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फ्रांसीसी शिक्षक और ब्रेल प्रणाली के आविष्कारक विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
लुई ब्रेल (4 जनवरी 1809 – 6 जनवरी 1852) फ्रांस के शिक्षाविद तथा अन्वेषक थे जिन्होने अंधों के लिये लिखने तथा पढ़ने की प्रणाली विकसित की। यह पद्धति 'ब्रेल' नाम से जगप्रसिद्ध है। फ्रांस में जन्मे लुई ब्रेल अंधों के लिए ज्ञान के चक्षु बन गए। ब्रेल लिपि के निर्माण से नेत्रहीनों की पढ़ने की कठिनाई को मिटाने वाले लुई स्वयम भी नेत्रहीन थे।
लुइस ब्रेल का जन्म 4 जनवरी 1809 में फ्रांस के छोटे से ग्राम कुप्रे में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। इनके पिता साइमन रेले ब्रेल शाही घोडों के लिये काठी और जीन बनाने का कार्य किया करते थें। पारिवारिक आवश्यकताओं के अनुरूप पर्याप्त आर्थिक संसाधन नहीं होने के कारण साइमन केा अतिरिक्त मेहनत करनी होती थी इसीलिये जब बालक लुइस मात्र तीन वर्ष के हुये तो उनके पिता ने उसे भी अपने साथ घोड़ों के लिये काठी और जीन बनाने के कार्य में लगा लिया। अपने स्वभाव के अनुरूप तीन वर्षीय बालक अपने आस पास उपलब्ध वस्तुओं से खेलने में अपना समय बिताया करता था इसलिये बालक लुइस के खेलने की वस्तुये वही थीं जो उसके पिता द्वारा अपने कार्य में उपयोग की जाती थीं जैसे कठोर लकड़ी, रस्सी, लोहे के टुकडे, घोड़े की नाल, चाकू और काम आने वाले लोहे के औजार। किसी तीन वर्षीय बालक का अपने नजदीक उपलब्ध वस्तुओं के साथ खेलना और शरारतों में लिप्त रहना नितांत स्वाभाविक भी था। एक दिन काठी के लिये लकड़ी को काटते में इस्तेमाल किया जाने वाली चाकू अचानक उछल कर इस नन्हें बालक की आंख में जा लगी और बालक की आँख से खून की धारा बह निकली। रोता हुआ बालक अपनी आंख को हाथ से दबाकर सीधे घर आया और घर में साधारण जडी लगाकर उसकी आँख पर पट्टी कर दी गयी। शायद यह माना गया होगा कि छोटा बालक है सेा शीघ्र ही चोट स्वतः ठीक हो जायेगी। बालक लुइस की आंख के ठीेक होने की प्रतीक्षा की जाने लगी। कुछ दिन बाद बालक लुइस ने अपनी दूसरी आंख से भी कम दिखलायी देने की शिकायत की परन्तु यह उसके पिता साइमन की साघन हीनता रही होगी अथवा लापरवाही जिसके चलते बालक की आँख का समुचित इलाज नहीं कराया जा सका और धीरे धीरे वह नन्हा बालक आठ वर्ष का पूरा होने तक पूरी तरह दृष्टि हीन हो गया। रंग बिरंगे संसार के स्थान पर उस बालक के लिये सब कुछ गहन अंधकार में डूब गया। अपने पिता के चमडे के उद्योग में उत्सुकता रखने वाले लुई ने अपनी आखें एक दुर्घटना में गवां दी। यह दुर्घटना लुई के पिता की कार्यशाला में घटी। जहाँ तीन वर्ष की उम्र में एक लोहे का सूजा लुई की आँख में घुस गया।
यह बालक कोई साधरण बालक नहीं था। उसके मन में संसार से लडने की प्रबल इच्छाशक्ति थी। उसने हार नहीं मानी और फा्रंस के मशहूर पादरी बैलेन्टाइन की शरण में जा पहुंचा। पादरी बैनेन्टाइन के प्रयासों के चलते 1819 में इस दस वर्षीय बालक को ‘ रायल इन्स्टीट्यूट फार ब्लाइन्डस् ’ में दाखिला मिल गया। यह वर्ष 1821 था। बालक लुइस अब तक बारह बर्ष का हो चुका था। इसी दौरान विद्यालय में बालक लुइस केा पता चला कि शाही सेना के सेवानिवृत कैप्टेन चार्लस बार्बर ने सेना के लिये ऐसी कूटलिपि का विकास किया है जिसकी सहायता से वे टटोलकर अंधेरे में भी संदेशों के पढ सकते थे। कैप्टेन चार्लस बार्बर का उद्देश्य युद्व के दौरान सैनिकों को आने वाली परेशानियों को कम करना था। बालक लुइस का मष्तिष्क सैनिकों के द्वारा टटोलकर पढ़ी जा सकने वाली कूटलिपि में दृष्ठिहीन व्यक्तियो के लिये पढने की संभावना ढूंढ रहा था। उसने पादरी बैलेन्टाइन से यह इच्छा प्रगट की कि वह कैप्टेन चार्लस बार्बर से मुलाकात करना चाहता है। पादरी ने लुइस की कैप्टेन से मुलाकात की व्यवस्था करायी। अपनी मुलाकात के दौरान बालक ने कैप्टेन के द्वारा सुझायी गयी कूटलिपि में कुछ संशोधन प्रस्तावित किये। कैप्टेन चार्लस बार्बर उस अंधे बालक का आत्मविश्वाश देखकर दंग रह गये। अंततः पादरी बैलेन्टाइन के इस शिष्य के द्वारा बताये गये संशोधनों को उन्होंने स्वीकार किया।
कालान्तर में स्वयं लुइस ब्रेल ने आठ वर्षो के अथक परिश्रम से इस लिपि में अनेक संशोधन किये और अंततः 1829 में छह बिन्दुओ पर आधारित ऐसी लिपि बनाने में सफल हुये। लुइस ब्रेल के आत्मविश्वाश की अभी और परीक्षा होना बाकी था इसलिये उनके द्वारा आविष्कृत लिपि को तत्कालीन शिक्षाशाष्त्रियों द्वारा मान्यता नहीं दी गयी और उसका माखौल उडाया गया। सेना के सेवानिवृत कैप्टेन चार्लस बार्बर के नाम का साया लगातार इस लिपि पर मंडराता रहा और सेना के द्वारा उपयोग में लाये जाने के कारण इस लिपि केा सेना की कूटलिपि ही समझा गया परन्तु लुइस ब्रेल ने हार नहीं मानी और पादरी बैलेन्टाइन के संवेदनात्मक आर्थिक एवं मानसिक सहयोग से इस शिष्य ने अपनी अविष्कृत लिपि को दृष्ठि हीन व्यक्तियों के मध्य लगातार प्रचारित किया। उन्होंने सरकार से प्रार्थना की कि इसे दृष्ठिहीनों की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की जाय। यह लुइस का दुर्भाग्य रहा कि उनके प्रयासों को सफलता नहीं मिल सकी और तत्कालीन शिक्षाशाष्त्रियों द्वारा इसे भाषा के रूप में मान्यता दिये जाने योग्य नहीं समझा गया। अपने प्रयासों केा सामाजिक एवं संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिये संर्घषरत लुइस 43 वर्ष की अवस्था में अंततः 1852 में जीवन की लडाई से हार गये परन्तु उनका हौसला उनकी मृत्यु के बाद भी नहीं मरा।
उनका देहान्त ६ जनवरी १८५२ को हुआ। लुइस ब्रेल द्वारा अविष्कृत छह बिन्दुओ पर आधारित लिपि उनकी मृत्यु के उपरान्त दृष्ठिहीनों के मध्य लगातार लोकप्रिय होती गयी। लुइस की मृत्यु की घटना के बाद शिक्षाशाष्त्रियों द्वारा उनके किये गये कार्य की गम्भीरता को समझा जाने लगा और दृष्ठिहीनों के मध्य लगातार मान्यता पाती जा रही लिपि के प्रति अपने पूर्वाग्रहपूर्ण दकियानूसी विचारों से बाहर निकलतें हुये इसे मान्यता प्रदान करने की दिशा में विचारित किया गया। अंततः लुइस की मृत्यु के पूरे एक सौ वर्षों के बाद फ्रांस में 20 जून 1952 का दिन उनके सम्मान का दिवस निर्धारित किया गया। इस दिन उनके ग्रह ग्राम कुप्रे में सौ वर्ष पूर्व दफनाये गये उनके पार्थिव शरीर के अवशेष पूरे राजकीय सम्मान के साथ बाहर निकाले गये। उस दिन जैसे लुइस के ग्राम कुप्रे में उनका पुर्नजन्म हुआ। स्थानीय प्रशासन तथा सेना के आला अधिकारी जिनके पूर्वजों ने लुइस केे जीवन काल में उनकेा लगातार उपेक्षित किया तथा दृष्ठिहीनों के लिये उनकी लिपि को गम्भीरता से न लेकर उसका माखौल उडाया अपने पूर्वजों के द्वारा की गयी गलती की माफी मांगने के लिये उनकी समाधि के चारों ओर इकट्ठा हुये। लुइस के शरीर के अवशेष ससम्मान निकाले गये। सेना के द्वारा बजायी गयी शोक धुन के बीच राष्ट्रीय ध्वज में उन्हें पुनः लपेटा गया और अपनी ऐतिहासिक भूल के लिये उत्खनित नश्वर शरीर के अंश के सामने समूचे राष्ट् ने उनसे माफी मांगी। राष्ट्रीय धुन बजायी गयी और इस सब के उपरान्त धर्माधिकारियों के द्वारा दिये गये निर्देशन के अनुरूप लुइस से ससम्मान चिर निद्रा में लीन होने प्रार्थना की गयी और इसके लिये बनाये गये स्थान में उन्हें राष्ट्रीय सम्मान के साथ पुनः दफनाया गया। सम्पूर्ण वातावरण ऐसा अनुभव दे रहा था जैसे लुइस पुनः जीवित हो उठे है।
इस प्रकार एक राष्ट के द्वारा अपनी ऐतिहासिक भूल का प्रायश्चित किया गया परन्तु लूइस द्वारा किये गये कार्य अकेले किसी राष्ट्र के लिये न होकर सम्पूर्ण विश्व की दृष्ठिहीन मानव जाति के लिये उपयोगी थे अतः सिर्फ एक राष्ट् के द्वारा सम्मान प्रदान किये जाने भर से उस मनीषी को सच्ची श्रद्वांजलि नहीं हो सकती थी। विगत वर्ष 2009 में 4 जनवरी को जब लुइस ब्रेल के जन्म को पूरे दो सौ वर्षों का समय पूरा हुआ तो लुई ब्रेल जन्म द्विशती के अवसर पर हमारे देश ने उन्हें पुनः पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जब इस अवसर पर उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया गया।
यह शायद पहला अवसर नहीं है जब मानव जाति ने किसी महान आविष्कारक के कार्य को उसके जीवन काल में उपेक्षित किया और जब वह महान आविष्कारक नहीं रहे तो उनके कार्य का सही मूल्यांकन तथा उन्हें अपेक्षित सम्मान प्रदान करते हुये अपनी भूल का सुधार किया। ऐसी परिस्थितियां सम्पूर्ण विश्व के समक्ष अक्सर आती रहती हैं जब किसी महान आत्मा के कार्य को समय रहते ईमानदारी से मूल्यांकित नहीं किया जाता तथा उसकी मृत्यु के उपरान्त उसके द्वारा किये गये कार्य का वास्तविक मूल्यांकन हो पाता है। ऐसी भूलों के लिये कदाचित परिस्थितियों को निरपेक्ष रूप से न देख पाने की हमारी अयोग्यता ही हो सकती है।
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