Loading AI tools
विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
राष्ट्रों अथवा समूहों के प्रतिनिधियों द्वारा किसी मुद्दे पर चर्चा एवं वार्ता करने की कला व अभ्यास (प्रैक्टिस) राजनय (डिप्लोमैसी) कहलाता है।
आज के वैज्ञानिक युग में कोई देश अलग-अलग नहीं रह सकता। इन देशों में पारस्परिक सम्बन्ध जोड़ना आज के युग में आवश्यक हो गया है। इन सम्बन्धों को जोड़ने के लिए योग्य व्यक्ति एक देश से दूसरे देश में भेजे जाते हैं। ये व्यक्ति अपनी योग्यता, कुशलता और कूटनीति से दूसरे देश को प्रायः मित्र बना लेते हैं। प्राचीन काल में भी एक राज्य दूसरे राज्य से कूटनीतिक सम्बन्ध जोड़ने के लिए अपने कूटनीतिज्ञ भेजता था। पहले कूटनीति का अर्थ 'सौदे में या लेन देन में वाक्य चातुरी, छल-प्रपंच, धोखा-धड़ी' लगाया जाता था। जो व्यक्ति कम मूल्य देकर अधिकाधिक लाभ अपने देश के लिए प्राप्त करता था, कुशल कूटनीतिज्ञ कहलाता था। परन्तु आज छल-प्रपंच को कूटनीति नहीं कहा जाता है। वैज्ञानिक दृष्टि से आधुनिक काल में इस शब्द का प्रयोग दो राज्यों में शान्तिपूर्ण समझौते के लिए किया जाता है। डिप्लोमेसी के लिए हिन्दी में कूटनीति के स्थान पर राजनय शब्द का प्रयोग होने लगा है। अन्तर्राष्ट्रीय जगत एक परिवार के समान बन गया है। परिवार के सदस्यों में प्रेम, सहयोग, सद्भावना तथा मित्रता का सम्बन्ध जोड़ना एक कुशल राजनयज्ञ का काम है।[1]
'राजनय' शब्द अंग्रेजी शब्द 'डिप्लोमैसी' (Diplomacy) का हिन्दी रूपान्तरण है। डिप्लोमेसी शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के डिप्लाउन (Diploun) शब्द से हुई है जिसका अर्थ मोड़ना अथवा दोहरा करना (To fold) है। ग्रीक राज्यों के पतन के बाद रोमन साम्राज्य का विकास हुआ। रोमन साम्राज्य में पासपोर्ट एवं सड़कों पर चलने के अनुमति पत्र आदि दोहरे करके सील दिये जाते थे। ये पासपार्ट तथा अनुमति पत्र धातु के पत्रों पर खुदे रहते थे। इनको 'डिप्लोमा' कहा जाता था। धीरे-धीरे डिप्लोमा शब्द का प्रयोग सभी सरकारी कागजातों के लिए होने लगा। विदेशियों के विशेषाधिकार अथवा उन्मुक्ति एवं विदेशी सन्धियों सम्बन्धी कागजात भी 'डिप्लोमा' कहे जाने लगे। जब इन संधियों की संख्या अधिक हो गई तो उन्हें सुरिक्षत स्थानों पर रखा जाने लगा। ये स्थान बाद में 'राजकीय अभिलेखागारों' के नाम से जाने गये। राज्याभिलेखागारों के डिप्लोमाज की संख्या बढ़ने पर उनको छांट कर अलग करने ओर उनकी देखभाल रखने के लिए अलग से कर्मचारी नियुक्त किये जाने लगे। इन कर्मचारियों का कार्य राजनयिक कृत्य (Diplomatic Business) कहा गया। धीरे-धीरे इस कार्य व्यापार के लिए डिप्लोमेसी शब्द प्रयुक्त होने लगा।
राजनय शब्द का प्रयोग विचारकों द्वारा अनेक अर्थों में किया गया है। हेरल्ड निकलसन (Herold Nicolson) के अनुसार कभी इसका प्रयोग विदेश नीति के समानार्थक के रूप में लिया जाता है, जैसे भारतीय राजनय पड़ौसी देशों में सफल नहीं रही। कभी इस शब्द द्वारा संधि वार्ता को इंगित किया जाता है, जैसे इस समस्या को राजनय द्वारा सुलझाया जा सकता है। राजनय सन्धि वार्ता की प्रक्रिया एवं यंत्र को भी इंगित करता है। कभी-कभी विदेश सेवा की एक शाखा को राजनय कह दिया जाता है। राजनय को अन्तर्राष्ट्रीय सन्धि वार्ता करने का अमूर्त गुण या कुशलता भी मान लिया जाता है। इसका सबसे दूषित प्रयोग वह है जब इसे एक कपटतापूर्ण कार्य अर्थ में लिया जाता है।
इस प्रकार राजनय शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयेग किये जाने के कारण पाठक के मन में भ्रम उत्पन्न कर देता है। शायद राजनीति शास्त्र में यह शब्द सबसे अधिक भ्रम उत्पन्न करने वाला है। इस विषय में आर्गेंस्की (Organski) ने कहा है कि 'कुशलता, चतुराई एवं कपट’ सरीखे गुण एक अच्छे राजनय के लक्षण हो सकते हैं किन्तु इन्हें राजनय को परिभाषित करने वाली विशेषता नहीं कहा जा सकता है। राजनय विदेश नीति के समकक्ष भी नहीं। यह विदेश नीति का ऐसा अंग है जो उसकी रचना और क्रियान्विति में सक्रिय योगदान करता है।'
आर्गेन्सकी के अुनसार-
सर अर्नेस्ट सैंटों के अनुसार,
इस सम्बन्ध में पामर तथा परकिन्स (Parmer and Perkins) ने यह जिज्ञासा प्रकट की है कि यदि राज्यों के आपसी सम्बन्धों में बुद्धि और चातुर्य का अभाव है तो क्या राजनय असम्भव होगा ? स्पष्ट है कि राजनय दो अथवा दो से अधिक स्वतन्त्र राज्यों के मध्य स्थित सम्बन्ध है तदनुसार प्रत्येक राज्य बुद्धि, कुशलता एवं चातुर्य का प्रयोग करता है।
के0एम0 पनिक्कर के शब्दों में,
क्विन्सी राइट ((Quincy Wright) ने राजनय को दो अर्थों में परिभाषित किया है - लोकप्रिय अर्थ में तथा विशेष अर्थ में। लोकप्रिय अर्थ में -
इस परिभाषा की खास बात यह है कि लोकप्रिय अर्थ में राजनय को ऐसी सन्धि-वार्ता माना गया है जो दबाव पर नहीं वरन् समझाने-बुझाने पर आधारित रहती है। इसके विशेष अर्थ में राजनयज्ञों को राष्ट्रीय हित के प्रति भक्तिपूर्ण माना गया है। राजनीति शास्त्र में राजनय का लोकप्रिय अर्थ लागू नहीं होता। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में राजनय केवल वही कार्य करता है जहां दबाव की सम्भावनायें रहती हैं। राजनय द्वारा इन सम्भावनाओं को दबाया जाता है। राजनय का उद्देश्य समझौते करना है और समझौते केवल वहीं किये जाते हैं जहां कुछ असहमतियां हों। ये असहमतियां ऐसी होनी चाहिये जिनमें वार्ता द्वारा सहमति कायम की जा सके। पूर्ण सहमति के क्षेत्रों में राजनय अप्रासंगिक है तथा पूर्ण असहमति के क्षेत्रों में यह प्रभावहीन है। राबर्टो रेगेला (रॉबर्ट रेगाला) के अनुसार राजनय शब्द का काफी दुरुपयोग हुआ है। असल में राजनय एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें अनेक क्रियायें शामिल हो जाती हैं। यह दुनिया के ऐसे कुछ व्यवसायों में से एक है जिसकी परिधि में मानवीय क्रिया की प्रत्येक शाखा शामिल हो जाती है। इसका सम्बन्ध शक्ति राजनीति (Power politics) आर्थिक शक्ति एवं विचारधाराओं के संघर्ष से है। रेगेला राजनय को ‘समझौता वार्ता की कला’ मानता है। 1796 में एडमण्ड बर्क ने राजनय की परिभाषा देते हुए लिखा था कि राजनय अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का परिचालन अथवा संचालन है। जार्ज एफ0 केनन का कहना है कि तकनीकी अर्थ में राजनय की व्यवस्था सरकारों के बीच सम्पर्क के रूप में की जा सकती है।
इस प्रकार विभिन्न विचारकों ने राजनय की विभिन्न परिभाषायें दी हैं। ये सभी परिभाषायें पूर्णतः उपयुक्त नहीं हैं क्योंकि समय तथा परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ-साथ राजनय का अर्थ भी बदलता रहता है। अनेक विचारकों ने राजनय को केवल एक व्यवसाय (profession) ही नहीं वरन् एक कला (art) भी माना है। अधिकांश सरकारें अपने हितों की प्राप्ति एवं अभिवृद्धि के लिए इसे अपनाने लगी है। यह धीरे-धीरे शान्ति का एक प्रभावशाली साधन बनता जा रहा है। शुरु में राज्य असीमित शक्तियों से सम्पन्न होते थे फलतः राजनयज्ञां को सम्प्रभु माना जाता था। उन्हें कार्य करने की पर्याप्त स्वतंत्रता सौंपी जाती थी। इस स्वतंत्रता का अन्य कारण यह था कि उस समय संचार के द्रुतगामी साधनों का अभाव था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजनयिकों की यह व्यापक स्वतंत्रता सीमित होने लगी। उस समय राजनय की एक अन्य विशेषता यह भी थी कि राजनयज्ञों को उनके कार्य से सम्बन्धित आदेश तथा निर्देश देकर ही भेजा जाता था। आजकल संचार के तीव्रगामी साधनों की सुविधा के कारण यह आवश्यक नहीं रहा है।
राजनय को कुछ लोग एक रहस्यपूर्ण व्यवसाय मानते हैं। यह सही नहीं है। हूध गिबसन (Hugh Gibson) के अनुसार, ”असल में राजनय एक भ्रमसाध्य व्यवसाय है। यह जादू अथवा रहस्य से परे है। इसे किसी भी अन्य सरकारी कार्य की भांति एक गम्भीर व्यवसाय के रूप में देखा जा सकता है। पामर तथा परिकन्स (Parmer and Perkins) ने राजनय की कुछ विशेषताओं का वर्णन किया है। ये विशेषतायें राजनय के स्वरूप (nature) को स्पष्ट करने के लिए उपयोगी सिद्ध होगी। ये विशेषतायें निम्नलिखित हैं :-
निकलसन का यह कहना ठीक नहीं है कि युद्ध आरम्भ होने पर राजनयिक कार्य बन्द हो जाते हैं, क्योंकि पामर और परकिंस के विचार से राजनयज्ञों का कार्य देश की रक्षा करना है। अतः युद्ध के समय हाथ पर हाथ धर कर नहीं बैठते हैं, बल्कि उस समय वे सैनिक कार्यों में सहयोग देते हैं। इस प्रकार युद्धकाल में राजनयज्ञों का कार्य रुकता नहीं, बल्कि उनके कार्य का रूप बदल जाता है। युद्ध काल में राजनय का कार्य अधिक बढ़ जाता है। पिछले दो विश्वयुद्धों की घटनाओं के अवलोकन से यह बात स्पष्ट हो जाती है।
राजनय का स्वरूप समझने के लिए यह उपयोगी है कि विदेश नीति, अन्तर्राष्ट्रीय कानून एवं राजनयिक राजनीति से उसके सम्बन्ध तथा अन्तर का अध्ययन किया जाये।
प्राचीन भारत के राजवंशों व राज्यों में राजनय की सुदीर्घ परंपरा रही है। स्टेटक्राफ्ट व राजनय पर प्राचीनतम रचना अर्थशास्त्र है, जिसका श्रेय कौटिल्य (चाणक्य नाम से भी ख्यात) को जाता है, जो कि चन्द्रगुप्त मौर्य, मौर्य राजवंश के संस्थापक का प्रधान सलाहकार था, (चंद्रगुप्त ने 4थी शताब्दी ई.पू. में शासन किया)। अर्थशास्त्र राजत्व की कला पर एक संपूर्ण रचना है। इसमें राजनय के सिद्धांत भी हैं, जिसमें बताया है कि परस्पर स्पर्धी राज्यों के बीच किस प्रकार बुद्धिमान राजा गठजोड़ बनाए और अपने शत्रुओं को गतिरोध में डाले। उस समय राजदरबारों को भेजे गये दूत दीर्घ काल तक रुका करते थे। अर्थशास्त्र में दूतों के साथ व्यवहार संबंधी निर्देश हैं। कहा है कि - राजा के लिए सबसे बड़ी नैतिकता है कि उसका राज्य समृद्धि को प्राप्त करे आदि।
राष्ट्रीय कार्यक्रम को पूरा करने की विधि है, 'नीति'। यह आन्तरिक अथवा बाहरी कैसी भी हो सकती है। आन्तरिक नीति गृह-कार्यों से सम्बन्धित होती है जबकि विदेश नीति राष्ट्र की बाहरी व्यवस्थाओं सें। विदेश नीति और राजनय, राजनीति के वे पहिये हैं जिनकी सहायता से अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति चलती है। किसी राष्ट्र द्वारा अन्य राज्यों के सन्दर्भ में अपने ध्येयों की पूर्ति ही विदेश नीति है। ऐसी विदेश नीति के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता जो राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा करें। अतः विदेश नीति का अर्थ राज्य के उस व्यवहार के रूप में लिया जाता है जिसके माध्यम से राज्य अपने हितों की पूर्ति करते हैं।
अर्वाचीन युग में कोई राज्य अपने आप में पार्थक्य की नीति अपनाकर अलग रह सकें, यह सर्वथा असम्भव है। विदेश नीति का निर्माण बहुत सोच समझ कर किया जाता है क्योंकि इसी के सही निर्णय पर ही राज्य का भविष्य निर्भर करता है। विदेश नीति के निर्माण में राज्य को कई तत्वों का ध्यान रखना पड़ता है। उदाहरणार्थ, ब्रिटेन व जापान की विदेश नीति अपनी भौगोलिक स्थिति से गहरे रूप से प्रभावित रही है। राज्यों के प्राकृतिक स्रोत अथवा उनका सामरिक महत्व आदि राज्य की विदेश नीति को प्रभावित करते हैं। अविकसित राज्य, जो विभिन्न शक्तियों से सहायता प्राप्त करते रहते हैं तथा उन्हीं पर निर्भर रहते हैं, कभी भी स्वतन्त्र विदेश नीति का निर्माण नहीं कर सकते हैं। किसी देश की सैनिक शक्ति उसकी विदेश नीति को उत्साही बनाकर गलत मार्ग पर ले जाती है। जर्मनी, इटली और जापान ने सैनिक शक्ति के कारण ही अपने पड़ौसी राज्यों पर हमला किया और विश्व युद्ध का आह्वान किया।
राज्यों की राजनीति तथा उनकी विदेश नीति का निर्माण देश के राजनेता करते हैं, तो राजदूत इसका क्रियान्यवन। विदेशनीति के निर्धारण में राज्यों को राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के कई दृष्टिकोणों के ध्यान में रखना पड़ता है। जैसे राज्य की भौगोलिक स्थिति, आर्थिक आवश्यकताएं, प्राकृतिक स्रोत, प्रतिरक्षा की आवश्यकताएं तथा सन्धियां आदि। इसके माध्यम से विरोधी अथवा शत्रु पक्ष को शक्तिहीन अथवा मित्र राज्य को और भी अधिक गूढ़ मित्र बनाने का प्रयास किया जाता है। विदेश नीति के माध्यम से राज्यों के मध्य सन्तुलन बनाये रखने अथवा सामूहिक सुरक्षा आदि के कदम उठाये जाते हैं। विदेश नीति का मूल मन्त्र है ‘शत्रु का शत्रु मित्र है’। चीन ने इसी नीति के अन्तर्गत भारत के शत्रु पाकिस्तान के साथ मैत्री सम्बन्ध बनाये थे। इसी प्रकार विदेश नीति का उद्देश्य ‘तटस्थ सीमाओं’ की स्थापना भी है। सीमा के प्रश्न को लेकर राज्यों के मध्य सम्बन्ध प्रायः बिगड़ते हैं। भारत-पाकिस्तान, भारत-चीन, रूस-चीन आदि देशों के मध्य युद्ध अथवा युद्ध की स्थिति आती रही है। राज्यों की आर्थिक स्थिति, व्यापार और वाणिज्य आदि के सन्दर्भ में भी विदेशनीति के निर्णय लिये जाते हैं। सत्ता की प्राप्ति के प्रयासों में राज्य कभी-कभी अपने स्वतन्त्र निर्णय के अधिकार खो बैठते हैं। राज्य की विदेश नीति के निर्णय उसकी सामरिक स्थिति तथा सैनिक शक्ति पर निर्णय करते हैं। राज्य जितना अधिक सशक्त होगा उतनी ही सफल उसका राजनय होगा। फ्रैड्रिक महान के अनुसार,” शक्ति बिना राजनय ठीक वैसा ही है जैसा वाद्य़ बिना संगीत।“ संयुक्त राज्य अमेरिका का राजनय उसकी शक्ति के कारण ही सफल है। यदि कोई राज्य निर्बल हो तो वह स्वयं अन्य राज्यों का उस देश में हस्तक्षेप अथवा आक्रमण का निमन्त्रण देता है। पोलैण्ड के विभाजन, इटली का यूरोप की रणस्थली बनाना, हिटलर द्वारा आस्ट्रिया तथा चैकोस्लोवेकिया का विलय तथा चीन का भारत पर आक्रमण, राज्यों के शक्तिहीन होने के कारण ही सम्भव हुआ है।
नीति निर्माताओं द्वारा अपने उद्देश्यों को निर्धारित करने के पश्चात राज्य के समक्ष इन उद्देश्यों की प्राप्ति का प्रश्न आता है और यही राजनय का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। विदेश नीति के क्षेत्र में राज्य सक्रिय अथवा निष्क्रिय हो सकता है। यदि राज्य सक्रिय है तो राज्य के समक्ष चार विकल्प होते हैं, जिसके आधार पर वह कार्य करता है - राजनीतिक (राजनय) आर्थिक, मनोवैज्ञानिक तथा सैनिक। समय और परिस्थितिनुसार राज्य इनमे से कोई भी एक विकल्प अपना सकता है अथवा इसके सम्मिलित रूप का भी प्रयोग कर सकता है। निष्क्रियता वर्तमान अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में किसी भी राज्य के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। राज्य प्रायः राजनय के मार्ग का ही उपयोग करते हैं। विदेश नीति का उद्देश्य मित्र राज्यों के साथ सम्बन्धों के अधिक प्रगाढ़ और शत्रु पक्ष को निष्क्रिय बनाना होता है। राजनय वह साधन है जो वार्ता और चतुरता से इस उद्दश्य की प्राप्ति में सहायक होता है। विदेश नीति के उद्देश्यों की प्राप्ति का सर्वोच्च एवं महत्वपूर्ण साधन ही है। वास्तव में विदेश नीति ही राजनय का कौशल है। किसी भी विदेश नीति का निर्माण इन अधिकारियों का कार्य है, वही दूसरे देशों के संदर्भ में इसका क्रियान्वयन राजदूतों का। आज के इस जटिल युग में तकनीकी की दृष्टि से भले ही विदेश विभाग अकेला ही विदेश नीति का निर्माता माना जाता हो, परन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि राजदूत भी इसके निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। राजदूत की गतिविधियां उसके देश की विदेश नीति पर आधारित रहती है। यद्यपि यह सत्य है कि राजदूत इसके संचालन में स्वतन्त्र नहीं होते।
विदेश नीति और राजनय एक-दूसरे के पर्याय नहीं हैं। कुछ विद्वान इनका एक-दूसरे के स्थान पर बन्धन मुक्त प्रयोग करते हैं। इनमें पर्याप्त अन्तर है। विदेश नीति में राष्ट्रों के हितों की रक्षा, उनके मध्य सम्बन्धों की स्थापना तथा इन्हें बनाये रखने के प्रयास सम्मिलित हैं। जे0आर0 चाइल्डस के अनुसार “किसी भी देश की विदेश नीति उसके वैदेशिक सम्बन्धों का सार है” जबकि “राजनय वह प्रक्रिया है जिसकी सहायता से विदेश नीति कार्यान्वित किया जा सकता है।” सर चार्लस वैक्सटर के शब्दों में, “नीति की सबसे अधिक धारणायें भी व्यर्थ हैं यदि उनको क्रिया रूप में परिवर्तित करने के साधन नहीं हों।” यह कार्य राजनय करता है
राज्यों के मधय राजनयिक सम्बन्ध अति प्राचीन काल से चले आ रहे हैं। ये उतने ही प्राचीन हैं जितने कि राज्य। यूनान, रोम व प्राचीन भारत में राजनयिक सम्बन्ध अति व्यापक थे तथा इन सम्बन्धों को निर्धारित करने वाले नियम भी प्रतिपादित किये जा चुके थे। पुराने राजनय का अर्थ प्राचीन कालीन राजनय से कदापि नहीं है। इसका तात्पर्य सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में योरोप में प्रचलित राजनय से है। रिचलु द्वारा प्रतिपादित व कैलियर्स द्वारा व्याख्यायित राजनय को, जिसे पुराने राजनय की संज्ञा दी जाती है, सारे यूरोप ने स्वीकार किया था। यह राजनय अठारहवीं शताब्दी तक गोपनीयता के आधार पर सफलतापूर्वक चलता रहा। 1919 के पूर्व का राजनय पुराना राजनय था। 1815 की वियना की संधि और 1914 के प्रथम विश्वयुद्ध के बीच का काल प्रतिष्ठित राजनय का स्वर्णकाल था। यह निश्चित नियमों से बंधा था। इस समय का राजनय शिष्टता, अनुभव एवं वस्तुस्थित पर आधाारित था। यह विश्वास, स्पष्टता और यथार्थ को सफल राजनय का आधार मानता था। वार्ताएं गुप्त रूप से होती थीं। आवागमन व संदेह वाहन के साधनों के समुचित विकास के अभाव में राजनीयक प्रक्रिया की गति मंद थी। वार्ताएं धीरे-धीरे चलती रहती थीं। इसमें गतिरोध आने पर, इन्हें थोड़े समय के लिए स्थगित कर दिया जाता था, एवं अनुकूल समय व परिस्थिति आने पर इन्हें फिर चालू कर दिया जाता था। लोगों को कानोंकान खबर नहीं मिलती थी। 1907 में ऐंग्लो-रशन कन्वेन्शन की वार्ताएं पन्द्रह माह तक चलीं थी।
1918 के बाद राजनय का जो नया स्वरूप हमारे समक्ष आया उसे 'नवीन राजनय' की संज्ञा दी जाती थी। यद्यपि 1919 में राजनय की स्थिति में परिवर्तन आया, किन्तु 1919 का वर्ष वास्तव में कोई विभाजक रेखा नहीं है। निकलसन के अनुसार केवल इतना ही हुआ है कि राजनय ने नयी बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको बदल लिया है। जूलेस केम्बान का भी मत था कि पुराने तथा नए राजनय के मध्य भेद भ्रम है। रेगाला का तो यहां तक मत है कि भले ही कार्य करने की विधि में परिवर्तन आया हो, परन्तु आधुनिक नवीन राजनय अभी भी पुराने राजनय के कई गुणों को अपनाये हुए हैं। राजनय एक निरन्तर गतिशील व्यवस्था है। इसके आज के विचार तथा सिद्धान्तों का आधार सैंकड़ों वर्षों का अनुभव है। वे, जिन्होंने पुराने राजनय की कटु आलोचना की और नयी व्यवस्था को स्वीकार किया, जैसा राष्ट्रपति विलसन ने किया था, उन्हें भी शीघ्र ही पुरानी व्यवस्था पर फिर आना पड़ा था। खुले राजनय के इस युग में सन्धि वार्ताएं आज भी गुप्त चलती हैं। इतना सब कुछ लिखने के बाद भी इस बात से नकारा नहीं जा सकता है कि यद्यपि टेलरां और बिस्मार्क तथा किसिंगर के द्वारा प्रयुक्त राजनय के साधनों में विभाजन रेखा खींची जा सकती है, तथापि राजनयिक विचारधारा में क्रान्तिकारी परिर्वतन आये हैं। आज राजनय कुछ गिने चुने व्यक्तियों राजा-महाराजाओं अथवा उनके प्रिय पात्रों द्वारा संचालित न होकर जनता तथा उनके प्रतिनिधियों द्वारा चलाया जाता है।
अलग अलग देशो में राजनय सिखाने के लिए महाविद्यालय खोले गए हैं। भारत में आंतरराष्ट्रीय दूतावास में सरकारी अफसरों के भेजने से पहले उन्हें मसूरी में शिक्षा प्रदान की जाती है।
Seamless Wikipedia browsing. On steroids.
Every time you click a link to Wikipedia, Wiktionary or Wikiquote in your browser's search results, it will show the modern Wikiwand interface.
Wikiwand extension is a five stars, simple, with minimum permission required to keep your browsing private, safe and transparent.