छांदोग्य उपनिषद
उपनिषद / From Wikipedia, the free encyclopedia
छांदोग्य उपनिषद् सामवेदीय छान्दोग्य ब्राह्मण का औपनिषदिक भाग है जो प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है।[1] यह उपनिषद ब्रह्मज्ञान के लिये प्रसिद्ध है। संन्यासप्रधान इस उपनिषद् का विषय अपाप, जरा-मृत्यु-शोकरहित, विजिधित्स, पिपासारहित, सत्यकाम, सत्यसंकल्प आत्मा की खोज तथा सम्यक् ज्ञान है जो 8-7-1 में उल्लिखित इन्द्र को दिए गए प्रजापति के उपदेश में उल्लिखित है। इस उपनिषद की वर्णनशैली अत्यन्त क्रमवद्ध और युक्तियुक्त है।इसमें तत्त्वज्ञान और उसके लिये उपयोगी कर्म तथा उपासनाओं का बड़ा विशद वर्णन है। [2]
छान्दोग्य | |
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देवनागरी | छान्दोग्य |
Date | ८वीं से ६वीं शताब्दी ईसापूर्व |
Type | मुख्य उपनिषद |
Linked Veda | सामवेद |
Chapters | आठ |
Philosophy | आत्मा की समरूपता |
Popular verse | तत्त्वमसि |
आठवें प्रपाठक के १५वें खण्ड के अनुसार इसका प्रवचन ब्रह्मा ने प्रजापति को, प्रजापति ने मनु को और मनु ने अपने पुत्रों को किया जिनसे इसका जगत् में विस्तार हुआ। यह निरूपण बहुधा ब्रह्मविदों ने संवादात्मक रूप में किया। श्वेतकेतु और उद्दालक, श्वेतकेतु और प्रवाहण जैबलि, सत्यकाम जाबाल और हारिद्रुमत गौतम, कामलायन उपकोसल और सत्यकाम जाबाल, औपमन्यवादि और अश्वपति कैकेय, नारद और सनत्कुमार, इंद्र और प्रजापति के संवादात्मक निरूपण उदाहरण सूचक हैं।