महावीर
जैन पन्थ के 24वें तीर्थंकर / From Wikipedia, the free encyclopedia
भगवान महावीर (Mahāvīra) जैन धर्म के चौंबीसवें (24वें) तीर्थंकर थे। भगवान महावीर का जन्म करीब ढाई हजार वर्ष पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व), वैशाली गणराज्य के क्षत्रियकुंड में क्षत्रिय परिवार हुआ था। तीस वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राज वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गये। 12 वर्षो की कठिन तपस्या के बाद उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ जिसके पश्चात् उन्होंने समवशरण में ज्ञान प्रसारित किया। 72 वर्ष की आयु में उन्हें पावापुरी से मोक्ष की प्राप्ति हुई। इस दौरान महावीर स्वामी के कई अनुयायी बने जिसमें उस समय के प्रमुख राजा बिम्बिसार, कुणिक और चेटक भी शामिल थे। जैन समाज द्वारा महावीर स्वामी के जन्म दिवस को महावीर-जयंती तथा उनके मोक्ष दिवस को दीपावली के रूप में धूम धाम से मनाया जाता है। कार्तिक शुक्ल एकम को निर्वाण लाडू चढ़ाया जाता हैं।
महावीर | |
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चौबीसवें तीर्थंकर | |
विवरण | |
अन्य नाम | वीर, वर्धमान |
एतिहासिक काल | ल॰ ५९९ – ५२७ ई॰पू॰ |
शिक्षाएं | अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्तवाद |
पूर्व तीर्थंकर | पार्श्वनाथ |
गृहस्थ जीवन | |
वंश | ज्ञातिय |
पिता | राजा सिद्धार्थ |
माता | त्रिशला |
पंच कल्याणक | |
जन्म कल्याणक | चैत्र शुक्ल त्रयोदशी |
जन्म स्थान | क्षत्रियकुंड, वैशाली के निकट |
मोक्ष | कार्तिक कृष्ण अमावस्या |
मोक्ष स्थान | पावापुरी, जिला नालंदा, बिहार |
लक्षण | |
रंग | स्वर्ण |
चिन्ह | सिंह |
आयु | 72 वर्ष |
शासक देव | |
यक्ष | मातंग |
यक्षिणी | सिद्धायिका |
गणधर | |
प्रथम गणधर | गौतम गणधर |
गणधरों की संख्य | ११ |
जैन ग्रन्थों के अनुसार समय–२ पर धर्म तीर्थ के प्रवर्तन के लिए तीर्थंकरों का जन्म होता है, जो सभी जीवों को आत्मिक सुख प्राप्ति का उपाय बताते है। तीर्थंकरों की संख्या चौबीस ही कही गयी है। भगवान महावीर वर्तमान अवसर्पिणी काल की चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर थे और हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर का जन्म हुआ। उन्होंने दुनिया को सत्य,अहिंसा का पाठ पढ़ाया। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक गुण बताया।उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो है– अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) ,ब्रह्मचर्य। उन्होंने अनेकांतवाद, स्यादवाद और अपरिग्रह जैसे अद्भुत महाव्रती सिद्धान्त दिए। महावीर के सर्वोदयी तीर्थों में क्षेत्र, काल, समय या जाति की सीमाएँ नहीं थीं। भगवान महावीर का आत्म धर्म जगत की प्रत्येक आत्मा के लिए समान था। दुनिया की सभी आत्मा एक-सी हैं इसलिए हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसन्द हो। यही महावीर का 'जियो और जीने दो' का सिद्धान्त है।