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हिन्दी का मानक स्वरूप विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
मानक हिन्दी, हिन्दी का एक मानक स्वरूप है जिसका शिक्षा, कार्यालयीन कार्यों आदि में प्रयोग किया जाता है। भाषा का क्षेत्र देश, काल और पात्र की दृष्टि से व्यापक है। इसलिये सभी भाषाओं के विविध रूप मिलते हैं। इन विविध रूपों में एकता का प्रयत्न किया जाता है और उसे मानक भाषा कहा जाता है।
हिन्दी में ‘मानक भाषा’ के अर्थ में पहले ‘साधु भाषा’, ‘टकसाली भाषा’, ‘शुद्ध भाषा’, ‘आदर्श भाषा’ तथा ‘परिनिष्ठित भाषा’ आदि का प्रयोग होता था। वह जो कड़ा होकर, स्पष्टतः औरों से अलग प्रतिमान का काम करे। ‘मानक भाषा’ भी अमानक भाषा-रूपों से अलग एक प्रतिमान का काम करती है। उसी के आधार पर किसी के द्वारा प्रयुक्त भाषा की मानकता अमानकता का निर्णय किया जाता है।
‘मानक भाषा’ को लोगों ने तरह-तरह से स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। रॉबिन्स (१९६६) के अनुसार सामाजिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण लोगों की बोली को मानक भाषा का नाम दिया जाता है। स्टिवर्ट (१९६८) ने प्रकृति, आंतरिक व्यवस्था तथा सामाजिक प्रयोग आदि के आधार पर भाषा के विभिन्न प्रकारों में अंतर दिखाने के लिए चार आधार माने हैं।
‘ऐतिहासिकता’ का अर्थ है, भाषा की प्राचीन परम्परा और काल की दृष्टि से उसका विकास। अधिकांश भाषाएँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फिर दूसरी से तीसरी तक और ऐसे ही आगे पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती रहती हैं। यही उनकी ऐतिहासिकता है। यह उल्लेख है कि एस्पिरैंतो, इदो, लौंग्लन जैसी कृतिम भाषाओं में इस ऐतिहासिकता का अभाव होता है।
अर्थात भाषा को एक मानक रूप देना। ऐसा रूप जिसमें प्राप्त सभी विकल्पों में एक को मानक मान लिया गया हो तथा जिस भाषा रूप को उस भाषा के सारे बोलने वाले मानक स्वीकार करते हों। यह बात ध्यान देने की है कि सारे विश्व की अधिकांश समुन्नत भाषाओं का मानक रूप होता है, जबकि अवभाषा (वर्नाक्यूलर), बोली क्रियोल आदि का मानक रूप नहीं होता। मानकीकरण के कारण ही कोई भाषा अपने पूरे क्षेत्र में शब्दावली तथा व्याकरण की दृष्टि से समरुप होती है, इसीलिए वह सभी लोगों के लिए बोधगम्य भी होती है। साथ ही वह सभी लोगों द्वारा मान्य होती है अतः अन्य भाषा रूपों की तुलना में वह अधिक प्रतिष्ठित भी होती है।
अर्थात भाषा का प्रयोक्ता कोई समाज हो जिसमें बोलचाल तथा लेखन आदि में उस भाषा का प्रयोग होता हो। जीवन्त भाषा में निरन्तर विकास होता रहता है। विश्व में बोली जाने वाली सभी भाषाओं और बोलियों में जीवन्तता मिलती है। हाँ, संस्कृत, लैटिन, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश जैसी पुरानी या क्लासिक भाषाएँ आज सामान्य प्रयोग में नहीं हैं, इसीलिए उनमें जीवन्तता नहीं मानी जा सकती।
स्वायत्तता से आश्य है अपने अस्तित्व के लिए किसी भाषा का किसी अन्य भाषा पर निर्भर न होना। सामान्यतः भाषाएँ स्वायत्त होती हैं, किन्तु बोलियाँ स्वायत्त नहीं होतीं; वे अपने अस्तित्व के लिए भाषा पर निर्भर करती हैं। इसीलिए हमें प्रत्येक बोली के लिए यह कहना पड़ता है कि वह बोली अमुक भाषा की है किन्तु भाषा के सम्बन्ध में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है।
इन आधारों को लेकर हम विचार करें तो क्लासिक भाषा में ऐतिहासिकता होती है, मानकता होती है, किन्तु जीवन्तता नहीं होती, बोली में मानकता तथा स्वायत्तता नहीं होती, अवभाषा (वर्नाक्यूलर) में मानकता नहीं होती क्रतिम भाषा में केवल मानकता होती है, पिजिन में मात्र ऐतिहासिकता होती है, क्रियोल में अन्य सभी होती है, किन्तु मानकता नहीं होती। मानक भाषा में ये चारो ही विशेषताएँ होती हैं। वस्तुतः स्टिवर्ट की ये बातें यह तो बतलाती हैं कि मानक भाषा में उपर्युक्त चार विशेषताएँ होती हैं, ‘किन्तु मानक भाषा में मानकता भी होती है’ का तब तक कोई अर्थ नहीं, जब तक कि हम यह न बताएँ कि मानकता क्या है।
मानकता में निम्नांकित बातें आती हैं—
‘मानक भाषा’ किसी भाषा के उस रूप को कहते हैं जो उस भाषा के पूरे क्षेत्र में शुद्ध माना जाता है तथा जिसे उस प्रदेश का शिक्षित और शिष्ट समाज अपनी भाषा का आदर्श रूप मानता है और प्रायः सभी औपचारिक परिस्थितियों में, लेखन में, प्रशासन और शिक्षा, के माध्यम के रूप में यथासाध्य उसी का प्रयोग करने का प्रयत्न करता है।
भाषाओं को मानक रूप देने की भावना जिन अनेक कारणों से विश्व में जगी, उनमें सामाजिक आवाश्यकता, प्रेस का प्रचार, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास से एकरूपता के प्रति रूझान तथा स्व की अस्मिता आदि मुख्य हैं। यहाँ इनमें एक-दो को थोड़े विस्तार से देख लेना अन्यथा न होगा। उदाहरण के लिए मानक भाषा की सामाजिक आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। किसी भी क्षेत्र को लें, सभी बोलियों में प्रशासन साहित्य-रचना, शिक्षा देना या आपस में बातचीत कठिन भी है, अव्यावहारिक भी। हिन्दी की ही बात लें तो उसकी बीस-पच्चीस बोलियों में ऐसा करना बहुत सम्भव नहीं है। आज तो कुमायूंनी भाषी नामक हिन्दी जरिए मैथिली भाषी से बातचीत करता है किन्तु यदि मानक हिन्दी न होती तो दोनों एक दूसरे की बात समझ न पाते। सभी बोलियों में अन्य बोलियों के साहित्य का अनुवाद भी साधनों की कमी से बहुत सम्भव नहीं है, ऐसी स्थिति में शैलेश मटियानी (कुमायूँनी भाषा) के साहित्य का आनन्द मैथिली भाषी नहीं ले सकता था, न नागार्जुन (मैथिली भाषी) के साहित्य का आनन्द कुमायूँनी, गढ़वाली या हरियानी भाषी। इस प्रकार सभी बोलियों के ऊपर एक मानक भाषा को इसलिए आरोपित करना, अच्छा या बुरा जो भी हो, उसकी सामाजिक अनिवार्यता है और इसलिए विभिन्न क्षेत्रों में कुछ मानक भाषाएँ स्वयं विकसित हुई हैं, कुछ की गई हैं और उन्होंने उन क्षेत्रों को अधिक दूर-दूर तक समझे जानेवाले माध्यम के रूप में अनन्त सुविधाएं प्रदान की हैं। ऐसे ही प्रेस के अविष्कार तथा प्रचार ने भी मानकता को अनिवार्य बनाया है।
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