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भारत के संविधान में निहित अधिकारों का चार्टर है। विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
मौलिक अधिकार भारत के संविधान के भाग 3 (अनुच्छेद 12 से 35) वर्णित भारतीय नागरिकों को प्रदान किए गए वे अधिकार हैं जो सामान्य स्थिति में सरकार द्वारा सीमित नहीं किए जा सकते और जिनकी सुरक्षा का प्रहरी सर्वोच्च न्यायालय हैं।
ये अधिकार "मौलिक" के रूप में जाने जाते हैं क्योंकि ये सभी प्रकार के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक हैं, जैसे कि भौतिक, बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक, और इन्हें देश के मौलिक कानून यानी संविधान द्वारा सुरक्षित किया गया है। यदि संविधान द्वारा प्रदान किए गए अधिकार, विशेष रूप से मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय अनुच्छेद 32 और 226 के तहत वारंट (रिट) जारी कर सकते हैं, जो राज्य मशीनरी को मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए निर्देशित करते हैं।
अधिकारों का शाब्दिक अर्थ उन स्वतंत्रं से है जो व्यक्तिगत भलाई के साथ-साथ समुदाय की भलाई के लिए भी आवश्यक हैं।भारत के संविधान में प्रदत्त अधिकार मौलिक हैं, क्योंकि उन्हें देश के मौलिक कानून में शामिल किया गया है और वे न्यायालय में प्रवर्तनीय हैं। हालांकि, इसका यह अर्थ नहीं है कि ये अधिकार पूर्ण या संवैधानिक संशोधन से अप्रभावित हैं।[1]
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि मौलिक अधिकारों में संसद द्वारा संशोधन किया जा सकता है, लेकिन ऐसा संशोधन संविधान की मूल संरचना के विपरीत नहीं होना चाहिए।[2]
मौलिक अधिकारों की पहली मांग 1895 में "भारत का संविधान विधेयक" के रूप में सामने आई। यह विधेयक, जिसे लोकप्रिय रूप से स्वराज विधेयक 1895 के नाम से जाना जाता है, भारतीय राष्ट्रवाद के उदय और भारतीयों द्वारा स्वशासन की बढ़ती आवाज़ों के दौरान लिखा गया था। इसमें भाषण की स्वतंत्रता, गोपनीयता का अधिकार, मताधिकार का अधिकार आदि का उल्लेख किया गया था।
आगामी समय में विभिन्न प्रयास किए गए, जिसमें ब्रिटिश सरकार से भारतीयों को अधिकार प्रदान करने की मांग की गई। ये मांगें 1917 और 1919 के बीच भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा विभिन्न रिपोर्टों और विधेयकों के माध्यम से प्रस्तावित की गई थीं।
1919 में, रॉलेट एक्ट ने ब्रिटिश सरकार को व्यापक शक्तियाँ दीं, जिसके तहत लोगों को अनिश्चितकाल तक गिरफ्तार और हिरासत में रखने, वारंट के बिना तलाशी और जब्ती करने, सार्वजनिक सभाओं पर प्रतिबंध लगाने और मीडिया व प्रकाशनों पर कड़ी सेंसरशिप लगाने की अनुमति दी गई। इस अधिनियम के विरोध में देशभर में बड़े पैमाने पर अहिंसक सविनय अवज्ञा अभियानों की शुरुआत हुई, जिसमें नागरिक स्वतंत्रताओं की गारंटी और सरकारी शक्ति पर सीमाओं की मांग की गई। भारत के लोग, जो स्वतंत्रता और अपना स्वयं का शासन चाहते थे, विशेष रूप से आयरलैंड की स्वतंत्रता और उसके संविधान के विकास से प्रभावित थे। साथ ही, आयरिश संविधान के राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों को स्वतंत्र भारत की सरकार के लिए प्रेरणा के रूप में देखा गया, ताकि वे एक विशाल और विविध जनसंख्या के बीच जटिल सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का समग्र समाधान कर सकें।
1928 में, नेहरू आयोग, जिसमें भारतीय राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि शामिल थे, ने भारत के लिए संवैधानिक सुधारों का प्रस्ताव रखा। इसमें भारत के लिए डोमिनियन स्टेटस की मांग के साथ-साथ सार्वभौमिक मताधिकार के तहत चुनावों की बात की गई और मौलिक अधिकारों की गारंटी, धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों के लिए प्रतिनिधित्व और सरकार की शक्तियों को सीमित करने का प्रस्ताव किया गया। 1931 में, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (जो उस समय की सबसे बड़ी भारतीय राजनीतिक पार्टी थी) ने प्रस्ताव पारित कर मौलिक नागरिक अधिकारों की रक्षा के साथ-साथ न्यूनतम वेतन और छुआछूत और बंधुआ मजदूरी की समाप्ति जैसे सामाजिक-आर्थिक अधिकारों की वकालत की।[3] 1936 में समाजवाद को अपनाते हुए, कांग्रेस नेताओं ने सोवियत संघ के संविधान से प्रेरणा ली, जिससे नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों की अवधारणा विकसित हुई, ताकि राष्ट्रीय हितों और चुनौतियों के प्रति सामूहिक देशभक्तिपूर्ण ज़िम्मेदारी सुनिश्चित की जा सके।
भारत ने 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता प्राप्त की, जिसके बाद देश के लिए संविधान विकसित करने का कार्य भारतीय संविधान सभा द्वारा किया गया। यह सभा राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में चुने गए प्रतिनिधियों से बनी थी। कांग्रेस के सदस्यों की इसमें बड़ी संख्या थी, लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने संविधान और राष्ट्रीय कानूनों को विकसित करने की ज़िम्मेदारी विभिन्न राजनीतिक पृष्ठभूमियों से जुड़े लोगों को सौंपी।[4] विशेष रूप से, बी. आर. अंबेडकर को मसौदा समिति का अध्यक्ष बनाया गया, जबकि जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल विभिन्न विषयों के लिए जिम्मेदार समितियों और उप-समितियों के अध्यक्ष बने। इस दौरान एक महत्वपूर्ण घटना 10 दिसंबर 1948 को हुई, जब संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा को स्वीकार किया और सभी सदस्य राज्यों से अपने संविधान में इन अधिकारों को अपनाने का आह्वान किया, जिसका भारतीय संविधान पर भी गहरा प्रभाव पड़ा।
मौलिक अधिकारों को मसौदा समिति द्वारा तैयार किए गए प्रथम मसौदा संविधान (फरवरी 1948), द्वितीय मसौदा संविधान (17 अक्टूबर 1948), और अंतिम तृतीय मसौदा संविधान (26 नवंबर 1949) में शामिल किया गया था।
भारतीय संविधान मे जितने विस्तृत और व्यापक रूप से इन अधिकारों का उल्लेख किया गया है उतना संसार के किसी भी लिखित संघात्मक संविधान में नहीं किया गया है। मूल अधिकारों से सम्बन्धित उपबन्धों का समावेश आधुनिक लोकतान्त्रिक विचारों की प्रवृत्ति के अनुकूल ही है। सभी आधुनिक संविधानों में मूल अधिकारों का उल्लेख है। इसलिए संविधान के अध्याय 3 को भारत का अधिकार - पत्र (Magna carta) कहा जाता है। इस अधिकार-पत्र द्वारा ही अंग्रेजों ने सन् 1215 में इंग्लैण्ड के सम्राट जॉन से नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा प्राप्त की थी। यह अधिकार-पत्र मूल अधिकारों से सम्बन्धित प्रथम लिखित दस्तावेज है। इस दस्तावेज को मूल अधिकारों का जन्मदाता कहा जाता है। इसके पश्चात् समय-समय पर सम्राट् ने अनेक अधिकारों को स्वीकृति प्रदान की। अन्त में 1689 में बिल ऑफ राइट्स (Bill of Rights) नामक दस्तावेज लिखा गया जिसमें जनता को दिये गये सभी महत्वपूर्ण अधिकारों एवं स्वतन्त्रताओं को समाविष्ट किया गया। फ्रांस में सन् 1789 में जनता के मूल अधिकारों की एक पृथक् प्रलेख में घोषणा की गयी, जिसे मानव एवं नागरिकों के अधिकार घोषणा-पत्र के नाम से जाना जाता है। इसमें उन अधिकारों को प्राकृतिक अप्रतिदेय (inalienable) और मनुष्य के पवित्र अधिकारों के रूप में उल्लिखित किया गया है; यह दस्तावेज एक लम्बे और कठिन संघर्ष का परिणाम था।[5]
भारतीय संविधान की जब रचना की जा रही थी तो इन अधिकारों के बारे में एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि तैयार थी। इन सबसे प्रेरणा लेकर संविधान निर्माताओं ने मूल अधिकारों को संविधान में समाविष्ट किया। भारतीय संविधान में मूल अधिकारों की कोई परिभाषा नहीं की गई है। संविधानों की परम्परा प्रारम्भ होने के पूर्व इन अधिकारों को प्राकृतिक और अप्रतिदेय अधिकार कहा जाता था, जिसके माध्यम से शासकों के ऊपर अंकुश रखने का प्रयास किया गया था।
मूल संविधान में सात मौलिक अधिकार थे परन्तु वर्तमान में छः ही मौलिक अधिकार हैं| संविधान के भाग ३ में सन्निहित अनुच्छेद १२ से ३५ मौलिक अधिकारों के संबंध में है जिसे सऺयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिया गया है ।[6] मौलिक अधिकार[7] सरकार को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अतिक्रमण करने से रोकने के साथ नागरिकों के अधिकारों की समाज द्वारा अतिक्रमण से रक्षा करने का दायित्व भी राज्य पर डालते हैं। संविधान द्वारा मूल रूप से सात मूल अधिकार प्रदान किए गए थे- समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म, संस्कृति एवं शिक्षा की स्वतंत्रता का अधिकार, संपत्ति का अधिकार तथा संवैधानिक उपचारों का अधिकार। हालांकि, संपत्ति के अधिकार को 1978 में 44वें संशोधन द्वारा संविधान के तृतीय भाग से हटा दिया गया था [8]
मौलिक अधिकार नागरिक और रहेवासी को राज्य की मनमानी या शोषित नीतियो और कार्यवाही के सामने रक्षण प्रदान करने के लिए दिये गए। संविधान के अनुच्छेद १२ मे राज्य की परिभाषा दी हुई है की “राज्य” के अंतर्गत भारत की सरकार और संसद तथा राज्यों में से प्रत्येक राज्य की सरकार और विधान- मंडल तथा भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी हैं।[9]
अनुच्छेद 14 से 18 के अंतर्गत निम्न अधिकार कानून के समक्ष समानता संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से उद्धृत है।
अनुच्छेद (19-22) के अंतर्गत भारतीय नागरिकों को निम्न अधिकार प्राप्त हैं-
इनमें से कुछ अधिकार राज्य की सुरक्षा, विदेशी राष्ट्रों के साथ भिन्नतापूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता के अधीन दिए जाते हैं।
अनुच्छेद (23-24) के अंतर्गत निम्न अधिकार वर्णित हैं-
अनुच्छेद(25-28) के अंतर्गत धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार वर्णित हैं, जिसके अनुसार नागरिकों को प्राप्त है-
अनुच्छेद(29-30) के अंतर्गत प्राप्त अधिकार-
अनुच्छेद(32) के अनुसार कुछ विधियों के व्यावृत्ति का प्रावधान किया गया है-
डॉ॰ भीमराव अंबेडकर ने संवैधानिक उपचारों के अधिकार (अनुच्छेद 32-35) को 'संविधान का हृदय और आत्मा' की संज्ञा दी थी।[12] सांवैधानिक उपचार के अधिकार के अन्दर ५ प्रकार के प्रावधान हैं-
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