय के धनुर्धारी सिक्को में एक स्तंभ नज़र आता है जिसपर गरुड़ है ,पर वह स्तंभ कम और राजदंड अधिक नज़र आता है।
लोह स्तंभ के अनुसार राजा चंद्र ने वंग देश को हराया था और सप्त सिंधु नदियों के मुहाने पर वह्लिको को हराया था।
जेम्स फेर्गुससनजैसे पश्चिमी इतिहासकार मानते है कि यह लोह स्तंभ गुप्त वंश के चंद्रगुप्त द्वितीय का है।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह स्तंभ सम्राट अशोक का है जो उन्होंने अपने दादा चंद्रगुप्त मौर्य की याद में बनवाया था। इस संबंध में एक तथ्य और है कि राजा "चंद्र" शब्द की पहचान सूर्यवंशी राजा रामचंद्र से भी है। जिनका साम्राज्य लंका के समुद्र तट तक था।
स्तम्भ की सतह पर कई लेख और भित्तिचित्र विद्यमान हैं जो भिन्न-भिन्न तिथियों (काल) के हैं। इनमें से कुछ लेख स्तम्भ के उस भाग पर हैं जहाँ पर पहुँचना अपेक्षाकृत आसान है। फिर भी इनमें से कुछ का व्यवस्थित रूप से अध्ययन नहीं किया जा सका है। इस स्तम्भ पर अंकित सबसे प्राचीन लेख 'चन्द्र' नामक राजा के नाम से है जिसे प्रायः गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा लिखवाया गया माना जाता है। यह लेख 33.5 इंच लम्बा और 10.5 इंच चौड़े क्षेत्रफल में है। यह प्राचीन लेखन अच्छी तरह से संरक्षित है है क्योंकि यह स्तम्भ जंग-प्रतिरोधी लोहे से बना है। किन्तु उत्कीर्णन प्रक्रिया के दौरान, लोहे का कुछ अधिक भाग कटकर दूसरे अक्षरों से मिल गया है जिससे कुछ अक्षर गलत हो गए हैं।
जे एफ फ्लीट (J. F. Fleet) ने उपर्युक्त श्लोकों का 1888 में निम्नलिखित अनुवाद प्रस्तुत किया है-
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