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झारखंड, पश्चिम बंगाल और ओडिशा का नृृत्य विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
छऊ नृत्य, जिसे छौ नाच भी कहा जाता है, मार्शल और लोक परंपराओं वाला एक अर्ध शास्त्रीय भारतीय नृत्य है। यह तीन शैलियों में पाया जाता है जिनका नाम उस स्थान के नाम पर रखा गया है जहां उनका प्रदर्शन किया जाता है, यानी पश्चिम बंगाल का पुरुलिया छऊ, झारखण्ड का सरायकेला छऊ और ओडिशा का मयूरभंज छऊ।[1][2][3]
2010 में, छाऊ नृत्य को यूनेस्को की मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची में शामिल किया गया था।
छऊ नृत्य मुख्य तरीके से क्षेत्रिय त्योहारों में प्रदर्शित किया जाता है। ज्यादातर वसंत त्योहार के चैत्र पर्व पर होता हैं जो तेरह दिन तक चलता है और इसमेें पूरा सम्प्रदाय भाग लेता हैं। इस नृत्य में सम्प्रिक प्रथा तथा नृत्य का मिश्रण हैं और इसमें लड़ाई की तकनीक एवं पशु कि गति और चाल को प्रदर्शित करता हैं। गांव ग्रह्णि के काम-काज पर भी नृत्य प्रस्तुत किय जाता है। इस नृत्य को पुरुष नर्तकी करते हैं जो परम्परागत कलाकार हैं या स्थानीय समुदाय के लोग हैं। ये नृत्य ज्यादातर रात को एक अनाव्रित्य क्षेत्र में किया जाता है जिसे अखंड या असार भी कहा जाता है। परम्परागत एवं लोक संगीत के धुन में यह नृत्य प्रस्तुत किया जाता हैं। इसमें मोहुरि एवं शहनाई का भी इस्तेमाल होता है। इसके अतिरिक्त तरह-तरह के ढोल, धुम्सा और खर्का आदि लोक वाद्यों का भी प्रयोग होता है। नृत्य के विषय में कभी-कभी रामायण और महाभारत की घटना का भी चित्रण होता है। छऊ नृत्य मूल रूप से मुंडा, भूमिज, महतो, कलिन्दि, पत्तानिक, समल, दरोगा, मोहन्ती, भोल, आचार्या, कर, दुबे और साहू सम्प्रदाय के लोगों द्वारा किया जाता हैं। छऊ नाच के संगीत मुखी, कलिन्दि, धदा के द्वारा दिया जाता है। छऊ नृत्य में एक विशेष तरह का मुखौटा का इस्तेमाल होता हैं जो बंगाल के पुरुलिया और सरायकेला के आदिवासी महापात्र, महारानी और सूत्रधर के द्वारा बनाया जाता है। नृत्य संगीत और मुखौटा बनाने की कला और शिल्प मौखिक रूप से प्रेषित किया जाता है।
छऊ नृत्य मूल रूप से भूमिज, मुण्डा, कुम्हार, कुड़मी महतो, डोम, खंडायत, तेली, पत्तानिक, समल, दरोगा, मोहन्ती, भोल, आचार्या, कर, दुबे और साहू सम्प्रदाय के लोगो के द्वारा किया जाता है। छऊ नाच के संगीत मुखि, कलिन्दि, धदा के द्वारा दिया जाता हैं। छऊ नृत्य में एक विशेष तरह का मुखौटा का इस्तेमाल होता है, जो पश्चिम बंगाल के पुरुलिया और सरायकेला के सम्प्रदायिक महापात्र, महारानी और सूत्रधर के द्वारा बनाया जाता है। नृत्य संगीत और मुखौटा बनाने की कला और शिल्प मौखिक रूप से प्रेषित किय जाता है। यह मुख्यत: क्षेत्रीय त्योहारों में प्रदर्शित किया जाता है। वसंत त्योहार के चैत्र पर्व पर तेरह दिन तक छऊ नृत्य का समारोह चलता है। हर वर्ग के लोग इस नृत्य में भाग लेते हैं।
छऊ नृत्य की तीन शैलियां हैं। सरायकेला छऊ सरायकेला में विकसित हुआ, जब यह कलिंग के गजपति शासन के अधीन था, जो वर्तमान में झारखण्ड के सरायकेला खरसावाँ जिले का प्रशासनिक मुख्यालय है, पुरुलिया छऊ पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में बाघमुंडी के भूमिज राजा के शासनकाल विकसित हुआ और मयूरभंज छाऊ ओडिशा के मयूरभंज जिले में प्रदर्शित किया जाता है। पुरुलिया छऊ (मानभूम छऊ) की उत्पत्ति भूमिज जनजाति के फिरकल लोकनृत्य से हुई थी, तथा मयूरभंज छऊ रामलीला नाटकों से प्रेरित थी। तीनों उप-शैलियों में सबसे प्रमुख अंतर मुखौटे के उपयोग है। छऊ की सरायकेला और पुरुलिया शैलियों में नृत्य के दौरान मुखौटों का उपयोग होता है, जबकि मयूरभंज छऊ किसी भी मुखौटे का उपयोग नहीं होता।[4]
झारखण्ड की सेरायकेला छऊ की तकनीक और प्रदर्शनों की सूची इस क्षेत्र के पूर्ववर्ती कुलीनों द्वारा विकसित की गई थी, जो इसके कलाकार और गुरु दोनों थे, और आधुनिक युग में सभी पृष्ठभूमि के लोग इसे नृत्य करते हैं। सरायकेला छऊ को प्रतीकात्मक मुखौटों के साथ प्रदर्शित किया जाता है, और अभिनय उस भूमिका को स्थापित करता है जिसे अभिनेता निभा रहा है। पुरुलिया छऊ में निभाए जा रहे चरित्र के आकार के व्यापक मुखौटों का उपयोग किया जाता है; उदाहरण के लिए, एक शेर के पात्र के चेहरे पर शेर का मुखौटा होता है और शारीरिक वेशभूषा भी होती है और अभिनेता चारों पैरों पर चलता है। ये मुखौटे कुम्हारों द्वारा तैयार किए जाते हैं और इन्हें मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले से प्राप्त किया जाता है। मयूरभंज में छऊ का प्रदर्शन बिना मुखौटे के किया जाता है और तकनीकी रूप से यह सरायकेला छऊ के समान है।[5]
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